पुष्टिमार्ग (शुद्धाद्वैत संप्रदाय, वल्लभ संप्रदाय, ब्रह्मवाद, निर्गुणभक्ति मार्ग) आदि आदि....श्रीमद्वल्लभाचार्य निर्मित यह वंदनीय मार्ग वेद, गीता, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भागवत (प्रस्थान चतुष्टय) से अति पुष्ट हो ईश्वर के प्रति जीव की अनन्य आसक्ति को प्रकट करते हुए सेव्य सेवक के बीच पति-पत्नी-संबंध उज्वल धन तत्परता के साथ भगवद्भक्ति के प्रति उन्मुख करता है। यह वह मार्ग है, जो पूर्व के सभी भगवत्साधना विषयक मार्गों, वादों से शुद्ध, सुबोध आर सुसाध्य है। यों तो यह मार्ग वेदभणित 'प्रवाह' और 'मर्यादा' भक्तिमार्गों का समानार्थी है, पर किंचित् गहरी दृष्टि से देखे जाने पर यह पुष्टिमार्ग, प्रवाह तथा मर्यादा-भक्ति-मार्गों से कहीं अधिक भगवद्भक्तिपरक है।

पुष्टिमार्ग, अपने सिद्धांत 'शुद्धादैत' वाद के अनुसार संपूर्ण जगत् तथा भगवान् कृष्ण स्वरूप 'सत्' रूप है, जिसमें उनका 'चिद्' और 'आनंद' गुप्त हैं ओर अंकुर रूप में 'सत्-चिद्'-सरूप 'अणु' = जीव भी है। यही नहीं, पुष्टिमार्ग साधन और तत्फलित फलों के सार रूप ब्रजेश्वर भगवान् कृष्णचंद्र के चरणकमलों की भक्ति तथा ब्रज में रमण करते हुए सच्चिदानंदपन श्रीकृष्ण ही साकार 'ब्रह्म' है, यह तत्प्रवर्तक रूप भक्तहृदय में नित्य नए नए देशों में विकसित करता है। अत: निष्काम प्रेमपूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण को भेजने तथा उनकी सेवा के साथ जीवनोत्सर्ग करने पर भक्त को श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है। इस भक्तिमार्ग के द्वार अखिल जगत् के लिए खुले रखे गए हैं। यहाँ सब समान हैं, क्योंकि भगवान् अपने भक्त की 'वय', विद्या, बुद्धि, वैभव, आचरण, कुल, पराक्रम और सौंदर्य के साथ-साथ भक्त के स्त्री पुं. भावों को नहीं देखते। ध्रुव की वय, गजेंद्र की विद्या, पारधी का आचरण, कुब्जा का सौंदर्य, विदुर का कुल, उग्रसेन का पराक्रम और शबरी का जाति तथा बुद्धि क्या थी? कुछ नहीं, पर आपने उनके वय विद्यादि आचरण नहीं देखे। केवल उनकी अपने प्रति सत्यनिष्ठा ही देखी, और उन्हें प्राप्त हुए। यही नहीं,- 'नाई नंदा' जैसे बनकर उन (भक्तों) के कार्यसंपादन किए। अस्तु प्रभु को प्राप्त करने के लिए नित्य प्रात स्मरणीय- व्यभिचारदुष्टा: (भा.- १०।४७।५।९) होते हुए भी पावन गोपीजनों की भाँति 'तन्मनस्कास्तदालापास्तुदविचेष्टास्तदाम्रिका : ० ... (भा.- १०।३०। संपादित 'प्रेमलक्षणा मधुर भक्ति, अर्थात् पुष्टिमार्गजनित् भक्ति ही मुख्य साधन रूप में कही जा सकती है, क्योंकि भगवान् ब्रजेश्वर भक्त के स्वसाधनों से नहीं, कृपारूप अपने 'अनुग्रह' से, दीनतापूर्वक निरंतर विलाप करते हुए विरहोत्पादन कने से प्राप्त होते हैं। अत: तद्गतभाव युक्त 'पुष्टिमार्ग' भगवत्प्राप्त्यर्थ विश्वविभूषित सहज एवं वंदनीय मार्ग- 'संप्रदाय' है।)

श्रीवल्लभाचार्य जी ने स्वसिद्धांत 'शुद्धाद्वैत' द्वारा भक्ति का निर्णय करते हुए उसे 'पुष्टि' तथा 'मर्यादा' संज्ञाओं से भी सुशोभित किया है। अत: जो भक्ति, साधननिरपेक्ष हो, भगवान्ओं के के केवल अनुग्रह से स्वत: उत्पादित हो और जिसमें भगवान् स्वयं दयार्द्र होकर जीव पर अपने अनुग्रह की अभिव्यक्त करें वह पुष्ट भक्ति तथा जिसमें साधनों के सापेक्ष भजन-पूजनादि-द्वारा प्रभु को प्राप्त करने का उपक्रम किया जाय, वह 'मर्यादा भक्ति' कही गई है। रोगत्मिका भक्ति भी इसे कहते हैं। भगवान् अनत हैं, अत: उनके ऐश्वर्यादि गुणभाव भी अनंत हैं, अवणनीय है। वे लीला हेतु सृष्टि का सजन करते हैं अवतार धारण कर विविध रूप से विहार करते हैं, जैसा श्रीवल्लभाचार्य ने कहा है- 'लीला ईश्वरीय विलासेच्छा' इति और यह ईश्वरीय विलासेच्छा रूप लीला की अभिव्यक्ति (जीव के) अंत:करण में पूर्णनंद के उदय की सूचना है। सर्ग विसर्गादि जैसे भगवल्लीलाएँ हैं, तदवत् भक्ति, अनुग्रह वा पुष्टि भी पुरुषोत्तम भगवान् की लालीएँ ही हैं। मर्यादाभक्ति में भगवान् साधनपरंतत्र रहते हैं- स्वतंत्र नहीं, क्योंकि तज्जनि भक्ति में इन्हें अपनी बँधी हुई मर्यादा की रक्षा करनी पड़ती है। पुष्टि भक्ति में वे साधनाहीन न होकर आद्यंत स्वतंत्र रहते हैं। यहाँ उनका अनुग्रह ही नित्य लीला की अनन्यतम विलास है, जो श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता में विशिष्टता के साथ वर्णित किया गया है।

आचार्य श्री वल्लभ ने पुष्टिमार्ग की विशिष्टता प्रदर्शित करते हुए अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य- अणुभाष्य- में कहा है : मर्यादा भक्तिमार्ग में जीव फल के लिए अपने कर्मों के बंधन में रहता है। जैसा-जैसा वह कर्म करता है, तद्तद्वत् फल उसे मिलते हैं क्योंकि 'कर्मानुरूपं फलं' शास्त्रों का सिद्धांत है। पुष्टिमार्ग इससे भिन्न है। यहाँ जीवकृत शुभाशुभ कर्मों के परखने की आवश्यकता नहीं। मर्यादाभक्ति में शास्त्रविहित ज्ञान कर्मों के अनुसार चतुष्ट्य रूप मुक्तिफल मिलता है। पुष्टिमार्ग में ज्ञानकर्मों की निरपेक्षता परमावश्यक होने से जीव का लक्ष्य केवल विरहय्यकांक्षे' (भाव - ६।११।२५) बन जाता है। अत: पुष्टिमार्ग निराश्रित जीवों के एकमात्र मोक्ष का साधन नहीं, उसके उद्धार का उपाय हो जाता है, जैसा आप- आचार्यश्री ने कहा है- 'पुष्टिमार्गोंऽनुग्रहैक साध्य: प्रमाणमार्गाद् विलक्षण. (्व्रासू. : अणुभाष्य- ४।४ ९) क्योंकि यहाँ जीव 'संत्यज्य सर्व विषयांस्तव पाद मूलं' (मा.-१०।२९।३१) रूप गोपीजनों का अनुगामी बन आगे बढ़ता है। आचार्य श्री हरिराय जी ने भी यही कहा है- 'समस्त विषयत्याग:' सर्वभावेन यत्र हि। समर्पण च देहादे: 'पुष्टिमार्ग' स 'कथ्यते'- इति 'प्रमेयरत्नार्णवे।'

श्री मद्वल्लभाचार्य ने अपने मार्ग- संप्रदाय की पुष्टि के लिए 'चौरासी' ग्रंथ लिखे जिनमें मुख्य हैं- 'ब्रह्मसूत्र'- अणुभाष्य, भागवत: सुबोधिनी टीका, तत्त्वदीप निबंध, षोडश ग्रंथ- इत्यादि'। यह अपनाई गई 'चौरासी संख्या' आप की गूढ और मनोरंजक है। अत: चौरासी लक्ष योनि-लक्षित भ्रमणशील आपकी संपूर्ण भारत में चौरासी बैठकें, जहाँ आपके भागवत के सप्ताह पारायण किए, पुष्टिमार्गीय प्रणाली के अनुसार चौरीसी सेवाविधियाँ, चौरासी प्रकार की भक्ति, जिसमें प्रेमासक्ति और व्यसन रूप से त्रिविध निर्गुण की स्थापना तथा सत्व रज, तम की सगुण भेद से इक्यासी (८१) प्रकार की भक्ति, अपने अनन्य चौरासी भक्तों द्वारा आपने प्रकट की है।

पुष्टिमार्ग के तीन प्रमुख अंग है- 'ब्रह्मवाद, आत्मनिवेदन और भगवत्सेवा। तद्भूत वैष्णवी दीक्षा में शरण मंत्रोपदेश तथा ब्रह्म संबंध के सम्यक् सुंदर संस्कार विशेषरूप से अपेक्षित हैं। जीव (मनुष्य) जल गले में तुलसी की कंठी गुरु-द्वारा विभूषि कर श्रीमद्भगवद्गीताभणित 'शरणगति का सार 'श्रीकृष्ण शरणं मम': (सर्व धर्मों का त्याग कर केवल मेरी शरण में आ, मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूँगा) का जप अहर्निश करता है, वह जीव भगवनुग्रह का अधिकारी बनता है।

पुष्टिमार्गय दूसरी दीक्षा 'ब्रह्मसंबंध' मंत्रपूत है। संसार में रहते हुए जीव किस प्रकार स्वजनों से व्यवहार के, यह विचार हृदयस्थ कर भगवत्प्रति सेव्य-सेवक व्यवहार को स्थापित करता है। आरंभ में वह प्रभु-प्रति आत्मनिवेदन करता है, जिससे उसका परमात्मा श्रीकृष्ण परब्रह्म के साथ संबंध स्थापित होता है। ब्रह्मसंबंध होने के बाद निवेदित जीव को सेवा का अधिकार मिलता है। श्रीवल्लभोक्त ब्रह्मासंबंधी मंत्र का सार है- मेरा रक्षण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण हैं। उनसे हजारो वर्षों का वियोग होने के कारण पैदा हुए त्रिविधि तापों तथा क्लेशों के होने से मेरा आनंद तिरोहित हो गया है। ऐसी अवस्था में मैं श्री गोपी-जन-वल्लभ भगवान् श्रीकृष्ण को अपने देह, इंद्रिय, प्राण, अंत:करण तथा इनके धर्म स्त्री, गृह, पुत्रादि कुटुंब, वित्त (धन) और आत्मा सभी कुछ (आपको) समर्पण करता हूँ। हे श्री कृष्ण, मैं आपका दास हूँ- इत्यादि...।' यह श्री वल्लभक्ति पुष्टिमार्ग का बीजमंत्र है, जो जीव के हृदय में 'श्रीनंद, यशोदा तथा गोपियों की भाँति कृष्णविरह को विभूषित कर प्रेममय नया भाव भरता है (निरोध लक्षण : आचार्य) और :

सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलो च खलधर्मिणि।

पाखंडप्रचुरे लोक कृष्ण एव गतिर्मम।। कृष्णाश्रय स्तोत्र। की ओर उन्मुख करता है।

तपस्या, त्याग एवं भगवत्-सेवा-पूत 'पुष्टिमार्ग' श्री वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र 'गोस्वामी श्री विट्ठलनाथ जी (सं. १५७२ वि.) के समय अत्यधिक फला फूला। वह श्री वल्लभमतानुसार सूक्ष्मरूपेण 'बेझड़ की रोटी तथा टेटी', जो ब्रज का मूल मेवा है, के साग, आचार भोग समर्पण के विचार से संबंध न बनाए रख सका और श्री गो. विट्ठलनाथ जी की निपुण निगरानी में 'साहित्यसंगीतकला' के सम्मिश्रण से अति भव्यरूप धारण करने लगा, फलत: अत्यत मधुरता के साथ-साथ उसमें लोकरंजकता तथा लोकाकर्षण काफी बढ़ा। भगवान् के अंग 'अधरं मधुरं, वदनं मधुरं' के सत्संग से अब ब्रज भी मधुराकृति हो गया था। फिर गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के कुशल हाथों ने उसे और बढ़ावा दिया। आपके सान्निध्य में भारतीय ललित कलाएँ मानों भगवत्सेवा के लिए हाथ बाँधे खड़ी आपका मुँह जोह रही हों। भगवन्निष्ठ सुमधुर साहित्य, भाषा और संगीत से उज्ज्वल बन उन्नति के शिखर पर चढ़ गया था। आठ-आठ अंग रूप अन्य कीर्तनकलाविदों के साथ श्री सूरदास प्रभृति अष्टछाप कवि महानुभावों का रागरंजित उद्गायन नित्य नए रूपों में उस भाषा में होने लगा, जिसके प्रति 'ब्रजभाषा' के अंतिम वरेण्य कवि स्व. 'सत्यनारायण' कविरत्न ने कहा है : 'बरनन कौ करि सकै अहो तिहिं भाषा कमेटी, मचलि मचलित माँगी जामें हरि माँखन रोटी।' अन्य भारतीय ललित कलाओं के संमिश्रण से, जिनमें प्रधान हैं- ऋत्वनुसार हल्के गहरे रंगों के वस्त्र, आभूषण, साज सज्जा, और सामग्री (भोज्य पदार्थ) इत्यादि से पुष्टिमार्ग तथा उसके भारत में बिखरे देवस्थान (मंदिर) अत्यधिक खिल उठे - बोलने लगे। अर्थात् साहित्य, संगीत, कला से निखरा शृंगाररस सुंदरता की चरम सीमा पर जा बिखरा। वस्तु, श्रीमद्वल्लभाचार्य चरण जहाँ पुष्टिमार्ग के उत्पादक तथा व्यापक रूप में नमन किए जा सकते हैं, वहाँ श्री विट्ठलनाथ अपने पिता के पदचिह्नों पर चलते उसके प्रवर्तक और रसपूर्ण विस्तारक कहे जा सकते हैं। सच तो यह है कि अपने मृत हो रही भारतीय ललित कलाओं को नए अनुकरणीय स्तर पर लाने के लिए अपनी अनोखी सूझबूझ का अमृत पिलाकर उन्हें पुनर्जीवित ही नहीं किया, अपितु उन्हें भगवत्सेवा के प्रति उन्मुख करने के बेजोड़ परिश्रम भी किया। फलत: ललित कथाएँ भगवत्सेवा में नाना भाँति से सुंदर, सरस योग देने लगीं। यह उसका स्वर्णयुग था। पुष्टिमार्ग सप्रंदाय, श्री श्री गो. 'विट्ठल जी के चतुर्थ' लाल जी (बेटे) 'श्री गोकुलनाथ जी' (सं १६०८ वि.) के समय एक नए दौर में प्रवेश करने लगा। यह प्रवेश उसका नए रूप में समय के व्यतिक्रम, वा गाते रूप में न था, अपितु मुगलकालीन शृंगार रस की अति उत्कट भोगेच्छा थी, जो आप (श्री गोकुलनाथ जी) द्वारा संप्रदाय में प्रविष्ट हुई। फलत: वेदनिहित भारतीय धर्मनिष्ठा के विपरीत, जैसा गीतोक्त भगवद्वाक्य हैं- 'संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधाभिजायते' के अनुसार पुष्टिमार्ग तंत्रवाद के कौलाचार से निखरकर एक अलग वाद प्रविष्ट हुआ, जिसे गोकुलनाथी पंथ कहा सुना जाता है। आगे चलकर यह गोकुलनाथी पंथ और उग्र रूप में 'भडूचो' नाम के साथ विभाजित हुआ, तदनंतर जैगोपाल पंथ में...। पुष्टिमार्ग के इन तीनों पंथों का बाह्य आवरण तो शुद्धाद्धैत संप्रदाय के सिद्धांतों के समतुल्य रहा, पर अंतर में तंत्रवाद के कौलाचार से काला होता गया। अत: पुष्टिमार्ग, अपने त्याग तपस्या से विरत होकर भोग के उद्घोष से मुखर बन गया, जैसा आज सुना जाता है।

सं.ग्रं. - श्री वल्लभाचार्यकृत ग्रंथ, तथा प्रमेयरत्नार्णव (श्री हरिराय)।

(जवाहरलाल चतुर्वेदी)