प्लास्टिक (Plastic) के अंतर्गत हम उन सभी कृत्रिम रेज़िनों तथा कृत्रिम बहुलकों (synthetic polymers) को लेते हैं जो गरम करने पर सुनम्य हो जाते हैं और ठंढा होने पर कड़े ठोस का रूप ले लेते हैं, अथवा विशेष दशा में सुनम्य होते हैं तथा साँचे में ढाले जा सकते हैं। इनकी उत्पत्ति सरल कार्बनिक रसायनकों के बहुलकीकरण तथा संघनन की क्रिया से होती है। कार्बनिक पदार्थों में से वृहद बहुलकीकृत अपनी विशेष खनन क्षमता, नम्यता और कठोरपन के लिए अनोखे हैं और इनकी तुलना प्राकृतिक बहुलकों, जैसे रेशम, रुई, रबर, चपड़ा आदि से की जा सकती है। कृत्रिम उपायों से इन प्राकृतिक बहुलकों के सदृश पदार्थों का निर्माण संभव हो पाया है। आकर्बनिक क्षेत्र में हम कुछ ऐसे पदार्थों का उल्लेख कर सकते हैं जो प्लास्टिकों की भाँति व्यवहार करते हैं। काँच गरम करने पर सुनम्य हो जाता है और साँचे में ढालकर तथा ठंडा कर उसे कोई भी स्थायी रूप दिया जा सकता है।

ये प्लास्टिक भौतिक गुणों में अत्यधिक भिन्नता रखते हैं, चमकीले काले रंग से लेकर काँच की भाँति पारदर्शक तथा श्यान, कठोर या भंगुर तक होते हैं; पर सभी संचरण किए जाने की क्षमता रखते हैं। अपने अतुलनीय गुणों के कारण अधिकतर प्लास्टिकों का प्रयोग रोधन (insulation) के लिए किया जाता है। पारदर्शक तथा रंगहीन प्लास्टिकों से लेंस (lens) और वायुयानों की खिड़कियों के पर्दों का निर्माण होता है। ठोस प्लास्टिकों का सिर्फ संचककरण ही नहीं किया जाता, बल्कि वे काटे और मोड़े जा सकते हैं और उनपर पालिश भी की जा सकती है।

संक्षिप्त इतिहास - फ्रांस, इंग्लैंड और जर्मनी में १९वीं शताब्दी के मध्य में सेल्यूलोज़ नाइट्रेट बनाया गया। प्रायोगिक महत्व के प्लास्टिक का निर्माण एक अमरीकी नवयुवक, जॉन वेसली हाइयैट (John Wesley Hyatt) द्वारा हुआ (१८६९)। इसका नाम सेलुलॉइड (celluloid) पड़ा। यही पदार्थ प्लास्टिक उद्योग का आधार बना। विशेष और महत्वपूर्ण उपयोगों में इसकी चादरों का बनाना था। इनका प्रयोग मोटर गाड़ियों की खिड़कियों में किया गया। नम्यता तथा प्रतिरोधकता इसके विशेष गुण हैं, पर प्रकाश से इसका रंग नष्ट होने लगता है। बड़ी मात्रा में इसका प्रयोग फ़ोटोग्राफिक फिल्म, ऐनक, बटन, कंघे, बुरुश, मुठियों, महिलाओं की जूतियों की ऐड़ियों तथा बहुत से शृंगार सामानों के लिए किया गया। इसका महान अवगुण इसकी ज्वलनशीलता है।

सेलुलोस ऐसीटेट की श्रेणी के पहले प्लास्टिक का पेंटेट १९०३ ई. में आइशेनग्रुन और बेकर (A. Eichengrun and T. Becker) द्वारा हुआ। १९२६ ई. में यह तापसुनम्य (thermoplastic) प्लास्टिकों का आधार बना। तब से इसका विस्तृत उपयोग मोटरगाड़ी उद्योगों, मुठियों, स्विचों, सूक्ष्मयंत्रों आदि के निर्माण के लिए किया गया। आघात सहिष्णुता, चीमड़पन, हल्केपन तथा पारदर्शकता के कारण वायुयान उद्योगों में इसका उपयोग अनिवार्य हो गया।

लाख और चपड़ा भारत और दक्षिणी एशिया में सीमित मात्रा में प्राप्त होता है और यह सदियों से मुहर करने, तथा वार्निश और प्रलाक्षारस (lacquers) इत्यादि बनाने के प्रयोग में लाया जाता है। इसके प्रतिस्थापी की खोज में डा. बेकलैंड (Dr. Leo H. Bakeland) ने फिनोल फॉर्मेल्डिहाइड (phenol formaldehydel) रेज़िन का आविष्कार किया (१९०७ ई.)। इन्होंने इस रेज़िन को वैकेलाइट (Bakelite) नाम दिया। इस महान सफलता के साथ ही आधुनिक प्लास्टिकों का अध्याय आरंभ होता है। १९२३ ई. में फ्रट्ज़ पोलक और कुर्ट रिपर (Fritz Pollock and Kurt Ripper) ने प्रथम यूरिया-फॉर्मेल्डिहाइड (urea formaldehyde) प्लास्टिक का आविष्कार किया। बहुत से अन्वेषण तथा प्रयोग इन भिन्न भिन्न प्लास्टिकों के बनाने तथा इनके विविध उपयेगों पर किए गए और अब इनकी उपयोगिता का क्षेत्र इतना विस्तृत हो गया है कि यदि आज का युग 'प्लास्टि युग' कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।

प्लास्टिक का निर्माण - प्लास्टिकों का वर्गीकरण मुख्यत: दो भागों में किया जाता है। प्रथम श्रेणी के वे तापदृढ़ (thermosetting) प्लास्टिक हैं, जो ताप और दाब से साँचे में ढाले जाते हैं। ये तब तक उष्ण रखे जाते हैं जब तक कड़े ठोस में परिवर्तित नहीं हो जाते और तब ठंढे किए जाते हैं। यह क्रिया अनुत्क्रमणीय (irreversible) होती है। दूसरी श्रेणी के तापसुनम्य (thermoplastic) पलास्टिक हैं। ये भी ऊष्मा और दाब के ही प्रभाव से साँचे में ढाले जाते हैं। ठंढा करने पर इनमें दृढ़ता आ जाती है। इसे शीतदृढ़ीकरण (cold set) कहा जा सकता है। इनकी दृढ़ता साधारण ताप पर स्थिर तथा स्थायी होती है। यदि इन्हें फिर गरम किया जाए, तो ये फिर सुनम्य हो जाते हैं और फिर से साँचे में ढाले जा सकते हैं, अर्थात् तापदृढ़ीकृत प्लास्टिक के विपरीत इनकी क्रिया उत्क्रमणीय है।

रेज़िन या प्लास्टिक शुद्ध रूप में (१०० प्रतिशत) सांचे में ढाले जा सकते हैं, पर प्रयोग में बहुत से प्लास्टिकों का किसी पूरक (fillers) के साथ संचककरण करते हैं। तापदृढ़ीकृत प्लास्टिकों में विशेष रूप से पूरकों, जैसे लकड़ी के महीन बुरादे, सेलुलोस, ऐस्बेस्टस, कार्बन, अभ्रक इत्यादि, का प्रयोग होता है।

तापदृढ़ प्लास्टिक (Thermosetting Plastics) - इस वर्ग के रेज़िनों का बहुलकीकरण तथा संघनन गर्म साँचों के भीतर ही होता है और ताप की क्रिया से ही ये अविलेय तथा अगलनीय पदार्थ में परिवर्तित हो जाते हैं। इस संचककृत ठोस को पुन: ऊष्मा और दाब के प्रभाव से संचककृत नहीं किया जा सकता। इस वर्ग में बैकेलाइट, यूरिया प्लास्टिक तथा ग्लिप्टन या ऐल्किड रेज़िन (alkyd resin) आते हैं।

ये तापदृढ़ प्लास्टिक पुन: साँचे में ढाले नहीं जा सकते। इनका विशेष गुण विलायकों तथा ऊँचे ताप के प्रति अधिक प्रतिरोधकता है। इनका निर्माण दो चरणों में संपन्न होता है, जिसमें दूसरा अर्थात् सांचे में ढालने का चरण तो कुछ पलों का ही होता है।

फिनोल-ऐल्डिहाइड या बैकेलाइट वर्ग के प्लास्टिक - आधुनिक प्लास्टिकों में इनका निर्माण सर्वप्रथम हुआ। इनकी प्राप्ति फिनोल और ऐल्डिहाइड के संघनन से होती है। प्राय: फिनोल और फॉर्मेल्डिहाइड का प्रयोग होता है। द्रव फिनोल को ३० प्रतिशत फॉर्मेल्डिहाइड जल विलयन के साथ बराबर मात्रा में (भार से) ऐसी केतली में रख देते हैं जिसमें गरम करने तथा प्रक्षोभ की सुविधा रहती है। अभिक्रिया प्रारंभ होने तक केतली को गर्म किया जाता है। प्राय: एक घंटे के बाद जब अभिक्रिया पूरी हो जाती है तब उसमें से ऊपरी तह के जल को निकालकर नीचे के पदार्थ को ठोस के रूप में जमा लेते हैं। ऐंबर रंग का भंगुर ठोस प्राप्त होता है, जो कार्बनिक विलायकों में विलेय है। इसे 'नोवोलाक' (Novolac) कहते हैं। रासायनिक क्रिया इस प्रकार है:

औहा औहा

अहाकाहाऔश् र काहा औहा

ग्र्क्त क्त

09;क्तक्क्तग्र्श्श् र क्क्तग्र्क्त

फिनोल फॉर्मेल्डिहाइड हाइड्रॉक्सी बेंज़िल ऐलकोहल

यह क्रिया प्रथम चरण में संपन्न होती है तथा ये 'नोवलाक' विलेय और गलनीय होते हैं।

दूसरे चरण में इस 'नोवोलाक' चूर्ण को कुछ पूरक, जैसे लकड़ी का महीन बुरादा, तथा रंजक से मिश्रित करके दाब के साथ साँचे में गर्म करते हैं जब हाइड्रॉक्सी वेंज़िल ऐल्कोहल (hydroxy benzylalcohol) का संघनन तथा बहुलकीकरण, ऋजुशृंखला के साथ साथ पार्श्वशृंखला में भी होता है और कड़े पदार्थ प्राप्त होते हैं। इस प्रकार के एक संचककरण पदार्थ का संघटन निम्नलिखित है :

रेज़िन या नोवोलक ४८ऽ

पूरक ४८ऽ

स्नेहक (lubricant) १.५ऽ (भार से)

त्वरक १.०ऽ

रंजक १.५ऽ

चित्र १, २, ३, ४. प्लास्टिकों की ढलाई की चार मुख्य विधियाँ

(१)�� तापस्थापित प्लास्टिक प्राय: संपीडन साँचे में तैयार किए जाते हैं। ढलाईचूर्ण विवर में उँडेला जाता है और मूसल (pluger) द्वारा, जो भारी दाबक का भाग होता है, चूर्ण को इच्छित आकार में लाने के लिए नीचे की ओर दबाया जाता है। क. साँचे का मूसल, ख. निर्देशक सुई, ग. ढला हुआ प्लास्टिक तथा घ. साँचे का विवर।

(२)�� तापस्थापित प्लास्टिक की चद्दरों को गरम दाबक में इच्दित आकार दिया जा सकता है। प्लास्टिक की चद्दर को रबर के थैले के नीचे रखे, इच्छित वक्र आकार के जिग साँचे (Jig mould) पर रखा जाता है, जिसके नीचे एक छिद्र होता है। दाबक को बंद कर थैले को तापक पदार्थ के प्रयोग से फैलने के लिए बाध्य किया जाता है। क. चद्दर, ख. रबर की थैली, ग. भाप या गर्म पानी, घ. छिद्र तथा च. ठोस जिग साँचा।

(३)�� तापप्लास्टिक की कुछ वस्तुएँ, जैसे नलिकाएँ, प्राय: बहिर्वेधन (extrusion) दाबक में बनाई जाती हैं। यौथांक दाबक में प्रवेश करता है और उसे एक सूक्ष्मसमंजिनी (endless screw) द्वारा दबाकर गर्म कक्ष में ले जाते हैं, जहाँ वह पिघल जाता है। इसके बाद दबाकर वह ठप्पे के द्वार (die opening) से बाहर ढकेल दिया जाता है। इससे पिघले प्लास्टिक को इच्छित आकार प्राप्त हो जाता है। क. वाहक, ख. ठप्पा या डाइ, ग. ढाला जानेवाला प्लास्टिक, घ. तापक उपकरण तथा च. चांत्रिक सूक्ष्मसंमजिनी।

(४)�� संश्लिष्ट तापप्लास्टिक को और सेलुलोज़ी प्लास्टिकों को अंत: क्षेपण (injection) साँचे से तैयार किया जा सकता है। ढलाईचूर्ण गर्म कक्ष में प्रवेश कर, पिघल जाता है। इसे फिर मूसल द्वारा एक द्वार से साँचे में ले जाते हैं, जहाँ वह स्थापित हो जाता है। क. साँचा, ख. ढाला जानेवाला प्लास्टिक, ग. मूसल, घ. तापक उपकरण तथा च. ढला हुआ प्लास्टिक।

पूरकों में विशेष रूप से लकड़ी के महीन बुरादे तथा कार्बन का, और भूरे रंग के लिए लोह आक्साइड का, प्रयोग होता है। फिनोलफॉर्मेल्डिहाइड प्लास्टिकों के संचककृत पदार्थों का उपयोग इतना विस्तृत है कि यहाँ पर पूर्ण उल्लेख करना संभव नहीं है। विशेष उल्लेखनीय इसके बने गियर चक्र हैं, जिनका प्रयोग सीमेंट, कागज तथा लोहे के कारखानों में होता है। यहाँ पर यह पानी के स्नेहन से काम करता है। यह सस्ता होता है तथा इसमें कोई ध्वनि नहीं होती। विद्युत् उद्योग में इसका बड़ा उपयोग है।

यूरिया फॉर्मेल्डिहाइड, यूरिया ऐमिनोप्लास्टिक - यह यूरिया (१ अणुभार) और फ़ॉर्मेल्डिहाइड (१-१.५ अणुभार) के सघनन से प्राप्त होता है, जो हेवसामेथिलीन टेट्रामीन (hexamethyelne tetramine) की उपस्थिति में होता है। अभिक्रिया धीरे धीरे गरम करके प्रारंभ की जाती है और १२०रूसें. पर तीव्र हो जाती है। पहले मोनो तथा डाइमेथिलोल यूरिया का निर्माण होता है :

ना हा. का औ. ना हाअहा का हा औ र ना हा. का औ. नाहा. काहा. औ हा

यूरिया फॉर्मेल्डिहाइड मोनो मेथिलोल यूरिया

[NH2. CO. NH2. +HC HO NH2. CO. NH. CH2. OH]

ना हा.का औ.ना हाअ२हा का हा औ र का हाऔहा.ना हा.का औ.ना हा.का हा.औ हा

[NH2. CO. NH2+2HC HO CH OH. NH. CO. NH. CH OH]

ये दोनों ही द्रव हैं। इनका संघनन होने लगता है और बहुलकीकरण की दशा प्राप्त होती है। उसी समय गर्म करने की क्रिया रोककर इसे ठंढा किया जाता है। इस प्राप्त रेज़िन से जल निकाल लिया जाता है और शुद्ध सेलुलोस से मिश्रित किया जाता है। इस मिश्रण को न्यून ताप पर सुखाते हैं और रेजक भी मिला देते हैं। अब अगला चरण साँचे के भीतर ताप और दाब से स्थापित करने का होता है। तब यूरिया रेज़िन एक कड़े और अनुत्क्रमणीय प्लास्टिक के दृढ़ हो जाता है। सेलुलोस पूरक के प्रयोग से पारभासक प्लास्टिक प्राप्त होता है। इसका प्रयोग विशेष रूप से प्रकाश के परावर्तकों के लिए होता है। इसी विशेषता यह है कि इसे कोई भी रंग दिया जा सकता है। यूरिया प्लास्टिक दिव्य काच की तरह तलवाले होते हैं और आघात सहने की क्षमता रखते हैं।

ग्लिप्टल या ऐल्किड रेज़िन - कृत्रिम प्लास्टिक में इनका भी एक वर्ग है। ग्लिसरोल के किसी अम्ल, जैसे थैलिक, आइसोथैलिक, टार्टैरिक, सक्सिनिक, साइट्रिक इत्यादि के साथ संघनन की रीति से इसकी प्राप्ति होती है। यह चमड़े की भाँति कड़ा होता है और काफी अवधि तक साँचे में गरम करने के बाद कड़े ठोस में परिवर्तित होता है। यद्यपि यह भी तापदृढ़ प्लास्टिक है, पर इसका संचककरण के लिए बहुत कम प्रयोग होता है। इसका उपयोग वार्निश में तथा ऐस्बेस्टस, अभ्रक इत्यादि के, जिनमें ऊँचे ताप सहने की क्षमता होती है, बंधन और स्थिरीकरण में होता है।

तापसुनम्य रेज़िन - इस श्रेणी के प्लास्टिक कार्बनिक विलायकों में विलेय होते हैं। ये गर्म करने पर सुनम्य हो जाते हैं और किसी भी रूप में साँचे में ढाले जा सकते हैं। बार बार गर्म करके इनको भिन्न-भिन्न आकृति दी जा सकती है। तुलना के लिए चपड़ा तथा मोम का उल्लेख किया जा सकता है।

सेलुलॉइड - सेलुलोस नाइट्रेट को कपूर के साथ मिलाकर गरम करने, या साधारण ताप पर भी गूथने से, सेलुलॉइड प्राप्त होता है। एक पुराना सूत्र निम्नलिखित है :

कपूर या कपूर का तेल २० भाग (भार से)

रेंडी या अलसी तेल ४० भाग (भार से)

सेलुलोस नाइट्रेट ४० भाग (भार से)

गरम करने या गूथने के समय उसमें कुछ वर्णक, जैसे ज़िंक ऑक्साइड, मिला देते हैं। यह गरम पदार्थ आसानी से साँचे में ढाला जा सकता है और एक ठोस और कड़ी आकृति में परिवर्तित हो जाता है। इसका प्रयोग बहुत से उपयोगी तथा सजावट के सामानों के निर्माण के लिए किया जाता है। यह ज्वलनशील है।

पाईरॉक्सिलिन (pyroxilin) एक विशेष सेलुलोस नाइट्रेट है। इसके और कपूर के मिश्रण से जो प्लास्टिक प्राप्त होता है, उसका मुख्य उपयोग फ़ोटोग्राफ्रक फिल्मों के लिए होता है।

सेलुलोस ऐसीटेट - सेलुलोस ऐसीटेट का उपयोग साधारण प्लास्टिक के स्थान पर किया जाता है, क्योंकि यह अज्वलनशील है। सेलुलोस के ऐसिटिलीकरण (acetylation) से सेलुलोस ऐसीटेट प्राप्त होता है। विलायकों तथा सुनम्य कारकों के संयोग से इससे प्लास्टि प्राप्त होता है।

सेलुलोस ऐसीटेट को किसी सुनम्यकारक विलायक और रंजक के साथ गर्म करने पर एक सुनम्य पदार्थ प्राप्त होता है। वेलनों से दबाकर अधिक विलायकों को निकाल देते हैं और चादरों के रूप में प्लास्टिक प्राप्त हो जाता है। इसे संचककरण के लिए प्रयोग किया जाता है। सुनम्यकारकों में डाइमेथिल थैलेट, डाइएथिल थैलेट, ट्राइफ़ेनिल फ़ॉस्फेट इत्यादि का प्रयोग करते हैं। सेलुलोस ऐसीटेट प्लास्टिक स्वच्छ, रंगहीन तथा सभी रंगों मे, पारदर्शक और अपारदर्शक रूप में प्राप्त किए जाते हैं।

मेथिल मेथाक्रिलेट (Methyl Methacrylate) - मेथिल मेथाक्रिलेट प्लास्टिकों का द्वितीय विश्वयुद्ध में प्लेक्सिग्लास (plexiglas) और लुसाइट (lucite) के नाम से वायुयानों में प्रयोग हुआ। ये रंगहीन, स्वच्छ, न टूटनेवाले तथा मजबूत होते हैं ओर कठिनाई से जलते हैं।

ऐसीटोन सायनहाइड्रिन को १००-११०रू तक सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ गर्म करके और फिर मेथिल ऐलकाहल की अभिक्रिया से मेथिल मेथाक्रिलेट द्रव रूप में प्राप्त होता है। इसका बहुलकीकरण ताप, प्रकाश तथा सोडियम पेरॉक्साइड के प्रभाव से होता है औ कड़ा दानेदार ठोस संचक के लिए तैयार हो जाता है।

इस प्रकार का एक प्लास्टिक, जिसे पसैपेक्स (perspex) कहते हैं, अत्यंत स्वच्छ, निम्न विशिष्ट गुरुत्व (१.१९) वाला होता है। और रचनात्मक (mechanical) तथा विद्युतीय गुणों के लिए उल्लेखनीय है। इसका उपयोग बिजली के समान, टेलीफोन, कृत्रिम दाँतों, वायुयानों की सुरक्षित खिड़कियों इत्यादि के निर्माण में किया जाता है। किसी भी निश्चित माप के लेंस तुरंत ढाले जा सकते हैं और इसका प्रयोग प्रलाक्षारसों के लिए भी होता है।

बाइनिल क्लोराइड बहुलक (Vinyl Chloride Polymers) - ये अज्वलनशील तथा अधिक विद्युत् प्रतिरोधक होते हैं। इनका गलनांक साधारणत: काफी ऊँचा होता है। इसलिए इन्हें किसी सुनम्यकारक के साथ गर्म करते हैं। इनका उपयोग रासायनिक उद्योग, जलप्रतिरोधक चादर तथा नम्य, रोधी तारों के लिए होता है।

वाइनिल ऐसीटेट (Vinyl acetate) - पादर लवण के उत्प्रेरण से यह ८०ऽ उत्पाद में ऐसेटिलीन और ऐसीटिक अम्ल के संयोग से प्राप्त होता है।

का हा. का औ औ हाअका हा का हा र का हा. का औ औ का हाउका हा

ऐसीटिक अम्ल 0;सेटिलीन वाइनिल ऐसीटेट

[CH3 COOH+CH CHCH3_ COOCH=CH2]

गर्म करने पर यह एक स्वच्छ, रंगहीन, स्वादहीन तथा गंधहीन पदार्थ (विशिष्ट गुरुत्व १.२) में बहुलकीकृत हो जाता है। इसका औसत अणुभार ५,००० से १०,००० तक रहता है। इसका गलनांक कुछ निम्न है। इसलिए इसका उपयोग प्रलाक्षारस तथा चिपकाने के काम में होता है।

बाइनिल ऐसीटेट तथा वाइनिल क्लोराइड - इनके विविध आनुपातिक मिश्रण बहुलकीकरण पर भिन्न भिन्न गुणों के प्लास्टिक का सृजन करते हैं। ये गंधहीन, अज्वलनशील, कड़े तथा जल प्रतिरोधक होते हैं।

स्टाइरिन (Styrene) - यह एथिलीन और बेंज़ीन से प्राप्त किया जाता है और इसका बहुलकीकरण ताप से अथवा किसी त्वरक द्वारा होता है। यह बहुलक स्टाइरीन, जिसे डाइस्टीन भी कहते हैं, हल्का होता है (विशिष्ट गुरुत्व १.०५) और ७०रू से ९०रू सें. पर हीन सुनम्य हो जाता है। यह संरक्षणसह तथा आक्सीकारक प्रतिरोधक है। यह बहुत ही उच्च कोटि का रोधी है, जो पानी के भीतर डुबाने से भी नहीं होता और इसीलिए इसका प्रमुख उपयोग विद्युत उद्योग में होता है।

पॉलिथीन (Polythene) - सर्वप्रथम इसका निर्माण इंपीरियल केमिकल इंडस्ट्रीज़ ने किया, पर अब यह प्रचुर मात्रा में अमरीका में भी निर्मित होता है, क्योंकि वहाँ एथिलीन अधिक मात्रा में सुलभ है। एथिलीन गैस को १,००० वायुमंडलीय दाब तथा २००रू सें. तापर पर गरम करने से इसका बहुलकीकरण होता है। ०.०१ प्रतिशत आक्सीजन का प्रयोग उत्प्रेरक की तरह होता है। इसका उपयोग बहुत विस्तृत है, क्योंकि यह हलका तथा अनुपम रोधी है।

नाइलॉन (Nylon) - इसे '६६' के नाम से भी जाना जाता है। इसका संश्लेषण १९३५ ई. में संपन्न हुआ, जिसका श्रेय अमरीका के कैरोथर्स (Carothers) तथा उनके सहवैज्ञानिकों को है। यह हेक्सामेथिलीन डाइऐमीन और ऐडिपिक अम्ल के संघानन से प्राप्त होता है। संघनन की क्रिया किसी आटोक्लेव में उत्प्रेरकों की उपस्थिति में गर्म करने से होती है। नाइलॉन, हेक्सामेथिलीन ऐडिपैमाइड का बहुलक है और इसके सूत्र की इकाई नाहा-(काहा) नाहा का औ (का हा) का औ - ([NH-(CH2)6 NH.CO. (CH2)4 CO-]) है। यह यथार्थ रूप में कृत्रिम रेशा है और इसका औसतन अणुभार १०,००० के लगभग होता है। इसका गलनांक २६३रू है। इसका गलनांक अधिक होने के कारण यह आसारी से धुलाया जा सकता है और इसपर लोहा किया जा सकता है। यह पानी तथा साधारण कार्बनिक विलायकों में अविलेय है।

रेशा बनाने की क्रिया २८५रूसें. पर नाइट्रोजन के वायुमंडल में संपन्न की जाती है और नवनिर्मित रेशे को ठंढे में खींचकर उसकी लंबाई से चार गुना अधि का कर दिया जाता है। इस रेशे की विशेष तननक्षमता, नम्यता तथा द्यूति होती है। यह प्राकृतिक रेशम के रेशे से भी पतला, मजबूत तथा अधिक प्रतिरोधक होता है। भिन्न भिन्न रूपों में नाइलॉन का प्रयोग द्वितीय विश्वयुद्ध में किया गया। ग्लाइडरों की उड़ान रस्सियों में तथा पैराशूटों में इसका उपयोग उल्लेखनीय है।

टेरिलीन (Terylene) - इसका आविष्कार डिक्सन तथा विनफील्ड (J.T. Dickson and J.R. Whinfield) ने किया। इसका औद्योगिक उपयोग कृत्रिम कपड़ों के बनाने में हाता है यह एथिलीन ग्लाइकोल और टेरेथैलिक अम्ल के एस्टर का बहुलक है और इसके सूत्र की ईकाई

औ-औका काऔ.औ. काहा काहा औ. काऔ काऔ.औ.

[O-ग्र्क् क्ग्र्.ग्र्.क्क्त क्क्त ग्र्.क्ग्र्. क्ग्र्.ग्र्ट

कार्ब-सिलिकोन बहुलक (Organo-Silicon-polymers) - नवनिर्मित, आधुनिक कार्ब-सिलिकोन प्लास्टिक अनुपम ऊष्मा प्रतिरोधक हैं और इस कारण उद्योगों में इनके सदुपयोग की बड़ी आशा है। ये बहुलक भी बहुत भिन्न भिन्न रूपों में पाए जाते हैं।

इनक प्रयेग अभ्रक, काच के रेशों तथा ऐस्बेस्टस के अनुबंधन के लिए विद्युद्रोधियों में किया जाता है। ये भी तापदृढ़ प्लास्टिक हैं, जो एक बार दृढ़ होने पर ऊँचे ऊष्मा प्रतिरोधक होते हैं। इनका निर्माण सिलिकोन क्लोराइड, (काहा) सि क्लो [(C2H5)2 Si Cl2] से होता है, जो जलविश्लेषण पर एथिल सिलेनडाओल (Ethyl silanediol) देता है और संघनन की क्रिया से बहुलकीकरण होता है।

सं.ग्रं. - पी.डी. रिचिग : केमिर्स्टी ऑव प्लास्टिक ऐंड हाइपॉलिमर, क्लेवर-ह्यूम प्रेस लि., १९४९; एच.एम. रिचर्डसन ऐंड जे.डब्ल्यू, विल्सन, मेक्ग्रॉ हिल बुक कं., न्यूयॉर्क, १९४६; सी.सी. वाइंडिंग ऐंड आर. एल. हाशे : प्लैस्टिक थियोरी ऐंड प्रैक्टिस (मेक्ग्रॉ हिल बुक कं., न्यूयॉर्क, १९४८)। (शिवमोहन वर्मा)