प्रतिहार जो प्रतिहार के नाम से भी प्रसिद्ध है, एक राजवंश का नाम है। चारण कथाओं के अनुसार यह अग्निकुल से संबंधित था, और राजपूत जाति के छत्तीस गोत्रों में से एक था। इस राजवंश के सदस्यों का विश्वास था कि वे महाकाव्य के नायक लक्ष्मण के उत्तराधिकारी है, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति सत्य रूप से प्राचीन कालीन अभिलेख से ज्ञात होती है, जिसमें कहा गया है कि शास्त्रों का उद्भट विद्वान् हरिश्चंद्र नाम का एक ब्राह्मण था, जो प्रतिहार वंश का वंशगुरु था। उसकी दो पत्नियाँ थीं, उसमें एक ब्राह्मण थी, दूसरी क्षत्रिय। ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न उसके पुत्र प्रतिहार ब्राह्मण कहलाए, और क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न पुत्र राजवंश के स्थापक हुए।
क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न हरिश्चंद्र के पुत्रों ने, जिनकी संख्या चार थी, जोधपुर में स्थित मांदव्यपुर (वर्तमान मंदोर) को जीत लिया और यहाँ एक दुर्ग की स्थापना की। तीसरे के पौत्र नागभट ने जोधपुर में मेड़ांतक (वर्तमान मेड़ता) में अपनी राजधानी बनाई। यह माना जा सकता है कि हरश्चिन्द्र छठी शताब्दी के मध्य में रहा होगा और नागभट का राज्यकाल उससे एक शताब्दी पीछे निश्चित किया जा सकता है। नागभट का एक उत्तराधिकारी सिलुक, आठवीं शताब्दी के मध्य भाग में अपने वंश के वल्लमंडल नामक राज्य का शासक कहा जाता था। इसी शताब्दी के उत्तरार्ध में वल्लमंडल के प्रतिहारों ने मालव के प्रतिहारों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया, और नवीं शताब्दी के तीसरे चतुर्थांश तक राज्य करते रहे।
प्रतिहार राजवंश की एक शाखा, जो मालव में आठवीं शताब्दी के प्रथम भाग से शासन करती रही थी, हरिश्चंद्र की ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न उत्तराधिकारियों की शाखा प्रतीत होती है। इस शाखा के सदस्य, जो मूल रूप से ब्राह्मण थे, कालांतर में वैवाहिक संबंधों के कारण क्षत्रिय हो गए। इसका सबसे प्राचीन ज्ञात सम्राट् नागभट प्रथम था, जो अपने मालव राज्य को सिंध के अरबों के आक्रमणों से बचाने में सफल हुआ था। नागभट प्रथम दक्षिण के राष्ट्रकूट दंतिदुर्ग से पराजित हुआ, जिसने अपनी विजय के पश्चात् उज्जैन में हिरण्यगर्भदान करवाया। आठवीं शताब्दी के अंतिम भाग में इस वंश के राजा वत्सराज ने राजपूताना के गुर्जर राज्य को जीत लिया और उसे अपने राज्य में मिला लिया। उसके पश्चात् उसने उत्तर भारत पर अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिये बंगाल के पालों से अपनी तलवार आजमाई। उसने गंगा और यमुना के बीच के मैदान में पाल धर्मपाल को परास्त कर दिया, और अपने सामंत शार्कभरी के चहमाण दुर्लभराज की सहायता से बंगाल पर विजय प्राप्त की, और इसी प्रकार वह गंगा के डेल्टा तक पहुँच गया। किंतु इस समय उसे दक्षिण के राष्ट्रकूट ध्रुव तृतीय से उसे पराजय मिली। वत्सराज का पुत्र तथा उत्तराधिकारी नागभट द्वितीय, सन् ८०० ई. के लगभग गद्दी पर बैठा था। उसे राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय के सम्मुख मालव समर्पित करना पड़ा। वह अपने राजपूताना के सामंतों की सहायता लेकर कन्नोज के शासक तथा पालवंशीय धर्मपाल के आश्रित चक्रायुध को परास्त कर कन्नोज पर अधिकार करने में सफल हुआ। मुंगेर में धर्मपाल भी उसके द्वारा परास्त हो चुका था। उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया और उसके पश्चात् कन्नौज इसी वंश का राज्यकेंद्र हो गया। नागभट द्वितीय का पौत्र भोज इस वंश का सबसे महान् सम्राट् समझा जाता है। उसके राज्यकाल में प्रतिहार राज्य पंजाब और गुजरात तक फैल गया। भोज बंगाल के पालों, दक्षिण के राष्ट्रकूटों और दक्षिणी गुजरात से लड़ा, किंतु दाहल के कलचूरि कोकल प्रथम से पराजित हुआ। १०वीं शताब्दी के प्रथम दशक में उसके पुत्र महेंद्रपाल प्रथम के राज्यकाल में प्रतिहार राज्य मगध और उत्तर बंगाल तक फैल गया था, किंतु इस राजा की मृत्यु के पश्चात् शीघ्र ही पालों ने इन दोनों प्रदेशों को पुन: जीत लिया। महेंद्रपाल का पुत्र महिपाल प्रतिहार वंश का अंतिम महान् राजा था। उसके राज्य के प्रारंभिक काल में ही दक्षिण के राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय ने कन्नौज को लूट लिया और महिपाल को अपनी राजधानी छोड़नी पड़ी। कुछ ही समय पश्चात् बुंदेलखंड के चंदेल हर्ष की सहायता से महिपाल पुन: अपना राजसिंहासन प्राप्त करने में सफल हुआ। उसका दरबारी कवि राजशेखर था, जिसने अपने आश्रयदाता का वर्णन 'आर्यावर्त के महाराजाधिराज' के रूप में किया है, और उसने बहुत से देशों के नामों की सूची भी दी है, जो महिपाल द्वारा विजित बताए जाते हैं। १०वीं शताब्दी के मध्य में महिपाल की मृत्यु के पश्चात् प्रतिहार वंश का पतन आरंभ हुआ, और जागीरदारों ने स्वतंत्रता के लिये सर उठाए। १०वीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में, जब गजनी के महमूद ने कन्नौज पर आक्रमण किया, उस समय के प्रतिहार राजा राज्यपाल ने उसके सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया। राज्यपाल का उत्तराधिकारी त्रिलोचनपाल, जो १०२७ ई. तक राज्य करता रहा, इस वंश का अंतिम ज्ञात राजा है।
सं. ग्रं. � आर. सी. मजुमदार : गुर्जर प्रतिहार; आर. एस. त्रिपाठी : कन्नौज का इतिहास।
(धीरेंद्रचंद्र गांगुली)