पृष्ठतनाव (Surface Tension) ऐसी बहुत सी घटनाएँ हैं जिनमें हमें ज्ञात होता है कि द्रव अवस्था में द्रव्य का पृष्ठ तनी हुई लचीली झिल्ली के समान होता है। उदाहरणार्थ एक तार का फ्रेम लीजिए, जैसा चित्र १. में दिखाया गया है। फ्रेम में एक ढीला तागा बँधा है। इस फ्रेम को साबुन के विलयन में डुबोकर निकालने से उसपर साबुन का पटल या फिल्म बन जायगा। आप देखेंगे कि तागा फिल्म की ओर खिंच गया है। फिल्म को तोड़ देने से तागा पूर्ववत ढीला हो जाता है। फ्रेम में जहाँ हवा है, वहाँ यदि फिल्म बनाया जाय ओर जहाँ फिल्म था वह जगह खाली रखी जाय, तो तागा उल्टी दिशा में खिंच जायगा। इससे हमें ज्ञात होता है कि फिल्म में अंदर की ओर तनाव है, जिससे फिल्म का क्षेत्रफल निम्नतम हो जाता है। चित्र २. में तार के फ्रेम में दो तागे लगाए गए हैं और साबुन का फिल्म दोनों तागों के बीच में बनाया गया है। दोनों तागों पर फिल्म का तनाव होने के कारण वे फिल्म की ओर किस प्रकार खिंच गए हें यह चित्र में प्रदर्शित है। तार का वृत्ताकार फ्रेम लेकर उसमें साबुन का फिल्म बनाइए जैसा चित्र ३. में दिखाया गया है। फिल्म पर तागे का एक फंदा रख दें। यदि फंदे के भीतर का फिल्म सावधानी से तोड़ दिया जाय तो फंदा तनकर वृत्ताकार हो जायगा। फंदे की लंबाई निश्चित है और किसी भी निश्चित परिमित की अधिकतम क्षेत्रफल की आकृति वृत्ताकार होती है। इस कारण फिल्म का न्यूनतम क्षेत्रफल होने के लिये तागे का फंदा वर्तुलाकार हो जाता है। द्रव के पृष्ठ पर होनेवाले इस तनाव को पृष्ठ-तनाव, अथवा केशाकर्षण, कहते हें। इसी बल की सहायता से पौधे पृथ्वी से खाद्य रस ग्रहण करते हैं। कांच की एक समतल प्लेट पर पानी की बूँद अभिलंब दिशा में खींचकर पृथक् करना बहुत कठिन होता है। इस छोटे से प्रयोग से पृष्ठ तनाव के बल का प्रभाव प्रकट होता है।

पृष्ठ तनाव का तुला द्वारा मापन ¾ अ ब द स एक आयताकार फ्रेम है (देखें चित्र ४.)। फ्रेम तराजू के पलड़े से ऊर्ध्वाधर तल में लटकाया जाता है ओर उसका भार मालूम कर लिया जाता है। साबुन के विलयन में स्पर्श कराकर फिल्म उत्पन्न किया जाता है। फिल्म के तनाव के कारण फ्रेम नीचे की ओर खिंच जाता है और इस कारण संतुलन के लिये तला के दूसरे पलड़े में अधिक भार भ रखने की आवश्यकता होती है। फ्रेम में सद की लंबाई अधिक बढ़ाने से तनाव बल में वृद्धि करनी पड़ती है। अत: यह बल सद की लंबाई का अनुपाती और स द से समकोणिक दिशा में होता है। यदि पृष्ठ तनाव S और अ ब = द स = १ है तो अ ब स द पृष्ठ पर बल S1 होगा। फिल्म के दो पृष्ठ होना आवश्यक है। अत: S = mg / 21 डाइन/सेंटीमीटर है। फिल्म बनाने की रीति इस प्रकार है : पानी अथवा अन्य द्रव काच के स्वच्छ बरतन में रखकर वह बरतन लटकाए हुए फ्रेम के नीचे सावधानी से ले आइए और द्रव का स्पर्श फ्रेम के सद किनारे से होने दीजिए। इसके अनंतर बरतन को सावधानी से नीचे की ओर इस प्रकार हटाइए कि सद और द्रव पृष्ठ के बीच फिल्म उत्पन्न हो जाए।

पृष्ठ तनाव की व्याख्या का स्पष्टीकरण इस प्रकार होता है। मान लीजिए कि एक फिल्म अ ब स द फ्रेम पर बना है और फ्रेम की भुजाएँ अब, बस तथा अद स्थिर हैं और दस आगे पीछे हट सकती है। पृष्ठ के कारण फिल्म में भीतर की ओर 2S X 1 बल है। द स को संतुलित और स्थिर रखने के लिये द स से लंब दिशा में F बल की आवश्यकता है (देखें चित्र ५.) इस कारण F = 2S X 1 और S = F/21। फिल्म के एक पृष्ठ के प्रति सेंटीमीटर पर लगनेवाले बल को पृष्ठतनाव कहते हैं। चित्र ५. में यदि स द का विस्थापन हो तो पृष्ठतनाव के विरुद्ध कार्य 2S X 1 X x = W करना होगा। यहाँ 2lx फिल्म के क्षेत्रफल की वृद्धि है। यह वृद्धि जब एक वर्ग सेंटीमीटर होगी तब S-W होगा। अत: हम कह सकते हैं कि फिल्म के क्षेत्रफल में एक वर्ग सेंटीमीटर की वृद्धि करने के लिये जो कार्य करना होता है, वह पृष्ठ-तनाव के बाराबर होता है।

यदि किसी ठोस वस्तु के समतल पृष्ठ पर द्रव की बूँद डाल दी जाय, तो संतुलन के लिये वह ऐसी आकृति धारण करती है जिससे उसकी स्थितिज ऊर्जा (ptential energy) न्यूनतम हो। यह स्थितिज ऊर्जा दो प्रकार की होती है, गुरुत्वाकर्षण की ऊर्जा अति लघु होने के कारण बूँद की आकृति ऐसी होगी कि जिससे पृष्ठ-तनाव को स्थितिज ऊर्जा न्यूनतम हो, अर्थात् जिसमें बूँद का पृष्ठीय क्षेत्रफल न्यूनतम हो। हमें ज्ञात है कि यदि आयतन नियत हो तो गोलाकृति का पृष्ठीय क्षेत्रफल न्यूनतम होता है। इस कारण वर्षा के पानी की, ओस की, तेल की और पारे की छोटी बूँदें गोल होती है। परंतु जब बँदू बड़ी होती हैं तब उसकी पृष्ठ तनाव की स्थितिज ऊर्जा गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा की अपेक्षा बहुत कम होने के कारण बड़ी बूँदें फैलाकर चपटी हो जाती हैं, ताकि उनकी गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा न्यूनतम हो जाय। यदि कपूर के छोटे छोटे टुकड़े पानी के पृष्ठ पर डाल दिए जायँ, तो वे पानी पर इधर उधर दौड़ने लगते हैं। पानी में कपूर के विलयन का पृष्ठतनाव पानी के पृष्ठतनाव से बहुत कम होता है। इस कारण कम तनाववाला विलयन अधिक तनाववाले पानी की ओर खिंच जाता है और कपूर के टुकड़ों में हलचल होने लगती है। यदि पानी के तल पर कुछ चिकनाई डाल दी जाय तो पृष्ठतनावों का अंतर कम हो जायगा और कपूर के टुकड़ों में हलचल कम होगी। चिकनाई की मात्रा बढ़ाने से कपूर की हलचल बंद हो जायगी।

सामान्यत: हम देखते हैं कि ठोस वस्तु के पृष्ठ से द्रव के पृष्ठ का जहाँ स्पर्श होता है वहाँ द्रव का पृष्ठतल वक्र होता है (देखें चित्र ६.)। प क ठोस वस्तु का पृष्ठतल है और प ब द्रव का पृष्ठबल है। दोनों तलों का स्पर्श प बिंदु पर होता है। प पर स्थित किसी कण का विचार कीजिए। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण प न ऊर्ध्वाधर दिशा में नीचे की ओर होगा। ठोस पदार्थ के अणुओं का संयुक्त परिणामी बल प न है, जो प क पृष्ठ से अभिलंब (normal) दिशा में है। प के निकट स्थित द्रव के अणुओं का परिणामी बल पर दिशा में है, जो प बिंदु पर द्रवपृष्ठ को स्पर्श करनेवाली रेखा और ठोस पदार्थ के पृष्ठतल प क के बीच में कहीं है। प बिंदु पर स्थित द्रव के अणु पर इन तीन बलों के परिणामी बल की दिशा प बिंदु के पास द्रवपृष्ठ से अभिलंब होती है, क्योंकि द्रवपृष्ठ समविभव (equipotential surface) है। किंतु प न , प न' तथा पर बलों के परिणामी बल की दिशा ऊर्ध्वाधर नहीं हो सकती। यह आकृति की ओर देखने से ज्ञात होता है। इसलिये प बिंदु के पास द्रव का पृष्ठतल क्षैतिज नहीं होगा। स्पर्शबिंदु से दूरी पर स्थित द्रव के अणुओं पर केवल दो बल होते हैं : एक, पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण और दूसरा, द्रव के अणुओं का पारस्परिक आकर्षण। अत: इस अणुबल की दिशा गुरुत्वाकर्षण की दिशा में ही होती है और गुरुत्वाकर्षण की दिशा होने के कारण द्रव का पृष्ठतल क्षैतिज होता है।

स्पर्शकोण ¾ चित्र ७. में स, ल, अ क्रमश: ठोस पदार्थ, द्रव और हवा प्रदर्शित करते हैं। फ ग तल के दक्षिण हस्त पर द्रव और वाम हस्त पर हवा। Ð फगद = q को स्पर्शकोण कहते हैं। पृष्ठ तल फ ग द्रव की संतुलन स्थिति दिखाता है। द्रव की पृष्ठतनाव जन्य स्थितिज ऊर्जा न्यूतनतम होती है। अत: यदि हम द्रव का पृष्ठ तनाव फग स्थान से अत्यंत निकटवर्ती समांतर स्थान फ ग¢ पर ले जायें, तो इस स्थितिज ऊर्जा में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। परंतु इस स्थानांतरण से ठोस के पृष्ठ का गग¢ भाग द्रव से ढक जायगा। मान लीजिए कि गग¢ का क्षेत्रफल शून्य है और S1, S2 तथा S12 क्रमश: ठोस और हवा, द्रव और हवा तथा ठोस और द्रव पृष्ठों के बीच में होनेवाले पृष्ठतनाव हैं। फ ग का स्थानांतरण करने से ऊर्जा में इस प्रकार परिवर्तन होंगे :

(अ) ठोस और द्रव पृष्ठों का स्पर्शतल बढ़ने के कारण ऊजा में S12 ´ s की वृद्धि।

(ब) द्रव और हवा का स्पर्शतल बढ़ने के कारण ऊर्जा में S2 cosq ´ s की वृद्धि।

(स) ठोस और हवा का स्पर्शतल कम होने के कारण ऊर्जा में S1 s की कमी।

\ ऊर्जा में पूण्र वृद्धि s (S12 + S2 cosq - S1 ) =

\ cosq = S1 - S2

S2

यदि S1, S2 से अधिक है तो cosq का मान धन चिह्नोय होता है और q न्यून कोण (acute) याने p ¤ २ से कम होता है। यदि S1, S12 से कम है तो cosq का मान ऋण चिह्नोय होता है और q अधिक कोण (obtuse) याने p ¤ २ से अधिक होता है। कुछ द्रव ऐसे हैं कि उनका स्पर्शकोण शून्य होता है। पानी, एथिल ऐल्कोहल, क्लोरोफॉर्म, फॉमिक ऐसिड, तथा बंजीन इन पदार्थो का काँच से स्पर्शकोण शून्य होता है। पारे का स्पर्शकोण अधिक कोण होता है। जो द्रववस्तु ठोस पदार्थ को आर्द्र करती है, उसका स्पर्शकोण p ¤ २ से कम होता है, और द्रव उसे आर्द्र नहीं करता है, उसका स्पर्शकोण p ¤ २ से अधिक होता है।

स्पर्शकोण मापन ¾ स्पर्शकोण का अत्यक्ष मापन यथार्थतापूर्ण नहीं होता है। इस कारण पृष्ठतनाव को दो रीतियों से मापकर स्पर्शकोण मालूम किया जाता है। एक रीति में स्पर्शकोण की आवश्यकता नहीं होती और दूसरी में स्पर्शकोण के मान की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ हम येगर (Jaegar) की रीति से पृष्ठतनाव ज्ञात करते हैं, जिसमें स्पर्शकोण की आवश्यकता नहीं होती। दूसरी रीति में एक कांच के प्लेट का किनारा द्रव में लटकाया जाता है। सुग्राही तुला के पलड़े से प्लेट लटकाया जाता है। प्लेट का संतुलन करने के पश्चात् प्लेट लटकाया जाता है। प्लेट का संतुलन करने के पश्चात् प्लेट का किनारा धीरे धीरे द्रव से बाहर उठाने पर द्रव का फिल्म काच के किनारे से चिपका हुआ दिखाई देगा। फिल्म के पृष्ठ तनाव के कारण प्लेट नीचे की ओर खिच जाता है और तुला के दूसरे पलड़े में m वजन रखकर तुला का संतुलन कर लिया जाता है। यदि प्लेट की लंबाई १ और पृष्ठतनाव S और स्पर्शकोण q हो, तो पृष्ठतनाव के कारण S1 cos q ऊर्ध्वाधर दिशा में होता है, इसलिये mg = S1 cosq । इस समीकरण में S का मान, जो पहले येगर की रीति से ज्ञात कर लिया था, रखने से cosq ज्ञात हो जाता है।

गे ल्यूसॅक (Gay-Lussac) की रीति से स्पर्शकोण की माप ¾ काँच का एक फ्लास्क साफ करके सुखा लीजिए और उसमें साफ किया हुआ पारा लगभग मुँह तक भर दीजिए। फ्लास्क को उलट दीजिये, जैसा चित्र ८. में दिखाया है। पारे का पृष्ठतल फ्लास्क की दीवार के निकट अधिक वक्र दिखाई देगा। परंतु छड़ को भीतर ढकेलने से वक्रता कम होती जाएगी। छड को ऐसी स्थिति में रखिए कि पाने के पृष्ठतल की वक्रता नष्ट होकर वह समतल हो जाय। इस समतल रेखा के स्पर्शबिंदु से फ्लास्क पर स्पर्शरेखा खींचिए। समतल रेखा और स्पर्शरेखा के बीच का कोण स्पर्शकोण है। यदि फ्लास्क की त्रिज्या त्रि (r) और स्पर्शवृत्त (circle of contact) का व्यास द (d) है तो द/२ त्रि कोज्या (q -p ¤ 2) [d/2 = r cos ((q -p ¤ 2)]। इससे q ज्ञात होता है। कुछ द्रवों के काच के साथ होने वाले स्पर्शकोण के मान निम्नलिखित है :

द्रव

स्पर्शकोण

पारूैं

१४

पानी

मेथिल ऐल्कोहल

एथिल ऐल्कोहल

क्लोरोफार्म

फॉमिक अम्ल

बेंजीन

ऐसीटिक अम्ल

टपेंटाइन

१७

ईथर

१६

पैराफीन तेल

२६

केशपलिका में पानी का उत्थान¾ खुले मुँह की केशनलिका (capillary tube) को पानी में इस प्रकार खड़ी रखिए कि उसका एक मुँह पानी में डूबा रहे। पानी नलिका में चढ़ जायगा और कुछ ऊँचाई पर्यंत चढ़कर वहाँ संतुलित हो जायगा। चौड़े छिद्र की नलिका की अपेक्षा छोटे छिद्र की नलिका में पानी अधिक उँचे चढ़ता है (देखें चित्र ९) अ ब और स नलिकाओं के व्यास उत्तरोत्तर कम हैं और उन में पानी की उँचाई उत्तरोत्तर अधिक है। यदि नलिका पारे खड़ी की जाती है, तो नलिका के अंदर पारे का पृष्ठ बाहर के पृष्ठतल से नीचा होता है। नलिका के भीतर पानी का पृष्ठतल, जिसे नवचंद्रक (miniscus) कहते हैं, अवतल (concave) और पारे का नवचंद्रक उत्तल (convex) होता है। जो द्रव नलिका की दीवार को आर्द्र करते हैं, उनके नवचंद्रक अवतल और जो द्रव नलिका की दीवार को आर्द्र नहीं करते, उनके उत्तल होते हैं।

केशिकीय उत्थान से पानी के पृष्ठतनाव का मापन ¾ केशनलिका में (देखें चित्र १०.) बाहर के पानी के पृष्ठतल से नवचंद्रक की ऊँचाई h (ऊ) है। अवतल नवचंद्रक के किनारे के सब बिंदुओं पर स्पर्शरेखाओं की दिशा में पृष्ठतनाव बल S हैं। नवचंद्रक अवतल होने के कारण इन बलों का ऊपर की ओर बाण की दिशा में होना आवश्यक है। नलिका की दीवार से इनका कोण सर्वत्र q है। यदि नवचंद्रक की परिधि के छोटे छोटे भाग dl लंबाई के किए जायॅ तो प्रत्येक Sdl बल स्पर्शरेखा की दिशा में होगा। इस बल के घटक नलिका के अक्ष की दिशा में S dl cosq और अक्ष से लंब दिशा में S dl sinq हैं। अक्ष को दिशा में सब घटक बल एक ही दिशा में होने के कारण उनका योग S cosq dl = 2p r S cosq होता है। अक्ष से लंब दिशावाले घटकों का योग शून्य होगा, क्योंकि इन घटकों की जोड़ियां ऐसी होंगी कि प्रत्येक जोड़ी का एक बल यदि एक दिशा में होगा, तो दूसरा घटक की विपरीत दिशा में होगा। अक्ष की दिशा के परिणामी बल के कारण पानी नलिका में चढ़ताहै। नलिका की त्रिज्या r है और नलिका के भीतर उठे हुए पानी का आयतन p r2hr g होगा। अत: संतुलन के लिये २p rS cosq = p r2hr g और इस कारण S = rhr g/2 cosq पानी के लिये q = ० होने के कारण cosq = १,

\ S = r h r g / 2

नवचंद्रक के कारण ऊँचाई के मापन में होनेवाली त्रुटि ¾ ऊपर के प्रयोग में हमने माना था कि नलिका में पानी का स्तंभ बेलनाकार है और बेलन की ऊँचाई नवचंद्रक के पेदें तक h है। परंतु वास्तव में नवचंद्रक में पेंदे के ऊपर भी चारों ओर पानी है। इस पानी का आयतन भी हिसाब में सम्मिलित करना आवश्यक है। यदि r नलिका की त्रिज्या है, तो नवचंद्रक अर्धगोलाकृति होगा ओर उसकी त्रिज्या भी होगी। इस कारण नवचंद्रक में पानी का आयतन p r ´ r-२/३p r = p r/३ है। अत: केशनलिका में पानी का पूरा आयतन p rh +p r/३ = p r(h+r/3) होगा। इसलिये पृष्ठतनाव के उपर्युक्त सूत्र में h की जगह हमें (h+r/3) राशि का उपयोग करना होगा।

पृष्ठतनाव पर ताप का प्रभाव ¾ ताप बढ़ने के वस्तु के अणु विरल हो जाते है और उनका परस्पर आकर्षण कम होने लगता है। इस कारण स्वभावत: ताप बढ़ने से पृष्ठतनाव का मान कम हो जाता है। प्रत्येक द्रव के लिये एक निश्चित क्रांतिक ताप होता है और इस क्रांतिक ताप पर उस द्रव का पृष्ठतनाव नष्ट हो जाता है, अर्थात् उसका मूल्य शून्य हो जाता है।

समीकरण St = S0 ¾ a t के द्वारा ताप के परिवर्तन से पृष्ठ-तनाव में होनेवाला परिवर्तन व्यक्त किया जा सकता है। यहाँ द्य ताप पर पृष्ठतनाव में होनेवाला परिवत्रन व्यक्त किया जा सकता है। यहाँ t ताप पर पृष्ठ तनाव का मान St है और ० ताप पर उसका मान S है। a पृष्ठतनाव के लिये ताप गुणांक है। वेन डर वाल (van der Waal) Sr = S1(1-T/T)3/2 सूत्र पृष्ठतनाव के लिये दिया है। जहाँ ताप T और क्रांतिक ताप Tc परम, अर्थात् केल्विन मापक्रम, में व्यक्त किए गए हैं। इओटवो (Eotvos) के अनुसार कितने ही द्रवों के लिये उपयोगी सूत्र d/dt (Sv2/3) = २.१ है। यहाँ ध् आणिवक आयतन, अर्थात् अणुभार घनत्व, है और ज ताप है। इसके समाकलन से प्राप्त समीकरण Sv2/3 = 2.1(tc¾ t) है।

कुछ द्रवों के ० सेंटीग्रेड पर के पृष्ठतनावों के मान S0 तथा ताप गुणांक a नीचे की सारणी में दिए गए हैं :

द्रव

S डाइन/सेंटीमीटर

a

पानी

७५.८

०.१५२

पारा

४४१.३

०.३७९

ईथर

१९.३

०.११५

बेंजीन

३०.६

०.१३२

ऐल्कोहल

२५.३

०.०८७

पृष्ठतनाव के कारण वक्र फिल्म पर दबाव¾ वक्र फिल्म में होने वाले पृष्ठतनाव को प्रतिसंतुलित (counterbalance) करने के लिये फिल्म के अवतल पृष्ठ पर अधिक दाब का होना आवश्यक है। अ ब स द एक वक्र फिल्म है। अ ब तथा ब स की लंबाई a और b है। अ ब की वक्रता की त्रिज्या (radius of curvature) r1 और ब स की r2 है। मान लीजिए कि a b क्षेत्र को अभिलंब दिशा में ऊपर की ओर उठाया गया और इस कारण अ ब स द की स्थिति अ¢¢¢¢ में परिवर्तित हुई तथा अअ¢ = बव¢ = सस¢ = dz है (देखें चित्र ११.१)। यदि फिल्म के दोनों पृष्ठों के दबावों का अंतर r हो तो इस क्रिया में r a b ´ dz कार्य होगा। साथ ही a तथा b में वृद्धि होने से फिल्म के क्षेत्रफल में d (a b ) वृद्धि होगी और पृष्ठ-तनाव के कारण कार्य होगा (S´ da b )। फिल्म के दोनों ओर वायु होने के कारण पृष्ठतल दो होंगे। अत: पूरा कार्य होगा 2S d(a b )। संतुलन के लिये दाब से उत्पन्न होनेवाला कार्य इस कार्य के बराबर होना चाहिए।

\ p ´ a b . dg = 2S d(a b ) = (a db + b da )... A

वक्रता के केंद्र (centre of curvature) O पर अ ब तथा अ¢¢ q कोण अंतरित करते हैं। इसलिये a /r1 = a + da /r1+ dz b

= da /dz अथवा da = a dz/r1 तथैव db = z/r2

da तथा db के मान समीकरण (ॠ) में प्रतिस्थापित करने से हमें ज्ञात होता है कि

p = 2S(1/r1+1/r2)

जब हवा में द्रव की बूँद अथवा द्रव में हवा का बुलबुला हो तो फिल्म में एक ही पृष्ठतल होता है। अत: ऊपर दिया हुआ समीकरण p = S(1/r1+1/r2) हो जाता है। यदि बुलबुला अथवा बूँदे बिल्कुल गोल हों, तो r1 = r2 = r होगा और दाब का समीकरण p = 2S/r हो जायगा। यदि फिल्म बेलनाकार हो तो एक त्रिज्या r2 = ¥ होगी और p = S/r होगा। ध्यान में रखना चाहिए कि p संतुलन की स्थिति का दाबांतर है और इससे अधिक दाबांतर होने से बुलबुला फूट जायगा।

येगर (Jaegar) की रीति से पृष्ठतनाव का मापन इसी तत्व पर निर्भर है। एक काँच के पात्र में द्रव है और एक केशनलिका का मुँह द्रव में डूबा हुआ है। (देखें चित्र १२)। नलिका द्रव में ऊर्ध्वाधर है। द्रव के पृष्ठ से नलिका का मुँह H (ऊँ) गहराई पर है। म दाबमापी है, जिसमें कम घनत्व का तेल भरा है। दाबमापी के दोनों स्तंभो के तेल के पृष्ठों का अंतर h (ऊँ) है। फ वह बोतल है जिसमें कीप द्वारा पानी डाला जाता है। बोतल के अंदर पानी जाते समय बोतल से हवा केशनलिका में जाकर द्रव में बुलबुले उत्पन्न करती है। हवा की दाब म से ज्ञात होती है। म के दाहिनी ओर एक रोधनर प लगी है। प को कम या अधिक दबाने से बुलबुलों के निकलने का वेग अधिक या कम होता है। बुलबुला उत्पन्न होकर आयतन मकें बढ़कर फूटता है। अनंतर दूसरा बुलबुला उत्पन्न होता है। बुलबुला फूटने के समय म द्वारा हवा का दबाव ज्ञात किया जाता है। मान लीजिए, वायुमंडल का दाब (p +g d h) और बाहर की दाब ((p +g r h) होती है। संतुलन के लिये इन दाबों का अंतर 2S/r के बराबर होता है। अत: S = (dh-r h) gr/2। यहाँ d तेल का घनत्व और r द्रव का घनत्व है। r = 1 होता है।

कर्मिकाएँ (Ripples) ¾ किसी निश्चित तरंगदैर्ध्य से कम लंबाई की तरंगों को ऊर्मिकाएँ कहते हैं। थोड़ी गहराई के द्रवपृष्ठ पर होनेवाली छोटी ऊर्मिकाओं का संचरण विशेषत: पृष्ठ-तनाव-बल के कारण होता है और बड़ी तरंगों का संचरण मुख्यत: पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण द्वारा होता है। तरंगवेग का समीकरण है v = Ö gl /2p + 2p S/r l । इस समीकरण से ज्ञात होता है क यह वेग गुरुत्व g, पृष्ठतनाव S, द्रव के घनत्व r के अतिरिक्त तरंगदैर्ध्य l पर भी अवलंबित है। यदि l बहुत बड़ा हो तो v का मान भी बड़ा होता है और l बहुत छोटा होने से भी v बड़ा होता है। इन दो मर्यादाओं के बीच में l c ऐसा तरंगदैर्ध्य होगा जिसके लिये ध् न्यूनतम होगा। हम जानते हैं कि (gl /2p + 2p S/r l ) का मान न्यूनतम होने के लिये यह आवश्यक है कि gl /2p = 2p S/r l हो। अत तब l = l c = 2p Ö S/gp और न्यूनतम तरंगवेग vmm = Ö 2(Sg/r )¼ होगा। l c से अधिक दैर्ध्य की तरंगों को साधारणत: तरंग कहते हैं और l c से कम दैर्ध्य की तरंगों को ऊर्मिका कहते हैं। पानी के लिये S = ७५ और r = 1 है, इसलिये l c का मान १.७ सेंटीमीटर प्राप्त होता है। Vmm का मूल्य २३ सेंटीमीटर प्रति सेकंड होता है। यदि ऊर्मिका का दैर्ध्य प्रयोग से ज्ञात कर लिया हो, तो उक्त सूत्र से द्रव का पृष्ठतनाव ज्ञात हो जायगा। लार्ड रेले (Rayleigh) ने पहले पहल ऊर्मिका की रीति से पानी का पृष्ठतनाव मापा था।

लाप्लास का सिद्धांत ¾ लाप्लास ने पृष्ठतनाव की व्याख्या अणुओं के पारस्परिक आर्कषण के द्वारा की है। दो अणुओं की दूरी ज्यों ज्यों बढ़ती है त्यों त्यों यह आर्कषण बहुत तेजी से घटता है और १०-६ मिमी. से भी कम दूरी पर तो उसका सर्वथा लोप ही हो जाता है। अत: यदि किसी अणु केवल उन्हीं अणुओं को आकर्षित करेगा जो इस गोले के अंदर स्थित हों और स्वयं भी उन्हीं अणुओं से आकर्षित होगा। इस गोले की आणिवक आकर्षण का गोला कहते हैं।

अब यदि कोई अणु द्रव में १०-३ मिमी. से अधिक गहराई पर स्थित हो, तो उसके आकर्षण का गोला पूरा होगा और उसपर सभी दिशाओं से बराबर मान के बल लगेंगे, अर्थात् उसपर परिणामी आकर्षण बल का मान शून्य होगा और उस अणु को द्रव में इधर उधर चलने में किसी भी विरोधी बल का सामना नहीं करना पड़ेगा। किंतु यदि वही अधु द्रवपृष्ठ से १०-६ मिमी. से कम गहराई पर स्थित हो, तो उसका आकर्षणगोला पूरा नहीं होगा। अत: उसे नीचे की तरफ खींचनेवाले अणुओं की संख्या अधिक होगी और उसपर परिणाम बल ऐसा होगा जो उसे द्रव के अंदर की तरफ खींचेगा। यह बल स्पष्टत: तब अधिकतम होगा जब अणु द्रव के पृष्ठ में स्थित हों। इसलिये द्रवपृष्ठ के निकट को अत्यंत पतली सी, प्राय: १०-६ मिमी. मोटी स्तर में स्थित समस्त अणु भीतर की तरफ खिंचते हैं।

जब कोई अणु द्रव के भीतर से द्रवपृष्ठ पर आता है तब उसे इन अंतर्मुखी आकर्षण बल का अतिक्रम करना पड़ता है। अत: उसकी गतिज उर्जा घटती है और स्थितिज ऊर्जा में परिणत होकर इस पृष्ठीय स्तर में संचित हो जाती है। जितने ही अधिक अणु इस पृष्ठीय स्तर में होंगें उतनी ही अधिक यह स्थितिज उर्जा होगी। अत: यह ऊर्जा स्पष्टत: द्रवपृष्ठ के क्षेत्रफल के घटने तथा बढ़ने से यह पृष्ठीय स्थितिज ऊर्जा भी घटेगी और बढ़ेगी। किंतु हम जानते हैं कि किसी भी कण निकाय से स्थायी संतुलन के लिये यह आवश्यक है कि उसकी स्थितिज ऊर्जा न्यूनतम हो, इसलिये द्रवपृष्ठ वह स्थिति ग्रहण करने का प्रयत्न करेगा जिसमें उसका क्षेत्रफल न्यूनतम हो जाय। यही पृष्ठतनाव का कारण है। यह क्रिया ठीक वैसी ही है जैसी किसी तनी हुई प्रत्यास्थ झिल्ली या फिल्म में होती है। इसी कारण हमें ऐसा मालूम होता है मानो द्रवपृष्ठ किसी तनी हुई फिल्म से ढका हुआ है। लाप्लास ने गणित द्वारा आणिवक आकर्षण तथा पृष्ठतनाव का पारमाणिवक संबंध भी ज्ञात कर लिया और इसी से वह इस परिणाम पर पहुँचा था कि द्रव के पृष्ठीय फिल्म की मोटाई १०-६ मिमी. से कम होती है।

(धंडिराज भास्कर देवधर)