प्रसारण हैन्राइख रूडोल्फ हर्ट्ज ने विद्युच्चुंबकीय शक्ति की कल्पना को वैज्ञानिक आधार देकर रेडियो और बेतार के मूलभूत सिद्धांत की खोज करने की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया। (१८८७ ई.) हर्ट्ज से पहले भी ब्रिटिश वैज्ञानिक मैक्सवेल और कदाचित् इससे पहले रूसी वैज्ञानिक पाथोफ और भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु ने इस क्षेत्र में मौलिक आविष्कार किए थे। किंतु हर्ट्ज ही पहला वैज्ञानिक था, जो यह सिद्ध करने में सफल हो गया कि विद्यच्चुंबकीय तरंगें विस्तृत स्थान में अक्षुण्ण और क्रमिक गति कर सकती हैं, और इस गति द्वारा जो कंपन शून्य (ईथर) में पैदा होते हैं, वे जब किसी पदार्थ से टकराकर परिवर्तित होते हैं, अथवा किसी माध्यम में प्रवेश करते समय मुड़ते हैं, उनका व्यवहार प्राय: वैसा ही होता है जैसा उष्णता अथवा प्रकाश की तरंगों (वेब) का। इसी के आधार पर सन् १८८६ में मारकोनी ने विद्युच्चुंबकीय तरंगों द्वारा एक संकेत (सिगनल) को दो मील की दूरी तक भेजने में सफलता प्राप्त की।

पहले महायुद्ध से पूर्व बेतार केवल दूर दूर तक संकेत प्रसारित करने का एक साधन मात्र था। उस समय बेतार की कल्पना मनोरंजन एवं लोकशिक्षा के माध्यम के रूप में नहीं की गई थी। यह अन्य वैज्ञानिक आविष्कारों रेल, वायुयान, जहाज आदि की भाँति भौगोलिक अंतर को मिटाने की दौड़ में एक महत्वपूर्ण कदम था।

प्रसारण (ब्रॉडकास्टिंग) का विकास उस समय शूरू हुआ, जब बेतार के सिद्धांत को लोकरंजन के लिये प्रयुक्त किया गया। १९१४ से पहले भी शौकिया तौर पर कुछ साहसिक व्यक्ति भाषण एवं संगीत को कुछ दूर तक प्रसारित करने में सफल हो चुके थे। श्रव्यप्रसारण की वास्तविक प्रगति युद्ध के दौरान हुई। युद्धकाल में ही 'थर्मियोनिक वाल्ब' का अविष्कार हुआ। १९१७ में कैन्टेन डोनिसथोर्प और उनकी पत्नी ने ब्रिटेन के वायरलेस ट्रेनिंग कैंपों के लिये ग्रामोफोन रिकाड़ों का एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रसारित किया, ताकि प्रशिक्षण का नीरस कार्यक्रम रोचक बन सके।

१९२० में अमरीका के शौकिया प्रयोगकर्ताओं ने भी छोटे मोटे संगीतकार्यक्रम प्रस्तुत करना आरंभ कर दिया। प्रसिद्ध एन. डी. के. ए. केंद्र का पहला कार्यक्रम, जिसे यूरोप के श्रोताओं ने सुना, १९२१ में प्रसारित किया गया।

ब्रिटेन में भी प्रसारकेंद्र स्थापित करने की माँग हुई; फलस्वरूप १९२२ में मारकोनी कंपनी को आध घंटे का साप्ताहिक कार्यक्रम प्रसारित करने की अनुज्ञा मिल गई। शीघ्र ही मारकोनी कंपनी ने एक और स्टेशन संचालित किया जो बाद में लंदन केंद्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

अमरीका में जनसाधारण ने इस नए अधिकार में असाधारण रूप से रुचि दिखाई। उन्होंने अनुभव किया कि यह आविष्कार एक सस्ता और अद्भुत मनोरंजन है, और साथ ही साथ घर बैठे शिक्षा प्राप्त करने का उत्तम साधन भी। रेडियो बनानेवालों, इश्तहारवाजों और अखबारवालो ने सोत्साह इसे विकसित करने का प्रयत्न किया। १९२४ में अमरीका में ११०५ 'ट्रांसमिटिंग स्टेशन' काम कर रहे थे। १९२६ में सभी रेडियो निर्माताओं ने इकट्ठे होकर 'नेशनल ब्राडकास्टिंग कंपनी' बनाने का निश्चय किया।

यूरोप में प्रसारण का विकास प्रथम महायुद्ध के बाद वेग से होने लगा। युद्ध से क्लांत और टूटी हुई जनता के लिये प्रसारण प्रेरणा एवं मनोरंजन का साधन बना। यूरोप के उन देशों में रेडियो अधिक लोकप्रिय हुआ, जिनकी जनता सुदूर विदेशों में जाकर लड़ो थी, जैसे जर्मनी और ब्रिटेन में। फ्रांस और इटली में तो कालांतर तक रेडियो एक खेलतमाशे से अधिक कुछ न बन सका।

युद्ध ने राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता दोनों भावनाओं के विकास को प्रोत्साहन दिया। अपने देश के प्रति आसक्ति बढ़ी तो अन्य देशों के प्रति उत्सुकता भी। इन दोनों वृत्तियों ने प्रसारण के विकास में सहायता दी। युद्ध के बाद गरीबी, बेरोजगारी, दुख और दीनता ने लोगों के स्वभाव में तेजी से क्रांति पैदा कर दी। स्कैंडिनेवियाई देशों स्वीडन, नावें, डेन्मार्क की जनता में भी रेडियो लोकप्रिय हुआ। मध्य यूरोप और पूर्वी यूरोप से होते हुए यह प्रभाव बाल्कन प्रदेश में पहुँचा, और इसी तरह दक्षिणी अमरीका और सुदूर मेक्सिको में। वहाँ रेडियों का प्रयोग सैनिक शिक्षा के लिये किया गया। रूस ने क्रांति और संघर्ष के बीच प्रसारण का सत्कार किया। वहाँ १९२४ में पहला प्रसारण लाइसेंस दिया गया। रूस के जन नेताओं ने इसके क्रांतिकारी शिक्षासाधनों के मूल्य और प्रभावसंपन्नता को पहचाना।

भारत में रेडियो प्रसारण विधिवत् २३ जुलाई १९२७ से शुरू हुआ, जब लार्ड इरविन ने इंडियन ब्राडकास्टिंग कंपनी के बंबई केंद्र का उद्घाटन किया। इससे पहले बहुत सी शौकिया रेडियो एसोसियेशनों ने भारत के विभिन्न स्थानों पर बहुत कम शक्ति वाले ट्रांसमिटर लगाकर प्रसारण के प्रयोग किए थे। १६ मई १९२८ को मद्रास में पहला रेडियो क्लब खोला गया और ३१ जुलाई से कार्यक्रम प्रसारित होने शुरू हो गए थे। इसके बाद २६ अगस्त को कलकत्ता केंद्र भी खुल गया।

उस समय भारत में कुल १,००० रेडियो लाइसेंस थे। १९२८ के अंत तक यह संख्या बढ़कर ६१५२ तक हो गई। १९३२ के अंत में यह ८५५७ तक पहुँच गई। अप्रैल १९३९ तक कुल संख्या ७४,००० तक हो गई। सन् १९३६ में दिल्ली, १९३७ में पेशावर और लाहौर, १९३८ में लखनऊ और मद्रास, १९३९ में ढाका और त्रिचनापल्ली आदि नए केंद्र खुल गए। मार्च १९३० में इंडियन ब्राकस्टिंग कंपनी दीवालिया हो गई थी, इसलिये प्रसारण का अधिकार सरकार ने अपने हाथ में ले लिया; और आई. बी. सी. का नाम इंडिया ब्राडकटिंग सर्विस रख दिया गया। १९३६ में इस संख्या का नाम हो गया आल इंडिया रेडियो जो कालांतर में आकाशवाणी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

भारत के स्वतंत्र होते ही राष्ट्रीय जीवन के अन्य पहलुओं के विकास के साथ रेडियो का भी महत्वपूर्ण विकास हुआ। पंचवर्षीय योजनाओं के अधीन सांस्कृतिक क्षेत्रों के अनुरूप नए नए प्रसारण केंद्रों की स्थापना हुई, ताकि प्रत्येक प्रदेश अपने अपने वैविध्यपूर्णा जीवन के सौंदर्य को प्रसारण द्वारा अभिव्यक्त कर सके, जिससे प्रत्येक प्रदेश की जनता को उन्नत बनाने के लिये उसके जीवन के नित्यप्रति के उपादनों की सहायता ली जा सके। इस प्रकार २ मार्च, १९६५ के आँकड़ों के अनुसार भारत में कुल १०४ ट्रांसमिटर्स, ३८ स्टूडियो केंद्र और ४७ रिसीविंग केंद्र थे। प्रसारण का विकास तथा प्रसार तेजी से हो रहा है।

प्रसारण की व्यवस्था विभिन्न देशों की परंपरा एवं शासनपद्धति के अनुरूप भिन्न भिन्न प्रकार से हुई है। ब्रिटेन ने निगम प्रणाली को अपनाया, तो जर्मनी ने रेडियो को शासन का एक अंग, प्रचारयंत्र बनाना हितकर समझा। रूस में भी प्रसारण को प्रचार का शक्तिशाली माध्यम बनाया गया। अमरीका में आर्थिक क्षेत्र की भाँति प्रसारण को भी मुक्त स्पर्द्धा का अखाड़ा बनने दिया गया। भारत में प्रसारण का भी मुक्त स्पर्द्धा का अखाड़ा बनने दिया गया। भारत में प्रसाण शासन का एक सूत्र है।

(मुक्ता शुक्ल)