पुस्तकालय यह शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- पुस्तक + आलय। जिसमें लेखक के भाव संगृहीत हों, उसे पुस्तक कहा जाता है और आलय स्थान या घर को कहते हैं। इस प्रकार पुस्तकालय उस स्थान को कहते हैं जहाँ पर अध्ययन सामग्री (पुस्तकें, फिल्म, पत्रपत्रिकाएँ, मानचित्र, हस्तलिखित ग्रंथ, ग्रामोफोन रेकार्ड एव अन्य पठनीय सामग्री) संगृहीत रहती है और इस सामग्री की सुरक्षा की जाती है। पुस्तकों से भरी अलमारी अथवा पुस्तक विक्रेता के पास पुस्तकों का संग्रह पुस्तकालय नहीं कहलाता क्योंकि वहाँ पर पुस्तकें व्यावसायिक दृष्टि से रखी जाती हैं।

विभिन्न पुस्तकालयों का अपना क्षेत्र और उद्देश्य अलग अलग होता है और वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनुकूल रूप धारण करते हैं। इसी के आधार पर इसके अनेक भेद हो जाते हैं जैसे- राष्ट्रीय पुस्तकालय, सार्वजनिक पुस्तकालय, व्यावसायिक पुस्तकालय, सरकारी पुस्तकालय, चिकित्सा पुस्तकालय और विश्वविद्यालय तथा शिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालय आदि।

राष्ट्रीय पुस्तकालय- जिस पुस्तकालय का उद्देश्य संपूर्ण राष्ट्र की सेवा करना होता है उसे राष्ट्रीय पुस्तकालय कहते हैं। वहाँ पर हर प्रकार के पाठकों के आवश्यकतानुसार पठनसामग्री का संकलन किया जाता है। अर्नोल्ड इस्डैल के मतानुसार 'राष्ट्रीय पुस्तकालय का प्रमुख कर्तव्य संपूर्ण राष्ट्र के प्रगतिशील विद्यार्थियों को इतिहास और साहित्य की सामग्री सुलभ करना, अध्यापकों, लेखकों एवं शिक्षितों को शिक्षित करना है'। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय पुस्तकालय के निम्नलिखित कर्तव्य होते हैं:

- राष्ट्रीय ग्रंथसूची के प्रकाशित कराने का दायित्व।

- इस पुस्तकालय से संबद्ध पुस्तकालयों की एक संघीय सूची का संपदान करना।

- पुस्तकालयों में संदर्भ सेवा की पूर्ण व्यवस्था करना और पुस्तकों कें अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान की सुविधा दिलाना।

- अंतर्राष्ट्रीय ग्रंथसूची के कार्य के साथ समन्वय स्थापित करना और इय संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी रखना।

- संपूर्ण राष्ट्र में स्थापित महत्वपूर्ण संदर्भकेंद्रों की सूची तैयार करना।

प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् डाक्टर रंगनाथन के अनुसार देश की सांस्कृतिक अध्ययनसामग्री की सुरक्षा राष्ट्रीय पुस्तकालय का मुख्य कार्य है। साथ ही देश के प्रत्येक नागरिक को ज्ञानार्जन की समान सुविधा प्रदान करना और जनता की शिक्षा में सहायता देने के विविध क्रियाकलापों द्वारा ऐसी भावना भरना कि लोग देश के प्राकृतिक साधनों का उपयोग कर सकें। यह निश्चय है कि यदि देश के प्रत्येक व्यक्ति का मस्तिष्क सृजनशील नहीं होगा तो राष्ट्र का सर्वांगीण विकास तीव्र गति से नहीं हो सकेगा।

कापीराइट की सुविधा से राष्ट्रीय पुस्तकालयों के विकास में वृद्धि हुई है। वास्तव में पुस्तकालय आंदोलन के इतिहास में यह क्रांतिकारी कदम है। ब्रिटेन के राष्ट्रीय पुस्तकालय, ब्रिटिश म्यूजियम को १७०९ में यह सुविधा प्रदान की गई। इसी प्रकार फ्रांस बिब्लियोथेक नैशनल पेरिस को १५५६ और बर्लिन लाइब्रेरी को १६९९ ई. में एवं स्विस नैशनल लाइब्रेरी को १९५० ई. में वहाँ के प्रकाशन नि:शुल्क प्राप्त होने लगे। कापीराइट की यह महत्वपूर्ण सुविधा भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय को सन् १९५४ ई. में प्रदान की गई। डिलीवरी आंव बुक्स सन् १९५४ के कानून के द्वारा प्रत्येक प्रकाशन की कुछ प्रतियाँ राष्ट्रीय पुस्तकालय को भेजना प्रकाशकों के लिए कानून द्वारा अनिवार्य कर दिया गया है।

सार्वजनिक पुस्तकालय- आधुनिक सार्वजनिक पुस्तकालयों का विकास वास्तव में प्रजातंत्र की महान् देन है। शिक्षा का प्रसारण एवं जनसामान्य को सुशिक्षित करना प्रत्येक राष्ट्र का कर्तव्य है। जो लोग स्कूलों या कालेजों में नहीं पढ़ते, जो साधारण पढ़े लिखे हैं, अपना निजी व्यवसाय करते हैं अथवा जिनकी पढ़ने की अभिलाषा है और पुस्तकें नहीं खरीद सकते तथा अपनी रुचि का साहित्य पढ़ना चाहते हैं, ऐसे वर्गों की रुचि को ध्यान में रखकर जनसाधारण की पुस्तकों की माँग सार्वजनिक पुस्तकालय ही पूरी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रदर्शनी, वादविवाद, शिक्षाप्रद चलचित्र प्रदर्शन, महत्वपूर्ण विषयों पर भाषण आदि का भी प्रबंध सार्वजनिक पुस्तकालय करते हैं। इस दिशा में यूनैसको जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान किया है। प्रत्येक प्रगतिशील देश में जन पुस्तकालय निरंतर प्रगति कर रहे हैं और साक्षरता का प्रसार कर रहे हैं। वास्तव में लोक पुस्तकालय जनता के विश्वविद्यालय हैं, जो बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के उपयोग के लिए खुले रहते है।

अनुसंधान पुस्तकालय- उस संस्था को कहते हैं जो ऐसे लोगों की सहायता एवं मार्गदर्शन करती है जो ज्ञान की सीमाओं को विकसित करने में कार्यरत हैं। ज्ञान की विभिन्न शाखाएँ हैं और उनकी पूर्ति विभिन्न प्रकार के संग्रहों से ही संभव हो सकती है, जैसे कृषि से संबंधित किसी विषय पर अनुसंधानात्मक लेख लिखने के लिए कृषि विश्वविद्यालय या कृषिकार्यों से संबंधित किसी संस्था का ही पुस्तकालय अधिक उपयोगी सिद्ध होगा। ऐसे पुस्तकालयों की कार्यपद्धति अन्य पुस्तकालयों से भिन्न होती है। यहाँ कार्य करनेवाले कार्मिकों का अत्यंत दक्ष एवं अपने विषय का पंडित होना अनिवार्य है, नहीं तो अनुसंधानकर्ताओं को ठीक मार्गदर्शन उपलब्ध न हो सकेगा। संग्रह की दृष्टि से भी यहाँ पर बहुत सतर्कतापूर्वक सामग्री क चुनाव करना चाहिए। संदर्भ संबंधी प्रश्नों का तत्काल उत्तर देने के लिए पुस्तकालय में विशेष उपादानों का होना और उनका रखरखाव भी ऐसा चाहिए कि अल्प समय में ही आवश्यक जानकारी सुलभ हो से। विभिन्न प्रकार की रिपोर्टे और विषय से संबंधि मुख्य-मुख्य पत्रिकाएँ, ग्रंथसूचियाँ, विश्वकोश, कोश और पत्रिकाओं की फाइलें संगृहीत की जानी चाहिए।

व्यावसायिक पुस्तकालय - इन पुस्तकालयों का उद्देश्य किसी विशेष व्यावसायिक संस्था अथवा वहाँ के कर्मचारियों की सेवा करना होता है। इनके आवश्यकतानुसार विशेष पठनसामग्री का इन पुस्तकालयों में संग्रह किया जाता है, जैसे व्यवसाय से संबंधित डायरेक्टरोज, व्यावसायिक पत्रिकाएँ, समयसारणियाँ, महत्वपूर्ण सरकारी प्रकाशन, मानचित्र, व्यवसाय से संबंधित पाठ्य एवं संदर्भग्रंथ, विधि साहित्य इत्यादि।

सरकारी पुस्तकालय - वैसे तो सरकार अनेक पुस्तकालयों को वित्तीय सहायता देती है, परंतु जिन पुस्तकालयों का संपूर्ण व्यय सरकार वहन करती है उन्हें सरकारी पुस्तकालय कहते हैं, जैसे राष्ट्रीय पुस्तकालय, विभागतीय पुस्तकालय, विभिन्न मंत्रालयों के पुस्तकालय, प्रांतीय पुस्तकालय। संसद और विधानभवनों के पुस्तकालय भी सरकारी पुस्तकालय की श्रेणी में आते हैं।

चिकित्सा पुस्तकालय- यह पुस्तकालय किसी चिकित्सा संबंधी संस्था, विद्यालय, अनुसंधान केंद्र अथवा चिकित्सालय से संबद्ध होते हैं। चिकित्सा संबंधी पुस्तकों का संग्रह इनमें रहता है और इनका रूप सार्वजनिक न होकर विशेष वर्ग की सेवा मात्र तक ही सीमित होता है।

शिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालय - शिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालयों को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है, जैसे विश्वविद्यालय पुस्तकालय, विद्यालय पुस्तकालय, माध्यमिक शाला पुस्तकालय, बेसिक शाला पुस्तकालय एवं प्रयोगशालाओं, अनुसंधान संस्थाओं और खोज संस्थाओं के निजी पुस्तकालय आदि। हर विश्वविद्यालय के साथ एक विशाल पुस्तकालय का होना प्राय: अनिवार्य ही है। बेसिक शालाओं एवं जूनियर हाई स्कूलों में तो अभी पुस्तकालयों का विकास नहीं हुआ है, परंतु माध्यमिक शालाओं एवं विद्यालयों के पुस्तकालयों का सर्वांगीण विकास हो रहा है।

इसके अतिरिक्त पुस्तकालयों के और भी अनेक भेद हैं जैसे ध्वनि पुस्तकालय, जिसमें ग्रामोफोन रेकार्डों और फिल्मों आदि का संग्रह रहता है, कानून पुस्तकालय, समाचारपत्र पुस्तकालय, जेल पुस्तकालय, अन्धों का पुस्तकालय, संगीत पुस्तकालय, बाल पुस्तकालय एवं सचल पुस्तकालय आदि।

सेना पुस्तकालय- ये पुस्तकालय विशिष्ट प्रकार के होते हैं और संग्रह की दृष्टि से तो इनका रूप प्राय: अन्य पुस्तकालयों से भिन्न होता है। प्रथम विश्वयुद्ध के समय ऐसे पुस्तकालयों की आवश्यकता की ओर ध्यान दिया गया था और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय तो सेना के अधिकारियों को पठन-पाठन की सुविधा देने हेतु मित्र-राष्ट्रों ने अनेकानेक पुस्तकालय स्थापित किए। अकेले अमरीका में नभ सेना के लिए १६०० पुस्तकालय हैं जिनमें नभ सेना के उपयोग के लिए नई से नई सामग्री का संग्रह किया जाता है। ये पुस्तकालय बहुत से जलपोतों और सैनिक छावनियों के साथ स्थापित किए गए है। इसी प्रकार वायुसेना और स्थल सेना के भी अनेक पुस्तकालय विश्व के अनेक देशों में हैं। अमेरिकन पेंटागेन में सेना का एक विशाल पुस्तकालय है। भारत में रक्षा मंत्रालय, सेना प्रधान कार्यालय एवं डिफेंस साइंस ऑर्गनाइज़ेंशन के विशाल पुस्तकालय हैं।

प्राचीन पुस्तकालय

वृक्ष की छाल से बने कागज का आविष्कार मिस्र में हुआ था। मिस्री लिपि का विकासकाल ईसा से २००० वर्ष पूर्व माना जाता है। लगभग ईसा पूर्व १६वीं शताब्दी में राजा एमोनोफिस के काल का एक ग्रंथ वृक्ष-तत्व-निर्मित कागज प्राचीन मिस्र में अनेक पुस्तकालय थे१ इनमें से कई विदेशी आक्रमणकारियों के हाथ लग गए जिनमें से अनेक ग्रंथ तो ग्रीक राज्य के हाथ पड़े :

ये पुस्तकालय प्राय: वहाँ के विशाल मंदिरों और राजप्रासादों के साथ संबद्ध थे। सबसे पहला पुस्तकालय राजा ओसीमंडिया ने स्थापित किया था। उसने पवित्र पुस्तकों का एक विशाल संग्रह स्थापित किया था। राजा ओसीमंडिया ने पुस्तकालय के प्रवेशद्वार पर 'आत्मा के लिए ओषधि' शीर्षक पट्ट लगवाया था। पुजारियों के सरंक्षण में प्राचीन मिस्र में अनेक पुस्तकालयों का विकास हुआ था।

प्राचीन असीरिया राज्य की राजधानी निनिमि नगर में असुरवाणीपाल राजा का पुस्तकालय अत्यंत प्रसिद्ध था। इस पुस्तकालय में ग्रंथों की संख्या २०,००० थीं और यह राजा के निजी प्रासाद में स्थित था। राजा असुरवाणीपाल बड़े साहित्यप्रेमी थे और इस पुस्तकालय की स्थापना में उन्होंने बड़ा योग दिया था।

प्राचीन ग्रीस राज्य में पिसिष्ट्राटसन ने सर्वप्रथम एक पुस्तकालय की स्थापना की थी। इसके पश्चात् अलेस गैलिस एवं महान् दार्शनिक प्लेटो ने भी पुस्तकों के संग्रह स्थापित किए थे। ट्रावा के मतानुसार अरस्तू ही पहला दार्शनिक था जिसने पुस्तकालय की स्थापना की, परंतु अलैक्जैंड्रिया का प्राचीन पुस्तकालय ईसा से लगभग ३०० वर्ष पूर्व स्थापित हुआ था। इस महानगर में दो प्रमुख पुस्तकालयों का उल्लेख मिलता है। बड़ा पुस्तकालय विश्वविद्यालय के साथ संबद्ध था। दूसरा पुस्तकालय सिरापियम विभाग के साथ था। अनुमान लगाया जाता है कि अलैक्जैंड्रिया के विशाल पुस्तकालय में लगभग ७०,००० ग्रंथ थे। जूलियस सीजर ने ४७ ई. में इस नगर पर आक्रमण किया और पुस्तकालय तथा पुस्तकालय के सभी ग्रंथ जलकर राख हो गए। आनेवाली पीढ़ियों के लिए यह महान् क्षति थी। इस क्षतिपूर्ति की ओर क्लेओपेट्रा का ध्यान गया और उसने अलैक्जैंड्रिया में फिर एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की। उसने अनेक पुस्तकालयों का जीर्णोंद्धार भी कराया। सारसेनियों की भयंकर आक्रमण ज्वाला में यह पुस्तकालय भी सदा के लिए भस्म हो गया और रहा सहा संग्रह ओमर खलीफा की सेना ने समाप्त कर दिया।

ग्रीक साहित्य का रोम में बड़ा प्रचार था। अरस्तू के निजी पुस्तकालय को रोम के विजेता अपने यहाँ ले आए थे। ईसा से एक शताब्दी पूर्व लैटिन साहित्य के स्वर्णयुग में निजी पुस्तकालय कितने ही घरों में स्थापित किए जा चुके थे। परंतु जूलियस सीजर ने ही रोम में सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित करने की योजना बनाई थी जिसे बाद में उनके एक घनिष्ट मित्र एसिनिबस पोलियो ने कार्यान्वित की।

सम्राट् आगस्टस ने भी पोलियो की परंपरा का निर्वाह किया और उसने अनेक पुस्तकालयों की स्थापना की। रोम की राजधानी में चौथी शताब्दी में लगभग २८ महान् ग्रंथागार थे। इनके सिवा लिवर, कोमन, मिलान, अथेंस, स्मिर्ण, पाट्री और हाकूलेनियम आदि प्राचीन नगरों में भी पुस्तकालयों के होने का उल्लेख मिलता है।

अन्य देशों की भाँति भारत में भी पुस्तकालयों की परंपरा आदिकाल से चली अ रही है। आज के लगभग छह हजार वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता अपनी चरम सीमा पर थी। इस प्रकार के अनेक प्रमाण मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त हुए हैं। सिंधु सभ्यता का सुसंस्कृत समाज पंजाब से लेकर सिंधु और बिलोचिस्तान तक फैला हुआ था। संभवत: उस काल में चित्रलिपि का विकास भारत में हो चुका था। इतिहासकार यह बात स्वीकार करते हैं कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में अनेक पुस्तकालय थे। सिंधु सभ्यता के पतन के पश्चात् लगभग ३००० ई. पूर्व भारत में आर्यों का आगमन हुआ। इन्होंने ब्राह्मी लिपि का आविष्कार किया। भोजपत्रों एवं ताड़पत्रों पर ग्रंथ लिखे जाते थे, परंतु शिष्यों के लिए उनका उपयोग सीमित ही था। गुरुओं के पास इस प्रकार की हस्तलिखित पुस्तकों का संग्रह रहता था जिसे हम निजी पुस्तकालय कह सकते हैं। वैदिक काल में वेदों, इतिहासों और पुराणों, व्याकरण और ज्ञान की अनेकानेक शाखाओं से संबंधित ग्रंथों को लिपिबद्ध किया गया। इस काल में अनेक विषय गुरुकुलों में छात्रों को पढ़ाए जाते थे और उनसे संबंधित अनेक ग्रंथ पुस्तकालयों पर भी पड़ा। अहमदाबाद, पटना, पूना, नासिक और सूरत आदि नगरों में आज भी प्राचीन जैन ग्रंथों के संग्रह हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के प्रयत्न से दक्षिण में पाँच ग्रंथालयों की खोज की गई तो उनमें अनेक ताड़पत्र हस्तलिखित ग्रंथ और अप्रकाशित ग्रंथ प्राप्त हुए।

बौद्धकाल में तक्षशिला और नालंदा जैसे शिक्षा केंद्रों का विकास हुआ जिनके साथ बहुत अच्छे पुस्तकालय थे। तक्षशिला के पुस्तकालय में वेद, आयुर्वेद, धनुर्वेद, ज्योतिष, चित्रकला, कृषिविज्ञान, पशुपालन आदि अनेक विषयों के ग्रंथ संगृहीत थे। ईसा से लगभग ५०० वर्ष पूर्व नालंदा के विशाल पुस्तकालय का वर्णन मिलता है। इस पुस्तकालय का नाम धर्मजंग था जिसकी स्थापना सभादित्य ने की थी। इस पुस्तकालय को अनेक बड़े-बड़े राजाओं और धनी साहूकारों से आर्थिक सहायता मिलती थी। पुस्तकालय में तीन भाग थे- रत्नोधि, रत्नसागर और रत्नरंजम। पुस्तकें इन विभागों के विषयानुसार व्यवस्थित की जाती थीं और उनकी पूर्ण सुरक्षा की जाती थी। अनेक विदेशी विद्वानों ने, जैसे चीनी यात्री फाहीयान, ह्वेनसांग और इत्सिंह ने अपने यात्रावृत्तांतों में नालंदा पुस्तकालय का वर्णन किया है। ये अपने साथ अनेक हस्तलिखित ग्रंथ भी ले गए थे। इनके अतिरिक्त अनेक विदेशी विद्वान नालंदा के पुस्तकालय में अध्ययन करने के लिए आए। वैसे तो बौद्ध राजाओं के निर्बल होने पर अनेक शासकों ने इस पुस्तकालय पर कुदृष्टि डाली परंतु बख्त्यार खिलजी ने सन् १२०५ ई. में इसका पूर्ण विध्वंस कर दिया। कुछ ग्रंथों को लेकर छात्र और भिक्षु भाग गए। इस प्रकार शताब्दियों से संरक्षित और पोषित ज्ञान के इस अनन्य केंद्र का लगभग अंत ही हो गया। इन्हीं पुस्तकालयों की श्रेणियों में विक्रमशिला एवं वल्लभी के पुस्तकालय थे जो पूर्ण रूप से विकसित थे। राजा धर्मपाल ने विक्रमशिला के पुस्तकालय की स्थापना की थी और यहाँ पर अनेक हस्तलिखित ग्रंथ सुसज्जित थे। इस पुस्तकालय का भी दु:खद विध्वंस बख्त्यार खिजली की कुदृष्टि के द्वारा ही हुआ।

गुजरात राज्य में वल्लभी नगर में एक विशाल पुस्तकालय था जिसकी स्थापना राजा धारसेन की बहन दक्षा ने की थी। इस पुस्तकालय में पाठ्य ग्रंथों के अतिरिक्त अनेकानेक विषयों की पुस्तकें संगृहीत थीं। पुस्तकालय का संपूर्ण व्यय राजकोष से ही वहन किया जाता था। इस प्रकार प्राचीन भारत में पुस्तकालयों का समुचित विकास अपनी चरम सीमा पर था।

मुस्लिम काल में भी हमारे देशा में अनेक पुस्तकालयों का उल्लेख मिलता है जिनमें नगरकोट का पुस्तकालय एवं महमूद गवाँ द्वारा स्थापित पुस्तकालय था। अकबर के पुस्तकालय में लगभग २५ हजार ग्रंथ संगृहीत थे। तंजीर में राजा शरभोजी का पुस्तकालय आज भी जीवित है। इसमें १८ हजार से अधिक ग्रंथ तो केवल संस्कृत भाषा में ही लिपिबद्ध हैं। विभिन्न विषयों से संबंधित भारतीय भाषाओं के अति प्राचीन दुर्लभ ग्रंथ भी यहाँ सुरक्षित हैं।

आधुनिक पुस्तकालय एवं पुस्तकालय आंदोलन

चौथी शताब्दी के अंत में पश्चिमी साम्राज्यों के पतन के साथ-साथ प्राचीन पुस्तकालयों का विकास भी अवरुद्ध हो गया और लगभग १२वीं शताब्दी तक और कोई क्रांतिकारी प्रयास नहीं हुआ। परंतु इसके पश्चात् लोगों का ध्यान धीरे-धीरे अध्ययन एवं साहित्य के संरक्षण की ओर आकर्षित होने लगा और १५वीं शताब्दी के पश्चात् तो पश्चिम के अनेक देशों में सार्वजनिक पुस्तकालयों के लिए महत्वपूर्ण प्रयास होने लगे।

ब्रिटेन में ब्रिटिश म्यूजियम नामक पुस्तकालय की स्थापना सन् १७५३ ई. में हुई। इसमें अनेक पुस्तकालयों के ग्रंथों को सम्मिलित कर दिया गया एवं इस पुस्तकालय को अनेक विद्वानों के निजी संग्रह प्राप्त होते रहे। १७६३ में जार्ज तृतीय ने प्रसिद्ध जार्ज टामसन संग्रह, जिसमें २२२० ग्रंथ थे, भेंट किया। १८२० में सर जोसेफ बैंक ने अपना १६००० ग्रंथों का निजी बहुमूल्य पुस्तकालय इस पुस्तकालय को दानस्वरूप दिया। जार्ज तृतीय का ८०२५२ दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह जार्ज चतुर्थ ने इस पुस्तकालय को १८२३ में दिया। इस समय पुस्तकालय में ग्रंथों की संख्या ६० लाख है। लगभग ७५ हजार हस्तलिखित ग्रंथ यहाँ सुरक्षित हैं। विश्व की अनेक भाषाओं के ग्रंथ यहाँ पर संगृहीत हैं। पुस्तकालय के कर्मचारीगण अपने विषयों के अधिकारी विद्वान् होते हैं।

ब्रिटेन में १८५७ ई. में पेटेंट आफिस के पुस्तकालय की स्थापना हुई। इसके साथ ही उसी वर्ष साइंस लाइब्रेरी भी यहाँ स्थापित हुई। आर्क्सफोर्ड विश्वविद्यालय का विशाल पुस्तकालय १४वीं शताब्दी में स्थापित हुआ और कैंब्रिज विश्वविद्यालय का महान् पुस्तकालय १५वीं शताब्दी के आरंभ में स्थापित हुआ। इस पुस्तकालय को भी कापीराइट की सुविधा प्राप्त है। १८८१-१९०५ में ब्रिटिश म्युजियम की ग्रंथसूची प्रकाशित की गई जो १०८ खंडों में पूर्ण हुई। इसका दूसरा संस्करण १९३१ में आरंभ हुआ।

फ्रांस में वैसे तो पुस्तकालयों का श्रीगणेश ५वीं और ६ठी शताब्दी में हुआ था परंतु १४वीं शताब्दी में यहाँ के राष्ट्रीय पुस्तकालय बिबिलयोथैक नेशनेल की स्थापना हुई थी।

जर्मनी में पुस्तकालयों का विकास अति प्राचीन काल से हुआ माना जाता है। बर्लिन में सरकारी पुस्तकालय की स्थापना १६६१ ई. में हुई थी। यहाँ विश्व की अनेकानेक भाषाओं के अपार संग्रह हैं। आस्ट्रिया में सबसे प्राचीन पुस्तकालय साजवर्ग का सेंट पीटर पुस्तकालय है जो ११वीं शती में स्थापित हुआ था। प्रेग के सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना सन् १३३६ ई. में हुई थी। इसी प्रकार स्विटजरलैंड में १८९५ ई. में, बेल्जियम में १८३७ में हालैंड में १७९८ ई. में १६६१ ई. में तथा राष्ट्रीय पुस्तकालय की स्थापना हुई।

क्रांति के पश्चात् सोवियत संघ में पुस्तकालयों का तीव्र गति से विकास हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पुस्तकालयों की संख्या लगभग तीन लाख हो गई। सबसे प्राचीन पुस्तकालय मास्को में लेनिन पुस्तकालय है। यहाँ लगभग पाँच हजार पाठक प्रति दिन अध्ययन करने आते हैं। रूस में प्रकाशित प्रत्येक पुस्तक की एक प्रति इस पुस्तकालय को प्राप्त होती है।

चीन और जापान में भी पुस्तकालयों का विकास प्राचीन काल से होता रहा है। चीन के राष्ट्रीय पुस्तकालय में लगभग पाँच करोड़ पुस्तकें हैं और यहाँ के विश्वविद्यालय में भी विशाल पुस्तकालय हैं। इंपीरियल कैबिनो लाइब्रेरी के राष्ट्रीय पुस्तकालय की स्थापना १८८१ ई. में हुई थी। इसके अतिरिक्त जापान में अनेक विशाल पुस्तकालय हैं।

१७१३ ई. में अमरीका के फिलाडेलफिया नगर में सबसे पहले चंदे से चलनेवाले एक सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना हुई। लाइब्रेरी ऑव कांग्रेस अमरीका का सबसे बड़ा पुस्तकालय है। इसकी स्थापना वाशिंगटन में सन् १८०० में हुई थी। इसमें ग्रंथों की संख्या साढ़े तीन करोड़ है। पुस्तकालय में लगभग २,४०० कर्मचारी काम करते हैं। समय समय पर अनेक पुस्तकों का प्रकाशन भी यह पुस्तकालय करता है और एक साप्ताहिक पत्र भी यहाँ से निकलता है।

अमरीकन पुस्तकालय संघ की स्थापना १८७६ में हुई थी और इसकी स्थापना के पश्चात् पुस्तकालयों, मुख्यत: सार्वजनिक पुस्तकालयों, का विकास अमरीका में तीव्र गति से होने लगा। सार्वजनिक पुस्तकालय कानून सन् १८४९ में पास हुआ था और शायद न्यू हैंपशायर अमरीका का पहिया राज्य था जिसने इस कानून को सबसे पहले कार्यान्वित किया। अमरीका के प्रत्येक राज्य में एक राजकीय पुस्तकालय है।

सन् १८८५ में न्यूयार्क नगर में एक बालपुस्तकालय स्थापित हुआ। धीरे-धीरे प्रत्येक सार्वजनिक पुस्तकालय में बालविभागों का गठन किया गया। स्कूल पुस्तकालयों का विकास भी अमरीका में २०वीं शताब्दी में ही प्रारंभ हुआ। पुस्तकों के अतिरिक्त ज्ञानवर्धक फिल्में, ग्रामोफोन रेकार्ड एवं नवीनतम आधुनिक सामग्री यहाँ विद्यार्थियों के उपयोग के लिए रहती है।

आस्ट्रेलिया के प्रसिद्ध शहर कैनबरा में राष्ट्रसंघ पुस्तकालय की स्थापना १९२७ में हुई। वास्तव में पुस्तकालय आंदोलन की दिशा में यह क्रांतिकारी अध्याय था। मेलबोर्न में विक्टोरिया पुस्तकालय की स्थापना १८५३ में हुई थी। यह आस्ट्रेलिया का विशाल पुस्तकालय हैं। इसमें ग्रंथों की संख्या ७६०,००० है।

न्यूजीलैंड छोटा-सा देश है। पर इसमें ४०० विशाल सार्वजनिक पुस्तकालय हैं। यहाँ पर एक राष्ट्रीय पुस्तकालय भी है जो देश के सार्वजनिक पुस्तकालयों, शिक्षण संस्थाओं से संबद्ध एवं अन्य पुस्तकालयों को पुस्तकें उधार देता है। विलिंग्डन में संसद् पुस्तकालय है जिसे कापीराइट की भी सुविधाएँ प्राप्त हैं। इस समय यहाँ के संसद् पुस्तकालय में ग्रंथों की संख्या २२०,००० है।

दक्षिण अफ्रीका में भी पुस्तकालयों का समुचित् विकास हुआ है। दक्षिण अफ्रीकी पुस्तकालय केपटाउन में १८१८ में स्थापित किया गया था। इसे कापीराइट की सुविधा प्राप्त है। ग्रंथों की संख्या ३१०,००० है। दूसरा विशाल पुस्तकालय प्रीटोरिया स्टेट लाइब्रेरी है जिसमें ग्रंथों की संख्या २००,००० है। ये दोनों पुस्तकालय मिलकर राष्ट्रीय पुस्तकालय का कार्य करते हैं।

आधुनिक भारत में पुस्तकालयों का विकास

आधुनिक भारत में पुस्तकालयों का विकास बड़ी धीमी गति से हुआ है। हमारा देश परतंत्र था और विदेशी शासन के कारण शिक्षा एवं पुस्तकालयों की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया। इसी से पुस्तकालय आंदोलन का स्वरूप राष्ट्रीय नहीं था और न इस आंदोलन को कोई कानूनी सहायता ही प्राप्त थीं। बड़ौदा राज्य का योगदान इस दिशा में प्रशंसनीय रहा है। यहाँ पर १९१० ई. में पुस्तकालय आंदोलन प्रारंभ किया गया। राज्य में एक पुस्तकालय विभाग खोला गया और पुस्तकालयों चार श्रेणियों में विभक्त किया गया- जिला पुस्तकालय, तहसील पुस्तकालय, नगर पुस्तकालय, एवं ग्राम पुस्तकालय आदि। पूरे राज्य में इनका जाल बिछा दिया गया था। भारत में सर्वप्रथम चल पुस्तकालय की स्थापना भी बड़ौदा राज्य में ही हुई। श्री डब्ल्यू. ए. बोर्डन पुस्तकालय विभाग के अध्यक्ष थे।

इस समय बड़ौदा राज्य के और मुख्यत: बोर्डन महोदय के प्रयत्न से बड़ौदा राज्य पुस्तकालय संघ की स्थापना हुई। बड़ौदा शहर में एक केंद्रीय पुस्तकालय स्थापित किया गया जिसे राज्य के शासक से २०,००० पुस्तकें प्राप्त हुई। बाद में बोर्डन महोदय ने यहाँ पर पुस्तकालयविज्ञान की शिक्षा का भी प्रबंध किया और बहुत से पुस्तकाध्यक्षों को शिक्षा दी गई।

मद्रास राज्य में सन् १९२७ ई. में अखिल भारतीय सार्वजनिक पुस्तकालय संघ का अधिवेशन हुआ। अगले वर्ष मद्रास राज्य पुस्तकालय संघ की स्थापना की गई। डा. एस. आर. रंगनाथन के प्रयत्न से सन् १९३३ ई. में 'लाइब्रेरी ऐक्ट' विधानसभा द्वारा पारित किया गया। पुस्तकालय संघ ने पुस्तकालय विज्ञान के २० ग्रंथों का प्रकाशन किया जिनमें मुख्यत: डा. रंगनाथन के ग्रंथ थे।

संघ ने १९२९ ई. में एक 'ग्रीष्मकालीन स्कूल' प्रारंभ किया जिसका उद्देश्य पुस्तकालयविज्ञान में प्रशिक्षण देना था। बाद में इसी संघ की प्रेरणा से मद्रास विश्वविद्यालय ने पुस्तकालय विज्ञान में डिप्लोमा कोर्स का श्रीगणेश किया।

बंबई राज्य में पुस्तकालय आंदोलन का प्रारंभ सन् १८८२ में हुआ, जब धारबार में नेटिव सैंट्रल लाइब्रेरी की स्थापना की गई। रानेवेन्नूर में एक पुस्तकालय की स्थापना १८७३ ई. में हुई। सन् १८९० ई. में कर्नाटक विद्यावर्धक संघ की स्थापना की गई, जिससे पुस्तकालय आंदोलन को बड़ी सहायता मिली। इस संघ ने अनेक पुस्तकें बंबई राज्य के पुस्तकालयों को नि:शुल्क दीं। सन् १९२४ में आल इंडिया लाइब्रेरी कफ्रौंस बेलगाँव में हुई और १९२९ में श्री वेंकट नारायण शास्त्री के सभापतित्व में बंबई कर्नाटक राज्य लाइब्रेरी कफ्रौंस धारदार में हुई। इस अवसर पर समाचारपत्रों, पत्रिकाओं की प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया।

बंबई राज्य में सन् १९३९ में पुस्तकालय विकास समिति बनाई गई जिसने १९४० ई. में अपनी रिपोर्ट सरकार को दी; परंतु स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात् ही समिति की रिपोर्ट पर कार्यवाही संभव हो सकी। इस राज्य में केंद्रीय पुस्तकालय और अनेक विकसित पुस्तकालय स्थापित हो चुके हैं। बंबई विश्वविद्यालय में पुस्तकालयविज्ञान की शिक्षा भी दी जाती है।

बिहार राज्य में पुस्तकालय आंदोलन थोड़ा देर से प्रारंभ हुआ। खुदाबक्श पुस्तकालय १८९१ ई. में पटना में स्थापित किया गया। इसमें आठ हजार से अधिक हस्तलिखित ग्रंथ और दुर्लभ प्राचीन चित्रों का बहुत सुंदर संग्रह किया गया। सन् १९१५ ई. में पटना विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की तथा १९२४ ई. में सिन्हा पुस्तकालय की स्थापना पटना में की गई। सन् १९३७ में बिहार पुस्तकालय संघ की स्थापना हुई।

उत्तर प्रदेश में पुस्तकालयों का विकास आधुनिक काल में समुचित ढंग से हुआ है। यहाँ के सभी विश्वविद्यालयों के साथ पुस्तकालय खोले गए, जिनमें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का गायकवाड़ पुस्तकालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का पुस्तकालय और लखनऊ तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालयों के पूर्ण विकसित पुस्तकालय हैं। नागरीप्रचारणी सभा, काशी का आर्यभाषा पुस्तकालय हिंदी साहित्य संमेलन, इलाहाबाद का हिंदी संग्रहालय, लखनऊ की अमीनुद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी आदि पुस्तकालय इस प्रदेश के प्रमुख पुस्तकालय हैं। १९४१ ई. में इलाहाबाद में चिंतामणि मैमोरियल लाइब्रेरी की स्थापना अखिल भारतीय सेवा समिति के प्रयत्नों से हुई। यह पुस्तकालय समाजसेवा संबंधी साहित्य का अद्वितीय संग्रह है। उत्तर प्रदेश के पुस्तकालय संघ द्वारा १७३७ ई. में प्रांत भर के पुस्तकालयों की एक डाइरेक्टरी प्रस्तुत की गई। १९४१ ई. में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पुस्तकालय विज्ञान की शिक्षा का श्रीगणेश हुआ।

१९१५ ई. में पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर का पुस्तकालय श्री ए. डी. डिकन्सन के प्रयत्न से विकसित किया गया। पंजाब पुस्तकालय संघ की स्थापना १९२९ ई. में हुई और १९४५ ई. में लाहौर से इंडियन लाइब्रेरियन नामक पत्रिका प्रकाशित की गई एवं मॉडर्न लाइब्रेरियन नामक त्रैमासिक पत्रिका भी निकाली गई।

बंगाल पुस्तकालय संघ की स्थापना १९३१ ई. में हुई। इसकी ओर से १९३८ में एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संघ ने पुस्तकालय विज्ञान की दिशा में भी प्रशंसनीय कार्य किया। १९३१ ई. में इंपीरियल लाइब्रेरी (राष्ट्रीय पुस्तकालय) में पुस्तकालय विज्ञान की कक्षाएँ खोली गई और इसके पश्चात् १९४५ ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने इस विषय से संबंधित विभाग की स्थापना की।

इसी प्रकार असम और उड़ीसा में भी पुस्तकालय संघों की स्थापना की गई। १९४५ ई. में पूना पुस्तकालय संघ और १९४६ में दिल्ली पुस्तकालय संघ का गठन किया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय में पुस्तकालय विज्ञान में स्नातक स्तर की पढ़ाई प्रारंभ की गई और स्नातकोत्तर कक्षाओं की पढ़ाई का भी प्रबंध किया गया। पुस्तकालय विज्ञान में अनुसंधान करने की दिशा में दिल्ली विश्वविद्यालय ने ही मार्गदर्शन प्रदान किया।

दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी

यूनेस्को और भारत सरकार के संयुक्त प्रयास से स्थापित दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी का उद्घाटन स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू ने २७ अक्टूबर १९५१ को किया। १५ वर्ष की इस अल्प अवधि में इस पुस्तकालय ने अभूतपूर्व उन्नति की है। इसमें ग्रंथों की संख्या लगभग चार लाख है। नगर के विभिन्न भागों में इसकी शाखाएँ खोल दी गई है। इसके अतिरिक्त प्रारंभ से ही चलता-फिरता पुस्तकालय भी इसने शुरू किया। पुस्तकालय के संदर्भ और सूचना विभाग में नवीनतम विश्वकोश, गजट, शब्दकोश और संदर्भ साहित्य का अच्छा संग्रह है। बच्चों के लिए बाल पुस्तकालय विभाग है। पुस्तकों के अतिरिक्त इस विभाग में तरह-तरह के खिलौने, लकड़ी के अक्षर, सुंदर चित्र आदि भी हैं।

सामाजिक शिक्षा विभाग समय समय पर फिल्म प्रदर्शनी, व्याख्यान, नाटक, वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन करता है। इसके अतिरिक्त इस विभाग के पास आधुनिकतम दृश्यश्रव्य उपकरण भी हैं। इस पुस्तकालय के सदस्यों की संख्या लगभग एक लाख है।

राष्ट्रीय पुस्तकालय, कलकत्ता

इस पुस्तकालय की स्थापना श्री जे. एच. स्टाकलर के प्रयत्न से १८३६ ई. में कलकत्ता में हुई। इसे अनेक उदार व्यक्तियों से एवं तत्कालीन फोर्ट विलियम कालेज से अनेक ग्रंथ उपलब्ध हुए। प्रारंभ में पुस्तकालय एक निजी मकान में था, परंतु १८४१ ई. में फोर्ट विलियम कालेज में इसे रखा गया। सन् १८४४ ई. में इसका स्थानांतरण मेटकाफ भवन में कर दिया गया। सन् १८९० ई. में कलकत्ता नगरपालिका ने इस पुस्तकालय का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया। बाद में तत्कालीन बंगाल सरकार ने इसे वित्तीय सहायता दी। १८९१ ई. में इंपीयिल लाइब्रेरी की स्थापना की गई और लार्ड कर्जन के प्रयत्न से कलकत्ता पब्लिक लाइब्रेरी तथा इंपीरियल लाइब्रेरी को १९०२ ई. में एक में मिला दिया गया। उदार व्यक्तियों ने इसे बहुमूल्य ग्रंथों का निजी संग्रह भेंट स्वरूप दिया।

सन् १९२६ ई. में रिचे सीमित ने इस पुस्तकालय के विकास के संबंध में भारत सरकार को अपना प्रतिवेदन दिया। सितंबर, १९४८ में यह पुस्तकालय नए भवन में लाया गया और इसकी रजत जयंती १ फरवरी, १९५३ ई. को मनाई गई। स्वतंत्रता के पश्चात् इसका नाम बदलकर 'राष्ट्रीय पुस्तकालय' कर दिया गया। इसमें ग्रंथों की संख्या लगभग १२ लाख है। 'डिलीवरी ऑव बुक्स ऐक्ट १९५४' के अनुसार प्रत्येक प्रकाशन की एक प्रति इस पुस्तकालय को प्राप्त होती है। वर्ष १९६४-६५ में इस योजना के अतंर्गत १८६४२ पुस्तकें इसे प्राप्त हुई एवं भेंट स्वरूप ७००० से अधिक ग्रंथ मिले।

केंद्रीय संदर्भ पुस्तकालय ने राष्ट्रीय ग्रंथसूची की नौ जिल्दें प्रकाशित की एवं राज्य सरकारों ने तमिल, मलयालम तथा गुजराती की ग्रंथसूचियाँ प्रकाशित कीं।

पुस्तकालय का प्रबंध और संचालन

पुस्तकालय विकासशील संस्था है क्योंकि उसमें पुस्तकों और अन्य आवश्यक उपादानों की निरंतर वृद्धि होती रहती है। इस कारण इसकी स्थापना के समय ही इस तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक होता है।

पुस्तकालय भवन - प्रत्येक पुस्तकालय में ऐसा प्रवेशद्वार होना आवश्यक है जिससे आने जानेवालों पर कड़ा नियंत्रण संभव हो सके। पुस्तकालय में प्रकाश के साथ ही शुद्ध वायु की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। एक भाग में संचय कक्ष हो और नियमित पाठकों, अनुसंधानकर्ताओं के लिए अध्ययन कक्ष होना चाहिए।

पुस्तकालय में विशेष प्रकार का फर्नीचर प्रयोग में लाया जाता है, जैसे सूची कार्ड केबिनेट, काउंटर, पत्रपत्रिकाओं के लिए विभिन्न प्रकार के रैक, पढ़ने की मेज, कुर्सियाँ, अल्मारियाँ और वाचनालय की मेज कुर्सियाँ इत्यादि। प्रत्येक पुस्तकालय में कुछ उपकरणों और स्टेशनरी आवश्यक होती है, जैसे- सुझावपत्र जिसपर लोग किसी पुस्तक के खरीदने की सिफारिश करते हैं, पुस्तक-चुनाव-पत्रक से पुस्तकों की खरीद में आसानी रहती है, पुस्तकादेशपत्र के द्वारा पुस्तकें पुस्तकालय में खरीदी जाती हैं।

प्रत्येक पुस्तकालय की पुस्तकों का चुनाव करने की पद्धति अपने दृष्टिकोण के अनुसार बनाई जाती है। किसी किसी पुस्तकालय में पुस्तक-चुनाव-समिति होती है जो समय-समय पर पुस्तकें खरीदने की सिफारिश करती रहती है। सार्वजनिक पुस्तकालयों में पुस्तकों का चुनाव पाठकों की रुचि के अनुकूल किया जाता है। इसके पश्चात् पुस्तकें पुस्तकविक्रेताओं से मँगाई जाती हैं। उनकी सही ढंग से परीक्षा करने के पश्चात् पुस्तकें रजिस्टर में दर्ज कर दी जाती हैं और पुस्तकों पर मुहर, लेबिल, तिथिपत्र, पुस्तक पाकेट आदि लगा दिए जाते हैं।

पुस्तक वर्गीकरण- पुस्तकों को ठीक से रखने के लिए जिससे वाँछित पुस्तक आसानी से प्राप्त हो जाय, पुस्तकों पर वर्गीकरण नजर डाले जाते हैं। इस समय दशमलव वर्गीकरण पद्धति, द्विबिंदु वर्गीकरण पद्धति, विस्तारशील वर्गीकरण पद्धति, लाइब्रेरी ऑव कांग्रेस वर्गीकरण, पद्धति, विषय वर्गीकरण पद्धति एवं वांङ् मय वर्गीकरण पद्धतियाँ विश्व में प्रचलित हैं। संसार के अनेक पुस्तकालयों में दशमलव वर्गीकरण पद्धति ही प्राय: प्रचलित है। इस पद्धति का आविष्कार अमरीका निवासी मैल्विल डीवी ने सन् १८७६ ई. में किया था। दूसरी मुख्य पद्धति भारतीय विद्वान् डा. एस. आर. रंगनाथन द्वारा १९२५ ई. में आविष्कृत द्विबिंदु वर्गीकरण पद्धति है। सर्वप्रथम मद्रास पुस्तकालय संघ ने इसका प्रकाशन १९३३ ई. में किया।

जिस पद्धति को पुस्तकालय स्वीकार करता है उसके अनुसार ही वर्गसंख्या पुस्तक के प्रमुख भागों पर अंकित कर दी जाती है।

सूचीकरण- वर्गीकरण के पश्चात् पुस्तकों का सूचीकरण किया जाता है। कार्डों पर तैयार की जानेवाली सूची मुख्यत: दो प्रकार की होती है; अनुवर्णसूची एवं अनुवर्गसूची। लेखक कार्ड पर क्रमिक संख्या, लेखन नाम, टीकाकार या अनुवादक, प्रकाशक, प्रकाशनस्थान एवं प्रकाशन वर्ष, पृष्ठसंख्या, माला आदि का उल्लेख, टिप्पणी आदि द्वारा दिया जाता है। पुस्तकों के वर्गीकरण के लिए ए. एल. ए. कैटालागिंग नियम नामक पुस्तक का प्रयोग किया जाता है। डा. रंगनाथ के अनुवर्ग-सूची-कल्प का भी प्रयोग किया जाता है। पुस्तक के लिए जितने आवश्यक कार्ड होते हैं, तैयार करके कैटालाग कैबेनिट में लगा दिए जाते हैं, जिनसे आवश्यक जानकारी प्राप्त करके पाठकगण लाभ उठाते हैं।

पुस्तकालयों में पुस्तकों के देने-लेने की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। कही सदस्यों को कार्ड दिए जाते हैं तो कहीं रजिस्टर में ही पुस्तकों का हिसाब रखा जाता है। इस दिशा में अनेक विधियों का आविष्कार हो चुका है।

सं.ग्रं.- शास्त्री द्वारिकाप्रसाद : पुस्तकालय प्रबंध, पुस्तक वर्गीकरण कला, पुस्तकालय विज्ञान, भारत में पुस्तकालयों का उद्भव और विकास; पुस्तकालय में संदर्भसेवा, बेसिक विद्यालय में पुस्तकालय की उपयोगिता; तिवारी, भास्करनाथ : पुस्तक चुनाव, सिद्धांत और विधि; गौड़, पी. एन. : पुस्तकालय विज्ञान कोश; रंगनाथन, एस. आर. : लाइब्रेरी मैनुअल, लाइब्रेरी ऐडमिनिस्ट्रेशन; भारत सरकार, शिक्षा मंत्रालय : वार्षिक रिपोर्ट, १९६४-१९६५।