फर्रुखसियर औरंगज़ेब के पौत्र तथा अज़ीमुश्शान के पुत्र फर्रुखसियर का मुगल सिंहासनारोहण, जहाँदारशाह को आगरा के निकट घमासान युद्ध में पराजित करने के उपरांत, १० जनवरी, १७१३ को हुआ। जुल्फिकार खाँ जैसे सामंतों को फाँसी देकर तथा अपने भाई हुमायूँ बख्त और अन्य राजकुमारों को अंधा कर उसने अपने राज्याभियेक पर कलंक लगाया। फर्रुखसियर अपने राजपद के लिए सैयद अब्दुल्ला खान और सैयद हुसेन अली खान का विशेष रूप से आभारी था, इसलिए उसने उन्हें ऊँचे मनसब और उपाधियाँ प्रदान करके वजीर और मीर बख्शी बनाया।

किंतु फर्रुखसियर ने सैयद भाइयों को जहाँदारशाह के साथ होनेवाले युद्ध में साधन बनाकर अब उनके स्थानों पर अपने आदमियों को नियुक्त करना चाहा। यह संघर्ष भयंकर विद्रोह के रूप में गंभीर होता गया और इसके परिणामस्वरूप १७१९ में वह सैयद बंधुओं द्वारा पदच्युत करके अंधा बना दिया गया। उसने लगभग सात वर्षों तक शासन किया और ३६ वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हो गई। उसके शासन के प्रथम वर्ष में जजिया समाप्त कर दिया गया यद्यपि खालसा के दीवान इनायतुल्लाह के सुझाव पर १७१७ में पुन: लगा दिया गया। अंत में यह रफीउदरजात द्वारा रोक दिया गया। इस काल में राजपूत राजाओं से मेलकर उन्हें उच्च पद दिए गए। दिसंबर, १७१४ में जोधपुर के राजा अजीत सिंह को गुजरात का गवर्नर नियुक्त किया। ७ नवंबर, १७१९ को उन्हें अजमेर का सूबा मिला। फरवरी, १७१३ में अंबर के राजा जयसिंह को मालवा की सूबेदारी दी गई। उन्होंने चूड़ामन जाट के विरुद्ध एक अभियान का नेतृत्व किया तथा उन्हें मुगल सरकार के साथ संधि करने को विवश किया। बुंदेलों का प्रधान छत्रसाल मुगल सरकार के प्रति स्वामिभक्त था। बहादुरशाह की सेना में वह सिक्खों के विरुद्ध लड़ चुका था। १० मई, १७१२ को पलसूद में राजा जयसिंह के साथ मिलकर उसने मराठों को बुरी तरह पराजित किया। इस सैनिक सेवा के कारण उसे ६०००-४००० का मनसब प्राप्त हुआ। सिक्खों के विद्रोह ने बहादुर शाह की मृत्य के पश्चात् उग्र रूप धारण कर लिया था। वह फर्रुखसियर के शासन में समाप्त किया गया। उनके नेता को तथा अन्य सिक्खों को पकड़कर मार डाला गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण वह संधि थी जिसे हुसेन अली खाँ ने राजा साहू से सम्राट् के विरुद्ध उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए की थी। इसकी शर्तों के अनुसार मराठों को दक्षिण में छह सूबों में चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने की आज्ञा प्रदान की गई। इसके बदले में मराठों ने १६ हजार सैनिकों के साथ सम्राट् की सेवा करना तथा दस लाख रुपया उपहार के रूप में देना स्वीकार किया था। तथापि फर्रुखसियर ने इस संधि का समर्थन नहीं किया। इस काल में औरंगजेब द्वारा बिना समाधान के छोड़ी गई अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक समस्याओं का समाधान किया गया तो भी केंद्रीय शक्ति को क्षति पहुँची और शासन व्यवस्था में शिथिलता फैल गई। सैयद अब्दुल्ला खाँ ने खालसा महालों में भी इजारदारी का आरंभ कर दिया। लगान वसूली का कार्य सरकार अधिकारियों के स्थान पर सबसे ऊँची बोली बोलने वालां को दिया गया। यह प्रथा भूमि-पतियों और उन सभी मध्यवर्तियों के लिए जिनका भूमि पर कुछ स्वामित्व था, विनाश्कारिणी सिद्ध हुई। मनसबदारों को आर्थिक कठिनाइयाँ उठानी पड़ीं।

जुलाई, १७१७ में जान सरमन के नेतृत्व में अंग्रेजी दूतावास ने फर्रुखसियर से एक फरमान प्राप्त किया जिसके अनुसार अंग्रेजों को प्रचलित प्रथानुसार तीन हजार रुपये वार्षिक देकर बंगाल में बिना करके आयात और निर्यात व्यापार करने का अधिकार मिला।

सं.ग्रं. - १. खफी खान - मुंतखबुललुबाब; २. कामराज विन नयन सिंह - इबरत नामा; ३. शिवदास-शाहनामा मुनव्वर क्लाँ; ४. हादीखान कमवार - तज़किरात-उस-सलातीन चगतई; ५. मिर्ज़ा मुहम्मद - इबरत नामा; ६. याह्याखान - तज़किरातुलमुल्क, - ८. रघुबीर सिंह - मालवा इन ट्रांजीशन ९. सतीशचंद्र - पार्टी पालिटिक्स ऐट द मुगल कोर्ट; १०. सरदेसाई - ए न्यू हिस्ट्री आव द मराठा, भाग प्रथम। (जहीरुद्दीन मलिक.)