प्रतापनारायण मिश्र (सितंबर, १८५६� जुलाई, १८९४) भारतेंन्दु मंडल के प्रमुख लेखक, कवि और पत्रकार थे। वह भारतेंदु निर्मित एवं प्रेरित हिंदी लेखकों की सेना के महारथी, उनके आदर्शो के अनुगामी और आधुनिक हिंदी भाषा तथा साहित्य के निर्माणक्रम में उनके सहयोगी थे। भारतेंदु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी, वह अपने को उनका शिष्य कहते तथा देवता की भाँति उनका स्मरण करते थे। भारतेंदु जैसी रचनाशैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण मिश्र जी 'प्रतिभारतेंदु' अथवा 'द्वितीयचंद्र' कहे जाने लगे थे।
मिश्र जी उन्नाव जिले के अंतर्गत बैजे गाँव निवासी, कात्यायन गोत्रीय, कान्यकुब्ज ब्राहृमण पं. संकटादीन के पुत्र थे। बड़े होने पर वह पिता के साथ कानपुर में रहने लगे और अक्षरारंभ के पश्चात् उनसे ही ज्योतिष पढ़ने लगे। किंतु उधर रुचि न होने से पिता ने उन्हें अँगरेजी मदरसे में भरती करा दिया। तब से कई स्कूलों का चक्कर लगाने पर भी वह पिता की लालसा के विपरीत पढ़ाई लिखाई से विरत ही रहे और पिता की मृत्यु के पश्चात् १८-१९ वर्ष की अवस्था में उन्होंने स्कूली शिक्षा से अपना पिंड छुड़ा लिया।
इस प्रकार मिश्र जी की शिक्षा अधूरी ही रह गई। किंतु उन्होंने प्रतिभा और स्वाध्याय के बल से अपनी योग्यता पर्याप्त बढ़ा ली थी। वह हिंदी, उर्दू और बँगला तो अच्छी जानते ही थे, फारसी, अँगरेजी और संस्कृत में भी उनकी अच्छी गति थी।
मिश्र जी छात्रावस्था से ही 'कविवचनसुधा' के गद्य-पद्य-मय लेखों का नियमित पाठ करते थे जिससे हिंदी के प्रति उनका अनुराग उत्पन्न हुआ। लावनौ गायकों की टोली में आशु रचना करने तथा ललित जी की रामलीला मे अभिनय करते हुए उनसे काव्यरचना की शिक्षा ग्रहण करने से वह स्वयं मौलिक रचना का अभ्यास करने लगे। इसी बीच वह भारतेंदु के संपर्क में आए। उनका आशीर्वाद तथा प्रोत्साहन पाकर वह हिंदी गद्य तथा पद्य रचना करने लगे। १८८२ के आसपास 'प्रेमपुष्पावली' प्रकाशित हुआ और भारतेंदु जी ने उसकी प्रशंसा की तो उनका उत्साह बहुत बढ़ गया।
१५ मार्च, १८८३ को, ठीक होली के दिन, अपने कई मित्रों के सहयोग से मिश्र जी ने 'ब्राहृमण' नामक मासिक पत्र निकाला। यह अपने रूप रंग में ही नहीं, विषय और भाषाशैली की दृष्टि से भी भारतेंदु युग का विलक्षण पत्र था। सजीवता, सादगी बाँकपन और फक्कड़पन के कारण भारतेंदुकालीन साहित्यकारों में जो स्थान मिश्र जी का था, वही तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता में इस पत्र का था किंतु यह कभी नियत समय पर नहीं निकलता था। दो तीन बार तो इसके बंद होने तक की नौबत आ गई थी। इसका कारण मिश्र जी का व्याधिमंदिर शरीर ओर अर्थाभाव था। किंतु रामदीन सिंह आदि की सहायता से यह येन केन प्रकारेण संपादक के जीवनकाल तक निकलता रहा। उनकी मृत्यु के बाद भी रामदीन सिंह के संपादकत्व में कई वर्षो तक निकला, परंतु पहले जैसा आकर्षण वे उसमें न ला सके।
१८८९ में मिश्र जी २५ रू. मासिक पर 'हिंदीस्थान' के सहायक संपादक होकर कालाकाँकर आए। उन दिनों पं. मदनमोहन मालवीय उसके संपादक थे। यहाँ बालमुकुंद गुप्त ने मिर जी से हिंदी सीखी१ मालवीय जी के हटने पर मिश्र जी अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण वहाँ न टिक सके। कालाकाँकर से लौटने के बाद वह प्राय: रुग्ण रहने लगे। फिर भी समाजिक, राजनीतिक, धार्मिक कार्यो में पूर्ववत् रुचि लेते और 'ब्राह्मण' के लिये लेख आदि प्रस्तुत करते रहे। १८९१ में उन्होंने कानपुर में 'रसिक समाज' की स्थापना की। कांग्रेस के कार्यक्रमों के अतिरिक्त भारतधर्ममंडल, धर्मसभा, गोरक्षिणी सभा और अन्य सभा समितियों के सक्रिय कार्यकर्ता और सहायक बने रहे। कानपुर की कई नाट्य सभाओं और गोरक्षिणी समितियों की स्थापना उन्हीं के प्रयत्नों से हुई थी।
मिश्र जी जितने परिहासप्रिय और जिंदादिल व्यक्ति थे उतने ही अनियमित, अनियंत्रित, लापरवाह और काहिल थे। रोग के कारण उनका शरीर युवावस्था में ही जर्जर हो गया था। तो भी स्वास्थ्यरक्षा के नियमों का वह सदा उल्लंघन करते रहे। इससे उनका स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता गया। १८९२ के अंत में वह गंभीर रूप से बीमार पड़े और लगातार डेढ़ वर्षो तक बीमार ही रहे। अंत में ३८ वर्ष की अवस्था में ६ जुलाई, १८९४ को दस बजे रात में भारतेंदुमंडल के इस नक्षत्र का अवसान हो गया।
प्रतापनारायण मिश्र भारतेंदु के विचारों और आदर्शों के महान प्रचारक और व्याख्याता थे। वह प्रेम को परमधर्म मानते थे। हिंदी, 'हिंदू, हिदुस्तान' उनका प्रसिद्ध नारा था। समाजसुधार को दृष्टि में रखकर उन्होंने सैकड़ों लेख लिखे हैं। बालकृष्ण भट्ट की तरह वह आधुनिक हिंदी निबंधों को परंपरा को पुष्ट कर हिंदी साहित्य के सभी अंगों की पूर्णता के लिये रचनारत रहे। एक सफल व्यंग्यकार और हास्यपूर्ण गद्य-पद्य-रचनाकार के रूप में हिंदी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है। मिश्र जी की मुख्य कृतियाँ निम्नांकित हैं :
(क) नाटक � भारतदुर्दशा, गोसकट, कलिकौतुक, कलिप्रभाव, हठी हम्मीर, जुआरी खुआरी। सांगीत शाकुंतल (अनुवाद)।
(ख) अप्श् गद्य कृतिश्सँ � चरिताष्टक, पंचामृत, सुचाल शिक्षा, बोधोदय, शैव सर्वस्व।
(ग) अनूदित गद्य कृतियाँ� नीतिरत्नावली, कथामाला, सेनवंश का इतिहास, सूबे बंगाल का भूगोल, वर्णपरिचय, शिशुविज्ञान, राजसिंह, इदिरा, राधारानी, युगलांगुलीय।
(घ) कविता� प्रेमपुष्पावली, मन की लहर, ब्रैडला स्वागत, दंगल खंड, कानपुर महात्म्य, शृंगारविलास, लोकोक्तिशतक, दीवो बरहमन (उर्दू)।(श्याम तिवारी)