प्रकाशिकी ज्यामितीय (Geometrical Optics) यह प्रकाशिकी का वह अंग है जिसमें प्रकाश की किरणों की ज्यामिति तथा प्रकाशकीय तंत्र (optical system) द्वारा प्रतिबिंब- निर्माण-प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है। इसमें प्रकाशीय उपकरणों (optical instruments) के गुणों तथा उन लेंसों, दर्पणों एवं समपार्श्वो का विवरण सन्निहित होता है जिनके द्वारा प्रकाशीय उपकरणों की रचना होती है।
यह सुज्ञात तथ्य है कि प्रकाश की किरणें सरल रेखा में गमन करती हैं। उनके इस गुण को प्रकाश का ऋजुरेखीय संचरण (rectilinear propagation of light) कहते हैं। जिस पदार्थ से होकर प्रकाश की किरणें गुजरती हैं, उसे 'माध्यम' (medium) कहते हैं। जब प्रकाश की किरणें किसी माध्यम से चलकर दूसरे माध्यम में पहुँचती हैं तो तीन क्रियाएँ होती हैं :
(१) प्रकाश की किरणों का कुछ, या अधिक, भाग दोनों माध्यमों के विभाजक तल से पहले ही माध्यम में वापस लौटा दिया जाता है। इस क्रिया का परावर्तन (Reflection) कहते हैं।
(२) प्रकाश की किरणों का कुछ भाग विभाजक तल पर अवशोषित हो जाता है।
और (३) प्रकाश की किरणों का शेष भाग दूसरे माध्यम में चला जाता है। इस क्रिया को अपवर्तन कहते हैं।
परावर्तन और अपवर्तन प्रक्रिया के समय प्रकाश की किरणें कुछ नियमों का पालन करती हैं। परावर्तन संबंधी नियम निम्नलिखित है :
चित्र १. प्रकाश का परावर्तन
क. वस्तु से घ. आपातित किरण परावर्तक छ् पर गिरती है। ग. परावर्तित किरण है तथा ख. परावर्तक के आपतन बिंदु पर अभिलंब। च. वस्तु क. का बिंब है। आपतन एवं परावर्तन कोण दोनों = को (q )।
(२) आपाती एवं परावर्तित किरणें अभिलंब के परस्पर विपरीत ओर स्थित होती हैं, और
(३) आपतन एवं परावर्तन कोण परस्पर बराबर होते हैं।
अपवर्तन संबंधी नियम निम्नलिखित हैं :
चित्र २. प्रकाश का अपवर्तन
ख. आपतन बिंदु पर अभिलंब; आ (i) आपतन कोण तथा को (r) अपवर्तन कोण है।
और (३) आपतन एवं अपवर्तन कोणों की ज्याओं (sines) में एक स्थिर अनुपात होता है। इस अनुपात को ग्रीक अक्षर म्यू (m ) द्वारा व्यक्त किया जाता है और इसे पहले माध्यम के सापेक्ष दूसरे माध्यम का अपवर्तनांक कहा जाता है।
अर्थात् , जहाँ आ (i) और को (r)
क्रमश: आपतन एवं अपवर्तन कोण हैं तथा ब (m ) अपवर्तनांक है।
प्रिज्म से अपवर्तन � समतल से अपवर्तन का उत्तम उदाहरण प्रिज्म के अपवर्तन में मिलता है। मान लीजिए अ ब स एक प्रिज्म समपार्श्व की अनुप्रस्थ काट है (देखें चित्र ३.)। वायु से आती हुई आपाती किरण द य, समपार्श्व के फलक अ ब से शीशे में वर्तित होकर, य फ दिशा में जाती है और दूसरे फलक अ स से पुन: वायु में फ र दिशा में निर्गत होती है। इस प्रकार आपाती किरण द य प ग दिशा से अंत में प फ र दिशा में अपनी प्रारंभिक दिशा से वि (D) कोण बनाती हुई मुड़ जाती है। इस कोण को विचलन कोण (Angle of deviation) कहते हैं। यह देखा जा सकता है कि आपतन कोण आ (i) के मान में क्रमश: वृद्धि होने पर वि (D) का मान पहले तो घटता है, किंतु एक न्यूनतम मान तक पहुँचकर फिर बढ़ने लगता है, लगता है, अर्थात् आ (i) और वि (D) के बीच खींचा गया लेखाचित्र एक परवलीय (parabolic) वक्र होगा, जैसा चित्र ४. में प्रदर्शित है। विचलन कोण के न्यूनतम मान को अल्पतम विचलन कोण (Angle of minimum deviation d ) कहते हैं। इस स्थिति में जब विचलन कोण न्यूनतम हो, प्रिज्म के अंदर अपवर्तित किरण य पु समत्रिपार्श्व के आधार ब स के समांतर होती है और आपतन आ (i) तथा निर्गमन नि (i� ) कोण परस्पर बराबर होते हैं। को (i) और को� (r� ) भी आपस में समान होते हैं। यदि समपार्श्व का कोण अ (A) और अल्पतम विचलन कोण विअ (d ) के मान ज्ञात हों, तो प्रिज्म के पदार्थ का अपवर्तनांक व (m ) निम्नलिखित सूत्र द्वारा ज्ञात किया जा सकता है :
पूर्ण आंतरिक परावर्तन � सघन माध्यम से चलनेवाली किरणें विरल माध्यम में जाने पर, दोनों माध्यमों के विभाजक तल पर, अभिलंब से दूर हट जाती है। यदि ऐसी किरण का आपतन कोण बढ़ाया जाय, तो अपवर्तन कोण बढ़ता जाता है और अंत में आपतन कोण के एक विशेष मान के लिये आवर्तन कोण का मान ९०० हो जाता है। इस दशा में अपवर्तित किरण विभाजक तल को स्पर्श करती हुई उसी के समांतर चली जाती है। आपतन कोण के इस मान को उस माध्यम युगल के लिये क्रांतिककोण (Critical angle) कहते हैं। (देखें चित्र ५.। यदि क्रांतिक कोण का मान क्रां (C) हो तो पहले माध्यम के सापेक्ष दूसरे अपवर्तनांक सूत्र। चित्र ५.
द्वारा ज्ञात किया जा सकता है।
यदि क्रांतिक कोण का मान क्रां (C) से बढ़ाया जाय, तो किरण अपवर्तित होकर दूसरे माध्यम में नहीं जाती, अपितु परावर्तित होकर पहले ही माध्यम से वापस लौट आती है। इस क्रिया को पूर्ण आंतरिक परावर्तन कहते हैं।
गोलीय तल पर अपवर्तन � ऊपर दिए गए अपवर्तन के दृष्टांत में किरणें समतल पर अपवर्तित होती हैं। किसी गोलीय तल पर होनेवाले अपवर्तन की क्रिया इस प्रकार समझी जा सकती है :
मान लें किसी गोलीय अपवर्तक तल के अक्ष पर स्थित किसी वस्तु (प्रकाशस्रोत) उ से आपाती किरण चलकर, तल के अ बिंदु पर अपवर्तित होकर अस दिशा में चली जाती है (देखें चित्र ६.)। यदि किरण सअ को पीछे बढ़ाया जाय, तो वह अक्ष से ब बिंदु पर मिलती है। अत: अपवर्तन के उपरांत वह किरण ब से चलती हुई प्रतीत होती है१ चित्र में आपतन कोण आ (i) तथा अपवर्तन कोण को (r) द्वारा प्रदर्शित किए गए हैं। गोलीय तल के वक्रताकेंद्र क से खीचीं गई रेखा कअ बिंदु अ पर अभिलंब है। यह स्पष्ट है कि
D उ अ क में � आ = � गा - � ऐ .......... तथा
D ब अ क में � को = � गा - � बी
किंतु
तथा
अपवर्तन के नियमानुसार
व आ और
� को बहुत छोटे हों, अर्थात् आ = को व।
\ (गा-ऐ) = व (गा-वी)
या
या ............(१)
यह सूत्र वस्तु उ, प्रतीयमान (या आभासी) बिंब ब तथा वक्रताकेंद्र क की दूरियों के बीच संबंध व्यक्त करता है। अब मान लीजिए कि ऐसे कई गोलीय तल एक क्रम से, वस्तु से चलनेवाली किरणों के मार्ग में स्थित हैं। पहले तल एक क्रम से, वस्तु से चलनेवाली किरणों के मार्ग में स्थित हैं। पहले तल से वस्तु उ का प्रतीयमान बिंब ब� बनेगा, जो दूसरे तल के लिये वस्तु का कार्य करेगा। इससे दूसरा बिंब ब� � बनेगा। यह बिंब तीसरे तल के लिए वस्तु का कार्य करेगा। इस प्रकार प्रत्येक तल से बननेवाला बिंब अगले तल के लिये वस्तु की भाँति व्यवहार करेगा और अंत में ऐसे तलों के पूरे क्रम से निर्गत होने के उपरांत अंतिम बिंब ब बनेगा।
सममित प्रकाशीय प्रणलियाँ (Symmetrical Optical System) तथा प्रधान बिंदु (Cardinal Point) � सामान्यत: व्यवहृत होनेवाले प्रकाशीय यंत्रों के अपवर्तक तल ऐसे परिक्रमण तल (surface of revolution) होते हैं, जिनका सममिति अक्ष (axis of symmetry) सर्वनिष्ठ (common) होता है। इस सममिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि अक्ष पर स्थित प्रत्येक बिंदु का बिंब अक्ष पर ही स्थित किसी दूसरे बिंदु पर बनता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संपूर्ण अक्ष स्वयं अपना ही बिंब होता है।
किसी अपवर्तक तंत्र के अक्ष पर एक ऐसा बिंदु होता है जिससे निकलनेवाली प्रकाश की किरणें अपवर्तक तंत्र के बाहर अक्ष के समांतर निकलती हैं और इस प्रकार उस बिंदु का बिंब अनंत (infinity) पर बनता है। उस बिंदु को अपवर्तक तंत्र (या लेंस) का प्रथम फोकस बिंदु कहते हैं। प्रथम फोकस बिंदु से होकर अक्ष के समकोणिक खींचा हुआ माना गया तल प्रथम फोकस तल कहा जाता है। इस तल के किसी बिंदु से चलनेवाली किरणें अपवर्तन के उपरांत परस्पर समांतर हो जाती है।
द्वितीय फोकस बिंदु अपवर्तक तंत्र के अक्ष पर स्थित वह बिंदु है जिसपर अनंत से अक्ष के समांतर आनेवाली सभी किरणें अभिसरित (converge) होती हैं, अर्थात् जिस बिंदु पर, अनंत पर स्थित वस्तु का बिंब बनता है। इस बिंदु से अक्ष के समकोणिक कल्पित समतल को द्वितीय फोकस तल कहते हैं।
किसी लेंस के प्रथम फोकस बिंदु से अपसारित (diverge) होनेवाली किरणों का शंकु लेंस के दोनों धरातलों पर विचलित होता है। आपाती किरणो को आगे की ओर तथा निर्गत किरणों को पीछे की ओर बढ़ाने पर, जो परिच्छेद बिंदु मिलते हैं, वे सर्वनिष्ठ तल पर स्थित होते हैं, जिसे लेंस का प्रथम मुख्य समतल कहते हैं। लेंस के दो धरातलों पर दो बार विचलन, मुख्य समतल पर किरण के एक ही बार विचलन के तुल्य होता है। इसी प्रकार लेंस के अक्ष के समांतर आनेवाली किरणें अपवर्तन के उपरांत द्वितीय फोकस बिंदु की ओर अग्रसर होती हैं। यदि आपाती किरणों को आगे की ओर तथा अपवर्तित किरणों को पीछे की ओर बढ़ाया जाय तो उनके परिच्छेद बिंदु एक समतल पर स्थित होंगे, जिसे द्वितीय मुख्य समतल कहते हैं। इन समतलों के अक्ष के साथ परिच्छेद बिंदु को क्रमश: प्रथम तथा द्वितीय मुख्य बिंदु कहते हैं। प्रथम फोकस दूरी तथा द्वितीय मुख्य बिंदु से द्वितीय फोकस बिंदु की दूरी को द्वितीय फोकस दूरी कहते हैं।
ऊपर वर्णित चार बिंदुओं के अतिरिक्त अपवर्तक प्रणाली के मुख्य अक्ष पर दो ऐसे बिंदु होते हैं कि यदि प्रकाश की कोई किरण इनमें से एक की ओर आपतित हो तो वह आपाती किरण के समांतर अपवर्तक प्रणाली से निर्गत होती है, और दूसरे बिंदु से आती हुई प्रतीत होती है। इन्हें निनंति बिंदु (Nodal points) कहते हैं।
इस प्रकार किसी अपवर्तक तंत्र में छह ऐसे बिंदु होते हैं जिनके ज्ञान से आपाती एवं अपवर्तित किरणों की दिशाएँ तथा बिंब की स्थिति और आकार प्रकार का निश्चय किया जा सकता है। इन बिंदुओं को 'लेंस तंत्र के प्रधान बिंदु' कहते हैं।
अभिलक्षण फलन (Characteristic Function) � प्रकाशीय यंत्रों के निर्माण में कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है, विशेष कर यह कि किसी बिंदुवत् वस्तु से आनेवाली सभी किरणें एक बिंदुवत् बिंब पर ही एकत्र हों, अर्थात् वे विपथन (aberration) के दोष से मुक्त हों। इस हेतु यह आवश्यक है कि बिंब में गोलीय तथा वर्णी विपथन न होने पाएँ, अन्यथा बिंब विकृत होगा और एक स्थान पर बनने के बजाय भिन्न भिन्न रंगों के कई बिंब बन जाएँगे। इन समस्याओं के निदान के लिये एक अभिलक्षण फलन ढूँढ़ना पड़ता है। मान लीजिए, हम ऐसी नियामक प्रणाली चुनते हैं जिसमें वस्तु देश (object space) में मूल बिंदु मू (o) तथा निर्देशांक अक्ष (axes of coordinates) य, र, ल, (x, y, z) हैं, एवं बिंबदेश में ये क्रमश: मू� , य� र� ल� (O� , x� , y� z� ) द्वारा व्यक्त होते है। मान लें कि कोई किरण ल = ० (z = 0) तल में स्थित एक बिंदु य, र, मू (x, y, O) से चलती है जिसके प्रकाशीय दिक्कोज्या (optical direction cosines) दि१ (i) और दि२ (h ) [क्रमश: य (x) और र (y) अक्षों से बने हुए] हैं। प्रकाशीय दिक्कोज्या = ज्यामितीय दिक्कोज्या� माध्यम का अपवर्तनांक। मान लिया बिंबदेश में इस किरण की दिक्कोज्या (direction cosines) दि� १ (i� ) और दि� २ (h � ) हैं और ये बिंदु य� , र� , मू (x� , y� , O) से होकर गुजरती हैं। स्पष्ट है कि य, र; य� , र� ; दि१, दि२ और दि१� , दि२� (x, y; x� , y� ; e , h और e � h � ) ये सभी राशियाँ स्वतंत्र नहीं हैं, वरन् प्रथम चारों राशियाँ परस्पर एक अभिलक्षणफलन लफ (E) द्वारा संबंधित हैं और इनसे शेष चारों राशियों की गणना (computation) की जा सकती है।
यह देखा जाता है कि
उपयुक्त अभिलक्षणफलन लफ (E) उन सभी प्रकाशीय पथों का योग है जिन्हें प्रकाश की किरण को प्रारंभिक बिंदु य, र, मू (x, y, O) से लेकर अंतिम बिंदु य� र� मू� (x� y� O� ) तक पार करना पड़ता है।
(प्रकाशीय पथ = पथ की ज्यामितीय लंबाई� माध्यम का अपवर्तनांक)
मान लीजिए, हम कोई ऐसा प्रकाशिक तंत्र चुनते हैं जिसमें एक घूर्णाक्ष (axis of rotation) है और मान लीजिए यह अक्ष ल ल� (z z� ) अक्ष ही है। ऐसी दशा में य� (x� ) और र� (y� ) अक्ष क्रमश: य (x) और र (y) अक्षों के समांतर होंगे तथा अभिलक्षणफलन केवल तीन प्राचलों (parameters) पर ही निर्भर करेगा। मान लीजिए, ये प्राचल प्रा१, प्रा२, प्रा३ (l1, l2, l3) हैं जो निम्नलिखित सूत्रों द्वारा व्यक्त किए जा सकते है :
और ऊपर दिए गए समीकरणों के रूपांतर इस प्रकार हो जाएँगे।
उपर्युक्त समीकरणों में यदि दि१� , दि२� , य� , र� (e � ए h , x� , y� ) ज्ञात हों तो किरणों का किसी भी स्वेच्छ (arbitrary) से जो मू� (O� ) से ल� (z� ) दूरी हो, प्रतिच्छेद बिंदु (point of intersection) की स्थिति ज्ञात की जा सकती है और इस प्रकार किसी भी समतल या गोलीय तल से बननेवाली बिंब की स्थिति ज्ञात की जा सकती है।
गाउसीयन प्रकाशिकी (Gaussian Optics) � किसी वस्तु से चलकर अपवर्तक तल पर पहुँचनेवाली सभी किरणों द्वारा बननेवाले बिंब का विवेचन करने पर हमें पता चलता है कि वह बिंब क्षेत्रवक्रता (field curvature) तथा विकृति (distortion) आदि दोषों से युक्त रहता है। इसलिये गाउस ने केवल उन्हीं किरणों तक विचार सीमित रखने का सुझाव दिया, जो अपवर्तक प्रणाली के अक्ष के अत्यंत निकट से गमन करती हैं। इससे य, र, दि१, दि२ (x, y, e h ) तथा य� , र� दि१ दि२ (x� , y� , e � , h � ) अत्यंत छोटे होंगे और उनके टेलर श्रेणी (Taylors series) के विस्तार के केवल रेखीय पद (linear terms) ही ग्राह्य होंगे। अत: गाउस का सिद्धांत छोटे द्वारकों (apertures) द्वारा बननेवाले बिंबों की स्थिति एवं आवर्धन का लगभग ठीक ठीक निरूपण कर सकता है। इस दृष्टि से रैखिक समीकरण :
य� = ऐ य + बी य; र� = ऐ र+बी र�
दि१� = गा य+डे य� ; दि� २ = गा+ डे र�
............... ५
बिंबरचना की उपयुक्त व्याख्या कर सकेंगे यदि इनके स्थिरांक ऐ, बी, गा, डे (a , b , g , d ) परस्पर निम्नलिखित रूप में संबंधित हों
उपयुक्त दोनों समीकरण बिंबनियामकों य� र� ल� (X� , y� , z� ) को वस्तुनियामक य, र, ल, (x, y, z) के फलनों के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यदि वस्तु और बिंब की ओर के मूल के बिंदुओं को क्रमश: ल और ल� (z� और z� ) दूरी तक हटा दिया जाय तो स्थिरांक ऐ, बी, गा और डे (a ,b , g , और d ) के स्थान पर नए स्थिरांक ऐ� , बी� , गा� , डे� (a � ,b � , g � , और d � ) प्रयुक्त होंगे, जहाँ कि
इससे स्पष्ट है कि स्थिरांक गा (g ) के मान पर इस हटाव का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसे अपवर्तकप्रणाली की शक्ति कहा जाता है। जिस प्रणाली के लिये गा = ० (g = ०) होता है उसे अफोकसी तंत्र (afocal system) कहते हैं।
उपर्युक्त विवेचन के कतिपय महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त किए जा सकते हैं:
यदि बिंब की ओ के मूल बिंदु को इतना हटा दिया जाय कि बी = ० (b = ०) हो जाय तो:
य� = ए� य; र = ए� र; दि१� = गा य + ड दि१; दि२ = गा र + डे दि२
(x = a � x; y = a � y; e � = g x + e d ; h � = g y +d h )}.......... 8
यदि य = र = ल = ० (x = y = z = 0) हो तो स्पष्ट है कि य� = र� = ल� = ० (x� = y� = z� = 0) हो जाएगा अर्थात् मूल बिंदु का बिंब और वस्तु का बिंब मूल बिंदु पर ही बनेगा। अत: वस्तु एवं बिंब मूल बिंदु के संयुग्मी बिंदु (Conjugate points) होंगे।
(२) वस्तु की ओर यदि कोई बिंदु य०, र०, मू (x0, y0, O) लिया जाय तो उससे चलनेवाली किरणें बिंब की ओर ऐ� य०, ऐ� र० मू, (a x0, a � y0, O) बिंदु पर मिलेंगी। अत: ल = 0 (Z� = 0) तल पर बनता है और उसका आवर्धन ऐ� (a � ) के बराबर होगा। यदि आवर्धन ऐ� = १ (a � = १) हो तो ये दोनों संयुग्मी बिंदु, मुख्य बिंदु कहलाऐंगे।
(३) यदि आवर्धन
ऐ हो
तो उपर्युक्त दोनों
संयुग्मी बिंदु
निनंति बिंदु
कहे जाएँगे। यदि
य = र =
ल = ० (x
= y = z = 0) से कोई
किरण निनंति
बिंदु से होकर
जाए तो अपवर्तन
के पश्चात् वह
उस अपवर्तक प्रणाली
से अपनी प्रारंभिक
दिशा के समांतर
ही निर्यात होगी।
४. यदि बिंब के मूलबिंदु को इतना हटा दिया जाय कि
हो तो ऐ = ० (a = ०) तथा समीकरण (६) और (७) के द्वारा बी� गा = बी� गा� - १ (b � g - b � g � = -१) होगा।
अत:
इस दशा में सभी समांतर आपाती किरणें बिंब के मूल बिंदु पर मिलती हैं। इस बिंदु को बिंब फोकस बिंदु कहते हैं।
इसी प्रकार
यदि वस्तु को
मूल बिंदु से
दूरी तक
हटा दिया जाय
तो डे =
० तथा बी गा =
-१ (d =
०) तथा b g
=
१) होगा। अत:
अतएव वस्तु के मूल बिंदु से चलनेवाली सभी किरणें अक्ष के समांतर चली जाती हैं। इसीलिये इस दशा में वस्तु मूल बिंदु वस्तु फोकस बिंदु (Object focal point) कहलाएगा। (सुरोश्चंद्र गौड़)