पैरिसोडैक्टाइला (Perissodactyla) या विषमांगुलीय (Oddtoed animals) बड़े आकार के उद्भिजभक्षी एवं खुरवाले जंतु हैं। इनकी अंगुलियों की संख्या विषम होती है।
प्रारंभिक विषमांगुलीय कई दृष्टिकोण से प्रांरभिक खुरवाले जंतु सदृश ही थे। उनका विकास क्रमश: कालांतर में हुआ। शीघ्रगामी होने के कारण उनकी भुजाओं में सर्वप्रथम विशेष परिवर्तन आए। भुजाओं की तीसरी अँगुलियाँ जो मुख्यत: भारवाहक हैं, अधिक विकसित हुई, और उनके दोनों पार्श्व की अँगुलियाँ अविकसित ही रहीं। शीघ्र गमन की शक्ति प्रदान करने के लिये अधोबाहु (Lower part of the limb) की लंबाई अग्रबाहु (upper part of the limb) की अपेक्षा अधिक हो गई, फलस्वरूप अंत: प्रकोष्ठिका (ulna) और बहिर्जघिका (fibula) लंबाई में छोटी हो गई। ये सभी विशेषताएँ समांगुलीय (Artiodactyla) जंतुओं में भी पाई जाती हैं। परंतु विषमांगुलीय जंतुओं के मणिबंध (carpus) और गुल्फ (tarsus) की रचना उनसे भिन्न होती है। एक पश्च मणिबंधास्थि (distal carpal bone) अधिक बड़ी होकर अग्र मणिबंधास्थियों (proximal carpals) से जुड़ जाती है। इसी प्रकार गुल्फ की अस्थियों में भी आवश्यक परिवर्तन हो जाते हैं१ अधिक भार वहन करने तथा शीघ्र गयन के लिये रीढ़ की अस्थियों में विशेष परिवर्तन हो गए हैं, जैंसे हाथी में। पसली की अस्थियों की संख्या अधिक होती है; एवं इलियम (ilium) उदग्र (vertical) होता है।
विषमांगुलीय जंतुओं की सफलता इनके अशन साधन (feeding mechanism) पर आश्रित रहने पर भी इनके अशन साधन में समांगुलीय जंतुओं की अपेक्षा कम विशेषता होती है। तीक्ष्ण धार वाले कृंतक (incisors) खाद्य पदार्थ को कुतरने का कार्य करते हैं। रदन (canines) अविकसित या अनुपस्थित होते हैं, तथा कुछ जंतुओं में दंतावकाश (diastema) पाए जाते हैं। कई प्रारंभिक विषमांगुलियों के चर्वणक (molars) वप्रदंत (bunodont) एवं निम्न शिखर (Low crowned) वाले थे, परंतु आगे चलकर उनमें जटिल, पीसनेवाली सतह का विकास हुआ। यह सतह क्रमश: बाह्यकूट (ectoloph) अग्रकूट (protoloph) और पश्चदंतशिखर (metaloph) के द्वारा बनी। सी प्रकार निचले जबड़े के चर्वणक में भी विकास हुआ। पूर्वचर्वणक (premolars) चर्वणक के समान ही होते हैं। आहारनाल में अधिक विशेषता नहीं होती। आमाश्य अविभाजित होता है। परंतु अश्वों के आमाश्य का अग्रभाग (जठरागमी cardiac portion), अग्रंथिल (nonglandular) होता है। सेल्यूलोस का पाचन उंडुक (coecum) एवं बृहदांत्र में होता है, जिनकी लंबाई अधिक होती है।
विषमांगुलियों का मस्तिष्क (brain), विशेषकर जलतुरग (Tapir) जैसे प्राचीन जंतुओं का, अपेक्षया अधिक छोटे आकार का, होता है। परंतु उनके घ्राणकेंद्र अधिक विकसित होते हैं।
जननतंत्र के अंगों में भी प्राचीनता दिखाई पड़ती है। गर्भाशथ द्विशृंगी (bicornuate) तथा अपरा (placenta) विसरित एपिथािलियम कोराइल (diffuse epithelio choria) प्रकार का होता है, जिसके साथ बृहद अपरापोषिकाकोश (allantoic sac) लगा रहता है। अंडपीत कोश (yolk sac) आकार में अधिक बड़ा होकर वृद्धि की प्रारंभिक अवस्था में अंडपीत-कोश-अपरा (olk sac placenta) का निर्माण करता है।
अन्य जंतुओं की अपेक्षा, दक्षिण अमरीका तथा मलाया क्षेत्र के जलतुरंग सामान्य अंगविन्यास में इस वर्ग के आदि जीवों के सदृश होते हैं। इनकी अग्र भुजाओं में चार तथा पश्च भुजाओं में तीन अंगुलियाँ होती हैं। अग्र भुजाओं में अंगुष्ठ तथा पश्च भुजाओं में अंगुष्ठ एवं कनिष्ठा नहीं होतीं। व्यावहारिक दृष्टि से इनका पूर्ण दंतविन्यास अपेक्षया चर्वणक रूप (molariform) का होता है। ओष्ठ और नासा कुछ लंबे होकर एक छोटे से सूँड का रूप धारण कर लेते हैं, जो इनकी मुख्य विशेषता है।
गैंडा वंश में कई जातियाँ होती हैं। इनके प्राणियों का आकार बड़ा और बेडोल होता है। इनकी पश्च भुजाओं में तीन और अग्र भुजाओं में तीन या चार अँगुलियाँ होती हैं। तुंउ के ऊपर मध्य में एक या दो शृंग एक दूसरे के पीछे, होते हैं। ये शृंग यथार्थत: केशसमूह के एक साथ मिल जाने से बनते हैं। एक शृंग का विशाल भारतीय गैंडा केवल असम में पाया जाता है।
अश्वों की अँगुलियों में विशेष परिवर्तन हुए हैं। अग्र और पश्च भुजाओं की केवल तीसरी अँगुली ही अधिक उन्नत होती है। शेष दो अँगुलियाँ (दूसरी और चौथी) अस्थ्याधार (splints) का कार्य करती हैं (देखें चित्र १.)। अश्वों की सभी जीवित जातियाँ तथा उनके निकटतर संबंधी गदर्भ तथा चित्रगर्दभ एक ही प्रजाति के जीव हैं। अन्य स्तनधारी जंतुओं की अपेक्षा इन जंतुओं की वंशावली अधिक निश्चित रूप से ज्ञात है। इनके प्राचीनतम पूर्वज आदिनूतन युग (कदृड़ड्ढदड्ढ) के जीव थे, जिनका आकार लोमड़ी के समान था। वर्तमान काल के जलतुरंग तथा कुछ गैंडे के समान ही इनकी अग्र भुजाओं में चार तथा पश्च भूजाओं में तीन अँगुलियाँ थी।
(कार्तिकचंद्र बोस)