प्रेत तथा प्रेतसंस्कार प्रेत की कल्पना केवल भारतीय संस्कृति में ही नहीं, वरन् संसार के सभी देशों और संस्कृतियों में पाई जाती हे। प्रेत शब्द के अन्य कई समानार्थी शब्द हमारे देश में प्रचलित हैं, जैसे भूत, पिशाच, ब्रह्म, चुड़ैल, दैत्य इत्यादि। यद्यपि इन शब्दों के अर्थों में थोड़ा बहुत भेद है तथापि इन सभी के पीछे ये विश्वास है कि शरीरधारियों के देहांत के बाद उनकी आत्मा इधर उधर भटकती रहती है। ऐसी आत्माओं को ही प्रेत की संज्ञा दी जाती है। प्रेत शब्द प्रइत दो शब्दों के संयोग से बना है। इसका अर्थ है 'वह जो चला गया', इसी प्रकार भूत शब्द का अर्थ 'बीता हुआ' होता है। जब किसी मद्यप, पागल, अपराधी या अत्याचारी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसके प्रेत को पिशाच कहते हैं। ब्राह्मण के प्रेत को ब्रह्म तथा स्त्रियों के प्रेत को चुड़ैल कहा जाता है।

प्रेतकल्पना का मूल आधार जीववाद (Animism) है (दे. 'सर्वात्मवाद')। इसके अनुसार जीव का अस्तित्व शरीर से भिन्न होता है और देहांत के पश्चात् वह अदृश्य रूप में इधर उधर भटकता रहता है। इसे ही प्रेत कहा जाता है। प्रेत का स्वभाव प्राय: प्रतिशोधात्मक माना जाता है।

संसार की अन्य संस्कृतियों में प्रेत संबंधी बहुत सी कल्पनाएँ प्रचलित हैं। बैंक द्वीप के रहनेवाले प्रेत को वी (vui) कहते हैं। इन लोगों का विश्वास है कि वी में यद्यपि चिंतन शक्ति रहती है तथापि इनमें स्वरूप का अभाव रहता है। ये स्वरूप धारण कर सकते हैं। फिर भी ये अदृश्य ही रहते हैं। मरे हुए व्यक्ति इनका दर्शन कर सकते हैं।

असीरियावासी (Assyrians) प्रेत को एडिमू (Edimmu) कहते हैं। एडिमू अकाल मृत्यु के कारण बनते हैं। प्रेतों की भाँति एडिमू लोगों को डराते और सताते हैं। प्रेतपीड़ित व्यक्तियों को ओझा (Shamans) की सहायता से प्रेतमुक्त किया जाता है। असीरियावासी सात प्रकार के प्रेतों में विश्वास करते हैं जो निम्नलिखित हैं :-

१. एडिमू (Edimmu), २. उटुक्कू (Utukku), ३. गालू (Gallu), ४. राबिसू (Rabisu), ५. लीलू (Lilu), ६. लिलीतू (Lilitu), ७. आरदतलिली (Ardat Lili)।

चीनी लोग प्रेतों को क्वी (Kwi) कहते हैं। चीनियों का विश्वास है कि क्वी लेग रात्रि में घूमते फिरते हैं। मिस्त्र में प्रेतों को बियू या खू (Khu) कहते हैं। खू बियू की तुलना में अधिक घातक माने जाते हैं। जापानी लोग प्रेतों को ओनी (Oni) कहते हैं। उनका विश्वास है कि प्रेतों की तीन आँखें होती हैं। उनकी जीभ बाहर लपलपाती रहती है और उन्हें केवल आधी रात में देखा जा सकता है। इस्लाम धर्मावलंबियों का विश्वास है कि जिन्न या शैतान योनि होती है। इनकी विशेषता यह है कि ये केवल एक तत्व के बने होते हैं। पारसी लोग प्रेतों को देव और प्रेतिनियों को बूज़ेज़ कहते हैं। ये शरीरधारी नहीं होते। अहरीमन प्रेतों का मुखिया माना जाता है। तिब्बत में प्रेतों को ईहा (Iha) कहते हैं।

भारतीय पुराणों के अनुसार प्रेतों का रंग काला, स्वरूप विकराल और पैर की उँगलियाँ पीछे रहती हैं। ये नकियाकर बोलते हैं और इनकी छाया नहीं पड़ती। मृत्यु के बाद मनुष्य का केवल लिंग शरीर मात्र रह जाता है। जब उसके लिए पिंड आदि दिया जाता है तो उसे प्रेतशरीर प्राप्त होता है। प्रेतशरीर को भोगशरीर भी कहते हैं। जब तक वह प्रेतावस्था में ही माना जाता है। पौराणिक विश्वास के अनुसार कुछ निषिद्ध कर्मों के कारण ही व्यक्तियों का प्रेतयोनि में जाना पड़ता है। निषिद्ध कर्मों में ब्राह्मण की निंदा, माता पिता का निरादर, कन्याविक्रय, कुरुक्षेत्र में दान लेना, गोवध करना, चोरी करना, शराब, मट्ठा, दूध, दही आदि का विक्रय करना मुख्य है। ऐसा विश्वास है कि प्रेत लोग मल मूत्र अथवा अन्य अपवित्र वस्तुओं का सेवन करते हैं और अपवित्र स्थान पर रहते हैं। उनका मुख सुई की तरह पतला और पेट बहुत भारी होता है। इसलिए वे सर्वदा क्षुधा से पीड़ित रहते हैं।

डा.बी.एल. आत्रेय के अनुसार प्रेत योनि होती है। उनका विश्वास है कि क्रियाओं की सहायता से मृत आत्माओं का आह्वान विशिष्ट किया जा सकता है (दे. पलांचेट)। आजकल परामनोविज्ञान (Para Psychology) में प्रेतों के अस्तित्व पर शोध कार्य किए जा रहे हैं। आशा है, इन कार्यों से लोगों को प्रेतों के विषय में विशेष जानकारी हो सकेगी।

प्रेत संस्कार - प्रेत संस्कारों के द्वारा अनेक उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है। मृत्यु के बाद पूरक पिंड संस्कार या दसपिंड संस्कार द्वारा प्रेतदेह की उत्पत्ति की जाती है। प्रथम पिंड के द्वारा प्रेत का सिर बनता है। दूसरे के द्वारा कान, आँख तथा नाक, तीसरे के द्वारा गर्दन, कंधा तथा छाती, चौथे के द्वारा मूत्रेंद्रिय, नाभि तथा गुदा, पाँचवें के द्वारा जंघा तथा पैर, छठे द्वारा चर्म, सातवें के द्वारा नाड़ियाँ आठवें के द्वारा दॉत और बाल, नवे के द्वारा वीर्य तथा दसवें पिंड के द्वारा सभी अंगों की पूर्ति होती है। इस संस्कार द्वारा मृत व्यक्ति प्रेतदेह का परित्याग करके प्रेतयोनि से मुक्त होता है। प्रेतसंस्कार करने का अधिकार केवल ज्येष्ठ या कनिष्ठ पुत्र तथा पौत्र को होता है। यदि ज्येष्ठ पुत्र न रहे तभी कनिष्ठ पुत्र प्रेतश्राद्ध कर सकता है और कनिष्ठ पुत्र के भी न रहने पर पौत्र प्रेतश्राद्ध कर सकता है। कर्मविशेष से प्रेतश्राद्ध होने पर भी लोग प्रेतयोनि में बने रहते हैं। ऐसे प्रेतों को भूत कहते हैं। प्रेतश्राद्ध के लिए कुछ निश्चित तिथियाँ होती हैं। चैत्र, आश्विन, कृष्ण पक्ष, पितृपक्ष इत्यादि प्रेतश्राद्ध के लिए उपयुक्त तिथियाँ मानी जाती हैं। पुराणों में प्रेतत्व को दूर करने के लिए कुछ अन्य संस्कार भी बताए गए हैं जिनमें वृषोत्सर्ग मुख्य है। इस संस्कार को आद्यैकोदिष्ट श्राद्ध भी कहते हैं। साल भर तक प्रेत के लिए प्रतिदिन अन्न तथा जलदान करने को अंबुघट श्राद्ध कहते हैं। इससे भी प्रेतत्व समाप्त होता है।

प्रेतबाघा समाप्त करने के लिए गया में प्रेतशिला पर पिंडदान किया जाता है। हिंदुओं की मान्यता है कि ऐसा करने से प्रेतों का उद्धार हो जाता है और प्रेतबाधा समाप्त हो जाती है। गया में एक प्रेतपर्वत भी है जहाँ पर श्राद्ध करने से प्रेतोद्धार होता है। काशी में पिशाचमोचन नामक स्थान पर प्रेतबाधा से पीड़ित लोगों को मुक्त किया जाता है।

सं.ग्रं. - हिंदी विश्वकोश (नगेंद्रनाथ बसु) चौदहवाँ भाग; गरुड़ पुराण; अग्नि पुराण; श्राद्धविवेक; एनसाइक्लोपीडिया ऑव रिलीजन ऐंड एथिक्स; इंट्रोडक्शन टफ पैरासाइकोलोजी। (विश्वनाथ त्रिपाठी.)