पेनिसिलिन (Penicillin) प्रतिजैविकी (antibiotics) के अविष्कार ने चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। ऐसा देखा जाता है कि एक प्रकार के सूक्ष्म जीवों (microorganisms) के दैनिक उपापचय (metabolism) द्वारा उत्पन्न द्रव्य की उपस्थिति, चाहे वह अत्यल्प ही क्यों न हो, दूसरे प्रकार के सूक्ष्म जीवों के लिये घातक होती है। सूक्ष्म जीवों से प्राप्त होने के कारण इन्हें प्रतिजैविकी कहते हैं। इस श्रेणी का सर्वप्रथम द्रव्य पेनिसिलिन है, जिसे सन् १९२९ में सर्वप्रथम डा. ऐलेग्जेंडर फ्लेमिंग (Alexander Flemting) ने ज्ञात किया था। प्रमुख आविष्कारों की तरह यह भी एक आकस्मिक घटना ही रही। प्रयोगशाला में रखे हुए एक स्टैफिलोकोकस (staphylococus) या गुच्छाण के संवधंन (culture) की स्वाभाविक वृद्धि न देखकर फ्लेमिंग को आश्चर्य हुआ। उन्होंने देखा कि एक विशेष प्रकार का फफूँद उस संवधंन में बढ़ रहा है, जो संभवत: हवा से उस संवधंन में पहले से ही आ गया था। इस फूफँद द्वारा निर्मित पदार्थ स्टैफिलोकोकस की वृद्धि नहीं होने दे रहा था। वह विशिष्ट फूफँद पेनिसिलियम नोटेटम (Penicillium notatum) रहा और इसलिये उससे प्राप्त द्रव्य पेनिसिलिन कहा जाने लगा। करीब ११ वर्ष बाद इस द्रव्य को शुद्ध रूप में प्राप्त करने का श्रेय डा. फ्लोरि (Florey) एवं डा. चेन (Chain) को प्राप्त हुआ, तब इसका परीक्षण संभव हो सका। अधिक मात्रा में विक्रयार्थ यह सन् १९४६ में सुलभ हो सका। अधिक मात्रा में विक्रयार्थ यह सन् १९४६ में सुलभ हो सका। अधिक मात्रा में विक्रयार्थ यह सन् १९४६ में सुलभ हो सका। शुद्ध पेनिसिलिन श्वेत वर्ण के क्रिस्टलीय चूण्र के रूप में होता है। सोडियम या पोटैशियम के साथ बना इसका लवण बेंजिल पेनिसिलिन (Benzyl penicillin) या (Pencillin G) है। यह अधिकृत योग है, जिसका अधिक उपयोग किया जाता है। पोटैशियम के साथ बने लवण में प्रत्येक मिलिग्राम में कम से कम १,४८० एकक (युनिट) तथा सोडियमवाले लवण में प्रत्येक मिलीग्राम में कम से कम १,५०० एकक की शक्ति होनी अनिवार्य रूपेण अपेक्षित है।

यह अत्यंत अस्थिर स्वरूप का द्रव्य है जो उष्णता, अम्ल, क्षार, स्पिरिट आदि के संपर्क में आने पर नष्ट हो जाता है। इसका चूर्ण बंद शीशियों में मिलता है जिसमें आवश्यकता पड़ने पर विसक्रमित आसुत जल मिलाकर सूई द्वारा प्रयोग की यह सामान्य रीति है। विलयन बनाने पर कुछ घंटों में यह निष्क्रिय हो जाता है। १५० सें. से कम ताप पर इसका विलयन कुछ दिनों तक प्रभावशाली बना रह सकता है। अशुद्ध पेनिसिलिन का स्थायित्व और भी कम है। इसका सामान्य रासायकि सूत्र इस प्रकार है :

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निर्माण के समय फफूँद (mould) में इसके स्थान में पार्श्व-शृंखला-विस्थापन (Side chain substitution) के द्वारा अनेक विभिन्न पेनिसिलिन प्राप्त किए गए हैं। जिन द्रव्यों का उपयोग पार्श्व-शृंखला-विस्थापन के लिये किया जा सकता हो उन्हें पूर्वगामी (precursors) कहा जाता है। अत्यधिक उपयोग में आनेवाले बेंजिल पेनिसिलिन (Benzyl penicillin) की प्राप्ति के लिये संवधंन में निर्धारित मात्रा में पूर्वगामी फेनिल ऐसीटिक अम्ल (phenyl acetic acid) का संयोग कराया जाता है। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार पूर्वगामी द्रव्यों का उपयोग करके विभिन्न गुणवाले पेनिसिलिन प्राप्त किए जा सके हैं। पेनिसिलिन वी (Penicillin V) इसी प्रकार के अन्वेषण का फल है जो मुख द्वारा सेवन करके पर आमाशयिक अम्ल द्वारा विनष्ट हुए बिना प्रभावी रहता है। पेनिसिलिन ओ (Penicillin O) सबसे कम संवेदनशीलता (sensitization) उत्पन्न करता है। यद्यपि उग्र व्याधियों में प्रदूषण की अनिश्चित के कारण मुख द्वारा सेवनीय योग उतने लाभप्रद नहीं, तथापि साधारण रोगों में, देने की सुगमता एवं संवेदनशीलता अल्पतम होने से मुख द्वारा सेवनीय योग कम महत्व के नहीं हैं, विशेषत: बच्चों के लिये। सूई द्वारा देने पर भी पेनिसिलिन का उत्सर्ग शीघ्र होने के कारण इसे चार बार देना पड़ता है। प्रोकेन पेनिसिलिन (Procain penicillin) ऐसा योग है जिसका अवशोषण (absorption) धीरे धीरे होने के कारण इसे २४ घंटे में केवल एक बार ही देना पड़ता। प्रारंभ में शीघ्र प्रभाव के लिये इसके साथ अन्य क्रिस्टलीय पेनिसिलिन दिया जाता है। बेनेथामाइन पेनिसिलिन (Benethamine penicillin) ड्डण् ६,००,००० युनिट की एक मात्रा का प्रभाव चार पाँच दिनों तक रहता है। बेंजाथिन पेनिसिलिन (पेनिब्यूरल) का प्रभाव सात से लेकर २८ दिनों तक बना रहता है। पेनेथामेट हाइड्रोआयोडाइड-इस्टोपेन (Penethamate hydroiodide-estopen) का अधिक आकर्षण फुफ्फुस के प्रति होने से फुफ्फुस विकारों में अधिक उपयोगी है किंतु इसका प्रयोग अधिक सावधानी से करना चाहिए। क्योंकि इसमें ऐलर्जी (allergy) की अधिक संभावना रहती है। ब्रोक्सिल (Broxil) मुख द्वारा सेवनीय योग है जो पेनिसिलिन 'वी' से दुगुना प्रभावकारी है। सेलबेनिन (Celbein) का उपयोग विशेष रूप से स्टैफिलोकोकस उपसर्ग में होता है।

पेनिसिलिन का मानकीकरण (Standardisation) जैव (biological) पद्धति से किया जाता है। एतदर्थ स्टैफिलोकोकस औरियस (staphylococcus aurius) या बैसिलस सबटिलिस (B. subtilis) के संवेदनशील स्ट्रेंन (strain) पर इसके निरोधक प्रभाव को देखा जाता है।

यह किस प्रकार कार्य करता है, इसका ठीक ठाक ज्ञान यद्यपि नहीं है, तथापि इतना अवश्य है कि यह जीवाणुओं के लिये आवश्यक पोषक पदार्थ को उनके द्वारा उपयोग में लाए जाने से रोकता है। विशेष रूप से यह जीवाणु द्वारा प्रयुक्त ऑक्सीजन के उपयोग में बाधक बनकर कार्य करता है। सल्फा ओषधियों के समान यह न केवल जीवाणुस्तंभक (bacteriostatic)है वरन् जीवाणुनाशी (bacteriocidal) भी है तथा पूय की उपस्थिति में भी प्रभावकारी रहता है।

यह प्रतिजैविक कार्य कुछ विशिष्ट वर्ग के विकारी सूक्ष्म जीवों के ही प्रति होता है अत: इन ओषधियों के प्रयोग से पूर्व यह ज्ञात कर लेना आवश्यक है कि किस प्रकार के सूक्ष्म जीवों के प्रति इनका उपयोग करना है। कभी कभी शरीर से प्राप्त सूक्ष्मजीवों के साथ इनका प्रयोगशाला में संयोग करके इनके प्रभाव को देखकर ही इनका प्रयोग करते हैं। क्योंकि विकारी सूक्ष्म जीव कभी कभी इनके प्रतिरोधी बन जाते हैं और तब इनका प्रभाव उन सूक्ष्म जीवों पर नहीं पड़ता।

फिरंग (syphilis), पूयमेह (gonorrhoea), फुफ्फुसदाह (pncumonia), डिफ्थीरिया (diphtheria), कार्बकल (मधुमेह पीडिका) पूययुक्त घाव, मस्तिष्कतानिका शोथ (meninitis) आदि उग्र व्याधियों में इनका प्रयोग बहुत सफल होता है।

यद्यपि प्रतिजैविकी में यह सबसे कम विषैला है तथापि संवेदनशील व्यक्तियों में इससे या ऐलर्जी के लक्षण होकर भयानक परिणाम भी हो सकते हैं। इसलिये इसके प्रयोग से पूर्व रोगी से पूछ लेना आवश्यक है कि कभी उसे या उसके कुटुंब में किसी को इसके प्रयोग से ऐलर्जी के सामान्य लक्षण जैसे खुजली, जीभ या अंगुलियों में झुनझुनी, चक्कर, मुख में विशिष्ट स्वाद या हलका ज्वर आदि तो नहीं हुए थे। दमा (asthma), परागल ज्वर (hayfever)ए एव अन्य ऐलर्जी जन्य व्याधियों में सावधानी से इसका प्रयोग करना चाहिए। शंका होने पर चम्र परीक्षण (Skin test) द्वारा परीक्षा करके संवेदनशीलता का पता लगाया जा सकता है। पेनिसिलिन का प्रयोग अनिवार्य हो तो विशेष पद्धति से सवेदनशीलता का निवारण करते हुए एवं आवश्यक आकस्मिक उपकरणों लता का निवारण करते हुए एवं आवश्यक आकस्मिक उपकरणों (emergeney measures) को पास में रखकर ही इसका प्रयोग करना चाहिए।

चिकित्साक्षेत्र में लाभदायक होने के अतिरिक्त इसके उपयोग से शारीरिक वृद्धि की गति भी बढ़ती है। उपजवृद्धि के लिये कृषि में भी इसका उपयोग किया गया है।

(संकठाप्रसाद)