फलानुमेयप्रामाण्यवाद (Pragmatism) अँग्ररेजी के 'प्रैगमैटिज़्म' (Pragmatism) का समानार्थवाची शब्द है और प्रैगमैटिज़्म शब्द यूनानी भाषा के 'Pragma' शब्द से, जिसका अर्थ 'क्रिया' या 'कर्म' होता है, बना है। तदनुसार 'फलानुमेय प्रामाण्यवाद' एक ऐसी विचारधारा है जो ज्ञान के सभी क्षेत्रों में उसके क्रियात्मक प्रभाव या फल को एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान देती है। इसके अनुसार हमारी सभी वस्तुविषयक धारणाएँ उनके संभव व्यावहारिक परिणामों की ही धारणाएँ होती हैं। अत: किसी भी बात या विचार को सही सही समझने के लिए उसके व्यावहारिक परिणामों की परीक्षा करना आवश्यक है।

यों तो इस सिद्धांत के कतिपय समर्थक इसे यूनानी विचारक प्रोटेगोरस (Protagoras) के 'मनुष्य सब वस्तुओं की माप है' (Man is the measure of all things) - इस कथन से संबंधित करते हैं, और सुकरात एवं अरस्तू आदि प्राचीन दार्शनिकों को भी प्रैगमैटिक विधि के प्रयोक्ता बतलाते हैं; परंतु वस्तुत: यह एक आधुनिक विचारधारा है, और इसके प्रमुख प्रतिपादक हैं अमरीका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक पंडित विलियम जेम्स (१८४२-१९१०) और शिक्षाशास्त्री जॉन ड्युई (John Dewey, 1859-1952) तथा ग्रेट ब्रिटेन के डाक्टर एफ. सी. एस. शिलर (Schiller, 1864-1927)। डा. शिलर ने मानवीयतावाद (Humanism) नामक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है जिसे वास्तव में फलानुमेय प्रामाण्यवाद की एक शाखा ही समझना चाहिए। जेम्स की तो प्राय: सभी कृतियाँ इस विचारधारा पर आधारित हैं। जेम्स प्राय: अध्यात्मवाद के, विशेषतया हेगेलीय अध्यात्मवाद के, कट्टर विरोधी थे। उन्हें प्रयोगप्रिय एवं बाह्यवस्तुवादी अमरीकी जनता का वैचारिक प्रतिनिधि कहना अनुचित न होगा। जब वह सत्य के एक ऐसे मापदंड के विचार में लगे थे जो अध्यात्मवादी मापदंड से सर्वथा भिन्न हो, उन्होंने जनवरी, सन् १८७८ ई. के 'पौप्यूलर साइंस' नामक एक अमरीकी मासिकपत्र में, चार्ल्स पीअर्स (charles Pierce) लिखित 'हम अपने विचारों को स्पष्ट कैसे बनाएँ' (How to make our ideas clear) - लेख पढ़ा, और उसमें आधनिक फलानुमेय प्रामाण्यवाद की मूलभूत रूपरेखा पाकर उन्हें यह विश्वास हो गया कि सत्य या सत्यज्ञान की कसौटी यही है। पीअर्स को, जैसा स्वयं उन्होंने ही कहा है, फलानुमेयप्रामाण्यवाद का सभानार्थवाची 'प्रैगमैटिज़्म' शब्द और उसका भाव दोनों ही जर्मनी के सुप्रसिद्ध दार्शनिक कांट की कृतियों से मिले थे। परंतु इस विचारधारा की प्राचीनता प्रदर्शित करते हुए भी जेम्स ने अपने को विशेष रूप से पीअर्स का ही आभारी माना है और उन्हें दर्शनजगत् में आधुनिक फलानुमेयप्रामाण्यवाद का प्रवर्तक कहकर सम्मानित किया है। जो भी हो, इस सिद्धांत को बल एवं प्रख्याति प्रदान करने में स्वयं जेम्स का ही नाम सर्वोपर उल्लेखनीय है। उनके लिखे हुए 'मनोविज्ञान के सिद्धांत' (The Principles of Psychology), 'धार्मिक अनुभव के विविध रूप' (Varieties of Religious Experience), 'फलानुमेयप्रामाण्यवाद' (Pragmatism), 'सत्य का अर्थ' (The Meaning of Truth) और 'नानात्मक विश्व' (A Pluralistic Universe) आदि सभी प्रख्यात ग्रंथ इस विचारधारा का समर्थन करते हैं। उनके न केवल तार्किक (सत्यासत्य संबंधी) विचार ही किंतु मनोवैज्ञानिक एवं तात्विक-सभी प्रकार के विचार फलानुमेयप्रामाण्यवादी प्रवृत्ति के सुस्पष्ट प्रतीक हैं।

जेम्स के अनुसार 'सत्य उन सब बातों का नाम है जो विश्वास के मार्ग में, तथा निश्चित निर्दिष्टव्य हेतुओं से भी, अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करती हैं'। संक्षेप में, 'सत्य विचार की प्रक्रिया का एक योग्य या उचित उपकरण मात्र होता है, ठीक वैसे ही जैसे 'शुभ' हमारे व्यावहारिक जीवन का एक सफल साधन मात्र; वह किसी भी प्रकार से लाभप्रद और, वस्तुत:, अंततोगत्वा तथा सब बातों को ध्यान में रखने पर लाभदायक है।' जेम्स सत्य को हमारी निजी धारणाओं का नकद मूल्य मानते हैं, वस्तुगत तथ्य नहीं। उनके अनुसार हम स्वयं अपने सत्यों का निर्माण करते हैं। वे बाह्य वसतुओं की प्रतिक्रिया मात्र नहीं; किंतु हमारे प्रयोजनों के साधक हमारे ही विश्वास होते हैं। हम उन विश्वासों को जो हमें भावात्मक तृप्ति या व्यावहारिक सफलता प्रदान करते हैं सत्य मानने लगते हैं,और इसके विपरीत परिणामवालों को असत्य। अत: हमारे विश्वासों या विचारों का सत्यत्व (या असत्यत्व) उनके फल या परिणाम द्वारा अनुमेय होता है। उसके स्थापित होने के लिए समय और अनुभव की आवश्यकता होती है। जैसे जैसे हमें किसी विश्वास से व्यवहार में सफलता मिलती जाती है वैसे ही वैसे उसका सत्यत्व भी बढ़ता जाता है। हमारे सीमित अनुभव द्वारा प्रमाणित हमारी किसी भी आस्था को पूर्णतया सत्य कहलाने का अधिकार नहीं, यहाँ तक कि विज्ञान के तथाकथित प्राकृतिक नियमों को भी पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। हमें अधिक से अधिक यही कहने का अधिकार है कि जहाँ तक हमारे अब तक के अनुभवों का सबंध है, वे सत्य सिद्ध हुए हैं; परंतु इससे उनकी शाश्वत सत्यता प्रमाणित नहीं होती। पूर्ण सत्य के लिए पूर्ण अनुभव, जिसका होना कभी संभव नहीं, अपेक्षित है। अत: मानव द्वारा प्रतिपादित कोई भी सत्य, चाहे वह वैज्ञानिक हो चाहे वह वैज्ञानिक हो चाहे तार्किक, पूर्ण सत्य नहीं हो सकता। जिन्हें प्राय: मनुष्य सिद्ध-सत्य या सिद्धांत सझते हैं उन्हें फलानुमेयप्रामाण्यवादी केवल उपकल्पना (Hypothesis) ही मानते हैं। वे बुद्धिवादी तर्कशास्त्र की कड़ी आलोचना करते हैं और उनके न्यायवाक्य (Syllogism) आदि सिद्धांतों को दूषित ठहराते हैं। वे मानवीय विचारों को, बुद्धिवादी तर्कशास्त्रियों की मान्यता के विरुद्ध, सदैव प्रयोजनात्मक मानते हैं, नि:स्वार्थ नहीं। ज्ञान के सत्यत्वासत्यत्व के परीक्षण की भारतीय न्यायदर्शन की 'प्रवृत्तिसामर्थ्य व प्रवृत्तिविसंवाद' नामक विधि, जिसके अनुसार कार्य में प्रवृत्त होने पर सफलता प्रदायक ज्ञान को यथार्थ तथा विफलताजनक ज्ञान को अयथार्थ या मिथ्या माना जाता है, इस फलानुमेयप्रामाण्यवादी विधि से मिलती जुलती मालूम होती है। परंतु, साथ ही साथ, 'तद्वति तत्प्रकारकं ज्ञानं यथार्थम्' एवं तदभाववति तत्प्रकारकं ज्ञानं भ्रम:' कहनेवाला कट्टर वस्तुवादी न्यायदर्शन अनुरूपतावाद (Correspondence theory) का समर्थक प्रतीत होता है, जब कि जेम्स आदि पाश्चात्य फलानुमेयप्रामाण्यवादियों ने उसकी कटु आलोचना की है।

जिस प्रकार सत्यासत्य विवेचन में, उसी प्रकार मानसिक प्रक्रियाओं या विचारों की व्याख्या में भी फलानुमेयप्रामाण्यवादी हमारी प्रयोजनात्मक क्रियाओं को ही प्रमुख स्थान प्रदान करते हैं। उनके अनुसार, हम न केवल अपने सत्यों का ही किंतु विविध अनुभवों का भी निर्माण करते हैं। हमारा प्राथमिक अथवा, मूलभूत अनुभव एक अविच्छिन्न धारा जैसा होता है और हम स्वप्रयोजनों एवं स्वार्थों से प्रेरित होकर, विश्लेषण तथा चुनाव आदि करने की अपनी मानसिक क्रियाओं द्वारा, उसका विभाजन, विभिन्न पदार्थों तथा उनके पारस्परिक संबंधों के रूप में, कर लिया करते है। इस प्रकार, इनके मनोविज्ञान और लॉक आदि के परमाणुवादी मनोविज्ञान में, जिसके अनुसार हमारे विचार प्रारंभिक सरल प्रत्ययों के एक यांत्रिक ढंग से संग्रहीत अनुक्रम माने जाते हैं, मौलिक अंतर है। फलानुमेयप्रामाण्यवादियों की दृष्टि में परमाणुवादी मनोविज्ञान इसी नाम के भौतिक विज्ञान की नकल है जो वास्तविकता से दूर एवं भ्रामक है।

विश्वासों या विचारों के सत्यत्वासत्यत्व के परीक्षण में फलानुमेयप्रामाण्यवादी विधि स्वीकार करनेवालों में तत्वज्ञान संबंधी मतैक्य नहीं। फिर भी, यदिश् किसी तत्वज्ञान को इस विचारधारा का प्रतिरूप कहा जा सकता है तो वह है प्रो. ड्युई द्वारा समर्थित डा. शिलर का 'स्टडीज़ इन ह्यूमैनिज़्म' नामक पुस्तक में प्रतिपादित तात्विक सिद्धांत। इसके अनुसार, हम स्वयं ही सदैव एक बड़ी हद तक और सही अर्थ में वास्तविकता (Reality) का निर्माण करते रहते हैं, क्योंकि प्रत्येक तथाकथि यथार्थ वस्तु हमारे तत्संबंधी ज्ञान पर आश्रित रहती है। कोई भी ज्ञात पदार्थ ऐसा नहीं होता जिसका स्वरूप हमारे द्वारा उसके ज्ञात होने से, विशेष रूप से, निर्धारित एवं निर्मित न होता हो। पारमार्थिकता क्या है यह हम नहीं जानते, और न उसके विषय में, निश्चय रूप से, कुछ कहा ही जा सकता है। परंतु जहाँ तक ज्ञात वास्तविकता (या तथ्यों) का संबंध है यह निश्चय है कि उसका स्वरूप निर्मण, एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंश में, हमार और हमारे उस ज्ञान के ऊपर निर्भर रहता है जिसपर हमारे प्रयोजनों और स्वार्थों की छाप अनिवार्यत लगी रहती है। हमारे तथ्य वे ही होते हैं जिनमें उनकी निर्मापिका में हमारी इच्छाओं को तृप्त करने की शक्ति या योग्यता होती है। जिस प्रकार सत्य हमारे सफल विश्वास होते हैं उसी प्रकार तथ्य हमारी इच्छाओं को संतुष्टि प्रदान करनेवाले पदार्थ होते हैं। संक्षेप में हमारे व्यावहारिक जीवन में सफल क्रियात्मक प्रभावोत्पादकता को ही, इन विचारकों के अनुसार, तथ्यता या वास्तविकता का लक्षण समझना चाहिए। भारतीय बौद्ध दर्शन की सत् (पदार्थ) की परिभाषा भी, जिसके अनुसार 'सत् वह है जिसमें किसी कार्य को उत्पन्न करने की क्षमता हो', (अर्थ क्रियाकारित्वलक्षणं सत्) फलानुमेयप्रामण्यवादी विचारधारा के अनुकूल प्रतीत होती है, क्योंकि उसमें भी वस्तुओं के सत्तवासत्त्व, अस्तित्व, अनस्तित्व, के निर्धारण में उनके कार्यरूप फल को ही निर्णायक माना है। परंतु तत्वज्ञान संबंधी अनेक अन्य बातों में सभी बौद्ध दार्शनिक न तो आपस में सहमत हैं और न आधुनिक फलानुमेयप्रामाण्यवादियों के साथ। (रामस्वरूप नौलखा)