प्रेरण कुंडली (Induction Coil) कम वोल्टतावाले स्त्रोत से उच्च वोल्टता प्राप्त करनेवाली एक युक्ति है। इसमें एक क्रोड (core) पर लिपटी दो कुंडलियाँ होती हैं, जिन्हें प्राथमिक (primary) और द्वितीयक (secondary) कहते हैं। प्राथमिक कुंडली में द्वितीयक की अपेक्षा बहुत कम लपेटें होती हैं। यह कुंडली स्विच (switch) द्वारा एक वैटरी से योजित होती है। यह स्विच संपर्क और विच्छेद (make and break) प्रकार का होता है, जिसमें एक कमानी लगी रहती है। कमानी के सिरेपर नरम लोहे का एक संस्पर्शक होता है। संस्पर्शक होता है। संस्पर्शक का सिरा प्लैटिनम धातु का बना होता है, जिससे बार बार आर्क (arc) बनने पर भी संस्पर्शक खत न हो। सामान्य रूप में यह संस्पर्शक दूसरे स्थिर संस्पर्शक से संस्पर्श करता है और इस प्रकार प्राथमिक कुंडली का परिपथ पूरा हो जाता है, और उसमें धारा प्रवाहित होती है। धारा प्रवाहित होने से उसके चरों ओर एक क्षेत्र की उत्पत्ति हो जाती है। द्वितीयक कुंडली भी इसी क्षेत्र में स्थित है, और इस प्रकार उसके प्रभाव में है। जब प्राथमिक कुंडली का क्षेत्र काफी बढ़ जाता है, तब स्विच के नर्म लोहे का संस्पर्शक प्राथमिक कुंडली के क्रोड की ओर आकर्षित हो जाता है। क्रोड भी नर्म लोहे के बना होता है। संस्पर्शक के क्रोड की ओर खिंच जाने के करण, उसका स्थिर संस्पर्शक से संस्पर्श टूट जाता है; और इस प्रकार प्राथमिक कुंडली की धारा का परिपथ पूरा नहीं रहता। ऐसा होने से उसमें प्रवाहित होने से उसमें प्रवाहित होनेवाली धारा भी रुक जाती है। वास्तव में धारा एकदम शून्य नहीं हो जाती, वरन् कुंडली के प्रेरकत्व (inductance) के करण उसमें कुछ काल का विलंब होता है। धारा द्वारा उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र का भी इसी प्रकार निपात (collapse) हो जाता है। परंतु ऐसा होने पर, नर्म लोहे का संस्पर्शक भी, क्रोड का आकर्षण समाप्त हो जाने के कारण, अपनी पुरानी स्थिति पर फेंक दिया जाता है। इससे वह फिर स्थिर संस्पर्शक से संस्पर्श करने लगता है। इस प्रकार प्राथमिक कुंडली की धारा का परिपथ फिर पूर्ण हो जाता है और बैटरी से धारा फिर प्रवाहित होने लगती है। यह क्रिया बार बार होती रहती है। परिणामस्वरूप, प्राथमिक कुंडली की धारा का परिपथ बार बार बनता और टूटता रहता है। इस कारण उसकी धारा द्वारा उत्पन्न क्षेत्र भी आवर्ती रूप में बढ़ता घटता रहता है। इस प्रकार, अभिवाह भी दूसरी कुंडली की लपेट को आवर्ती रूप में काटता है और उसमें वि.वा.व. की उत्पत्ति हो जाती है। चूँकि ये प्रेरित वोल्टता, दोनों कुडंलियों की लपेट संख्या के अनुपात में होती है; अत: प्राथमिक वोल्टता कम होने पर भी अति उच्च वोल्टता का प्रेरण हो जाता है। विचारणीय है कि यह क्रिया धारा
चित्र. प्रा (P) प्राथमिक कुंडली, द्वि (S) द्वितीयक कुंडली,
ल लोह क्रोड, अ (A) तथा ब (B) चिर तथा स्थिर
संस्पर्शक, ग (G) कमानी, तथा से (Z) संधारित्र।
के घटने और बढ़ने के कारण होती है; और यद्यपि बैटरी से स्थिर मान की दिष्ट धारा प्राप्त होती है, तो भी संपर्क विच्छेद स्विच के द्वारा उसे आवर्ती रूप में प्रवाहित किया जा सकता है।
प्राथमिक एवं द्वितीयक कुंडलियाँ एक ही क्रोड पर, एबोनाइट अथवा और किसी विद्युद्रोधी नलिका पर लपेटी होती है, परंतु उनमें कोई, योजन नहीं होता, या तो वे इनेमिल किए तारों से लपेटी होती है, जिसके कारण एक दूसरे से विद्युद्रोधी रहती हैं; अथवा प्राथमिक के ऊपर एक विद्युद्रोधी नली (insulated sleeve) लगाकर द्वितीयक को लपेट दिया जाता है।
परिपथ के बार बार बनने और टूटने से दोनों संस्पर्शकों के बीच आर्क (Arc) उत्पन्न होता है। इससे संस्पर्शकों के क्षत होने के अलावा आग का भी भय रहता है। आर्क न होने देने के लिए परिपथ में एक संधारित्र का प्रयोग किया जाता है, जैसा चित्र में दिखाया गया है।
प्रेरण द्वारा द्वितीयक कुंडली में उच्च वोल्टता
होने पर तात्पर्य यह नहीं कि उसमें शक्ति की वृद्धि हो जाती है।
वास्तव में धारा का मान उसी अनुपात में कम हो जाता है। इस
प्रकार यदि प्राथमिक कुंडली में १२ वोल्ट पर १ एंपीयर धारा ली
जा रही हो, तो द्वितीयक कुंडली में १२०० वोल्ट पर केवल
श्एंपीयन धारा
ही होगी। वास्तव में द्वितीयक में धारा का मान अति अल्प होता
है।
प्रेरण कुंडली के सिद्धांत पर ही मोटर में प्रज्वलन कुंडली (ignition coil) होती है। उसमें भी किसी बैटरी से प्राप्त ६ या १२ वोल्ट की वोल्टता से द्वितीयक कुंडली में कई हजार वोल्ट की वोल्टता प्राप्त की जाती है, जो प्रज्वलन के लिए आवश्यक होती है। ((स्वर्गीया) रत्नकुमारी)