पौराणिक विश्वास एवं कर्मकांड आदिमकालीन मानव के जीवन में विश्वासों एवं गाथाओं का प्राधान्य था। उसका मानसिक जीवन विश्वास तक इसलिये सीमित था कि उसमें चिंतन शक्ति का अभाव था और गाथाओं से इसलिये प्रेम था कि दार्शनिक तथा वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ उसे शुष्क और नीरस लगती थीं। यही कारण था कि सामान्य लोगों को सृष्टि, सृष्टिकर्ता, विश्व, पाप, पुण्य इत्यादि पारलौकिक विषयों का ज्ञान कराने के लिये पौराणिक विधि का सहारा लिया गया। पुराण ऐसे ही विचारों के गाथात्मक स्वरूप का नाम है।

फ्रांसीसी समाज शास्त्रीय विचारक आगस्ट कामटे ने मानवीय चिंतन शक्ति को धर्मशास्त्रीय, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक इन तीन युगों में विभाजित किया है। धर्मशास्त्रीय युग में मनुष्य अपने कौतूहल का निवारण पौराणिक गाथाओं की सहायता से करता है। अत: पौराणिक गाथाओं को मानवीय जीवन की आदिकृति माना जा सकता है।

सृष्टिनिर्माण के विषय में संसार के सभी धर्मो की पौराणिक गाथाओं में समानता पाई जाती है। उदाहरण के लिये प्राय: सभी धर्मो में माना जाता है कि सृष्टि के आदि में ईश्वर ने एक पुरुष और एक स्त्री का सृजन किया। क्रिश्चियन लोग इन्हें ऐडम तथा ईव, मुसलमान लोग आदम तथा हौवा और हिंदू लोग मनू तथा सतरूपा और गिनबर्ट द्वीप के लोग ना अतीबा और नौ टीकी कहते हैं।

सामान्य विशेषता पौराणिक वि 7;वास की सामान्य विशेषता यह है कि इसमें मनुष्य के क्रियाकलापों में दैवी हस्तक्षेप अनिवार्य रूप से पाया जाता है। प्रत्येक कार्य के अधिष्ठाता अलग अलग देवी या देवता होते है। कार्यो की सफलता या असफलता इनकी प्रसन्नता या अप्रसन्नता पर आधारित रहती है।

पौराणिक विश्वास के जन्म के विषय में दो परस्पर विरोधी मत पाए जाते हैं। कुछ विचारक पौराणिक विश्वासों को आदिकालीन मानव के वैज्ञानिक चिंतन का मूलाधार मानते हैं। ऐसे विचारकों में ऐंड्रू लैंग का नाम मुख्य है। दूसरी कोटि में मनोविश्लेषणवादियों का मत आता हैं। इनके अनुसार पौराणिक विश्वास सूमह की काल्पनिक उड़ान का प्रतिफल है। इनका सृजन अतृप्र आकांक्षाओं की शक्ति के लिये किया जाता है। पहले पौराणिक गाथाएँ व्यक्तिगत दिवास्वप्न के रूप में रहती हैं। कालांतर में जब इन्हें सामूहिक मान्यता प्राप्त हो जाती है तब वे पौराणिकता में बदल जाती हैं। इब्राहम, रैंक तथा फ्रायड इस कोटि के मत के प्रधान पोषक माने जाते हैं।

कर्मकांड क्या है पौराणिक विश्वास तथा कर्मकांड में क्या अंतर है, इस प्रश्न पर सबसे पहल रेडक्लिफ ब्राउन ने प्रशंसनीय कार्य किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'द अंडमान आईलैंडर्स' में पौराणिक गाथाओं एवं कर्मकांड के स्वरूप, उनके पारस्परिक संबंध तथा सामाजिक प्रकार्यो पर बड़े पांडित्यपूर्ण ढंग से विचार किया है। क्लाइड क्लुक होन के अनुसार कर्मकांड उन निर्धारित विधियों का संग्रह है, जिनके अनुसार कर्मकांड उन निर्धारित विधियों का संग्रह है, जिनके अनुसार सभी धार्मिक कार्य जैसे पूजा, प्रार्थना, कीर्तन, बलिदान आदि किए जाते हैं। क्लुक होने की परिभाषा को मान्यता देते हुए चेपल तथा कून ने कर्मकांडों को दो भागों में विभक्त किया है। (१) संस्कारीय कर्मकांड तथा (२) एकीकरण कर्मकांड।

संस्कारीय कर्मकांड के अंतर्गत जन्म, विवाह, मृत्यु आदि संस्कार आते हें। एकीकरण कर्मकांड के अंतर्गत ऐसी क्रियाएँ आती हैं जिनसे समाज के अन्यान्य वर्गो में अपनत्व एव एकता का भाव बढ़ता है। उदाहरण के लिये जूनी लोगों के सलाको कर्मकांड का नाम लिया जा सकता है। इसमें देवताओं का नृत्य कराया जाता है और सभी लोग एकत्रित होकर नृत्य का आनंद लेते हैं। दर्शनार्थी लोग छोटे बड़े, ऊँच नीच का भाव तथा व्यक्तिगत द्रोह को भूल जाते हैं। इसी प्रकार हिंदुओं में होली, दीवाली, दशहरा तथा मुसलमानों में ईद, मुहर्रम तथा अन्य सामाजिक धार्मिक कृत्य हैं जिनसे सामाजिक एकता को जीवन मिलता रहता है।

उपर्युक्त दोनों प्रकार के कर्मकांडों के अतिरिक्त कुछ कर्मकांड पूर्ण रूप से धार्मिक होते हैं। प्रसिद्ध नृशास्त्री लोई के अनुसार धार्मिक कर्मकांडों को उपर्युक्त दोनों श्रेणियों से भिन्न माना जाना चाहिए।

अब प्रश्न यह है कि पौराणिक विश्वासों और कर्मकांडों में से प्रथम कौन है ? क्या कर्मकांड पहले आरंभ होते हैं और उन्हें सामाजिक मान्यता देने के लिये पुराणों का सृजन होता है ? या पौराणिक विश्वासों के अनुसार कर्मकांड संपादित किए जाते हैं ? इस प्रश्न पर बड़ा मतवैभिन्न है।

लार्ड रैगलर ने अपनी पुस्तक 'द हीरो' और स्टैनिली एडगर हाइमन ने अपनी पुस्तक 'द रिचुअल भ्यू आफ़ द मिथ ऐंड मिथिक' में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि कर्मकांड पहले से ही प्रचलित रहते हैं और उन्हें मान्यता देने के लिये पौराणिक गाथाओं का सृजन किया जाता है। वोआस ने रैगलर और हाइमन के विचारों को अनुमोदित करते हुए बताया है कि कर्मकांड में सार्वभौमिकता का तत्व पाया जाता है, जबकि पौराणिक गाथाओं में इस तत्व का अभाव रहता है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि कर्मकांडों को मान्यता देने के लिये ही अन्यान्य पौराणिक गाथाओं का सृजन समय समय पर होता रहता है। रीकफ्रायड राबर्टसन तथा मर्टन के विचारों के अनुसार भी पौराणिक गाथाओं को केवल कर्मकांडों का वर्णन मात्र कहा जा सकता है।

उपर्युक्त मत का खंडन वास्कम ने अपनी पुस्तक 'द मिथिकल थ्यूरी' में किया है। उसके अनुसार कर्मकांडों का सृजन पौराणिक गाथाओं के क्रियान्वयन के लिये किया जाता है।

हौकार्ट ने यहाँ पर एक आपत्ति उठाई है। उसने कहा कि यदि पौराणिक गाथाओं को कर्मकांडों का कारण मान लिया जाय तो फिर पौराणिक गाथाओं के कारण का प्रश्न सामने आएगा और कारणों की यह शृंखला कभी समाप्त न होगी। अत: दोनों में अन्योन्याय संबंध मान लेना ही अधिक श्रेयस्कर और व्यावहारिक है। क्लाइड क्लुक होन, मैलिनास्की तथा हूके के भी लगभग ऐसे ही विचार है।

कर्मकांडों के आरंभ के विषय में विचारकों का मता है कि ये भी पौराणिक विश्वासों की भाँति पहले व्यक्तिगत स्तर पर आरंभ होते हैं और बाद में इन्हें सामूहिक मान्यता प्राप्त हो जाती है। पौराणिक विश्वास और कर्मकांड एक ईकाई के दो पक्ष माने जा सकते हैं। विश्वास सैद्धांतिक पक्ष है और कर्मकांड व्यावहारिक। पक्षों के इसी अंतर का परिणाम यह होता है कि कर्मकांड में परिवर्तन की गति पौराणिक विश्वास से अधिक होती है। क्रोबर के अनुसार जब एक ही कर्मकांड बहुत दिनों तक समाज में प्रचलित रहता है तो उससे लोगों को 'सांस्कृतिक थकान' का अनुभव होने लगता है और लोग प्रचलित कर्मकांड में कुछ परिवर्तन ला देते हैं। इसके विपरीत बाह्य वातावरण का भार पौराणिक गाथाओं पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं पड़ता, अत: उसमें परिवर्तन की गति मंदतर होती है।

पौराणिक विश्वासों के दीर्घ जीवन के कुछ स्थायी प्रभाव सामाजिक क्रिया कलापों के स्वरूप पर पड़ते है। पौराणिक गाथाएँ सांस्कृतिक सातत्य में सहायक सिद्ध होती हैं। सांस्कृतिक सातत्य परिवर्तन की गति को नियंत्रित करता रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि सांस्कृतिक संतुलन बना रहता है। यदि सांस्कृतिक सातत्य की शक्ति कम हो जाती है तो समाज में विघटन की प्रवृत्ति आरंभ हो जाती है। (वं. त्रि.)

एक शंका और उसका समाधान

पुराणों में नदी, तीर्थ, आश्रम, मंदिर तथा अनेक क्षेत्रो की यात्रा, दान, अश्वत्थ आदि वृक्षों का पूजन, रुद्राक्ष भस्म आदि का धारण एवं अनेक मंत्रों के जप आदि के माहात्म्म की चर्चा करते हुए जो यह कहा गया हैं कि उनके करने से अश्व मेझा गोमेघ आदि बड़े बड़े यज्ञों के फल की प्राप्ति होती है, उसे यदि पूर्ण विश्वास के साथ मान लिया जाय तो कर्मकांड का कोई महत्व नहीं रह जाता क्योंकि थोड़ा परिश्रम एवं अल्प द्रव्य व्यय से यदि अश्व मेघ, वाजपेय आदि बड़े बड़े यज्ञों का फल मिलने लग जाय, तो इन यज्ञों का कर्मकांड एवं उनके बोधक वेद और ब्राह्मण ग्रंथ व्यर्थ से हो जाते हैं।

पूर्वमीमांसा के विचारकों ने पुराणों के ऐसे वचनों को अर्थवाद मानकर छोड़कर दिया है। कर्मो में प्रवृत्त करनेवाले प्रशंसक वचन एवं दुष्कर्मो से निवृत्त करनेवाले निषेधक वचनों को 'अर्थवाद' कहते हैं। उनका मुख्य तात्पर्य यही है कि किसी प्रकार से मनुष्य को प्रवृत्त कराया जाय।

इस जटिल समस्या का समाधान संस्कृत में 'भगवन्नाम कौमुदी' में श्रीअन्नादेव ने किया है, तथा 'वैष्णव कंठाभरण' आदि ग्रंथों में भी समाधान मिलता है। इसपर निम्नलिखित दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है :

पुराणों की रचना के लिये जो अनेक कारण उपलब्ध होते हैं उनमें एक कारण मुख्यत: ऐसा भी मिलता है कि जिनको वेदों में वर्णित अनेक बड़े बड़े यज्ञ आदि कर्म करने का अधिकार, सामर्थ्य आदि नहीं है ऐसी स्त्रियाँ, शूद्र और जो नाम मात्र से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य हैं, उनके हित के लिये तथा उनको धर्म और मोक्ष प्राप्त हो इस अभिप्राय से श्री व्यास आदि ने पुराण रचे हैं। (भविष्य, ब्राह्म पर्व, अ. १ तथा भागवत., स्कंध १ अध्याय ४)

यद्यपि पुराणों में प्रतिपादित कर्म करने वाले ब्राह्मण आदि त्रैवर्णिकों के लिये भी पुराणों ने उपदेश दिया है, तथापि पुराणोक्त धर्म मुख्यत: स्त्रियों, शूद्रों आदि के लिये ही है।

पुराणों में कर्मकांड का विरोधी अर्थात् कर्मकांड न करे ऐसा उपदेश करनेवाला एकाध वचन भी उपलब्ध नहीं होता। पंचमहायज्ञ, संध्या आदि नित्यकर्म एवं संस्कार आदि कर्मो का अति विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि पुराणों ने कर्मकांड पर श्रद्धा बढ़ाई है, घटाई नहीं। स्मृतियों में जिस प्रकार धर्म और कर्म मिलता है उसी प्रकार पुराणों में भी मिलता है, स्मृतियों के श्लोकों के सदृश श्लोक सैकड़ों की संख्या में पुराणों में उपलब्ध हैं।

भारत में बौद्ध जैन आदि द्वारा जो धर्मक्रांति हुई तथा शक, हूण आदि विदेशस्थ लोगों के द्वारा जो आक्रमण हुआ इसके पूर्व से ही सोमयाग, अश्वमेघ, बाजपेय, पौंडरीक आदि बड़े बड़े श्रौत यज्ञों से अज्ञानी एवं गरीब बहुसंख्यक लोगों की प्रवृत्ति हट सी गई थी। पुराणों के प्रादुर्भाव से पहले ही ये बड़े बड़े यज्ञ लुप्त से हो गए थे। अनेक वर्षो में कोई एकाध धनी विद्वान् कर्मकांडी इन यज्ञों में से एकाध यज्ञ करता था। बहुसंख्य अज्ञानी एवं गरीब ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उन यज्ञों से उदासीन से रहा करते थे। अतएव कलियुग के प्रारंभ में विद्वान् विचारशील ऋषि मुनियों ने एकत्र बैठकर जो अनेक धर्म, कर्म निषिद्ध किए हैं उनमें एक अग्निहोत्र भी है। जब अग्निहोम ही निषिद्ध हो गया तो अग्निहोत्र के तीन अग्नियों पर होनेवाले सोम आदि बड़े बड़े यज्ञ स्वभावत: ही बंद हो गए। यद्यपि जब तक ब्राह्मणादि वर्णविभाग हैं और वेदों का पठन प्रचलित है, अग्निहोत्र और संन्यास निभ जाय, ऐसा भी वचन मिलता है तथापि उससे यही बात सिद्ध होती है कि अग्निहोत्र आदि से एवं बड़े बड़े यज्ञों से लोग विमुख हो गए थे, अत: इस संबंध में पुराणों को दोष देना और यह कहना कि उनके द्वारा प्रतिपादित अति सुलभ एवं धन से रहित जप, भक्ति, यात्रा आदि साधनों से जटिल श्रौत कर्मकांड नष्ट हो गया और जनता की कर्मकांड से श्रद्धा हट गई, उचित प्रतीत नहीं होता, पुराणों ने तो श्राद्ध, दान, संस्कार आदि स्मृति कर्मकांड का अति विस्तृत वर्णन कर उस पर श्रद्धा बढ़ाई ही है।

शुद्धचित्त से अर्थात् दंभ, हिंसा, लोभ, क्रोध, घमंड, असत्य, आदि से रहित चित्त से किया हुआ दान, व्रत, तीर्थयात्रा, ईश्वर के नाम का जाप आदि अवश्य ही अनंत फल देते हैं। सत्पुरुषों के चरित्र में यही मुख्यत: साधन है। शुद्ध चित्त से दान आदि करने के साथ अपना निजी आवश्यक कर्म भी, जो शास्त्र ने बतलाया हे, यथाशक्ति करते रहना चाहिए, उसका परित्याग वांछनीय नहीं, इस अर्थ के अनेक वचन सभी पुराणों में मिलते हैं।

निर्धन जनता का उपकार पुराणों में प्रतिपादित लोकोपकारक अनेक कर्म धर्म से ही बहुसंख्यक, गरीब एवं अज्ञानी जनता का अत्याधिक उपकार हो रहा है, जैसे बड़ी बड़ी धर्मशालाएँ एवं मंदिर, चाट, अन्नक्षेत्र, विद्यामंदिर, कुएँ, तालाब, बगीचा, रुग्ण सुश्रूषा स्थान (हॉस्पिटल), बिना मुख्य ओषध वितरण आदि अल्प धन व्यय अनेक कथाओं के द्वारा धनी लोगों के हृदय में विचार शक्ति और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास का उत्पन्न किया जाना भी लोकधर्म का उत्कर्ष है।

(अनंत शास्त्री फड़के)