प्राकृत भाषा और साहित्य भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में जो नाना प्रादेशिक भाषाएँ विकसित हुई उनका सामान्य नाम प्राकृत है, और उन भाषाओं में जो ग्रंथ रचे गए उन सबको समुच्चय रूप से प्राकृत साहित्य कहा जाता है। विकास की दृष्टि से भाषावैज्ञानिकों ने भारत में आर्यभाषा के तीन स्तर नियत किए हैं प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीन। प्राचीन स्तर की भाषाएँ वैदिक और संस्कृत हैं, जिनके विकास का काल अनुमानत: ई. पू. २००० से ई. पू. ६०० तक माना जाता है। मध्ययुगीन भाषाएँ हैं मागधी, अर्धमागधी, शौरसैनी, पैशाची, महाराष्ट्री और अपभ्रंश। इनका विकासकाल ई. पूर्व ६०० ई. १००० तक पाया जाता है। इसके पश्चात्, हिंदी, गुजराती, मराठी, बँगला, आदि उत्तर भारत की आधुनिक आर्यभाषाओं का विकास प्रारंभ हुआ जो आज तक चला आ रहा है। प्राचीन भाषाओं से उक्त मध्ययुगीन भाषाओं में मुख्यत: निम्न विशेषताएँ पाई जाती हैं :

संस्कृत के स्वरों में ऋ, लृ, एवं ऐ और और का मध्ययुगीन भाषाओं में अभाव है। ए और ओ की ्ह्रस्व मात्राओं का प्रयोग इन भाषाओं की अपनी विशेषता है। (२) विसर्ग यहाँ सर्वथा नहीं पाया जाता। (३) क से लेकर म् तक के स्पर्शवर्ण पाए जाते हैं। किंतु अनुनासिकों में संकोच तथा व्यत्यय होता है। (४) तीनों ऊष्मा वर्णो के स्थान पर केवल एक, और विशेषत: स् ही अवशिष्ट पाया जाता है। (५) संयुक्त व्यंजनों का प्राय अभाव है। दोनों संयोगी व्यंजनों का या तो समीकरण कर लिया जाता है अथवा स्वरागम द्वारा दोनों को विभक्त कर दिया जाता है, या उनमें से एक का लोप कर दिया जाता है। (६) द्वित्व व्यंजन से पूर्व का दीर्घ स्वर ्ह्रास्व कर दिया जाता है एवं संयुक्त व्यंजन में से एक का लोप कर उससे पूर्व का ्ह्रस्व स्वर दीर्घ कर दिया जाता है। (७) व्याकरण की दृष्टि से संज्ञाओं तथा क्रियाओं के रूपों में द्विवचन नहीं पाया जाता (८) हलंत संज्ञाओं और धातुओं को स्वरांत बनाकर चलाया जाता है। (९) कारक के रूपों में संकोच पाया जाता है। (१०) क्रियाओं में गणभेद एवं परस्मैपद आत्मनेपद का भेद नहीं किया जाता। (११) सभी प्रकार के रूप विकल्प से चलते हैं। (१२) क्रियारूपों में कालादि भेदों का अल्पीकरण हुआ है। इनका बहुत काम बहुधा कृदंतों से चलाया जाता है।

अब प्रश्न यह होता है कि मध्ययुग की भाषाओं में संस्कृत की अपेक्षा इतनी अधिक विशेषताएँ कब, क्यों, कैसे और कहाँ पर उत्पन्न हो गईं। प्राकृत के वररुचि आदि वैयाकरणों ने प्राकृत भाषाओं की प्रकृति संस्कृत को मानकर उससे प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति की है। 'प्रकृति: संस्कृतं, तत्रभवं तत आगतं वा प्राकृतम्'। किंतु संस्कृत भाषा का वर्तमान स्वरूप स्वयं ई. पूर्व छठी शती के लगभग विकसित हुआ है, और उसे स्थिर रूप तो पाणिनि द्वारा ई. पू. तीसरी चौथी शती में दिया गया है। संस्कृत के उक्त प्रकार के अनेक लक्षणों से विभिन्न भाषाओं का छठी शती ई. पू. में ही उत्पन्न होना कैसे संभव हो सकता है ? इसके अतिरिक्त प्राकृत में ऐसे भी अनेक शब्द पाए जाते हैं जिनका संस्कृत में अभाव है, किंतु वैदिक भाषा में वे विद्यमान हैं। प्राकृत की अनेक प्रवृत्तियों को लिए हुए बहुत से शब्द वेदों में पाए जाते हैं, जो संस्कृत व्याकरण के अनुकूल नहीं हैं। इस समस्या पर अनेक पाश्चात्य विद्वानों का एक मत यह है कि आर्यभाषा जब भारतवर्ष में प्रचलित हुई, अनार्य लोग उसका आर्यो के सदृश शुद्ध शुद्ध उच्चारण और प्रयोग नहीं कर पाए; अतएव उन्होंने अपने निजी उच्चारण एवं भाषाशैली के अनुसार उसे बोलना प्रारंभ किया, और उनके संपर्क से इस का प्रभाव आर्यो पर भी पड़ा। इसी के फलस्वरूप प्राकृत भाषा की प्रवृत्तियों का विकास हुआ। इस मत के समर्थन में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि वैदिक काल से ही जो ट् ठ् आदि मूर्धन्य ध्वनियों का प्रवेश आर्यभाषा में हुआ, वह बहुलता से उस काल की अनार्य भाषाओं का ही प्रभाव था। किंतु प्राचीन अनार्य भाषाओं का विश्लेषण कर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि प्राकृत की उक्त विशेषताओं का बीज उन अनार्य भाषाओं में विद्यमान थे। इसीलिये इस मत के संबंध में विवाद है।

दूसरा मत यह है कि वेदों की भाषा बोलनेवाले जातियों में ही स्वयं ध्वन्यात्मक भेद थे, जिनके कुछ प्रमाण वेदों में ही उपस्थित है अनुमानत: वेदों की भाषा उस काल की रूढ़िबद्ध वेदभाषा के क्रमविक से अनुमानत: कई हजार वर्षो में संस्कृत भाषा का विकास हुआ, पर विशेषत: सुशिक्षित पुरोहित वर्ग की अपनी भाषा थी, तथा जिसमें धार्मिक कार्यों मे ही उपयोग किया जाता था। उतने ही काल प्राचीनतम वैदिक भाषा की समकालीन जनसाधारण की लोकभाषा से संस्कृत के साथ साथ ही प्राकृत का भी विकास हुआ, जिसमें प्रदेशभेदानुसार नाना भेद थे। इस संबंध में यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि भारत में आर्यों का प्रवेश एक ही काल में एवं एक धारा में हुआ नहीं कहा जा सकता। यदि आगे पीछे आनेवाली आर्य जातियों के भाषाभेद से प्राकृत भाषाओं के उद्गम और विकास व संबंध हो तो आश्चर्य नहीं। इस संबंध में हॉर्नले और ग्रियर्सन के वह मत भी उल्लेखनीय है जिसके अनुसार भारतीय आर्यभाषाएँ दो वर्गो में विभाजित पाई जाती हैं एक बाह्य और दूसरा आभ्यंतर उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूर्व की भाषाओं के उक्त प्रकार दो वर्ग उत्पन्न हो गए। इसे संक्षेप में समझने के लिये महाराष्ट्र प्रदेश के नामों जैसे गोखले, खेर, परांजपे, पाध्ये, मुंजे गोडवोले, तांबे, तथा लंका में प्रचलित नामों जैसे गुणतिलके सेना नायके, बंदरनायक आदि में जो अकारांत कर्ता एक वचन के रूप से ए प्रत्यय दिखाई देता है, वही पूर्व की मागधी प्राकृत मे अपने नियमित स्थिरता को प्राप्त हुआ पाया जाता है। आदि आर्यभाषा मे वैदिक र् के स्थान पर ल् का उच्चारण भी माना गया है, जैसे कुलउ = श्रोत्र। उसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप वैदिक वृक् के स्थान पर जर्मन भाषासमूह में वुल्फ़ एवं ग्रीक में पृथु का प्लुतुस् पाया जाता है। यह र् के स्थान पर ल् का उच्चाराण ध्वनि मागधी से सुरक्षित हैं, किंतु उसी काल की बोलियों में उनके समीकृत रूप जैसे ओत्त अत्त, सत्त, भी पाए जाते हैं। बोगाजकुई के भिन्न मितन्नि (मैत्रा यणी ?) आर्यशाखा के जो लगभग २०० ई. पू. के लेख मिले हैं उनमें इंद्र और नासत्य देवताओं के नाम इंदर और नासातीय रूप से अंकित हैं। उनमें स्वरभक्ति द्वारा संयुक्त वर्णो के संयुक्त किए जाने की प्रवृत्ति विद्यमान है। वरुण देवता का नाम 'उरुवन' रूप में उल्लिखित है जिसमें स्वर के अग्रागम तथा वर्णव्यत्यय की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है। ये प्रवृत्तियाँ प्राकृत के सामान्य लक्षण हैं। पालि में प्रयुक्त इध संस्कृत तथा वैदिक के इह से पूर्वकालीन परंपरा का है इसमें भी किसी को कोई संदेह नहीं है। आदि आर्यभाषा में ए तथा ओ के ्ह्रस्व रूप थे; ऐ और औ का अभाव था; किंतु अइ, अउ जैसे मिश्र स्वर प्रचलित थे; अनुनासिक स्पर्शों का संकोच था; तीन ऊष्मों में केवल एकमात्र स् ही था। ये ध्वन्यात्मक विशेषताएँ प्रधानत: शौरसेनी प्राकृत में सुरक्षित पाई जाती हैं, इत्यादि। इन लक्षणों के सद्भाव का समाधान समुचित रूप से यही मानकर किया जा सकता है कि प्राकृत भाषाओं में उनका आगमन प्राचीनतम आर्य जातियों की बोलियों से अविच्छिन्न परंपरा द्वारा चला आया है। यथार्थत: संस्कृत हो अथवा वैदिक को ही प्राकृत की प्रकृति मान लेने से उक्त लक्षणों का कोई समाधान नहीं होता।

तब प्राकृत के वैयाकरणों ने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति क्यों कहा? इसका कारण उन व्याकरणों के रचे जाने के काल और उनके स्वरूप पर ध्यान देने से स्पष्टत: समझ मे आ जाता है। वे व्याकरण उस काल में लिखे गए जब विद्वत्समाज में प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत का अधिक प्रचार और सम्मान था। वे लिखे भी संस्कृत भाषा में गए हैं तथा उनका उद्देश्य भी संस्कृत नाटकों में भी प्राकृतिकता रखने के लिए करना पड़ता था और जिनमें उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएँ भी निर्मित हो चुकी थीं। अतएव उन वैयाकरणों ने संस्कृत को आदर्श ठहराकर उससे जो विशेषताएँ प्राकृत में थीं उनका विवरण उपस्थित कर दिया और इसकी सार्थकता संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहकर सिद्ध कर दी। तथापि नमिसाधु ने अपना यह मत स्पष्ट प्रकट किया है कि प्रकृति का अर्थ लोक या जनता है और जनसाधारण को भाषा होने से ही वह प्राकृत कहलाई। प्रकृति का अर्थ लोक बहुत प्राचीन है तथा कालिदास ने भी उसका लोक के अर्थ में प्रयोग किया है (राजा प्रकृति रञ्जनात्, रघु. सर्ग, ४)। प्राकृतों की इस अति प्राचीन परंपरा के प्रकाश में इन भाषाओं को वैदिक और संस्कृत की अपेक्षा उत्तरकालीन व मध्ययुगीन कहने का औचित्य भी विचारणीय हो जाता है। उसकी यदि कोई सार्थकता है तो केवल इतनी कि ये भाषाएँ वैदिक और संस्कृत के पश्चात् ही साहित्य में प्रयुक्त हुईं। उनका प्रथम बार धार्मिक प्रचार के लिये उपयोग ई. पू. छठी शती मे महावीर और बुद्ध ने किया। तथा उनकी साहित्यिक रचनाओं में शब्दों तथा शैली की दृष्टि से संस्कृत का बड़ा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

भाषा जब तक बोली के रूप में रहती है, उसमें देश और काल की अपेक्षा निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। इसी नियम के अनुसार काल की अपेक्षा प्राकृत के तीन स्तर स्वीकार किए गए हैं पूर्वकालीन (ई. पू. ६०० से १०० ई. तक), मध्यकालीन (ई. १०० से ६०० ई. स. तक) तथा उत्तरकालीन (ई. सन् ६०० से १००० तक)। बुद्ध और महावीर ने जिस भाषा या भाषाओं में अपने उपदेश दिए वे प्राकृत के प्राचीन स्तर के उत्कृष्ट रूप रहे होंगे। उनके उपदेशों की भाषा को क्रमश: मागधी एवं अर्धमागधी कहा गया है। किंतु वर्तमान में पालि कही जानेवाली भाषा के ग्रंथों में हमे मागधी का वह स्वरूप नहीं मिलता जैसा पश्चात्कालीन वैयाकरणों ने बतलाया है। तथापि भाषा का जो स्वरूप बौद्ध त्रिपिटक ग्रंथों में पाया जाता है वह प्राकृत के प्राचीन स्तर का ही स्वीकार किया जाता है। इस स्तर प्राकृत का सर्वत: प्रामाणिक स्वरूप अशोक की शिलाओं और स्तंभो पर उत्कीर्ण धर्मलिपियों में उपलबध होता है। इन शिलाओं की संख्या लगभग ३० है। सौभाग्य से इनमें केवल ई. पूर्व तृतीय शती की प्राकृत भाषा का स्वरूप सुरक्षित है, किंतु उन प्रशस्तियों में तत्कालीन भाषा के प्रादेशिक भेद भी हमें प्राप्त होते हैं। पश्चिमोत्तर प्रदेश में शहबाजगढ़ी और मानसेहरा नामक स्थानों की शिलाओं पर जो १४ प्रशस्तियाँ खुदी हुई पाई गई हैं उनमें स्पर्श वर्णों के अतिरिक्त र् और ल् एवं श् ष् स् ये तीनों ऊष्म प्राय: अपने अपने स्थानों पर सुरक्षित हैं। रकार युक्त संयुक्त वर्ण भी दिखाई देते हैं। किंतु ज्ञ और णय के स्थान पर ञ्ञ का प्रयोग पाया जाता है। इस प्रकार यह भाषा वैयाकरणों की पैशाची प्राकृत का पूर्वरूप कही जा सकती है। ये ही १४ प्रशस्तियाँ उस भाषा को शौरसेनी का प्राचीन रूप प्रकट करती हैं। उत्तर प्रदेशवर्ती कालसी, जौगड़ नछौली नामक स्थानों पर भी वे ही १४ प्रशस्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इनमें हमें र् के स्थान पर ल् तथा अकारांत संज्ञाओं के कर्ता कारक एक वचन की ए विभक्ति प्राप्त होती है। तथापि तीनों ऊष्मों के स्थान पर श् नहीं किंतु स् का अस्तित्व मिलता है। इस प्रकार यहाँ मागधी प्राकृत के तीन लक्षण नहीं। अतएव इसे मागधी की अपेक्षा अर्धमागधी प्राकृत के तीन लक्षणों में से दो प्रचुर रूप से प्राप्त होते हैं, किंतु सकार संबंधी तीसरा लक्षण नहीं। अतएव इसे मागधी की अपेक्षा अर्धमागधी प्राकृत का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। अशोक की प्रशस्तियाँ उनके भाषात्मक महत्व के अतिरिक्त साहित्यिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। उनमें प्राचीन भारत (ई. पू. ३री शती) के एक ऐसे सम्राट के नीति, धर्म एवं सदाचार संबंधी विचार और उपदेश निहित हैं जिसने न केवल इस विशाल देश के समस्त भागों पर राजनीतिक अधिकार ही प्राप्त किया था, तथा देश के बाहर भी अलेक्जेंड्रिया तक भिन्न भिन्न देशों से सांस्कृतिक संबंध स्थापित किया था और यहाँ अपने धर्मदूत भी भेजे थे। इस सबके बाहर भी अलेक्जेंड्रिया तक भिन्न भिन्न देशों से सांस्कृतिक संबंध स्थापित किया था, और वहाँ अपने धर्मदूत भी भेजे थे। इन सब दृष्टियों से यह साहित्य अपने ढंग का अद्वितीय है।

प्राचीन स्तर की प्राकृत का दूसरा उदाहरण उड़ीसा की उदयगिरि खंडगिरि की हाथीगुंफा नामक गुहा में उर्त्कीण कलिंगसम्राट् खारवेल का लेख है जो अनेक बातों में अशोक के शिलालेखों से समता रखता है। किंतु इसकी अपनी विशेषता यह है कि इसमें उस सम्राट् के वर्षो की विजयों तथा लोककल्याण संबंधी कार्यो का विवरण लिखा गया है। इसका काल अनुमानत: ई. पू. द्वितीय शती है। उसकी भाषा अशोक की गिरनार की प्रशस्तियों से मेल खाती है, अतएव वह प्राचीन शौरसेनी कही जा सकती है। इस प्राकृत का ई. पू. तीसरी शताब्दी मं पश्चिम भारत और उसके सौ, डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् जैन षट्खंडागम आदि ग्रंथों एवं कुंदकुंदाचार्य आदि की दक्षिण प्रदेश की रचनाओं में पाया जाना उसकी तत्कालीन दिग्विजय तथा सार्वभौमिकता का प्रमाण है। उस काल में इतना प्रचार और किसी भाषा का नहीं पाया जाता।

इसी प्राचीन स्तर की प्राकृत का प्रयोग हमें अश्वघोष कृत सारिपुत्र प्रकरण आदि नाटकों के उपलब्ध खंडों में प्राप्त होता है। इनमें नायकों तथा एक दो अन्य पात्रों को छोड़कर शेष सभी पात्र प्राकृत बोलते हैं, जिसके तीन रूप स्पष्ट दिखाई देते हैं। सारिपुत्र प्रकरण में दुष्ट की भाषा में र् के स्थान पर ल्, तीनों ऊष्मों के स्थान पर श् तथा अकारांत संज्ञाओं के कर्ताकारक एकवचन के रूप में ए विभक्ति, ये तीन लक्षण स्पष्टत: उस भाग को मागधी सिद्ध करते हैं। यहाँ क् त् आदि अघोष वर्ण न तो ग् द् आदि सघोषों में परिवर्तित हुए मिलते, न थ घ् आदि महाप्राण वर्ण ह् में परिवर्तित हुए मिलते, न थ् घ् आदि महाप्राण वर्ण हृ में परिवर्तित हुए और न दंत्य न् के स्थान पर मूर्धन्य ण दिखाई देता। ये अश्वघोष की प्राकृत के लक्षण उसे प्राचीन स्तर की सिद्ध कर रहे हैं। गोर्व नामक पात्र की भाषा की प्राकृत में र् के स्थान पर स् का प्रयोग हुआ है। ये लक्षण उसे अर्धमागधी सिद्ध कर रहे हैं। नायिका, विदूषक तथा अन्य पात्रों की प्राकृत में र् और ल् अपने अपने स्थानों पर हैं। सब ऊष्म स् के रूपमें पाए जाते हैं तथा कर्ताकारक एकवचन ओकारांत पाया जाता है। इनसे यह भाषा स्पष्टत: प्राचीन शौरसेनी कही जा सकती है।

इसके पश्चात् प्राकृत भाषाओं के जो भेद प्रभेद हुए उनका विशद वर्णन भरत नाट्यशास्त्र (अध्याय १७) में प्राप्त होता है। उन्होंने वाणी का पाठ दो प्रकार का माना है संस्कृत और प्राकृत, तथा कहा है कि प्राकृत में तीन प्रकार के शब्द प्रचलित हैं समान (तत्सम), विभ्रष्ट (तद्भव) और देशी। नाटक में भाषाप्रयोग का विवरण उन्होंने इस प्रकार दिया है उत्तम पात्र संस्कृत बोलें, किंतु यदि वे दरिद्र हो जाएँ तो प्राकृत बोलें, श्रमण, तपस्वी भिक्षु, स्त्री, बालक, आदि अशुद्ध है। तथापि इतना स्पष्ट है कि उन्होंने क, त, द, य और व के लोप, ख, घ आदि महाप्राण वर्णो के स्थान पर ह का आदेश; ट का ड, अनादि त् का अस्पष्ट द कार उच्चारण; ष्ट, ष्ण आदि का खकार, इन परिवर्तनों का उल्लेख किया है। इससे प्रमाणित है कि वे द्वितीय स्तर की प्राकृत का ही वर्णन कर रहे हैं। ३२वें अध्याय में उन्होंने ध्रुवा नामक गीतिकाव्य का विस्तार से उदाहरणों सहित वर्णन किया है और स्पष्ट कहा है कि ध्रुवा में शौरसेनी का ही प्रयोग किया जाना चाहिए (भाषा तु शोरसेनी ध्रुवायाँ संप्रयोजयेत्)। यह बात उनके उदाहरणों से भी प्रमाणित है। अत: पश्चात्कालीन धारणा निर्मूल है कि नाटकों के गेय भाग में महाराष्ट्री का प्रयोग किया जाय। भरत के मत से नाटक में शौरसेनी भाषा का प्रयोग किया जाय या इच्छानुसार किसी भी देशभाषा का। ऐसी देशभाषाएँ सांत हैं मागधी, आवंती, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाह्लीका, और दक्षिणात्या। अंत:पुर निवासियों के लिये मागधी; चेट, राजपुत्र और सेठों के लिये अर्घमागधी; विदूषकादि के लिये प्राच्या; नायिका एवं सखियों के लिये अर्धमागघी; विदूषकादि के लिये प्राच्या; नायिका एवं सखियों के लिये शौरसेनी से अविरुद्ध आवंती; योद्धा, नागरिक तथा जुआरियों के लिये दाक्षिणात्या; तथा उदीच्य, खस, शबर, शक आदि जातियों के लिये वाह्लीका का प्रयोग करें। इनके अतिरिक्त भरत ने शबर, आभीर, चांडाल आदि की हीन भाषाओं को विभाशा कहा है। इस प्रकार भरत के नाटक के पात्रों में जो प्राकृत भावनाओं का बँटवारा किया है उसका संस्कृत के नाटकों में आंशिक रूप से ही पालन किया जाता है।

संस्कृत नाटकों में सबसे अधिक प्राकृत का उपयोग और वैचित््रय शूद्रक कृत मृच्छकटिक में मिलता है। पिशल, कीथ विद्वानों आदि के मतानुसार तो मृच्छकटिक की रचना का उद्देश्य ही प्राकृत सम्बन्धी नाट्यशास्त्र के नियमों को उदाहृत करना प्रतीत होता है। इस नाटक के टीकाकार पृथ्वीधर के मतानुसार नाटक में चार प्रकार की प्राकृत का ही प्रयोग किया जाता है शौरसेनी, अवंतिका, प्राच्य और मागधी। प्रस्तुत नाटक में सूत्रधार, नटी, नायिका वसंतसेना, चारुदत्त की ब्राह्मणी स्त्री एवं श्रेष्ठी तथा इनके परिचारक परिचारिकाऐं ऐसे ११ पात्र शौरसेनी बोलते हैं। आवंती भाषा बोलनेवाले केवल दो अप्रधान पात्र हैं। प्राच्य भाषा केवल विदूषक बोलता है; तब कुंज, चेटक, भिक्षु और चारुदत्त का पुत्र कुल छह पात्र मागधी बोलते हैं इनके अतिरिक्त शकारि, चांडाली तथा ढक्की के भी बोलनेवाले एक एक दो दो पात्र हैं। किंतु यदि इन सब पात्रों की भाषा का विश्लेषण किया जाए तो वे सब केवल दो भागों में बाँटी जा सकती हैं शौरसेनी और मागघी। टीकाकार ने स्वयं कहा है कि आवंती में केवल रकार व लोकोक्तियों का बाहुल्य होता है और प्राच्या में स्वार्थिक ककार का। अन्य बातों में वे शौरसेनी ही हैं। शकारी, चांडाली तथा ढक्की सब मागधी की ही शैलियाँ है। इस प्रकार नामचार का प्राकृत बाहुल्य होने पर भी वस्तुत: मृच्छकटिक में अश्वघोष के नाटकों की अपेक्षा कोई अधिक भाषाभेद नहीं दिखाई देता। प्राकृत का स्वरूप कालगति से विशेष विकसित हो गया है और उसमें कुछ ऐसे लक्षण आ गए हैं जिनके कारण इस प्राकृत को प्राचीन स्तर की अपेक्षा द्वितीय स्तर की कहा जाता है। इसी स्तर की प्राकृत तथा उसके देशभेदों का विवरण हमें उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों में मिलता है और उन्हीं का विपुल साहित्य भी विद्यमान है।

द्वितीय स्तर की प्राकृत का सर्वप्राचीन व्याकरण चंडकृत प्राकृत लक्षण या आर्ष प्राकृत व्याकरण है। यह अति संक्षिप्त है और केवल ९९ सूत्रों में प्राकृत की विधियों का निरूपण कर दिया गया है। इस स्तर की विशेषता बतलाने वाले सूत्र ध्यान देने योग्य हैं। सूत्र ७६ के अनुसार वर्गो के प्रथम क् च् ट् त् आदि वर्णों के स्थान पर तृतीय का आदेश होता है, जैसे, पिशाची > बिसाजी, जटा> डटा,कृतं> कदं, प्रतिसिद्ध> पदिसिद्धं। सूत्र ७७ के अनुसार ख् घ् च् और भ के स्थान में हकार का आदेश जैसे मुखं> मुहं, मेघ:> नेहो, माधव: > माहवो, वृषभ: > वसहो। सूत्र ९७ के अनुसार क् तथा वर्गों के तृतीय वर्णो (ग् ज् आदि) का स्वर के परे लोप होता है, जैसे कोकिल:> कोहली, भौगिक: > भोइओ, राजा> राया, नदी> नई। सूत्र ९८ के अनुसार लुप्त व्यंजन के परे अ होने पर य होता है, जैसे काका> काया> , नाना> नाया राजा> राया। अंतिम ९९वें सूत्र में कहा गया है कि प्राकृत की शेष व्यवस्था शिष्ट प्रयोगों से जाननी चाहिए। इनसे आगे के चार सूत्रों में अपभ्रंश का लक्षण, संयुक्त वर्ण से लकार का लोप न होना, पेशाची का र् और ण् के स्थान पर ल् और न का आदेश, मागधिका का र् और स् के स्थान पर ल् और श् का आदेश, तथा शौरसेनी का त् के स्थान में विकल्प से द् का आदेश बतलाया गया है। भाषाशास्त्रियों का मत है कि द्वितीय स्तर के आदि मे क आदि अबोध वर्णों के स्थान पर ग् आदि सघोष वर्णो का उच्चारण होने लगा। फिर इनकी अल्पतर ध्वनि शेष रही और फिर सर्वथा लोप हो गया, तथा महाप्राण ध्वनियों के स्थान पर केवल एक शुद्ध ऊष्म ध्वनि ह् अवशिष्ट रह गई। ये प्रवृत्तियाँ तथा उक्त आर्ष व्याकरण में निर्दिष्ट य श्रुति विकल्प से समस्त जैन प्राकृत है। किंतु पश्चात्कालीन १६वीं, १७वीं शती के प्राकृत वैयाकरणों ने प्राकृतों के निरूपण में जो भ्रांतियाँ उत्पन्न की हैं, उनके आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने जैन साहित्य की प्राकृतों को उक्त विकल्पों के सद्भाव के कारण जैन शौरसेनी तथा जैन महाराष्ट्री नामों द्वारा पृथक् निर्दिष्ट करना आवश्यक समझा, यह ऐतिहासिक दृष्टि से वास्तविक नहीं है।

इस आर्ष प्राकृत व्याकरण के पश्चात् प्राकृतप्रकाश नामक व्याकरण लिखा गया, जिसमें आगे दो बार वृद्धि की गई। आदि के नौ परिच्छेद वररुचि कृत हैं। इनमे आदर्श प्राकृत की क्रमश: स्वरविधि, व्यंजनविधि, संयुक्तवर्ण विधि, संकीर्ण, संज्ञारूप, सर्वनाम विधि, क्रियारूप, धात्वादेश एवं अव्ययों का निरूपण किया गया है। अंत में कहा गया है कि प्राकृत का शेष स्वरूप संस्कृत के समझना चाहिए। इस व्याकरण में द्वितीय स्तर के प्राकृत का स्वरूप पूर्णरूप से निर्धारित हुआ पाया जाता है। इसके अनुसार मध्यवर्ती क् ग् च् ज् त् द् प् य और द का प्राय: लोप होता है, एवं ख् घ् थ् ध् और भ् के स्थान पर ह् आदेश। प्राकृतप्रकाश के इस प्राचीन विभाग पर कात्यायन, भामह, वसंतराज, सदानंद और रामपाणिवादकृत टीकाएँ पाई जाती हैं। आगे के १०वें और १२वें परिच्छेदों में क्रमश: पैशाची का १४ सूत्रों में तथा मागधी का १७ सूत्रों में निरूपण किया गया है। इन दोनों भाषाओं की प्रकृति शौरसेनी कही गई है। किंतु इससे पूर्व कहीं भी शौरेसेनी का नाम नहीं आया। अतएव अनुमानत: इसके कर्ताओं की दृष्टि में सामान्य प्राकृत का निरूपण उस काल की सुप्रचलित शोरसेनी का ही है। इन दो परिच्छेदों पर केवल भामह की टीका है, और विद्वानों का अनुमान है कि ये दोनों परिच्छेद उन्हीं के जोड़े हुए हैं। इनमें पैशाची का विशेषता शब्द के मध्य में तृतीय चतुर्थ वर्णो के स्थान पर प्रथम तथा द्वितीय का आदेश, ण के स्थान पर न्, ज्ञ्, न्य के स्थान पर ञ्ञ तथा त्वा के स्थान पर तूण बतलाई गई है, और मागधी की ष्, स्, के स्थान पर क्ष ज् के स्थान पर य्, क्ष के स्थान पर एक अहं के स्थान पर हके, हगे व अहके, तथा अकारांत कर्ता कारक एकवचन के अंत में ए कही गई हैं। प्राकृत प्रकाश का अंतिम १२ वाँ परिच्छेद बहुत पीछे जोड़ा गया प्रतीत होता है। इसपर भामह व अन्य किसी की टीका नहीं है। इस परिच्छेद की अवस्था बड़ी विलक्षण है। इसमें शौरसेनी के लक्षण बतलाए गए हैं, जिसकी आदि में ही प्रकृति संस्कृत कही गई हैं। किंतु अंतिम ३२वें सूत्र में पुन: कहा गया है शेषं महाराष्ट्री वत्। परंतु महाराष्ट्री शब्द इससे पूर्व ग्रंथ भर में अथवा अन्य कहीं व्याकरण में आया ही नहीं है। जान पड़ता है यह परिच्छेद उस समय जोड़ा गया है जब यह धारणा सुदृढ़ हो गई कि प्राकृत काव्य की भाषा महाराष्ट्री ही होनी चाहिए। अतएव जहाँ प्राकृत का निर्देश है, वहाँ महाराष्ट्री का ही तात्पर्य ग्रहण किया जाय। यहाँ जो शौरसेनी का स्वरूप बतलाया गया है, उसी से स्पष्ट हो जाता है कि जो स्वरूप यहाँ सामान्य प्राकृत का बतलाया गया है, वह शौरसेनी का ही कालानुसार विकसित रूप है। उदाहरणार्थ शौरसेनी में मध्यवर्ती त् और थ् के स्थान क्रमश: द् और ध् होते हैं, वहाँ प्राकृत में द् का लोप और थ का ह होता है। 'भ्' धातु का शौरसेनी में 'भो' ही रहता है, कि किंतु प्राकृत में वहाँ 'हो' आदेश कहा गया है। शौरसेनी में नपुंसक बहुवचन के रूप में वहाँ णि होता है, जैसे जलाणि, वाणणि, वहाँ प्राकृत के केवल इ रहता है, जैसे जलाइं, वणाइं शौरसेनी में दोला, दंड तथा दसण का आदि द् प्रकृति रूप रहता है, जबकि प्राकृत में वह ड् हो जाता है, जैसे डोला, डंड व डसण इत्यादि।

प्राकृतप्रकाश के पश्चात् प्राकृत तथा उसकी प्रादेशिक भाषाओं का सर्वांगपूर्ण निरूपण करनेवाला, प्राकृत व्याकरण हेमचंद्र द्वारा १२वीं शती ई. में लिखा गया। इसके चार परिच्छेद हैं, जिनमें से लगभग साढ़े तीन परिच्छेदों में प्राकृत का सुव्यवस्थित विवरण दिया गया है और शेष लगभग २०० सूत्रों में क्रमश: शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषाओं के विशेष लक्षण बतलाए हैं। इन भाषाओं में से प्रथम तीन का स्वरूप तो अधिक विस्तृत रूप मे वही है जो ऊपर बतलाया जा चुका है। चूलिका पैशाची के लक्षण यहाँ चार सूत्रों में ये बतलाए गए हैं कि उसमें तीसरे और चौथे वर्णो के स्थान पर प्रथम और द्वितीय का आदेश होता है, र् का ल् विकल्प से होता है, कुछ आचार्यो के मत से आदिवर्ण की ध्वनि में परिवर्तन नहीं होता, शेष बातें पैशाची के समान जाननी चाहिए।

मध्ययुगीन प्राकृतों का गद्य पद्यात्मक साहित्य विशाल मात्रा में उपलब्ध है। सबसे प्राचीन वह अर्धमागधी साहित्य है जिसमें जैन धार्मिक ग्रंथ रचे गए हैं तथा जिन्हें समष्टि रूप से जैनागम या जैनश्रुतांग कहा जाता है। इस साहित्य की प्राचीन परंपरा यह है कि अंतिम जैन तीर्थंकर महावीर का विदेह प्रदेश में जन्म लगभग ६०० ई. पूर्व हुआ। उन्होंने ३० वर्ष की अवस्था में मुनि दीक्षा ले ली और १२ वर्ष तप और ध्यान करके केवलज्ञान प्राप्त किया। तत्पश्चात् उन्होने अपना धर्मोपदेश सर्वप्रथम राजगृह में और फिर अन्य नाना स्थानों में देकर जैनधर्म का प्रचार किया। उनके उपदेशों को उनके जीवनकाल में ही उनके शिष्यों ने १२ अंगों में संकलित किया। उनके नाम हैं (१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समयांग, (५) भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति, (६) न्यायधर्म कथा (णायाधम्महाओ), (७) उपासकादशा, (८) अंतकृदशा, (९) अनुत्तेरोपपातिक (१०) प्रश्न व्याकरण, (११) विपाक सूत्र और (१२) दृष्टिवाद। इन अंगों की भाषा वही अर्धमागधी प्राकृत है जिसमें महावीर ने अपने उपदेश दिए। संभवत: यह आगम उस समय लिपिबद्ध नहीं किया गया एवं गुरु शिष्य परंपरा से मौखिक रूप में प्रचलित रहा और यही उसके श्रुतांग कहलाने की सार्थकता है। महावीर का निर्वाण ७२ वर्ष की अवस्था में ई. पू. ५२७ में हुआ और उसके पश्चात् शीघ्र ही उक्त अंगों की परंपरा में विप्रतिपत्तियाँ उत्पन्न होने लगीं। जैनधर्म के दिगंबर संप्रदाय की मान्यता है कि श्रुतांगों का क्रमश: ्ह्रास होते होते उनका खंडश: ज्ञान कुछ आचार्यो को रहा ओर उसके आधार से उन्होंने नए रूप में सैद्धांतिक ग्रंथ लिखे, जिनके प्राचीनतम उदाहरण कर्मप्राकृत (षठ्खंडागम) व कषायप्राकृत (कसायपाहुड) नामक सूत्र हैं। किंतु श्वेतांबर संप्रदाय की मान्यता है कि उक्त आगम ग्रंथों को उत्पन्न होती हुई विकृतियों से बचाने के लिये समय समय पर मुनियों ने उनकी वाचनाएँ कीं और उन्हें सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया। प्रथम वाचना महावीर निर्वाण से १६० वर्षो पश्चात् पाटलिपुत्र में स्थूलभद्राचार्य की अध्यक्षता में हुई जिसमें ११ अंगों का संकलन किया गया। १२वें अंग का उपस्थित मुनियों में से किसी को भी व्यवस्थित ज्ञान न होने से उसका उद्धार नहीं किया जा सका। जैन मुनियों की अपरिग्रह वृत्ति तथा वर्षाकाल को छोड़ निरंतर परिभ्रमण एवं उस काल की कठिनाइयों के कारण यह अंगज्ञान पुन: छिन्न भिन्न होने लगा। आर्य स्कंदित ने मथुरा में मुनिसंघ का सम्मेलन किया और उन्हीं ११ अंगों को एक बार पुन: व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने वलभी नगर में मुनिसम्मेलन कराया और जैन आगम को वह रूप दिया जिसमें वह आज उपलब्ध है। इस वाचना में उपर्युक्त ११ अंगों के अतिरिक्त अन्य अनेक ग्रंथों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न किया गया जो इस कालावधि तक रचे जा चुके थे। ये थे १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, १० प्रकीर्णक और दो चूलिकाएँ। इस प्रकार वलभी वाचना के फलस्वरूप अर्धमागधी जैनागम के ४५ ग्रंथ व्यवस्थित हो गए जो आज भी उपलब्ध हैं, तथा जिनका संक्षेप में परिचय निम्न प्रकार है :

१. आचारंग इस श्रुतग्रंथ में मुनियों के पालने योग्य सदाचार का विवरण दिया गया है। यह दो श्रुतस्कंधों में विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कंध में ९ अध्ययन और उनके अंतर्गत ४४ उद्देश्यक हैं। ग्रंथ का यह भाग मूल एवं भाषा, शैली और विषय की दृष्टि से प्राचीनतम है। द्वि. श्रुतस्कंध इसकी चूलिका के रूप में है और वह तीन चूलिकाओं एवं १६ अध्ययनों में विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कंध के नवमें उपधान नामक अध्ययन में महावीर की उग्र तपस्या एवं लाढ़ वज्रभूमि, शुभ्रभूमि आदि स्थानो में विहार करते हुए घोर उपसर्गो के सहने का मार्मिक वर्णन है।

२. सूत्रकृतांग इसके भी दो श्रुतस्कंध हैं जिनमें क्रमश: १६ तथा ७ अध्ययन हैं१ प्रथम श्रुतांग प्राय: मद्यमय है, और दूसरे में गद्य पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। इसमें प्राचीन काल के दार्शनिक वादों जैसे क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद आदि का प्ररूपण तथा निराकरण किया गया है तथा श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षु, निर्ग्रंथ आदि के स्वरूप की व्याख्या की गई है। अंतिम अध्ययन नालदीय में महावीर के शिष्य गौतम तथा पार्श्वनाथ की परंपरा के उदक पेढ़ालपुत्र के बीच वार्तालाप और चातुर्याम धर्म के संबंध में विचार जैनधर्म की महावीर से पूर्वपरंपरा पर प्रकाश डालता है।

३. स्थानांग इसमें १० अध्ययन हैं जिनमें क्रमश: एक से लेकर १० तक की संख्यावाले पदार्थो का निरूपण किया गया है, जैसे एक दर्शन, एकचारित्र, एक समय, इत्यादि; दो क्रियाएँ जीव और अजीव; वृक्ष तीन प्रकार के पत्रोपेत, फलोपेत और पुष्पोपेत, तीन वेद ऋक्, यजु और साम इत्यादि। इस पद्धति से इस ग्रंथ में अनेक विषयों का बहुमुखी वर्णन आया है जो अपने ढंग का एक विश्वकोश ही है। उसकी यह शैली पालि त्रिपिटक के अंगुततर निकाय से समता रखती है।

४. समवायांग यह भी स्थानांग के सदृश एकोत्तर क्रम से वस्तुओं का निरूपण करनेवाला विश्वकोश है। विशेषता इसकी यह है कि इसमें संख्याक्रम क्रमश: बढ़ता हुआ शतों, सहस्रों, शतसहस्त्रों तथा कोटियों तक पहुँचाया गया है। यथास्थान इसमें जैन आगम तथा तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि त्रिरसठ शलाकापुरुषों का परिचय नामवली पद्धति से वर्णित है।

५. भगवती व्याख्या प्रज्ञाप्ति यह रचना आकार और विषय की दृष्टि जैनागम में सबसे अधिक विशाल और महत्वपूर्ण है। इसमें ४१ शतक हैं और प्रत्येक शतक अनेक उद्देशक में विभाजित है। शैली प्रश्नोत्तरात्मक है। प्रश्नकर्ता हैं गौतम गणधर, और उत्तरदाता स्वयं महावीर। टीकाकारों के अनुसार इसमें ३६ सहस्र प्रश्नोत्तरों का समावेश है। दर्शन, आचार, इतिहास, भूगोल आदि समस्त विषयों पर किसी न किसी प्रसंग से प्रकाश डाला गया है। महावीरकाल की राजनीतिक परिस्थिति और उस समय के घोर युद्ध आदि का वर्णन जैसा इस ग्रंथ में आया है वैसा अन्यत्र कहीं नही पाया जाता।

न्याय धर्मकथा इस अंग का प्राकृत नाम न्यायधम्मकहाओ है और उसका संस्कृत रूपांतर ज्ञातृ या ज्ञाताधर्मकथा भी किया जाता है जिसका अर्थ होता है ज्ञातृ अर्थात् ज्ञातृपुत्र महावीर का धर्मोपदेश। विषय को देखते हुए इसका प्रथम नाम ही अधिक सार्थक प्रतीत होता है क्योंकि इसमें कथाओं द्वारा किन्हीं न्यायों अर्थात नीतिवाक्यों का स्पष्टीकरण किया गया है।

७. उपासकदशा नामानुसार इसमें भी उपासक, कामदेव, चुलणीप्रिय आदि दस ऐसे उपासकों के चरित्र वर्णित हैं जिन्होंने कठिनाइयों के बीच धर्मपालन किया।

८.अंतकृदद्शा नामानुसार इसमें भी उपासक दशा के समान दस अध्ययन ही रहे होंगे। किंतु वर्तमान में यहाँ आठ वर्ग हैं और प्रत्येक वर्ग अनेक अध्ययनों में विभाजित हैं। इसमें ऐसे साधुओं के चरित्र वर्णित किए गए हैं, जिन्होंने तपस्या द्वारा संसार का अंत कर निर्वाण प्राप्त किया।

९. अनुत्तरोपपातिक दशा इसमें ऐसे मुनियों के चरित्र वर्णित हैं जिन्हें अपनी तपस्या के बीच घोर उपसर्ग सहन करने पड़े और उन्होंने मरकर उन अनुत्तर नामक स्वर्गो में जन्म लिया जहाँ से केवल एक बार पुन: मनुष्य जन्म धारण कर निर्वाण प्राप्त किया जाता है।

१०. प्रश्नव्याकरण ग्रंथ के नाम से तथा स्थानांग एवं समवायांग से प्राप्त इस श्रुतांग के विषयपरिचय से ज्ञात होता है कि इसमें मूलत: प्रश्नोत्तर के रूप में नाना सिद्धांतों की व्याख्या की गई थी। किंतु वर्तमान में ऐसा न होकर इसके प्रथम खंड में हिंसादि पाँच पापों का और दूसरे खंड में अहिंसादि व्रतों का प्ररूपण पाया जाता है।

११. विपाकसूत्र इसमें दो श्रुतस्कंध हैं और प्रत्येक में दस दस अध्ययन हैं। इसमें जीव के अच्छे और बुरे कर्मो से फलित होनेवाले सुख दु:खों का बड़ा वैचित््रय है जिसमें जीवन की सभी दशाओं का वर्णन आ गया है। जैनधर्म के कर्मसिद्धांतनुसार जीवन के समस्त अनुभव सुकर्म एवं दुष्कर्मो के परिणाम ही हैं। इसका इस श्रुतांग में विस्तार से प्ररूपण पाया जाता है।

बारह उपांग इस प्रकार हैं:

(१) औपपातिक में नाना साधनाओं द्वारा पुनर्जन्म के स्वरूप का नाना उदाहरणों सहित व्याख्यान किया गया है। इसकी यह भी एक विशेषता है कि जिन नगर, राजा, चैत्य आदिक का अन्यत्र संकेत मात्र पाया जाता है, उसका यहाँ पूरा वर्णन मिलता है।

(२) रायपसेणिज्जं इसका संस्कृत रूपांतर राजप्रश्नीय किया जाता है, किंतु संभवत: उसका संबंध कोशलनरेश प्रसेनजित से रहा है जो पहले भौतिकवादी था, किंतु पश्चात् केशी मुनि के उपदेश से सम्यगदृष्टि बन गया। यह ग्रंथ पालि 'मिलिंद पञ्हो' से तुलनीय है।

    1. (३) जीवाजीवाभिगम में नामानुसार प्रश्नोत्तर के रूप में जीव और अजीव के भेदप्रभेदों का वर्णन किया गया है।

  1. प्रज्ञापना में जैन दर्शन की नाना व्यवस्थाओं का विवरण हुआ है, जिससे यह ग्रंथ भगवती के समान जैन सिद्धांत का ज्ञानकोश ही कहा जा सकता है।

वें, (६)ठे और (७)वें उपांगों के नाम क्रमश: सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति और चंद्रप्रज्ञाप्ति हैं जिनमें उन लोकों का जैन मान्यतानुसार वर्णन किया गया है।

    1. कल्पिका व (९) कल्पावतंसिका में मगधराज श्रेणिक, उसके पुत्र अजातशत्रु एवं उसके पोत्रों के चरित्र वर्णित हैं जिन्होंने अपने अपने कर्मानुसार नरक तथा स्वर्गगतियाँ प्राप्त कीं।

(१०) पुष्पिका एवं (११) पुष्पचूला में अनेक स्त्री पुरुषों की धार्मिक साधना, स्वर्गसुखों और महावीर की वंदना के लिये आगमन का वर्णन है।

(१२) वृष्णिदशा में द्वारावती के राजा कृष्णवासुदेव एवं तीर्थकर नेमिनाथ के चरित्र का वर्णन है।

छह छेदसूत्रों के नाम हैं (१) निशीथ, (२) महानिशीथ, (३) व्यवहार, (४) आचारदशा, (५) कल्पसूत्र और (६) पंचकल्प। इनमें मुनियों की साधनाओं एवं व्रतों का भंग होने पर प्रायश्चित्त का विचार किया गया है। इन सबमें कल्पसूत्र का सबसे अधिक प्रचार है। मुनि आचार के अतिरिक्त इसमें महावीर तथा ऋषभदेव, नेमिनाथ और पर्श्वनाथ के चरित्र भी वर्णित हैं।

चार मूलसूत्र हैं (१) उत्तराध्ययन, (२) दश्वैकालिक, (३) आवश्यक और (४) पिण्डनिर्युक्ति। इन सभी में मुख्यतया मुनि आचार का वर्णन है। इनमें उत्तराध्ययन की बड़ी प्रतिष्ठा है।

दश प्रकीर्णकों के नाम हैं (१) चतु:शरण (२) आतुर प्रत्याख्यान, (३) महाप्रत्याख्यान (४) भक्त परिज्ञा, (५) तंदुलवैचारिक, (६) संस्तारक, (७) गच्छाचर, (८) गणिविद्य, (९) देवंद्रस्तव और (१०) मरणसमाधि। ये सभी प्राय: पद्यात्मक हैं और इनमें मुनियों के पालने योग्य नीति का उपदेश दिया गया है।

दो चूलिका सूत्र हैं (१) नंदी और (२) अनुयोगद्वार। नंदी में ज्ञान के भेदों व श्रुतांगों का विस्तार से वर्णन है तथा अनुयोगद्वार में प्रश्नोत्तरों के रूप में नाना विषयों का परिचय कराया गया है जिसमें रसों व संगीत आदि का भी समावेश है।

ये ही ४५ जैनधार्मिक ग्रंथ है जो उपलब्ध अर्धमागधी साहित्य कहा जा सकता है। इन ग्रंथों पर निर्युक्ति, चूर्ण, टीका, भाष्य, वृत्ति आदि व्याख्यात्मक विशाल साहित्य प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में पद्य और पद्यात्मक है। समस्त निर्युक्तियाँ भद्रबाहुकृत व चूर्णियाँ जिनदासगणि महत्तर कृत मानी जाती हैं। इनके भीतर जैन सिद्धांत के विवेचन के अतिरिक्त आख्यानात्मक रचनाओं का बड़ा वैपुल्य है जो साहित्य और इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

दिगंबर संप्रदाय में इन ४५ आगम ग्रंथों की मान्यता और प्रचार नहीं है। उस परंपरा में लुप्त हुए द्वादशांग श्रुत के आधार से शौरसेनी प्राकृत में स्वतंत्र साहित्य का निर्माण हुआ जिसकी सर्वप्राचीन रचनाएँ पुष्पदंत और भूतबलिकृत कर्मप्राभृत नामक ग्रंथ हैं। इनमें जैन कर्मसिद्धांत का बड़ी व्यवस्था तथा सूक्ष्मता से प्ररूपण किया गया है। इनका रचनाकाल महावीर निर्वाण के ६८३ वर्ष के शीघ्र ही पश्चात् हुआ सिद्ध होता है। इनपर समय समय पर अनेक टीकाएँ प्राकृत तथा संस्कृत में लिखी गईं, जिनमें से वर्तमान में सुप्रसिद्ध धवल और जयधवल नामक टीकाएँ हैं जिनके कर्ता वीरसेन और जिनसेन राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (९वीं शती) के प्राय: समकालीन थे। प्राचीनता में कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत के पश्चात् कुंदकुंदाचार्यकृत १२-१३ शौरसेनी पद्यात्मक रचनाएँ हैं जिनमें प्रधान हैं प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय और नियमसार। इन सभी में जैन सिद्धांत, आचारशास्त्र, तथा स्थाद्वादात्मक न्याय का निरूपण किया गया है। समयसार, पंचास्तिका और नियमासार। इन सभी में जैन सिद्धांत, आचारशास्त्र, तथा स्थाद्वादात्मक न्याय का निरूपण किया गया है। समयसार में जैसा आध्यामिक विवेचन किया गया है वैसा अन्यत्र नहीं पाया जाता। (शेष के लिये देखिए 'शौरसेनी')।

धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त जैन परंपरा का बहुत सा कथात्मक साहित्य भी प्राकृत में पाया जाता है। इस प्रकार की सबसे प्राचीन रचना विमलसूरिकृत पउमचरियं है जिसमें कर्ता ने अपने ग्रंथ की समाप्ति का समय दुषमा काल के ५३० (वीर निर्वाण ५३४) वर्ष पश्चात् अर्थात ई. सन् ७ सूचित किया है। किंतु विद्वानों को इसकी वास्तविकता में संदेह होता है और वह मुख्यत: इस आधार पर कि ग्रंथ में प्राकृत भाषा का जो स्वरूप मिलता है वह मध्ययुग के दूसरे स्तर का है, जिसका विकासकाल ई. सन् की दूसरी तीसरी शती से पूर्व नहीं माना जा सकता। यहाँ हमें भाषा की वे सब प्रवृत्तियाँ पुष्ट रूप से दिखाई देती हैं और जिन्हें प्राय: महाराष्ट्री प्राकृत के लक्षण माना जाता है। पउमचरियं में सात अधिकार हैं जो ११८ उद्देश्यों में विभाजित हैं। समस्त रचना पद्यात्मक है। छंद गाथा है किंतु स्थान स्थान पर छंदवैचित््रय भी पाया जाता है। शैली सरस और सरल है तथा उसमें कथात्मकता ही प्रधान है। मूल कथा वाल्मीकि कृत रामायण के सदृश है, किंतु अवांतर बातों में उससे बहुत भिन्नता भी है, जैसे सीता का एक भाई भामंडल भी था, राम ने बर्बर जातियों के मिथिला पर आक्रमण होने पर जनक की सहायता की थी और इसी के उपलक्ष में जनक ने सीता को उन्हें अर्पित करने का संकल्प किया था। सुग्रीव, हनुमान आदि वानर नहीं थे, उनका ध्वजचिह्न वानर होने से वे वानरवंशी कहलाते थे। रावण के दशमुख नहीं थे, किंतु उसके प्राकृतिक एक मुख के अतिरिक्त नवरत्नमय हार में मुख के नव प्रतिबिंब दिखाई देने से वह दशानन कहलाने लगा था। उसकी मृत्यु राम के हाथ से नहीं, किंतु लक्ष्मण के हाथ से हुई। लक्ष्मण नारायण थे और राम बलदेव, इत्यादि।

प्राकृत में दूसरा जैन पुराण है चउपन्नमहापुरिसरियं, जो शीलांकाचार्य द्वारा वि. सं. ९२५ में रचा गया था। यह प्राय: गद्यात्मक है, और इसमें २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव और ९ वासुदेव इन ५४ महापुरुषों का चरित्र वर्णित है। वहाँ रामकथानक में वाल्मीकिकृत रामायण से कुछ और बातें भी ली गई हैं, जो पउमचरियं में नहीं हैं। प्राकृत गद्य में रचित एक और महापुराण भद्रेश्वरकृत कथावलि (१२वीं श्ती) है, जिसमें उपर्युक्त ५४ महापुरुषों के अतिरिक्त ९ प्रतिवासुदेवों के चरित्र सम्मिलित होने से समस्त ६३ श्लाकापुरुषों के चरित्र भी काव्य की रीति से वर्णित पाए जाते हैं। इनमें वर्द्धमानसूरिकृत आविनाथचरित, सोमप्रभकृत सुमतिनाथचरित, देवसूरिकृत पद्मप्रभचरित, नेमिचंद्रकृत अनंतनाथचरित, देवंद्रगणिकृत वर्धमान चरित आदि अनेक विशाल रचनाएँ प्रकाश मे आ चुकी हैं। ये रचनाएँ प्राय: १२वीं, १३वीं शती ई. की हैं, इनकी भाषा वही प्राकृत है जिसका प्राकृत व्याकरणों में परिचय पाया जाता है और जिसे पाश्चात्य विद्वानों के 'जैन महाराष्ट्रों' की संज्ञा प्रदान की है।

पादलिप्तसूरिकृत तरंगवतीकथा का उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। यह मूल ग्रंथ पद्य अप्राप्य है, किंतु इसके आधार से निर्मित नेमिचंद्रकृत तरंगलीला (१५वीं शती ई.) नामकरचना उपलब्ध है। इसका कथानक एक उपन्यास है, जिसमें पात्रों के अनेक जन्मों का वृत्तांत गुथा हुआ है और वह बाणकृत कादंबरी का स्मरण कराता है।

प्राकृत गद्य साहित्य में हरिभद्रसूरिकृत समरादित्यकथा (८वीं शती ई.) का विशेष स्थान है। यह धर्मकथा है जिसमें परस्पर विरोधी दो पुरुषों के नौ जन्मांतरों का क्रमश: वर्णन किया गया है। विद्वेषी पुरुष प्रत्येक जन्म में अपने वैरी से ईर्ष्याभाव के कारण उत्तरोत्तर अधोगति को प्राप्त होता है और चत्रिनायक अपने मन तथा चारित््रय को उत्तरोत्तर शुद्ध बनाता हुआ अंतिम भाव में समरादित्य नाम का राजा होकर तपस्या द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है। नौ ही भवों के कथानक अपने अपने रूप में स्वतंत्र और परिपूर्ण हैं तथा उनमें मानवीय भावनाओं तथा समाज के नाना स्तरों का सुदर चित्रण पाया जाता है। हरिभद्र की दूसरी उल्लेखनीय प्राकृत रचना है धूर्ताख्यान। इसके पाँच आख्यानों में पाँच धूर्तों ने अपने अपने ऐसे कथानक सुनाए हैं जिनसे अनेक पौराणिक अतिशयोक्तिपूर्ण वृत्तांतों की व्यंग्यात्मक आलोचना होती है। इस प्रकार यह पद्यात्मक रचना प्राकृत में ही नहीं, किंतु प्राचीन भारतीय साहित्य में व्यंग्यकथा का एक अपूर्व उदाहरण है।

इसी प्रकार की एक कथा उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला (ई. सन् ७७८) है। इसमें नायिका तथा उसके अन्य साथियों के तीन चार जन्मांतरों का वर्णन अति रोचकता के साथ ग्रथित किया गया है।

धनेश्वरसूरिकृत सुरसुंदरीचरित्र (११वीं शती ई.)। गाथात्मक कथानक है जिसमें अनेक संयोग और वियोगात्मक प्रेमाख्यान ग्रथित हैं। महेश्वरसूरिकृत ज्ञानपंचमीकथा (११वीं शती ई.) में दश धार्मिक कथाओं का समावेश हुआ है। हेमचंद्रकृत कुमारपालचरित (१२वीं शती ई.) आठ सर्गो का एक काव्य है जिसमें कर्ता के समकालीन गुजरात के राजा कुमारपाल के चरित्रवर्णन के साथ साथ कवि ने अपने प्राकृत व्याकरण के नियमों को उसी क्रम से उदाहृत किया है। इस प्रकार यह संस्कृत के भट्टिकाव्य का स्मरण दिलाता है जिसमें पाणिनीय व्याकरण के उदाहरण उपस्थित किए गए हैं, यद्यपि यहाँ वे उदाहरण उस प्रकार क्रमबद्ध नहीं हैं जैसे कुमारपालचरित्र में। देवेंद्रसूरिकृत श्रीपालचरित (१४वीं शती), देवंद्रगणिकृत रत्नचूडारायचरित, सुमतिसूरिकृत जिनदत्ताख्यान तथा जिनहर्षगणिकृत रत्नशेखरीकथा आदि अनेक प्राकृत कथानक जैन साहित्य में उलब्ध हैं तथा इनके अतिरिक्त व्रतकथाओं के रूप में बहुत सी लघु कथाएँ भी प्राप्त हैं।

महाराष्ट्री दंडी ने अपने काव्यादर्श नामक अलंकार शास्त्र में कहा है :

सहाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृतष्टं प्राकृतं विदु:।

सागर: सूक्तिरत्नानां सेतुबंधादि यन्मयम्।।

इससे प्राकृत भाषा और साहित्य के संबंध की दो महत्वपूर्ण बातें सिद्ध होती हैं एक तो यह कि दंडी के समय (छठी सातवीं शती) में प्राकृत भाषा का जो स्वरूप विकसित होकर काव्यरचना में उतरने लगा था, उसी का नाम महाराष्ट्री प्राकृत प्रसिद्ध हुआ, और दूसरी यह कि इसी प्राकृत में सेतुबंध और उसी के सदृश अन्य भी कुछ रचनाएँ उस समय प्रसिद्ध हो चुकी थीं। सौभाग्यत: दंडी द्वारा उल्लिखित सेतुबंध काव्य अब भी उपलब्ध है और प्राकृत की एक उत्कृष्ट रचना माना जाता है। इसका उल्लेख बाण ने भी हर्षचरित को उत्थानिका में इस प्रकार किया है :

कीर्ति: प्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्जवला।

सागरस्य परं पारं कपिसैनैव सेतुना।।

इससे सिद्ध होता है कि इस सेतुबंध के कर्ता का नाम प्रवरसेन था और बाण के समय (सातवीं शती का मध्य) तक इसकी कीर्ति समुद्रपार संभवत: लंका तक पहुँच चुकी थी। इसका नाम रावणवध या दशमुखवध भी पाया जाता है। कहीं कहीं इसके कर्ता कालिदास भी कहे गए हैं। इस संबंध के समस्त उल्लेखों के विवेचन से यह बात प्रमाणित होती है कि इस काव्य के कर्ता वाकाटकवंशी राजा रुद्रसेन के पुत्र प्रवरसेन ही हैं। उनके पिता की मृत्यु उनके बाल्यकाल में ही हो गई थी और उनकी माता प्रभावती गुप्ता राज्य का कार्य सँभालती थीं। प्रभावती गुप्ता सम्राट् चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की पुत्री थीं। इसीलिये गुप्तसम्राट् ने अपनी सभा के महाकवि कालिदास का कुछ काल के लिये उनके सहायतार्थ भेजा था। अनुमानत: उसी बीच यह काव्यरचना हुई और कालिदास ने उसका कुछ संशोधन भी किया होगा। इस बात का कुछ आभास हमें काव्य के आदि में ही सातवीं गाथा में मिलता है। इन बातों से यह रचना गुप्तसम्राट् चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल (ई. सन् ३८० से ४१३) की सिद्ध होती है। इस काव्य में १५ आश्वास हैं और प्रत्येक आश्वास के अंतिम पद्य में कवि ने अपने को अनुरागअंक या अनुरागचिह्न द्वारा सूचित किया है। काव्य का कथानक सीता अपहरण के पश्चात् प्रारंभ होता है, जब राम वियोग की व्यथा में हैं। सुग्रीव की सहायता से हुनमान द्वारा लंका में सीता का पता लगाया गया और फिर राम लक्ष्मण वानरसेना सहित लंका पर आक्रमण करने के लिये निकले, किंतु समुद्रतट पर आकर एक बड़ी समस्या समुद्र पार करने की उपस्थित हुई। बड़े प्रयत्न से उस पर सेतु बनाया गया, सेना पार हुई; युद्ध में रावण मारा गया, तथा सीता की अग्निपरीक्षा के पश्चात् उन्हें साथ ले राम पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या को लौट आए। कथानक वाल्मीकि रामायण का ही अनुसरण करता है, किंतु प्रकृति तथा घटनाओं का वर्णन कवि का अपना है। शैली समास और अलंकारप्रचुर है।

दंडी ने महाराष्ट्री को जो सेतुबंधादि काव्यों की भाषा कहा है, उससे उनका तात्पर्य संभवत: सेतुबंध के अतिरिक्त गाथासप्तशती से है जिसका उल्लेख बाण ने हर्षचरित में इस प्रकार किया है:

अविनाशिनमग्राह्यमकरोत्सातवाहन:।

विशुद्ध जातिभि: कोषं रत्नेखिसुभाषितै:।। (ह. च. १३)

इसके अनुसार सातवाहन ने सुंदर सुभाषितों का एक कोश निर्माण किया था। आदि में यह कोश सुभाषितकोश या गाथाकोश के नाम से ही प्रसिद्ध था। पीछे क्रमश: सात सौ गाथाओं का समावेश हो जाने पर उसकी सप्तशती नाम से प्रसिद्ध हुई। सातवाहन, शालिवाहन या हाल नरेश भारतीय कथासाहित्य में उसी प्रकार ख्यातिप्राप्त हैं जैसे विक्रमादित्य। वात्स्यायन तथा राजशेखर ने उन्हें कुंतल का राजा कहा है और सोमदेवकृत कथासरित्सागर के अनुसार वे नरवाहनदत के पुत्र थे तथा उनकी राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक पैठण) थी। पुराणों में आंध्र भृत्यों की राजवंशावली में सर्वप्रथम राजा का नाम सातवाहन तथा सत्रहवें नरेश का नाम हाल निर्दिष्ट किया गया है। इन सब प्रमाणों से हाल का समय ई. की प्रथम दो, तीन शतियों के बीच सिद्ध होता है और उस समय गाथा सप्तशती का कोश नामक मूल संकलन किया गया होगा। राजशेखर के अनुसार सातवाहन ने अपने अंत: पुर में प्राकृत भाषा के ही प्रयोग का नियम बना दिया था। एक जनश्रुति के अनुसार उन्हीं के समय में गुणाढ्य द्वारा पैशाची प्राकृत में बृहत्कथा रची गई, जिसके अब केवल संस्कृत रूपांतर बृहत्कथामंजरी तथा कथासरित्सागर मिलते हैं। गाथासप्तशती की प्रत्येक गाथा अपने रूप में परिपूर्ण है और किसी मानवीय भावना, व्यवहार या प्राकृतिक दृश्य का अत्यंत सरसता और सौंदर्य से चित्रण करती है। शृंगार रस की प्रधानता है, किंतु हास्य, कारुण्य आदि रसों का भी अभाव नहीं है। प्रकृतिचित्रण में विंध्यपर्वत ओर गोला (गोदावरी) नदी का नाम पुन: पुन: आता है। ग्राम, खेत, उपवन, झाड़ी, नदी, कुएँ, तालाब आदि पर पुरुष स्त्रियों के विलासपूर्ण व्यवहार एव भावभंगियों का जैसा चित्रण यहाँ मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इस संग्रह का पश्चात्कालीन साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसी के आदर्श पर जैन कवि जयवल्लभ ने 'वज्जालग्गं' नामक प्राकृत सुभाषितों का संग्रह तैयार किया, जिसकी लगभग ८०० गाथाओं में से कोई ८० गाथाएँ इसी कोश से उद्धृत की गई हैं। संस्कृत में गोवर्धनाचार्य (११वीं-१२वीं शती) ने इसी के अनुकरण पर आर्यासप्तशती की रचना की। हिंदी में तुलसीसतसई और बिहारी सतसई संभवत: इसी रचना से प्रभावित हुई हैं।

प्राकृत में जिस प्रकार सेतुबंध की ख्याति काव्य की दृष्टि से रही है, उसी प्रकार लीलावती की प्रसिद्धि कथा की दृष्टि से पाई जाती है। भोजदेव, हेमचंद्र, वाग्भट्ट आदि संस्कृत के अलंकार शास्त्रकारों ने गद्यमयी कथा का उदाहरण कादम्बरी और पद्यमयी कथा का लीलावती को दिया है। उद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला नामक कथा में कौतूहलकृत प्राकृत भाषा रचित एवं मरहट्ठ देशीवचन निबद्ध शुद्ध सकलकथा का उल्लेख किया है, जिससे इसी रचना का अभिप्राय सिद्ध होता है। उससे इसके कर्ता का नाम कौतूहल और रचनाकाल ७७८ ई. से पूर्व का निश्चय हो जाता है। यह रचना कुछ वर्ष पूर्व ही प्रकाश में आई है (भारतीय विद्याभवन, बंबई १९४९) इसमें कोई परिच्छेदादि विभाग नहीं हैं। लगातार १३००० से कुछ अधिक गाथाओं में कथा समाप्त हुई है। १३३०वीं गाथा में कवि ने स्वयं कहा है कि उन्होंने इसकी रचना महाराष्ट्री प्राकृत में की है (रइयं मरहट्ठ देसि भासाए) इस कथा के नायक अस्मक देश के प्रतिष्ठाननगर के राजा सातवाहन हैं। एक महा घटनाचक्र के पश्चात् उनका विवाह सिंहल के राजा शिलामेघ की राजकुमारी लीलावती से हुआ। उनके मंत्रियों के नाम यहाँ पोट्सि और कुमारिल बतलाए गए हैं। ये दोनों नाम गाथासप्तशती व गाथाओं के कर्ताओं में भी पाए जाते हैं। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि इस कथा के कर्ता सातवाहन, शालिवाहन या हाल ही हैं ये तीनों ही नाम इस कथा में यत्र तत्र आए हैं। कथा बड़ी सरल और सरस शैली में वर्णित है।

महाराष्ट्री प्राकृत का एक उत्कृष्ट काव्य है गउडरी (गौडवध) जिसके कर्ता वाक्पतिराज ने अपने को कान्यबुज नरेश यशोवर्मा का समकालीन कहा है। उन्होंने भास, संबंधु, हरिच एवं भवभूति आदि कवियों का उल्लेख भी किया है। इन सब लेखों पर से इनका समय ८ वीं शती ई. अनुमान किया जा सकता। इस काव्य में भी कोई परिच्छेद नहीं है। लगातार १२०० से कुछ ऊपर गाथाएँ हैं, जिनमें राजा यशोवर्मा के प्रताप और उनकी जययात्रा तथा गौड़देश के राजा के वध का वर्णन किया गया है। विशेष के लिये देखिए 'महाराष्ट्री')

प्राकृत काव्यरचना की परंपरा १८वीं शती तक बताई जाती है। इस शताब्दी के प्रसिद्ध प्राकृत कवि हैं रामपाणिवाद ई. १७०७ से १७७५) जिनकी दो प्राकृत रचनाएँ सुप्रसिद्ध हैं एक है कंसवहो (कंसवध) जिसके चार सर्गो में उद्धव के द्वारा कृष्ण और बलराम को धनुषयज्ञ के बहाने गोकुल से मथुरा ले जाने और उनके द्वारा कंस की मृत्यु का वर्णन भागवत की कथा के आधार किया गया है। शैली में कालिदास, भारवि तथा माघ की रचनाओं का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। रामपाणिवाद का दूसरा प्राकाव्य है उषानिरुद्धं, जिसमें प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का बाणाकी पुत्री उषा से विवाह का वर्णन चार सर्गो में किया गया है यह कथानक भी भागवतादि पुराणों पर आश्रित हे, किंतु कवि ने अपनी काव्यप्रतिभा से अच्छा सजाया है। सुदूरवर्ती केरल में १८वीं शती में शुद्ध प्राकृत की ये काव्यरचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि प्राकृत के पठन पाठन तथा काव्यसृजन का प्रवाह परिस्थिति के अनुसार तीव्र और मंद भले ही पड़ा हो, किंतु वह सर्वथा सूखा है।

इस प्रकार प्राकृत साहित्य अपने रूप एवं विषय की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है तथा भारतीय संस्कृति के सर्वांग परिशीलन के लिये उसका स्थान अद्वितीय है। उसमें उन लोकभाषाओं का प्रतिनिधित्व किया जाता है जिन्होंने वैदिक काल एवं संभवत: उससे भी पूर्वकाल से लेकर देश के नाना भागों को गंगा यमुना आदि महानदियों के अनुमान प्लावित किया है और उसकी साहित्यभूमि को उर्वरा बनाया हैं। ई. पूर्व छठी शती से लेकर प्राय: वर्तमान तक प्राकृत भाषाओं में ग्रंथरचना होती चली आई है, यद्यपि शास्त्रीय दृष्टि से उन भाषाओं का विकास ई. सन् १००० तक ही माना जाता है, क्योंकि उसके पश्चात् हिंदी, गुजराती, मराठी, बँगला, आदि आधुनिक भाषाओं का युग प्रारंभ होता है। मगध से लेकर दरद प्रदेश (पश्चिमोत्तर भारत) ---- तथा हिमालय से लेकर सिंहल द्वीप तक की नानाविध लोकभाषाओं का स्वरूप प्राकृत में सुरक्षित है। इस साहित्य का बहु भाग यद्यपि जैनधर्म विषयक है, तथापि उसमें तत्कालीन लोकजीवन ऐसा प्रतिबिंबित है जैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें नानाकालीन एवं नानादेशीय ऐतिहासिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक आदि महत्वपूर्ण झाँकियाँ दिखाई देती है जिनका भारतीय इतिहास में यथोचित मूल्यांकन करना अभी शेष है। भाषाओं के अतिरिक्त देश के धार्मिक, दार्शनिक व नैतिक विकास की परम्परा और उसकी गुत्थियों को स्पष्टता से समझने में इस साहित्य से बहुमूल्य सहायता मिल सकती है। यह महत्वपूर्ण साहित्य अभी तक पूर्णत: प्रकाशित नहीं हो सका है। जितना भाग प्रकाशित हुआ है उसका भी समालोचनात्मक रीति से संपादन बहुत कम हुआ है वैज्ञानिक तथा तुलनात्मक अध्ययन भी बहुत शेष है।

सं. ग्रं. वूलनर : इंट्रोडक्शन टु प्राकृत; दिनेशचंद्र सरकार : ए ग्रामर ऑव दि प्राकृत लैंग्वेजेज़; पिशल : ग्रैमैटिख् डेर प्राकृत स्प्राखेन; कात्रे : प्राकृत लैंग्वेजेज ऐंड देअर कांट्रिब्यूशन टु इंडियन कल्वर ; कापडिया : ए हिस्ट्री ऑव कैनोनिकल लिटरेचर ऑव दि जेन्स; विंटरनित्यज। हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, खंड २; शुब्रिंग : डेर लहरे डेर जैन्स; बेचरदास दोशी : प्राकृत व्याकरण; हरदेव बाहरी : प्राकृत और उसका साहित्य।

(हीरालाल चंद जैन)