प्रवेशकर (आयात कर) वस्तुओं के देशप्रवेश (आयात) पर आरोपित एवं संगृहीत होता है। यह एक प्रकार का सीमाशुल्क (Customs duty) है। यह एक परोक्ष एवं वस्तु कर (Commodity tax) है, जो चुंगी (octroi) से भिन्न है। चुंगी किसी स्थानीय क्षेत्र में उपभोग, प्रयोग आदि के हेतु लाई हुई वस्तुओं पर स्थानीय संस्थाओं द्वारा लगाई जाती है। प्रवेश कर विदेशों से आनेवाली वस्तुओं के प्रवेश (आयात) मात्र पर लगता है, उनके देश प्रवेश के प्रयोजन से कर से कोई संबंध नहीं है। देशप्रवेश समुद्र, वायु एवं थल के मार्ग से हो सकता है; इसलिए करसंग्रहण प्रवेश बंदरगाहों, हवाई अड्डों तथा सीमांत पर स्थित चौकियों पर किया जाता है। करारोपण वस्तुओं के मूल्यानुसर प्रशुल्क सूची (Customs tarrif) में दी हुई राशि के आधार पर होता है, करसंग्रहण के लिये उनके क्रय मूल्य अथवा देशप्रवेश के समय बाज़ार भाव के अनुसार मूल्य निर्धारित किया जाता है। देशप्रवेश के पश्चात् हुई मूल्यहानि का प्रभाव करराशि पर बिलकुल नहीं पड़ता, कर का उद्देश्य राजस्व की वृद्धि तो है ही; पर विशेषकर इसका संबंध स्वेदशीय व्यावसायिक एवं औद्योगिक स्थिति से है और इसका प्रयोजन स्वदेशी उद्योगों को विदेशी होड़ से बचाना है। इसका सीमा-प्रशुल्क-सूची से बड़ा निकट संबंध है। सीमा-प्रशुल्क-सूची मित्र राष्ट्रों (most favoured nations) के हित में तथा अन्य राष्ट्रों के प्रति ऊँची होती है। मित्र-राष्ट्र-संबंध किन्हीं दो राष्ट्रों के बीचएक संवाणिज्य संधि (Commercial treaty) के अंतर्गत स्थापित होते हैं।

संघ राष्ट्रों (Federal states) में संविधानीय रूप से प्रवेश कर संघ सरकारें (Federal Governments) ही प्राय: आरोपित एवं संगृहीत करती हैं। अमरीकी, संयुक्त राष्ट्र (United States of America), कनाडा अधिराज्य (Dominion of Canada), आस्ट्रेलियाई संघराज्य (Commonwealth of Australia), भारतीय संघ (Union of India) आदि राष्ट्रों में ऐसा ही है। भारतीय संविधान के अंतर्गत भारत सरकार संसद द्वारा बनाई विधि के अनुसार प्रवेश कर आरोपित एवं संगृहीत कर सकती है। इस विषय में संसद को करविधि बनाने की अनन्य शक्ति अनुच्छेद २४६ सप्तम अनुसूची में संघ सूची की प्रविष्ट ८३ के अंतगर्त प्राप्त है। कर सीमा प्रशुल्क सूची के, जो कि भारतीय प्रशुल्क अधिनियम १९३४ (Indian Tariff Act, 1934) में दी हुई है, अनुसार लगता है। अधिनियम में दो प्रशुल्क सूचियाँ हैं। प्रथम अनुसूची आयात कर तथा द्वितीय अनुसूची निर्यात कर की राशि निर्धारित करती है। प्रथम अनुसूची बड़ी लंबी है। इसमें वस्तुओं के नाम, भिन्न संख्या (item No), प्रशुल्क की किस्म साधारण वरीय राशियाँ (Preferential rates of duty), वरीयता के समय (Duration of preferential rates) दिए हुए हैं। प्रशुल्क अधिनियम में सरकार को विज्ञप्ति द्वारा प्रशुल्क राशि में सुधार करने का अधिकार प्राप्त है, करराशि में सुधार संसद् द्वारा वार्षिक वित्तीय अधिनियम (Annual Finance Act) में भी निश्चित एवं परिवर्तित हो सकता है। प्रशुल्क राशि भिन्न भिन्न वस्तुओं के लिये भिन्न भिन्न है। इसमें अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य एवं प्रशुल्क आम वाग्बद्धता (Gatt General Agreement on Tarriff and Trade) एवं राष्ट्रमंडलीय वरीयता (Commonwealth Preference) के अनुसार भी सुधार हो सकते हैं। भारत सरकार प्रशुल्क (protective duty) लगा सकती है। वस्तुओं का मूल्य निर्धारण उनके बीजक के आधार पर अथवा समुद्र आयात निर्यात अधिनियम, १८७८ में दी हुई प्रणाली से किया जाता है। आयात-निर्यात अधिकारी (customs authorities) मूल्य निर्धारण करते हैं, वस्तु के मूल्यानुसार (ad valorem) करनिर्धारण होता है। प्रथम अनुसूची देखने से ज्ञात होता है कि वस्तुओं का विभाजन निम्न प्रकार से हो सकता है। नि:शुल्क वस्तुएँ, शुल्कीय वस्तुएँ और वरीय राशि शुल्कीय वस्तुएँ। शुल्कीय वस्तुओं में कुछ संयत (moderate) शुल्कीय वस्तुएँ होती है, अन्न जैसे गेहूँ, चावल नि:शुल्क हैं, भारतीय उद्योगों के लिये अनिवार्य वस्तुओं, मशीनों आदि पर शुल्क दर मध्यम होती है, उपभोक्ता सामग्री (consumer goods) एवं विदेश में निर्मित वस्तुओं (foreign manufactured goods) पर प्रवेश कर अधिक लगता है। वर्षों से भारत सरकार की नीति आयात नियंत्रण की रही है और आयात कर की नीति से हुई राजस्वहानि को राशिवृद्धि से पूरा करने का सदा प्रयत्न रहता है। राज्यों द्वारा आयात की हुई वस्तुएँ प्रवेश कर से वंचित नहीं होतीं, यात्रियों और भ्रमणिकों का आवश्यक सामान (baggage) आयातकार से मुक्त होता है।

वस्तु के आयात पर सीमा प्रशुल्क न देना और वस्तुओं को चोरी छिपे देश में लाने या ले जाने का प्रयत्न करना अपराध है। ऐसा करने को तस्कर व्यापार (smuggling) कहते हैं। इसे रोकने का सतत प्रयत्न होता है। सामुद्रिक आयात निर्यात अधिनियम १८७८ (Sea Customs Act, १८७८) और सीमांतर आयात निर्यात अधिनियम (Land Customs Act, १९२४) में वस्तु तस्करण रोकने के लिये आयात निर्यात अधिकारियों को अधिकार दिए गए हैं। अधिकारीगण तस्कर व्यापार की वस्तुओं को जब्त कर अपराधियों के प्रति उचित कार्रवाही कर सकते हैं। उनपर जुर्माना भी हो सकता है। केंद्रीय राजस्व आयोग (Central Board of Revenue) बंदरगाहों, हवाई अड्डों की हद का निर्धारण करता है। इस हद के बाहर रहनेवाली वस्तुओं पर प्रवेशकर नहीं लगता, चाहे वे भारतीय समुद्रसीमा (Territorial waters) में ही क्यों नही हों। कर फ्री बंदरगाहों में भी नहीं लगता। तट व्यापार के बीच आने जानेवाली वस्तुओं पर भी करारोपण नहीं होता। वस्तुओं को भारत से बाहर ले जाकर उन्हें पुन: देश में लाने पर भी करराशि में कुछ कमी होती है।

प्रशुल्क आयोग (टैरिफ कमीशन) प्रशुल्क आयोग अधिनियम १९५१ के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा गठित होता है। इसमें कम से कम तीन और अधिक से अधिक पाँच सदस्य होते हैं। सदस्यगण के लिये आवश्यक है कि वे व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योगों की समस्याओं से अवगत हों, पर साथ ही उनका कोई निजी हित किसी उद्योग में न हो। उनकी नियुक्ति तीन वर्ष के लिये होती है। पर यदि भारत सरकार चाहे तो उन्हें पुन: आयोग का सदस्य बना सकती है। आयोग का कार्य सरकार के आदेश पर जाँच कर यह बताना है कि किस किस उद्योग को बचाव की आवश्यकता है, किस किस वस्तु पर प्रशुल्क राशि में परिवर्तन करना आवश्यक है, कौन उद्योग बचाव का अनुचित लाभ उठा रहा है, इत्यादि। आयोग की संस्तुतियों पर भारत सरकार यदि उचित समझे तो अनुसरण करती है।

राष्ट्रमंडलीय वरीयता (commonwealth preference) एक राष्ट्रमंडलीय राष्ट्रों के मध्य अंतर्राष्ट्रीय वाग्बद्धता है। इसके अंतर्गत इंग्लैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, भारत, पाकिस्तान, घाना, श्री लंका आदि राष्ट्रमंडलीय राष्ट्रों को आपस में वरीयता प्राप्त है। उदाहरणार्थ, आँग्लदेश से आयात की हुई वस्तुओं, जैसे मशीनों पर भारत में और भारत से निर्यातित वस्तुओं जैसे चाय, कहवा, नारियल की जटा, चमड़ा आदि पर आँग्लदेश में वरीयता मिलती है अथवा प्रशुल्क राशि कम होती है, जबकि ऐसी वस्तुओं पर राष्ट्रमंडल के बाहर के देशों से आयात वस्तुओं पर अधिक राशि पर प्रशुल्क आरोपित एवं संगृहीत होता है।

वाणिज्य एवं प्रशुल्क आम वाग्बद्धता (Gatt General Agreemnt on Trade and Tariff) एक अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक एवं प्रशुल्कीय वाग्बद्धता है। अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य और व्यापार संघ (International Trade Organisation) के लिये एक समझौता (मसविदा) हवाना में बनाया गया था, पर पूर्ण तालमेल न होने के कारण फिलहाल वाणिज्य एवं प्रशुल्क में तालमेल रखने का प्रयत्न किया जा रहा है। Gatt के अधीन वाग्बद्ध राष्ट्र निश्चित वस्तुओं को 'बद्ध' (bind) कर देते हैं अर्थात् प्रशुल्क में (conceded) वस्तु करार देते हैं, प्रशुल्क में छूट देकर अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य तालमेल को प्रोत्साहन देते हैं। भारत में कर जाँच आयोग के मतानुसार सन् १९५२-५३ में प्रशुल्क कर के खाते में ८५ लाख रूपए की क्षति हुई थी, पर अंतराष्ट्रीय तालमेल बढ़ाने के लिए विल आयोग ने सिफारिश की थी कि भारत Gatt का सदस्य बना रहे।

(मंगलचंद जैन)