प्रेमचंद (१८८०-१९३६) का जन्म वाराणसी से पाँच मील दूर लमही ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम मुंशी अजायब राय था। वे उसी गाँव के पास डाकखाने में काम करते थे। जहाँ जहाँ उनकी बदली होती थी प्रेमचंद भी उनके साथ बालपन में जाया करते थे। उनका आरंभिक जीवन बहुत आर्थिक संकट में बीता। उनकी विधिवत् शिक्षा क्वींस कालेज में हुई। उन्होंने सरकारी स्कूल में अध्यापकी कर ली। कुछ दिनों तक वह सब-डिपुटी इंस्पेक्टर भी रहे। जिस समय इन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के प्रभाव में सरकारी नौकरी छोड़ी उस समय यह गोरखपुर में नारमल स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। १९१९ में इन्होंने प्राइवेट बी.ए. पास किया। इनका विवाह बाल्यकाल में ही हो गया था। किंतु उस पत्नी से यह असंतुष्ट थे इसलिए उसे त्याग दिया और उसी साल सन् १९०५ में शिवरानी देवी से विधवा विवाह किया।

पहले यह उर्दू में लिखा करते थे। उस समय उर्दू के दो बहुत उच्चकोटि के मासिक उत्तर प्रदेश से निकलते थे - कानपुर से 'जमाना' तथा प्रयाग से 'अदीब'। उन्हीं दोनों में इनकी कहानियाँ प्रकाशित होती थीं। 'अदीब' बंद हो जाने के बाद से केवल 'जमाना' में इनकी कहानियाँ प्रकाशित होती थीं। पाठकों को इनकी कहानियाँ बहुत रुचीं। आरंभ में यह अपने असली नाम धनपत राय से कहानियाँ लिखते थे। इनकी पहली कहानी 'संसार का अनमोल रत्न' बताई जाती है जो जमाना में छपी थी। इनका पहला कहानीसंग्रह उर्दू में 'सीज़े वतन' के नाम से प्रकाशित हुआ था। उन कहानियों में ऐसी राष्ट्रीय भावनाएँ व्यक्त की गई थीं कि उस समय की विदेशी सरकार को सहय न हुईं। इनको चेतावनी देकर सारी प्रतियाँ उस संग्रह की सरकार ने जब्त कर लीं। इन्होंने अपना नाम कहानियाँ लिखने के लिए प्रेमचंद रख लिया और उसी नाम से बराबर लिखने लगे। इसी नाम से यह विख्यात हुए और इनका असली नाम लोग भूल गए। रामदास गौड़ के कहने से इन्होंने हिंदी में लिखना आरंभ किया। पहले उर्दू लिपि में लिखते थे। बाद में अभ्यास हो जाने पर नागरी लिपि में ही लिखने लगे।

सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद यह काशी विद्यापीठ में पढ़ाने लगे। इसके कुछ दिनों बाद कानपुर के 'ज़माना' में और उसके बाद ज्ञानमंडल वाराणसी से निकलनेवाली मासिक पत्रिका 'मर्यादा' के संपादन विभाग में भी इन्होंने काम किया। इसके पश्चात् कुछ दिन तक लखनऊ से निकलनेवाली पत्रिका 'माधुरी' में रूपनारायण पांडे के साथ काम किया। किंतु इनका स्वतंत्र स्वभाव नौकरी के उपयुक्त न था। वाराणसी आकर इन्होंने अपना स्वयं साहित्यिक मासिक 'हंस' का प्रकाशन आरंभ किया। पत्र अच्छा था किंतु बराबर घाटा हो रहा था इसलिए बंद कर देना पड़ा। 'हंस' के संपादनकाल में ही यह बंबई एक फिल्म कंपनी में काम करने चले गए। इनके पहले उपन्यास 'सेवासदन' का फिल्म बना। फिल्म असफल रहा और फिल्म जगत् के लिए इन्होंने अपने को अनुकूल पाया। ये दुखी होकर वहाँ से लौट आए और फिर 'हंस' का संपादन करने लगे। 'हंस' बंद हो जाने पर राजनीतिक साप्ताहिक पत्र 'जागरण' का प्रकाशन आरंभ किया। वह भी न चला। इसके पश्चात् इन्होंने केवल उपन्यास लिखना ही अपना कार्यक्रम रखा।

कहानीकार - प्रेमचंद ने अपना साहित्यिक जीवन कहानीलेखन से ही आरंभ किया। पहले उनकी कहानियाँ या तो रोमांटिक होती थीं या ऐतिहासिक या बंगला और दूसरी देशी विदेशी भाषाओं का अनुवाद। प्रेमचंद ने जनजीवन को अपनी कहानियों का आधार बनाया। साधारण गाँव के लागों का जीवन, मध्यवर्गीय लोगों का जीवन, साधारण समाज के पात्र, दिन प्रति दिन की घटनाएँ, यही उनकी कहानी के मुख्य तत्व हैं। उनकी लोकप्रियता का यही कारण है। कला तथा टेकनीक की दृष्टि से इनकी कहानियाँ किसी भी देशी या विदेशी कहानी के सामने रखी जा सकती हैं और वे उन्नीस नहीं उतरेंगी। हिंदी कहानी संसार में उन्होंने क्रांति उपस्थित कर दी और हिंदी कहानीलेखन की दृष्टि से वह एकमात्र मूर्धन्य कलाकार बहुत दिनों तक माने जाते रहे। उनके उपन्यासों की श्रेष्ठता के संबंध में दो मत हो सकते हैं किंतु जहाँ तक उनकी कहानी की कला का संबंध है, उनकी श्रेष्ठता के संबंध में दो मत नहीं हैं। उनकी शैली के अनुगामी हिंदी के सैकड़ों कहानी लेखक हुए। उनका पहला कहानीसंग्रह 'सप्तसरोज' नाम से १९१७ में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद प्रेमपूर्णिमा १९१८, प्रेमपचीसी १९२३, प्रेमप्रसून १९२४, प्रेमद्वादशी १९२६, प्रेमप्रतिमा तथा प्रेमप्रमोद १९२६, प्रेमतीर्थ १९२९, पाँच फूल, प्रेमचतुर्थी, प्रेमप्रतिज्ञा १९२९, सप्तसुमन, प्रेमपंचमी १९३०, प्रेरणा तथा समरयात्रा १९३२, पंचप्रसून १९३४, और नवजीवन १९३५। इनकी सब कहानियों का संग्रह 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित हुआ है।

इनकी कहानियों में सजीवता है। पात्रों में स्वाभाविकता है। कथावस्तु चतुर चित्रकार की भाँति चित्रित है और घटनाएँ ऐसी हैं जिनसे हमारा समाज परिचित है, उसे कल्पना का सहारा नहीं लेना पड़ता।

उपन्यासकार - प्रेमचंद ने उपन्यासों की रचना में भी नई जमीन तोड़ी। समाज की कुरीतियों, तथा विदेशी शासन की दुर्दशा पर उनका ध्यान गया। इनके पहले इधर कम लोगों का ध्यान गया था। यदि किसी ने कोई इस प्रकार का उपन्यास लिखा भी तो उसकी दृष्टि इतनी गहरी न थी। समस्याओं का इतना गंभीर अध्ययन किसी और हिंदी लेखक ने नहीं किया था। जिस समय प्रेमचंद ने उपन्यास लिखना आरंभ किया, हमारा देश जागरण की करवटें ले रहा था। आर्थिक तथा राजनीतिक समस्याएँ मुक्त रूप से हमारे सामने थीं। इन सब समस्याओं की ओर प्रेमचंद की दृष्टि गई और अपने उपन्यासों का उन्हें लक्ष्य बनाया। आलोचकों में इस विषय पर विवाद है कि प्रेमचंद यथार्थवादी हैं या आदर्शवादी। ऐसा जान पड़ता है कि प्रेमचंद आरंभ में आदर्शवादी थे पर धीरे धीरे यथार्थ की ओर उन्मुख होते गए हैं - और 'गोदान' तक पहुँचते-पहुँचते यथार्थवदिता अधिक प्रबल हो गई है। फिर भी उने उपन्यासों की मुख्य विशेषता आदर्शवादिता ही है। उन्होंने जिन समस्याओं को अपने उपन्यासों में व्यक्त किया है उनका समाधान भी रखा है, यद्यपि प्रत्येक स्थिति में समाधान उपयुक्त नहीं है और कहीं कहीं असफल भी है।

उनका पहला उपन्यास 'सेवासदन' है। इस सामाजिक उपन्यास में प्रेमचंद की दृष्टि सुधारवादी है। 'सुमन' के जीवन में सुधार करके उससे एक आश्रम प्रतिष्ठापित करके उसके जीवन का परिष्कार करते हैं। 'प्रेमाश्रम' में गाँवों की द्वंद्वमय परिस्थिति का चित्रण किया गा है। अंत में आदर्श ग्राम की स्थापना करके प्रेमचंद ने यथार्थवादिता का ही पचिय नहीं दिया है, यहाँ वे कुछ उपदेशक से लगते हैं। देश की समास्याओं का जहाँ तक संबंध है - प्रेमाश्रम में प्रेमचंद आगे बढ़े हैं किंतु कला की दृष्टि से सेवासदन अधिक सफल है। 'निर्मला' में आर्थिक कठिनाइयों के कारण अनमेल विवाह का चित्रण है। इस उपन्यास में लिस रूप में निर्मला का चित्रण प्रेमचंद ने किया है वह भारतीय नारी के जीवन की दर्दनाक कहानी है। विषम परिस्थिति में भी प्रेमचंद ने भारतीय परिवार के निर्मल चारित्रिक आदर्श की रक्षा की है।

'रंगभूमि' उपन्यास सन् १९२५ में प्रकाशित हुआ। उस समय देश में सत्याग्रह आरंभ हो गया था और साधारण जनता में तथा किसानों में भी जागृति आरंभ हा गई थ। यह उपन्यास गांधीवादी युग का प्रतीक है। इसमें अनेक वर्गों का भी चित्रण है। स्वायत्त शासन पर भी गहरा व्यंग है। उस समय के राजनीतिक जीवन की बहुत अच्छी झलक इसमें है। इस उपन्यास की विशेषता यह है कि इसमें प्रेमचंद ने पहले के उपन्यासों की भाँति किसी रामराज्य की स्थापना करके आदर्श नहीं उपस्थित किया है। इसमें यदि लंबे लंबे वर्णन और कथोपकथन न हाते तो यह उपन्यास बहुत ही उच्च कोटि का होता। १९२८ ई. में 'कायाकल्प' उपन्यास लिखा गया। यों ता यह आध्यात्मिक उपन्यास है किंतु इसमें भी राजनीतिक समस्याएँ आ गई हैं। प्रेमचंद का प्रिय विषय किसानों और मजदूरों का संघर्ष भी इसमें आया है। उन दिनों हिंदू मुस्लिम वैमनस्य जोरों पर था और प्रेमचंद ने दिखाया है कि जब तक ख्वाजा महमूद और यशोदानंद जैसे लोग न होंगे, देश का कल्याण न होगा।

सन् १९३० में 'गवन' उपन्यास प्रकाशित हुआ। इसका आधार नारी का आभूषणों के प्रति प्रेम है। इसमें एक छोटे मनोवैज्ञानिक प्रश्न को लेकर संपूर्ण जीवन का चित्रण किया गया है। यह भी कहा जा सकता है कि इस उपन्यास में राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के स्थान पर मनोवैज्ञानिक समस्या का चित्रण है। लड़कों का जीवन, पुलिस की धूर्तता, कलकत्ते का नागरिक जीवन, इसमें दिखाया गया है। इसकी घटनाएँ इलाहाबाद तथा कलकत्ता - दो नगरों में घटित होती हैं। दो कथाओं को एक में मिलाने का प्रयत्न किया गया है। प्रेमचंद का सुधारक रूप इसमें कुछ व्यक्त दिखाई देता है। इस उपन्यास की एक विशेषता यह है कि इसकी सभी नारियाँ अपनी दुर्बलताओं के साथ हमारे सामने प्रकट होती हैं किंतु ये दुर्बलताएँ कामवासना से प्रेरित नहीं हैं, अर्थलोलुपता से हैं। किंतु प्रेमचंद ने अपनी आदर्शवादिता से प्रेरित होकर इनका चित्रण ऐसा किया है कि अंत में इन नारियों का परिष्कार हो जाता है। कुछ बातों को यदि छोड़ दिया जाए तो प्रेमचंद का यह बहुत उत्कृष्ट उपन्यास है। इसके पश्चात् १९३२ ई. में 'कर्मभूमि' प्रकाशित हुआ। इस समय भी देश में सत्याग्रह आंदोलन उग्र रूप में था। उसका प्रभाव तथा अन्य सामाजिक आंदोलनों का प्रभाव इस उपन्यास में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। कृषकों और श्रमिकों की दीनता, शिक्षा संस्थाओं की व्यवसायी नीति, जमींदारों की विलासिता, महंतों की स्वेच्छाचारिता तथा राजकर्मंचारियों का पतन इसमें चित्रित है। सन् १९३१ में हुए गांधी ईविन समझौते की भी इसमें झलक है। सन् १९३० में इनका प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' प्रकाशित हुआ जिसमें नागरिक तथा ग्रामीण दो कथाएँ मिलाई गई हैं। नागरिक कथा गौण है। फिर भी दोनों कथाएँ एक दूसरी से इतनी संबद्ध हैं कि अस्वाभाविक नहीं जान पड़तीं। यह उपन्यास ग्रामीण जीवन की दीनता और सामाजिक विषमता को प्रदर्शित करता है। इसमें भारतीय राष्ट्र के जागरण का प्रतिबिंब दिखाई देता है। कुछ लोगों का कहना है कि उस उपन्यास इस युग की प्रतिनिधि रचना है। ग्रामीण जीवन का प्रतिनिधि 'होरी' है। इस उपन्यास में भी प्रेमचंद ने काई आदर्शवाद समाधान नहीं उपस्थित किया है।

प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास 'मंगलसूत्र' है जो अपूर्ण है।

प्रेमचंद के पात्र व्यक्ति नहीं हैं, वे प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि हैं। इनके नारीपात्र अधिक धनी और सफल हैं। उन्हें हम प्राय: आदर्शोन्मुख देखते हैं।

भाषा - प्रेमचंद आरंभ में उर्दू में ही कहानियाँ लिखते थे। हिंदी में भी उर्दू की शैली का प्रभाव बना रहा और उर्दू शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से वह करते रहे। आगे चलकर यह प्रवृत्ति कम होती गई। इनकी भाषा सरल और मुहाबरेदार है। लोकजीवन को लोकभाषा में प्रस्तुत करने के कारण ही वे सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकार हो सके।

सं.ग्रं. - जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' : प्रेमचंद की उपन्यास कला; रारतन भटनागर : प्रेमचंद : एक अध्ययन; कलाकार प्रेमचंद ; शिवानी देवी : प्रेमचंद घर में। (कृष्णदेव प्रसाद गौड़)