प्रसव एक प्राकृतिक क्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा, स्त्री के गर्भाश्य में २८० दिन या ४० सप्ताह तक भ्रूण के रूप में स्थित रहकर, पूर्ण विकसित होकर, बाहर की परिस्थितियों को सहन करने की शक्ति से संपन्न होने के पश्चात् गर्भाशय से निकलकर संसार में आता है। भ्रूण के विकसित होने का समय गर्भकाल कहलाता है, जो प्राय: ४० सप्ताह का होता है। कुछ स्त्रियों में यह काल कम और बहुत में अधिक भी होता है। यह क्रिया उन संकुचनों का परिणाम होती है, जो धीरे धीरे गर्भकाल के अंतिम पाँच-छ: सप्ताह में गर्भाशय की मांसपेशियों में हुआ करते हैं और २८० दिन के पश्चात् एक दिन, अज्ञात कारणों से, इतना बढ़ जाते हैं कि गर्भाशय की अंतर्वस्तुएँ उसका द्वारा खोल कर बाहर आ जाती हैं। यह एक अत्यंत गूढ़ क्रिया है, जिसको अड़चनों की अनुपस्थिति में प्रकृति सहज में संपन्न कर देती है। प्रसव क्रिया को निम्नलिखित तीन अवस्थाओं में बाँटा गया है:
प्रथम अवस्था � यह अवस्था प्रसवपीडा के प्रारंभ से गर्भाशय के बहिर्द्वार के पूर्ण प्रसार तक रहती है। इसके प्रारंभ में कुछ दिन पूर्व से भ्रूण नीचे को खिसक जाता है, जिससे उसका कपाल श्रोणि में चला जाता है। इसकी गर्भाशय उदर में कुछ नीचे को खिसक आता है और गर्भिणी को कुछ आराम मिलता है। भ्रूण के कपाल को श्रोणि के प्रवेशद्वारा पर अटक जाना प्रसव की सन्निकटता का सूचक है।
प्रथमावस्था का प्रारंभ होने पर पीड़ाएँ उदर के निचले भाग में प्रतीत होती हैं, किंतु शीघ्र ही वे पीठ, पीठ से उठकर सामने उदर और ऊरू में फैल जाती हैं। पीड़ाएँ ठहर ठहरकर होती हैं, किंतु उनका अंतर घटता जाता है। आंतरद्वार भी खुलने लगता है, जिससे झिल्लियों का थैला, जिसमें भ्रूण स्थित है, गर्भाशय की पेशीनिर्मित भित्तियों से पृथक् होने लगता है। इससे कुछ रक्त और श्लेष्मा निकलती है। जब प्रसार अधिक होता है तब जल की थैली, जिसमें भ्रूण बना है, फट जाती है और जितना द्रव भ्रूण के शिर के सामने होता है। वह बह जाता है। अंत में द्वार इतना प्रसारित हो जाता है कि उसके द्वारा भ्रूण के कपाल पर का सारा बालों से ढका भाग दिखाई देने लगता है।
इस अवस्था में, प्रथम प्रसव में १२ से लेकर १८ घंटे लगते हैं और बाद के प्रसवों में छह से लेकर आठ घंटे लगते हैं।
द्वितीय अवस्था � बहिर्द्वार के पूर्ण प्रसार से लेकर भ्रूण के बाहर आ जाने, अर्थात् जन्म हो जाने तक, दूसरी अवस्था होती है। प्रसव वेदनाएँ, जो जल की थैली के फटने पर कम हो गई थीं फिर से तीव्र हो जाती हैं, अर्थात् गर्भाशय की पेशियों में संकुचन होने लगते हैं। इनकी तीव्रता और अवधि बढ़ जाती है। वेदनाएँ निरंतर सी हो जाती हैं और उन्हीं के साथ भ्रूण का सिर आगे बढ़ता है। उदर की पेशी भी संकुचित होकर भ्रूण के बहिष्करण में गर्भाश्य की पेशियों की सहायता करती है। प्रत्येक संकुचन के साथ भ्रूण का सिर आगे बढ़ता है और संकुचन के बंद हो जाने पर कुछ पीछे हट जाता है। इसी प्रकार औपस्थ प्रांत भी उभर जाता है और फिर पीछे हट जाता है। प्रत्येक वेदना के साथ सिर बढ़ता जाता है और अंत में एक तीव्र वेदना के साथ कपालशीर्ष योनिद्वार द्वारा, जो अब प्रसरित होकर बिल्कुल गोल हो गया है, निकल कर भगसंधानिका के नीचे अटक जाता है। सिर फिर पीछे नहीं जा सकता। अगली वेदना के साथ कपालशीर्ष पीछे को खुलता है और प्रथम माथा और उसके पश्चात् मुख संघानिका के नीचे से निकल आते हैं और मूलाधार प्रांत में पूर्व-पश्च-व्यास में स्थित होते हैं, अर्थात् चिबुक पीछे अनुत्रिक की ओर और कपालशीर्ष सामने की ओर। इसी समय सिर दाहिनी ओर का घूम जाता है, क्योंकि भ्रूण के कंघे अब श्रोणिनिर्गम के पूर्व पश्च-व्यास में आ जाते हैं। इसके पश्चात् दाहिना कंधा पहले बाहर निकलता है, तब बायाँ कंधा और उसके पश्चात् धड़ और शेष भाग निकल आते हैं।
तृतीयावस्था � इसके पश्चात् अपरा के निकलने तक तीसरी अवस्था रहती है, जिसमें प्राय: २० मिनट के लगभग समय लगता है, किंतु कुछ मिनट से एक घंटा तक का समय भी लग सकता है।
भ्रूण के बाहर आने के पश्चात् वेदना बंद हो जाती है तथा गर्भाशय छोटा और कड़ा हो जाता है। वह संकुचित होकर नाभि के नीचे पहुँच जाता है। उसमें हलके हलके संकुचन होते रहते हैं, जिनसे पीड़ा नहीं होती; किंतु इन्हीं संकुचनों के कारण गर्भाशय संकुचित होकर ४० दिन में अपनी स्वाभाविक अवस्था में पहुँच जाता है।
अपरा का गर्भाशय की भित्ति से पृथक् होने का कारण भित्ति की पेशियों के संकुचन हैं। इस कारण इस अवस्था में कुछ रक्तस्त्राव होता है।
भ्रूण के सिर और माता की श्रोणिगुहा के व्यास � इन व्यासों की अनुकूलता पर ही प्रसव निर्भर करता हैं। श्रोणिगुहा का व्यास छोटे होने से प्रसव संपूर्ण नहीं हो सकता। श्रोणि के संकुचित या विकृत होने पर उदर को चीरकर भ्रूण को निकालना पड़ता है। यदि विकृति कम हुई, तो संदेशों द्वारा प्रसव करवाना होता है।
सामान्य श्रोणि के आंतरिक व्यास
(Internal diameters of normal pelvis)
संयुग्मी (conjugatte) |
तिर्यक (oblique) |
अनुप्रस्थ (transverse) |
४ इंच ४१/२ '' ५ '' |
४ इंच ४१/२ '' ४१/२ '' |
५ इंच ४१/२ '' ४ '' |
भ्रूण के सिर की निम्नलिखित व्यास और परिधि की नापों का विचार किया जाता है :
पश्चावशीर्ष ब्रह्मरंधिक व्यास (Suboccipito-bregmatic diameter) ११� इंच;
पश्चशीर्ष चिबुका (Occipitomental) परिधि १८ इंच;
पश्चशीर्ष लालाटिक (Occipitofrontal) परिधि १४ इंच;
अवशीर्ष ब्रह्मरंध्रक व्यास (Suboccipito-bregmatic diameter) ३� इंच।
ललाट चिबुकी (pontomental) ३� इंच।
द्विपार्श्वकी (biparietal) ३�-3� इंच।
द्विशंखकी (bitemporal) ३� इंच।
इन अंकों के परिशीलन से विदित होगा कि भ्रूण के कपाल के व्यास श्रोणी के व्यासों से केवल आधा इंच छोटे हैं। मांसपेशी आदि से श्रोणी के ढँकने पर केवल इतना अंतर रह जाता है कि कपाल श्रोणी में फँसता नहीं, किंतु इन व्यासों में घटाबढ़ी होने से भ्रूण का कपाल श्रोणि में से नहीं निकल सकता। इस प्रकार का प्रसव, कठिन प्रसव (difficult labour) कहलाता है, जिसके बहुत से कारण हैं।
गर्भ में भ्रूण की स्थिति � (१) ९५ प्रति शत गर्भिणियों में भ्रूण का सिर नीचे और नितंब ऊपर रहते हैं। अतएव प्रसव के समय सिर पहले श्रोणि में उतरता है। भ्रूण का जो भाग सर्वप्रथम उतरता है उसी के द्वारा उसका अवतरण माना जाता है। इस प्रकार ९५ प्रति शत बच्चों का जन्म शीर्षावतरण (cephalic presentation) कहलाता है। (३) कभी भ्रूण गर्भाशय में आड़ा, अर्थात् तिर्यक या अनुप्रस्थ अक्ष में स्थित होता है।, अथवा वह कुछ टेढ़ा होता है। ये स्थितियाँ भयंकर होती हैं, जिनको ठीक किए बिना भ्रूण बाहर नहीं आ सकता। इन स्थितियों में कोई भी स्कंध पहले बाहर आता है। इस कारण वह स्कंधावतरण (shoulder presentation) कहलाता है।
शीर्षावतरण � यह चार प्रकार का हो सकता है : (१) वाम पूर्वानुशीर्षासन, अर्थात भ्रूण का पश्चकपाल (occiput) गर्भिणी की श्रोणि में बाईं ओर आगे की ओर स्थित हो (L.O.A.)। इसी प्रकार (२) दक्षिण पूर्वानुशीर्षासन, (३) दक्षिण पश्चिमानुशीर्षासन (R.O.P.) और (४) वाम पश्चिमानुशीर्षासन स्थिति हो सकती है।
नितंबावतरण � यह (१) पूर्ण अथवा (२) अपूर्ण हो सकता है। पूर्ण में उरू और जंघा उदर पर मुड़ी होती हैं और नितंब और पाँव साथ रहते हैं। भ्रूण की सामान्य संकुचन (general flexion) की दशा होती है। इसी प्रकार ग्रीवा का संकुचन खुल जाने से (प्रसरण) अवतरण करनेवाला भाग बदल सकता है। पश्चकपाल से चिबुक तक कोई भी भाग अवतरित हो सकता है। स्कंधावतरण में भी हाथ, कुहनी अथवा पूरी बाहु बाहर निकल सकती है।
कठिन प्रसव � कठिन प्रसव उसको कहते हैं जिसमें भ्रूण के बाहर आने में कठिनाई होती है। इसके कई प्रकार के कारण हो सकते हैं। सबसे मुख्य कारण स्त्री की श्रोणि की विकृति होती है। श्रोणि की रचना के विकृत होने के कारण उसके व्यासों में विषमता आ जाती है। ये विषमताएँ भी कई प्रकार की होती हैं। श्रोणि छोटी होती है। उसके सब व्यासों की लंबाई कम होती है, अथवा कोई विशेष व्यास छोटा हो सकता है। ये रचनात्मक विषमताएँ वृद्धिकालजन्य हो सकती हैं तथा अस्थिमृदुता (ostemalacia) आदि रोगों से उत्पन्न हो सकती है। इनके कारण प्रसव के समय भ्रूण का सिर श्रोणि में होकर बाहर नहीं आ सकता। अतएव चिकित्सा के विशेष आयोजनों द्वारा प्रसव संपन्न करवाया जाता है। जब भ्रूण के सिर और श्रोणि के व्यासों में अधिक विषमता होती है। जिससे सिर को किसी तरह बाहर नहीं निकाला जा सकता, तब शल्यकर्म द्वारा उदर और उसके भीतर गर्भाशय का छेदन करके भ्रूण को निकलना होता है। इस कर्म को सशल्य गर्भनिष्कासन (Caesarian section) कहते हैं।
सं. ग्रं. � हरमन : डिफिकल्ट लेबर; इंसाइक्लोपीडिया ऑव आब्स्टेट्रिक्स ऐंड गाइनिकोलॉजी।
(मुकुंदस्वरूप वर्मा)