प्रह्लाद प्रसिद्ध भक्त जो दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे। इनकी विस्तृत कथा भीमद्भागवत में वर्णित है। बाल्यवस्था में ही ये भगवद्भक्त हो गए। पिता वैष्णवविरोधी थे और उन्होंने प्रह्लाद के गुरुओं को आदेश दे रखा था कि बच्चा विष्णु का नाम तक न लेने पावे। पर इसका उलटा प्रभाव पड़ा और प्रह्लाद के अन्यान्य सभी सहपाठी भी विष्णु भक्त बन गए। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद के अन्यान्य सभी सहपाठी भी विष्णु भक्त बन गए। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद की निष्ठा बदलने के लिये उन्हें अनेक कष्ट दिए पर वे टस से मस न हुए। अंत में स्वयं नरसिंह भगवान् ने प्रह्लाद की रक्षा एक खंभे से प्रकट होकर की जिसमें प्रह्लाद को बाँध दिया गया था। नरसिंह के ही हाथों हिरण्यकशिपु का वध हुआ और भगवान् ने प्रह्लाद की २१ पीढ़ियों का उद्धार किया। देवगंधर्वादि नरसिंह की क्रोधशांति के लिये प्रार्थना करने लगे और जब विष्णु ने प्रह्लाद से प्रसन्न होकर उनसे वर माँगने को कहा तो उन्होंने अपने पिता की मुक्ति की प्रार्थना की।(रामाज्ञा द्विवेदी)