पोतन्न (पोतराजु) तेलुगू के सुप्रसिद्ध कवि; रेड्डि राजाओं के समय में हुए थे। इनके जन्मस्थान के बारे में विद्वानों में मतभेद था परंतु अब एकमत सा हो गया कि ये वरंगल (ओरुगल्लु) के थे। इनका समय १४८० ई. के आसपास माना गया है। इनके गुरु के विषय में कुछ भी नहीं मालूम, अत: इनको 'सहज कवि' की उपाधि दी गई। ये अनन्य रामभक्त थे१ अपने ग्रंथ के आरंभ में उन्होंने स्वयं कहा है कि श्री रामचंद्र के साक्षात्कार और आज्ञा से ही 'भवबंध' मिटाने के लिये महाभागवत पुराण का आंध्रीकरण किया जा रहा है और उन्होंने भगवान् श्री रामचंद्र के चरण कमलों में अपनी कृति को समर्पित किया।
कहते हैं, अपने संबंधी और कवि सार्वभौम श्रीनाथ के आग्रह पर भी इन्होंने अपनी कृति को किसी राजा को समर्पित नहीं किया परंतु दरिद्रता का ही भोग करते हुए भगवान् की सेवा स्मरण में जीवन बिताना चाहा। कवि ने स्वयं देवी सरस्वती को सांत्वना दी थी कि 'माते, दु:खित मत हो। मैं तुमको (अर्थात् ग्रंथ को) किसी राजा को बेचूँगा ही नहीं'।
पोतन्न ने यद्यपि महाभागवत का अनुवाद ही किया तथापि अनेक कथा-संदर्भो में भक्ति के आवेश मे आकर ऐसी खूबी दिखाई कि भाषा, भाव आदि के विषय में वे मूल से भी चमक उठे। 'गजेंद्रमोक्षण' 'प्रह्लादचरित', 'भ्रमरगीत', 'वामनावतार' इत्यादि इसकी पुष्टि में प्रस्तुत किए जा सके हैं।
संस्कृत और आंध्र (तेलुगू) दोनों पर पोतन्न का पूर्ण अधिकार था। आंध्र देश की जनता मे कोई स्त्री या पुरुष ऐसा न होगा जिसे पोतन्न की कतिपय पंक्तियाँ कंठस्थ न हों। जितना प्रचार आंध्र महाभगवत का है, उतना आंध्र महाभारत का नहीं है� इसका कारण पोतन्न की शैली तथा भक्ति रस से ओतप्रोत काव्यवस्तु ही है।
पोतन्न के रचित आंध्र महाभागवत के कुछ अंश नष्ट हो गए; इसलिये सिंगन गंगन, नारय नामक कवियों ने ग्रंथ की पूर्ति की, यद्यपि उनकी शैली तथा भक्ति रस से ओतप्रोत काव्यवस्तु ही है।
पोतन्न के रचित आंध्र महाभागवत के कुछ अंश नष्ट हो गए; इसलिये सिंगन गंगन, नारय नामक कवियों ने ग्रंथ की पूर्ति की, यद्यपि उनकी शैली पोतन्न की शैली की बराबरी नहीं कर सकती। पोतन्न की शैली में मधुर समासयुक्त रचना तथा अंत्यानुप्रास सुचारु रूप से पाए जाते हैं।
भोगिनीदंडक, वीरभद्रविजयमु तथा नारायणशतक पोतन्न के अन्य ग्रंथ हैं। वीरभद्रविजयमु (जिसमें दक्षयज्ञ के विध्वंस का वर्णन है) इनकी रचना मानने के लिये कुछ लोग तैयार नहीं हैं। किंतु कुछ का कहना है कि वीरभद्रविजयमु इनके आरंभ काल की रचना है ओर भौगिनीदंडक युवावस्था की।
यद्यपि हम सूरसागर के साथ आंध्र महाभगवत की तुलना कर सकते हैं तथापि पोतन्न में समूचे भागवत का अनुवाद मिला है किंतु सूर में दशम स्कंध को छोड़कर बाकी स्कंधों का पूर्ण रूप से अनुवाद मिलता। पोतन्न का अनुवाद पद्यमय हे, सूर का पदमय, एक में काव्यत्व अधिक है, दूसरे में संगीतप्रवणता।
(कोटि सुंदरराज शर्मा)