पृथ्वीराज चौहान पृथ्वीराज चेदिराज कुमारी कर्पूरदेवी और अजमेर के सोमेश्वर का ज्येष्ठ पुत्र था। पिता की मृत्यु के समय उसकी उम्र केवल दस वर्ष की थी। इसलिए राजकार्य कुछ समय तक राजमाता कर्पूर देवी और कदबवास (कैमास) आदि मंत्रियों की अध्यक्षता में चलता रहा। सोमेश्वर जमाने का प्रयत्न किया; किंतु वह सफल न हुआ। मुहम्मद गोरी ने भी प्राय: इसी समय (११७८ ई.) गुजरात पर आक्रमण किया, किंतु उसे परास्त होकर लौटना पड़ा।
लगभग १५-१६ साल की उम्र में पृथ्वीराज ने कार्य सँभाला। दिग्विजय की प्रवृत्ति उसमें से ही थी। सन् ११८२ में उसने बुंदेलखंड के राजा परमर्दिदेव (परमाल) को बुरी तरह से हराया और उसका देश लूटा। उत्तर की तरफ बढ़कर उसने वर्तमान गुडगाँव, रेवाड़ी, हिसार आदि के अंतर्गत प्रदेश को जीता। दिल्ली का राज्य तो बीसलदेव के समय से चौहानों के अधीन था ही। गुजरात से भी युद्ध छिड़ा, किंतु कुछ समय के बाद भीमदेव द्विती और पृथ्वीराज में संधि हो गई।
इसी बीच मुहम्मद गोरी शनै: शनै: अपने राज्य का विस्तार कर रहा था। पंजाब का स्वामी बनकर वह पृथ्वीराज के राज्य की तरफ बढ़ा। पृथ्वीराज ने तरावड़ी के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गोरी को परास्त किया। मुहम्मद गोरी बुरी तरह घायल होकर भाग निकला। धर्मयुद्धाभिमानी चौहानों ने मुसलमानी सेना का पीछा तक न किया।
वर्तमान उत्तर प्रदेश क्षेत्र में उस समय गाहड़वालों का प्रतापी राज्य था। काशी और कन्नौज के अधीश्वर जयचंद्र की सेना इतनी विशाल थी कि उसका सीमित क्षेत्र में सामना कठिन था। पृथ्वीराज और जयचंद मे वैमनस्य था। इस वैमनस्य का एक कारण जयचंद्र की पुत्री संयोगिता का स्वयंवर था। पृथ्वीराज ने स्वयंवर के स्थान से संयोगिता का अपहरण किया और तज्जनित युद्ध में दोनों तरफ के बहुत से योद्धा मारे गए। इसका बुरा परिणाम यह हुआ कि ऐसे समय जब भारत में ऐक्य की अत्यंत आवश्यकता थी उसके दो शक्तिशाली राज्य परस्पर के विरोध में फँस गए।
तरावड़ी के प्रथम युद्ध के बाद का समय इस प्रकार पृथ्वीराज ने पारस्परिक झगड़े में व्यतीत किया। मुहम्मद गोरी ने यही समय अपनी सेना की तैयारी में लगाया। एक साल के बाद उसकी सेना फिर तरावड़ी के मैदान में आ खड़ी हुई। पृथ्वीराज भी अपने सामंतों सहित युद्धक्षेत्र में पहुँचा। मुहम्मद गोरी ने धूर्ततापूर्वक संधि की बात भी शुरू की और रातोरात सेना तैयार की। सुबह होने पर भी राजपूत लड़े। सशस्त्र और नि:शस्त्र लड़ते हुए मुहम्मद गोरी की इच्छा थी कि पृथ्वीराज उसके अधीन होकर अजमेर पर शासन करे। किंतु यह उसके लिये असंभव था। सन् ११९२ में अपनी ही राजधानी अजमेर में लगभग २५ वर्ष की अवस्था में पृथ्वीराज शत्रुओं के हाथ मारा गया।
पृथ्वीराज साहसी, अद्वितीय धनुधंर और योद्धा था। अनेक विद्वानों को उसका सरंक्षण प्राप्त था; किंतु उसमें वह राजनीतिक दूरदर्शिता न थी जो सब देश को एक सूत्र में बाँधती। (पृथ्वीराज महाकाव्य; दशरथ शर्मा� प्राचीन चौहान राजवंश, ताजुल मासीर : तबकाते नासिरी)
(दशरथ शर्मा)