प्रयोग प्रणाली (प्रोजेक्ट मेथड), शिक्षा में अमरीका के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री जान ड्यूई ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि अध्यापक चुपचाप बैठकर बालकों की गतिविधि का निरीक्षण करें और उनकी स्वाभाविक वृत्तियों को देख समझकर उनके अनुरूप उन्हें उत्साहित करके ऐसे कार्यो में प्रवृत्त करें जो उनके लिये लाभकर हो। ड्यूई का कहना है कि सब बालकों की रुचि भिन्न होती है। अध्यापक का कर्तव्य है कि वह ऐसे सभी भेद समझकर उनके अनुरूप प्रत्येक बालक के लिये अलग अलग कार्य की व्यवस्था करे। जब प्रत्येक बालक को अपनी अपनी रुचि और प्रवृत्ति के अनुरूप कार्य मिल जाएगा तो उनमें परस्पर कलह द्वेष और वैर नहीं होगा, शील और विनय की भावना स्वभावत: आ जाएगी और उनका नैतिक उत्थान स्वयं हो जायगा। इसीलिये ड्यूई ने समयचर्या (टाइम टेबिल) का विरोध करते हुए बताया कि आगे का कार्य पहले बता देने से छात्रों के मन में विरसता उत्पन्न हो जाती है, उनकी स्वाभाविक रुचि में बाधा पड़ती है और वे आधे मन से काम करते हैं, इसलिये कोई काम पहले से निश्चित न किया जाए; जैसा अवसर आता रहे उसके अनुकूल नया नया कार्यक्रम नित्य बनता रहे। छात्र यह न समझ पाएँ कि हम किसी विद्यालय रूपी यंत्र के अंग बनकर नियमित क्रम से सब काम करने के लिये पहले से ही बँधे हुए हैं। नित्य नवीन कार्ययोजना देखकर उन्हें कुतूहल होगा, जिज्ञासा होगी, स्फूर्ति होगी और नवीन कार्य में रुचि भी होगी और यह नवीन कार्य भी अध्यापक की ओर से प्रस्तुत नहीं होगा, स्वयं छात्र ही अपनी ओर से उसका प्रस्ताव करेंगे। हाँ, अध्यापक ऐसी परिस्थिति अवश्य उत्पन्न करता चलेगा कि छात्र उसकी प्रेरणा से नए कार्य का प्रस्ताव कर सकें।
ड्यूई ने सन् १८९६ में जो प्रयोगशाला विद्यालय (लेबोरेटरी स्कूल) खोला था और जिसकी विस्तृत मीमांसा ड्यूई के शिष्य किलपेट्रिक ने की है उसकी पाठ्य प्रणाली ही प्रयोग प्रणाली कही जाती है। आरंभ में १९०० ई. में प्रोजेक्ट (प्रयोग) का व्यवहार संयुक्तराष्ट्र अमरीका में हस्तकौशल की शिक्षा (मैनुअल ट्रेनिंग) का कार्य करने की योजना के लिये किया था। इसके पश्चात् वैज्ञानिक तथा श्रमसाध्य कार्यो की क्रिया के लिये ही यह शब्द प्रयुक्त किया जाने लगा। शिक्षा के क्षेत्र में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई � प्रयोग (प्रोजेक्ट) वह समस्यात्मक कार्य (प्रोब्लेमैटिक ऐक्ट) है जो वास्तविक परिस्थिति (नैचुरल सेटिंग) में पूरा किया जाए।
हमारे विद्यालयों में जो शिक्षा दी जाती है वह कोरी सूचनात्मक (इन्फॉर्मेटिव) या अभ्यासात्मक होती है, जिसमें वास्तविकता का अंश तनिक भी नहीं रहता। गणित में तो ऐसे ऐसे बेढंगे और अव्यावहारिक प्रश्न होते हैं जिनका जीवन से कुछ संबंध ही नहीं होता, जो केवल अभ्यासमात्र के लिये कराए जाते हैं। इसी प्रकार अन्य विषयों की शिक्षा भी मौखिक सूचनात्मक होती है जिसे विद्यार्थी केवल मूढ़, अकर्मण्य श्रोता की भाँति सुनते हैं, सुनकर उसे ज्यों का त्यों मान लेते हैं और जिसका न जाने कितना अंश बालक की असावधानता और कहनेवाले की नीरसता के कारण नष्ट हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में किसी ऐसे शिक्षाविधान की निश्चय ही आवश्यकता थी जिसमें बालक स्वयं सक्रिय सहयोग देता हुआ नया ज्ञान आत्मसात् करता चले। इसीलिये यह नई प्रणाली काम में लाई गई जिसमें विद्यार्थियों को ऐसे समस्यात्मक कार्य दिए जाते हैं जिन्हें वे वास्तविक परिस्थिति में संपन्न कर सकें। प्रयोग प्रणालीवालों का कहना है कि केवल सूचनात्मक ज्ञान देने के बदले ऐसी समस्याएँ छात्रों के सम्मुख रखी जायँ जिनपर वे स्वयं तर्कपूर्ण विचार कर सकें और निर्णय दे सकें, सुने हुए या पढ़े हुए ज्ञान को स्मरणमात्र करने के बदले छात्र उसे व्यवहार में भी ला सकें, कक्षा के नीरस और अस्वाभाविक वातावरण के बदले प्रत्यक्ष तथा सक्रिय प्रयोग के द्वारा ज्ञान आत्मसात् कर सकें और नीरस सिद्धांत जानने की अपेक्षा व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान कर सकें। इसीलिये दिए जानेवाले कार्य के तीन लक्षण निर्धारित किए गए हैं :
(१) ऐसा कार्य दिया जाय जिसमें किसी समस्या का समाधान करना हो तो अर्थात् जिसमें बुद्धि, विचारशक्ति और तर्कशक्ति का प्रयोग करना पड़े क्योंकि साधारण कार्य तो बहुत से ऐसे हो सकते हैं जिनमें विचार या तर्क की कोई आवश्यकता न पड़े। यदि किसी से कहा जाय � घड़े में पानी लाकर दो, तो यह कहा जाय कि इस मिनट के भीतर दस अतिथियों के लिये नीबू का शर्बत बना ले आओ तो यह छोटा मोटा समस्यात्मक कार्य बन सकता है, क्योंकि इसमें कार्य करनेवाले को यह विचार करना पड़ेगा कि दस मिनट की अवधि में किस उपाय से किस समीपतम स्थान से कितने नीबू मँगवाए जायँ, कितनी चीनी मँगवाई जाय, किसे भेजा जाय, चीनी का प्रबंध कहाँ से हो और कहाँ से ऐसे गिलास लाए जायँ जो एक आकार प्रकार के हों और जिनमें नीबू का शर्बत न बिगड़े। अत: यह कार्य समस्यात्मक कार्य है। इसी प्रकार के और भी अनेक जटिल समस्यात्मक कार्य हो सकते हैं।
(२) जो कार्य दिया जाय वह पूरा होना चाहिए। गणित के प्रश्नों के समान केवल लेखा लगाकर आंकड़े लेकर न छोड़ दिया जाय। क्योंकि काम को पूरा कर चुकने पर ही छात्र को उस कार्य के विभिन्न क्रमों, गतियों, विधियों और परिणामों का ऐसा निश्चित ज्ञान होगा कि आगे उस कार्य की आवृत्ति के समय उसे सुविधा होगी और उस कार्य के संबंध में जितना ज्ञान होगा वह पूर्णत: छात्र की वास्तविक ज्ञानराशि का अंग बन जायगा और जीवन में सदा उसके काम आवेगा।
(३) जो कार्य दिया जाय वह केवल विद्यालय में अभ्यास मात्र के लिये ही न हो वरन् ऐसी वास्तविक परिस्थिति में कराया जाय कि उसका सचमुच प्रयोजन हो और बालक निश्चित रूप से समझ ले कि हम कोई वास्तविक कार्य कर रहे हैं जो हमें वास्तविक रूप से करना ही चाहिए। यदि किसी कक्षा को हमें निमंत्रणपत्र लिखना सिखाना हो तो ऐसे अवसर पर लिखना चाहिए जब विद्यालय मे कोई उत्सव होता हो। उस अवसर पर विद्यार्थियों से पत्र लिखवाकर वे ही पत्र वस्तुत: निमंत्रितों के पास भेज देने चाहिए। इसी को वास्तविक स्थिति कहते हैं।
ये प्रयोग या कार्य दो प्रकार के हो सकते हैं� (१) सरल (सिंपिल) ओर (२) जटिल (कौंप्लेक्स)। सरल प्रयोग में केवल एक ही काम होता है। खेत का बाड़ा बाँधना, किवाड़ में कुंदा ठोकना, झूला डालना, पत्तल बनाना, खाना परोसना, ये सब सरल प्रयोग हैं। किंतु दस व्यक्तियों के लिये भोजन बनाना; किसी सहभोज का प्रबंध करना, अपनी कक्षा की दीवार पर कागज साटना तथा नाटक करना जटिल प्रयोग हैं। शिक्षा की दृष्टि से विद्यालय के उत्सव का प्रबंध करना या नाटक करना बहुत अच्छे जटिल प्रयोग हैं क्योंकि इनमें निमंत्रणपत्र लिखना, छपवाना, बँटवाना, सजावट करना तथा स्वागत आदि की व्यवस्था आदि कार्यो से भाषा तथा कला का ज्ञान होता है और नाटक के द्वारा तो इतिहास, भूगोल, भाषा, साहित्य, चित्र, संगीत, अभिनय आदि विज्ञानों और कलाओं का एक साथ ज्ञान हो जाता है।
इनके अतिरिक्त प्रयोगों के तीन प्रकार हैं � १. वस्तुपरक प्रयोग, जिसमें कोई वस्तु बनवाई जाती है। २. ज्ञानार्जन प्रयोग, जिसमें किसी प्रकार की योग्यता का कौशल का ज्ञान प्राप्त किया जाता है और ३. बौद्धिक का समस्यात्मक प्रयोग जिसमें किसी प्रकार का ज्ञान या सूचना प्राप्त करने में उठ खड़ी होनेवाली बाधा या समस्या का समाधान करने की योग्यता प्राप्त हो।
प्रयोग प्रणाली में वर्तमान काल तक के शिक्षाशास्त्रियों के सभी सिद्धांतों का समावेश होता है। वास्तविक परिस्थिति में काम करने की योजना में रूसो का प्रकृतिकवाद है, काम पूरा करने की योजना में पैस्टालोजी, हरबार्ट और फ्रोबेल का ) 'करो और सीखो' वाला सिद्धांत, स्वयंशिक्षा, आंगिक समर्थता तथा � 'करो और सीखो' � का समावेश है। इसका मनोवैज्ञानिक आधार यही है कि व्यावहारिक ज्ञान (फंक्शनल नौलेज), वास्तविक योग्यता और चारित्रिक गुण तभी संभव है जब छात्र किसी ज्ञानपरक कार्य को स्वत: क्रियाशील होकर संपन्न करे।
प्रयोगशाला में विद्यार्थियों को स्वत: सोचने और काम करने की प्रवृत्ति होती है। वे अपना काम समझकर उसमें रुचि लेते हैं। वास्तविक परिस्थिति में कार्य पूर्ण होने के कारण वे उस काम के सब तत्व समझ लेते हैं। उस काम में जितनी सामग्री और शक्ति लगती है उसका अपव्यय नहीं होता। जितना ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह सब वास्तविक जीवन में काम देता है। इसके द्वारा काम करने से अभ्यास और चातुर्य को प्रोत्साहन मिलता है, ठीक क्रम से काम करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, तथा धेर्य, संतोष, आत्मतुष्टि और श्रमकार्य के प्रति आदर का भाव उत्पन्न होता है।
किंतु इस प्रणाली में सबसे बड़ा दोष यही है कि सब विषयों के सब अंग इसके द्वारा नहीं सिखाए जा सकते, अध्यापक का व्यक्तित्व और ज्ञान निरर्थक हो जाता है और ज्ञान का क्रम अव्यवस्थित हो जाता है। फिर विद्यालय में बड़े बड़े प्रयोग करना संभव नहीं है ओर विद्यालय के बहुसंख्यक छात्रों के लिये इतने प्रयोग ढूँढे निकालना भी कठिन कार्य है। सबसे अधिक असुविधा की बात यह है कि विद्यालय में इस प्रकार के प्रयोगों से निरंतर कोलाहल होता रहता है। इसलिये केवल कभी कभी, विशेष अवसरों पर ही, जटिल प्रयोगों की योजना ठीक है, उसे सार्वजनिक व्यवस्थित शिक्षा देने का साधन नहीं बनाया जा सकता।(सीताराम चतुर्वेदी)