पैस्टर, लुइर् (Pasteur, Louis; सन् १८२२-९५), फ्रांसीसी रसायनज्ञ, का जन्म जुरा प्रदेश के डोल (Dole) नगर में हुआ था, किंतु इनके पिता, जो चमड़े का काम करते थे, परिवार को लेकर आरबॉइ (Arbois) में बस गए। लुइ ने यहाँ, बजासौं (Besancon) तथा पैरिस में शिक्षा पाई। डुमा (Dumas) का शिष्य होने और ब्रोमीन गैस के आविष्कारक, आंत्वन जेरोम बाला (Antoine gerome Balard) के सहायक पद पर काम करने से इन्हें रसायन की ओर आकर्षण हुआ।
सन् १८४४ में मिचर्लिख (Mitscherlich) ने सिद्ध क्रिया था कि टार्टरिक अम्ल ध्रुवित प्रकाश के समतल को दाहिने घुमा देता है, किंतु पैराटार्टरिक (रैसेमिक) अम्ल में प्रकाश के घूर्णन की कोई क्षमता नहीं होती, यद्यपि दोनों के क्रिस्टल एक से प्रतीत होते हैं। पेस्टर ने खोज निकाला कि पैराटार्टरिक अम्ल में दो प्रकार के क्रिस्टल होते हैं, एक के पहल दाहिने ओर तथा दूसरे के बाईं ओर होते हैं तथा प्रथम प्रकार के क्रिस्टलों का विलयन प्रकाशत: दक्षिणावर्ती और दूसरे प्रकार का वामावर्ती होता है। समान परिमाण में दोनों प्रकार के क्रिस्टलों के विलयनों को मिलाने से रैसेमिक अम्ल प्राप्त होता है, जो प्रकाशत: निष्क्रिय है। पैस्टर के इस आविष्कार से विन्यास रसायन (Stereo chemistry) की नींव पड़ी और उनकी प्रसिद्धि हो गई।
सन् १८४८ में पैस्टर डी जहाँ (Dijon) में भौतिकी के प्राफेसर नियुक्त हुए, किंतु एक ही वर्ष पश्चात् स्ट्रैसबर्ग (Strasbourg) में रसायन के प्रोफेसर के पद पर इनका स्थानांतरण हो गया। अगले कुछ वर्ष क्रिस्टल विज्ञान विषयक प्रयोगों में बीते। सन् १८५४ में ये लील (Lille) विश्वविद्यालय के विज्ञान संकायाध्यक्ष तथा रसायन के प्रोफेसर नियुक्त हुए। यहाँ ये किण्वन संबंधी प्रयोगों में लग गए और दुग्धाम्ल के किण्वन पर इनका महत्वपूर्ण लेख सन् १८५८ में प्रकाशित हुआ। इन्होंने सिद्ध किया कि किणवन जीवाणुओं द्वारा होता हैं। इनकी खोजों के फलस्वरूपअ जीवाणु विज्ञान का प्रारंभ हुआ। इन्होंने यह भी सिद्ध किया कि किण्वन के जनक, जीवाणु, सारधारण वायु में उपस्थित रहते हैं। इस आविष्कार ने पैस्टर को तत्कालीन सर्वप्रमुख रसायनज्ञ के आसन पर प्रतिष्ठित किया।
इनके जीवाणु संबंधी विचारों का उपयोग लार्ड लिस्टर ने शल्य चिकित्सा में किया, जिससे इस क्रिया में क्रांति उत्पन्न हो गई और बहुत कुछ, जो पहले असंभव था, संभव हो गया। सन् १८६५ में ये अपने गुरु डुमा के कहने से रेशम के कीड़ों के रोग की जाँच में लग गए और इन्होंने इस रोग के जनक दंडाणुओं का पता लगाकर रेशम उद्योग की रक्षा का उपाय निकाला। सन् १८५७ में ही पैस्टर पैरिस के एकॉल नामेंल (Ecole Normale) में वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन के संचालक तथा निदेशक नियुक्त हो गए थे। इसी संस्था में इन्होंने अपने सक्रिय जीवन का अधिकांश भाग बिताया।
सन् १८७३ में पैस्टर 'ऐकैडेमो ड मेडिसिन' के सदस्य चुने गए थे। सन् १८७७ में इन्होंने मनुष्यों तथा पशुओं में होनेवाले संक्रामक रोगों के कारणों पर अनुसंधान आरंभ किया। प्राचीन काल से यह विश्वास चला आया था कि सूक्ष्म प्राणी अपने आप उत्पन्न हो जाते हैं। इस विश्वास को दूर करना कठिन था। पूर्व के वैज्ञानिक इसमें असफल हो चुके थे, किंतु पैस्टर ने अपने प्रयोगों से इस विश्वास को पूर्णत: असत्य प्रमाणित कर दिया। इनके प्रयोगों का श्विरण इनके ग्रंथ, ''मेम्वार सिर ल कोर्पुसल ओर्गानीजे की एग्जींस्तां, दाँ लात्मोस्फीर (Memoire, sur le corpuscules organisees qui existent dans'atmosphere)'' सन् १८६१ में प्रकाशित हुआ। इनके लिखे अन्य ग्रंथ 'एतिद सिर ल वें (Etudes sur le vinaige)' सन् १८६८ में, 'ऐतिद सिर ल मैलैदी दे वेर ऐ सॉइ (Etudes sur la Maladie des vers a ' Soie)' सन् १८७० में तथा 'एतिद सिर ला बियेर (Etudes sur la biere) सन् १८७६ में प्रकाशित हुए।
सन् १८८० में पैस्टर ने मुर्गियों में होनेवाले हैजा के संबंध में अनुसंधान आरंभ किया। इस रोग के जीवाणु का पता लग चुका था। पैस्टर ने यह सिद्ध किया कि यद इन जीवाणुओं का कई क्रमों में संवर्धन किया जाय, तो कुछ अवस्थाओं में इनकी प्रचंडता कम हो जाती है। तब यदि इन दुर्बल जीवाणुओं का प्रवेश स्वस्थ मुर्गी के शरीर में करा दिया जाय तो कुछ समय के पश्चात् उस मुर्गी से इस रोग के तीव्र रूप को भी सहन करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार इन्होंने संक्रामक रोगों के सक्रिय प्रतिरक्षण की रीति का आविष्कार किया। सन् १८८१ में भेड़ों के गिल्टी रोग, ऐंथ्राक्स, पर अनुसंधान आरंभ किया। इस रोग के बीजाणुओं (spores) की प्रतिरोध शक्ति अत्यधिक होने के कारण इससे सुरक्षा अति कठिन थी, किंतु पैस्टर ने पूर्वोक्त रीति से तैयार किए दुर्बल बीजाणुओं के टोके से भेड़ों और अन्य चौपायों की रक्षा का उपाय निकाला तथा इस पद्धति की उपयोगिता को प्रमाणित किया। सूअरों में होनेवाले अरुणचर्म (एरिसिपेलास) रोग से बचाव का उपाय निकालने के पश्चात्, इन्होंने दिखाया कि इस रोग के विषाणुओं को भी यहाँ तक तनु किया जा सकता है कि इनका टीका सुरक्षा सहित दिया जा सके तथा कुत्तों और मनुष्यों, दोनों की, न केवल काटे जाने के पूर्व वरन् पश्चात् भी रक्षा की जा सकती है। टीके की रीति ऐसी प्रचलित हुई कि फ्रांस में इन्स्टिट्यूट पैस्टर तथा अन्य देशों में भी इसी प्रकार की संस्थाएँ स्थापित हुईं।
पैस्टर को फ्रांस से 'लीजन ऑव आनर' तथा अनेक देशों से अन्य संमान मिले। ७३ वर्ष की आयु में विलक्षण वैज्ञानिक सूझ तथा विचक्षण बुद्धिवाले, मनुष्य जाति के परम हितकारी, इस महान् मानव की मृत्यु हुई। अपनी कार्यभूमि, पैरिस के इंस्टिट्यूट, पैस्टर में ही ये दफनाए गए।
(भगवानदास वर्मा)