प्रादेशिक अशोक के तृतीय शिलालेख में युक्त, राजुक, और प्रादेशिक का उल्लेख मिलता है। राजुक के विषय में चतुर्थ स्तंभलेख में कहा गया है कि वह कई सहस्त्र व्यक्तियों के ऊपर शासन करते थे। इन तीनों श्रेणियों के शासनाधिकारियों को आदेश दिया गया है कि वे जनता के दु:ख-सुख का स्वयं ज्ञान प्राप्त करने के हेतु, क्रम से प्रति पाँचवें वर्ष दौरा करें। सम्राट् ने यह भी आदेश दिया है कि वे सब प्रजा के नैतिक उत्थान का प्रयास करें जिससे लौकिक और पारलौकिक यश और कीर्ति मिले। जिस क्रम से इन शासनाधिकारियों का उल्लेख है उससे यह प्रतीत होता है उससे यह प्रतीत होता है कि प्रादेशिक सबसे उच्च थे। जैसा इसके अर्थ से प्रतीत होता है, प्रादेशिक संपूर्ण प्रदेश के केंद्रीय शासन की ओर से अधिकारी थे। अशोक का शासनव्यवस्था में साम्राज्य को केंद्र के अतिरिक्त चार भागों में विभाजित किया गया था जहाँ पर सम्राट् की ओर से राजकुमार ही शासन करते थे। अत: प्रादेशिक इन राजकुमारों के अधीन ही हो सकते थे। इन्हें 'प्रादेशिक महामात्र' भी राष्ट्रीयेन से की जा सकती है।

अशोक के लेखों पर व्याख्या करते हुए विद्वानों ने इन अधिकारियों के कर्तव्यों तथा इनकी समानता का उल्लेख किया है। सेनार्ट, कर्न तथा ब्यूलर ने प्रादेशिक को स्थानीय शासक अथवा राज्यपाल माना है, किंतु स्मिथ महोदाय इसे जिलाधीश समझते हैं। टॉमस ने इसकी समानता कौटिल्य अर्थशास्त्र में उल्लिखित 'प्रदेष्टि' से की है जिसका कार्य शासक की ओर से बलिप्रग्रह ('कर' वसूलना अथवा अनुशासनहीनों पर नियंत्रण रखना) कंटक शोधन (दंड प्रशासन), चौर मार्गणन (चोरों को पकड़ने का प्रयास तथा अध्यक्ष इत्यादि के कार्यों की देख रेख करना था) इसका स्थान समाहर्तृं तथा गोप, स्थानिक और अध्यक्ष के मध्य में था। हूल्श ने प्रादेशिक की समानता कल्हणराजतरंगिणी (४.१२६) के प्रादेशिकेश्वर से की है। विष्णु पुराण (५.२६) में प्रदेश का उल्लेख मिलता है किंतु इसके अर्थ 'मंत्रणा' अथवा 'आदेश' लिया गया है। अशोक के प्रथम कलिंग लेख (धौली तथा जौगढ़) में प्रादेशिक महामात्र का उल्लेख है। अशोक कालीन प्रादेशिक की समानता वर्तमान आयुक्त (कमिश्नर) से की जा सकती है। (बैजनाथ पुरी)