फ़रमान फ़रमान का वास्तविक अर्थ है 'आदेश'। इस शब्द का प्रयोग मुगल बादशाहों के हुक्म के लिए होता था। मुगलों के समय में बादशाह के हुक्म को मुंशी लोग कागज पर लिख लेते ये। फिर उसका मसौदा बनाकर उसे साफ लिखकर दीवान के दफ्तर, मीर बख्शी के दफ्तर, वकील के दफ्तर, और खाने सामान के दफ्तरों के दस्तख़त होने के लिए भेज दिया करते थे। अंत में मसौदा बादशाह के सामने पेश होता था। बादशाह के इच्छानुसार इसपर या तो ''मोहरे उजुक'' या ''निशाने पंजा'' या स्वयं बादशाह का हस्ताक्षर होता था। अकबर का केवल हस्ताक्षर मिलता है। जहांगीर के स्वयं लिखे हुए शेर (पंक्तियाँ) और शाहजहाँ के अपने हाथों से लिखे हुए फ़रमान मिलते हैं।
फ़रमान पर जो मोहर लगती थी, वह पाँच प्रकार की होती थी। फ़रमान के महत्व के मुताबिक ये मोहरें लगाई जाती थीं। इनमें से कुछ चौकोर थीं, कुछ गोल और कुछ तिकोनी। जो फ़रमानश् साधारण रूप से तख्वाहों, मनसबों (पद संबंधी) और दूसरें कामों के लिए जारी किए जाते थे उनको ''फ़रमाने सवती'' कहते थे। साधारण फ़रमानों का ''फ़रमाने ब्याजी'' की संज्ञा दी जाती थी। बहुत ही साधारण फ़रमान जिनपर शाही मोहर की आवश्यकता न होती, उनको ''खाने सामान'' और ''मुशरिफ़े दीवाम'' की मोहर से जारी किया जाता था और ''पर्वाना'' के नाम से पुकारा जाता था।
फ़रमान को दोहरा मोड़ दिया जाता था और उसपर एक फीता लपेटकर मोहर लगा दी जाती थी। फ़रमानों को उनके महत्वानुसार अलग अलग अफसरों के सुपुर्द किया जाता था जो उनको निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचाते थे। जिन फ़रमानों की बातों को गुप्त रखना आवश्यक होता, उनको इस प्रकार लपेटा जाता कि कोई पढ़ न सके। इसकी लिखाई किसी जिम्मेदार आदमी के सुपुर्द होती। ऐसे फ़रमान किसी विशेष दूत के हाथ सुरक्षित रूप से भेजे जाते थे। (मुहम्मद अजहर असगर अंसारी)