पुर्तगाली भाषा तथा साहित्य पुर्तगाली या (पोर्तगाली) नवलातीनी परिवार की भाषा है। इस परिवार की अन्य भाषाएँ स्पेनी, फ्रांसीसी, रूमेनी, लातीनी, प्रोवेंसाली तथा कातालानी हैं। यह लातीनी वोल्गारे (लातीनी अपभ्रंश) का विकसित रूप है जिसे रोमन विजेता अपने साथ लूसीतानिया में लगभग तीसरी शती ईसवी पूर्व में ले गए थे। रोमन विजेताओं की संस्कृति मूल निवासियों की अपेक्षा उच्च थी। उसके प्रभाव के कारण स्थानीय बोलियाँ दब गईं, भौगोलिक नामों तथा कुछ शब्दों (एस्क्वेदों वेइगा) में उनके अवशेष मिलते हैं।

पाँचवीं शतीं में आइबीरिया प्रायद्वीप पर बर्बरों का आक्रमण हुआ। आक्रमणकारियों ने विजितों की भाषा को अपनाया। पुर्तगाली की शब्दावली में जर्मन भाषा वर्ग के बहुत ही कम शब्द हैं। प्राय: युद्ध से संबंधित कुछ शब्द मिलते हैं जो महत्वपूर्ण नहीं हैं।

आठवीं शती में आइबीरिया पर अरब आक्रमण हुआ। इनका अधिकार पाँच सौ वर्षों तक रहा। यद्यपि आक्रामकों की संस्कृति बहुत उन्नत थी तथापि उन्होंने अपनी भाषा को पुर्तगालियों पर थोपा नहीं। दोनों ही अपनी-अपनी भाषा का प्रयोग करते रहे। ऐसा होने पर भी पुर्तगाली में बहुत से अरबी के शब्द रह गए है। ऐसे शब्दों को अरबी के 'अल्' उपसर्ग से युक्त होने से आसानी से पहचाना जा सकता है (अल्खूवे अल्मोक्रेवे, अल्मोफारिज़)।

१३वीं शती की पुर्तगाली नीति कविता पर प्रोवेंसाली का बहुत प्रभाव था। इसलिए कविता को भाषा में अनेक प्रोवेंसाली शब्द प्रयुक्त हुए, किंतु बोलचाल की भाषा में अपेक्षाकृत कम प्रोवेंसाली शब्द मिलते हैं। पुर्तगाली शब्दावली को सबसे अधिक समृद्ध किया स्पेनी और फ्रांसीसी भाषाओं ने। स्पेनी का प्रभाव उनकी भौगोलिक समीपता तथा साहित्यिक समृद्धि, विशेषकर नाट्य साहित्य, के कारण पड़ा। पुर्तगाल पर स्पेन का आधिपत्य (१५८०-१६४०) रहना भी प्रभाव का एक कारण है। फ्रांसीसी का प्रभाव में तो पड़ा ही, क्योंकि ११वीं शती में पुर्तगाल के प्रथम राजवंश का प्रतिष्ठाता काउंट ऑव पुर्तगाल बरगंडी का हेनरी था। उसके बाद १८वीं शती से २०वीं शती के आरंभ तक फ्रांसीसी संस्कृति के प्रवेश के कारण फ्रांसीसी भाषा ने पुर्तगाली को प्रभावित किया। आधुनिक युग में यूरोप की अन्य भाषाओं के समान अंग्रेजी का प्रभाव पुर्तगाली पर भी देखा जा सकता है। अमरीकी सभ्यता ने यांत्रिक क्षेत्र में जो प्रगति की, उसका प्रभाव पुर्तगाली भाषा पर भी लक्षित हो रहा है।

पुर्तगाली में, विशेषकर कला से संबंधित, अनेक इतालीय शब्द भी हैं। इनमें से अधिकांश शब्द इतालीय साहित्यिक प्रवृत्तियों की सफलता के कारण १६वीं शती में प्रवेश कर गए थे। १६वीं शती के पश्चात् लातीनी साहत्य के अध्ययन की विशेष रूचि के फलस्वरूप साहित्यिक पुर्तगाली पर लातीनी का प्रभाव पड़ा। वाक्यविन्यास तथा शब्दावली दोनों पर लातीनी का प्रभाव पड़ा। लातीनी शब्दों से ही वने फ्रयो, फ्रोजिदो, जैसे सरल शब्दों के रहते आडंबरपूर्ण अस्वाभाविक शब्दों (आंदोलोक्वो, उनबीवागो) का प्रयोग होने लगा। ग्रीक से वैज्ञानिक शब्दावली ली गई।

१५वीं शती से ही जो खोजें आरंभ हुई उनके माध्यम से पुर्तगालियों का संपर्क अफ्रीका, एशिया और अमरीका के निवासियों से हुआ। फलस्वरूप अनेक नए शब्द पुर्तगाली में आ गए (कांचिम्बा, वातुक्वे, मांदिओका)।

लातीनी की तुलना में पुर्तगाली की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं : ध्वनिविषयक अनुनासिक व्यंजन के कारण स्वरों में परिवर्तन - मानू>माँओ; पोनित>पोंए; स्वरमध्यवर्ती अघोष व्यंजनों का घोष हो जाना त>द, प>ब, च>ज (लाकु>लागो; सापेरे>साबेर); स्वरों के बीच में आनेवाले द और ल व्यंजनों का लोप हो जाना (फीदे>फैए>फे; दोलोरे>दोर; स्वर समुदाय अउ के स्थान पर ओर कभी-कभी ओह हो जाता है (ताउरु>तोउरो>तोहरो; आउरु>ओउरो, ओहरो);) शब्दारंभ में आनेवाले संयुक्त क्ल, फ्ल, प्ल के स्थान पर क (क्लावे> कावे (शावे)); फ्लामा>कामा (सामा) फ्लोरारे>कोरार (सोरार) हो जाता है; शब्द के मध्यवर्ती वल के स्थान पर ल्ह हो जाता है - ओकुलु>आल्हो।

पुर्तगाली में वाक्यविन्यासात्मक ध्वनिप्रक्रिया ध्यान देने योग्य है : शब्दांत में आनेवाले S का उच्चारण प्राय: ship के श के समान होता है, किंतु जब उसके पश्चात् और शब्द रहते हैं तब उसका उच्चारण Z ज़ जैसा होता है, जैसे as में ज़; स्वर के पूर्व में रहने से तथा घोष वर्ण के पूर्व उसका उच्चारण Pleasure के S जैसा होता है, किंतु अघोष वर्ण के परे S हो रहता है। OS Pis का उच्चारण उस पेस्स होता है - क्योंकि प अधोष है, as artes का उच्चारण अज़ आर्तेस्स होता है क्योंकि artes के प्रारंभ में स्वर है। OS dentes का उच्चारण ओज़ देन्तेस्स होता है क्योंकि द घोष है।

रूपरचना - नवलातीनी अन्य भाषाओं की सामान्य विशेषताओं (विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति, कारक विभक्तियों का लोप, नपुंसक लिंग के भेद का लोप, भविष्यत् और हेतु लकार की रूपरचना) के अतिरिक्त पुर्तगाली में एक विशेषता मिलती है जो अन्य किसी भाषा में नही मिलती। मूल अपरिवर्तनशील क्रिया रूप के अतिरिक्त पुर्तगाली में एक और व्यक्तिवाचक या सविभक्तिक क्रिया रूप मिलता है जो निश्चित वाक्यांश से प्राय: मिलता है। ऐ उना वेरगोन्हा नॉओ साबेरमोए एस्क्रेवेर - यह लज्जा की बात है कि हम लिख नहीं सकते।

नैयमिक क्रियाओं में लेट् भविष्य रूप भी होता है जो व्यक्तिवाचक क्रिया के सामान्य रूप के समान होता है।

अन्य नवलातीनी (रोमांस) भाषाओं (स्पेनी और प्रोवेंसाल) के समान पुर्तगाली इस दृष्टि से भी भिन्न है कि उसमें लातीनी का पूर्णभूत संकेतकाल भी शेष रह गया है (अमावेराम>अमाराम>अमारा)।

वाक्यरचना - कारकों का लोप हो जाने के कारण लातीनी की विस्तृत विविधता की तुलना में शब्दों के क्रम के नियम कड़े करना आवश्यक हो गया। स्वराघातहीन व्यक्तिवाचक सर्वनाम के प्रयोग के क्रम के विषय में जटिल नियम है और ब्राजील की पुर्तगाली में प्राय: उसके प्रयोग में भेद रहता है। पुर्तगाली भाषा पुर्तगाल के सिवा स्पेन के कुछ भागों में, अजोर्ज़ और मादेरा के जलडमरूमध्य में, ब्राजील, अफ्रीका और एशिया के पुर्तगाली उपनिवेशों में, तथा कुछ अन्य भागों में, जो पहले पुर्तगाल के उपनिवेश थे, बोली जाती है।

१२वीं शती में गालीशियन-पुर्तगाली भाषा का पहला लेख मिलता है जो आइबेरिया प्रायद्वीप में बोली जानेवाली बोलियों से भिन्न है।

सं.ग्रं. - अदोल्फो गार्श्या रीबोरे द वास्कोंन्वेलोस : ग्रामातीका हिस्तोरिका पोर्तुगेसा, लिस्बन, १९३३ : एपोफानिओ द सील्वा दियास : हीस्तोरीका पोतुंगेसा, स्बिन १९३३; फ्रांचिस्को तोर्रीन्हा : कूर्सो दे फीलोलोजिया पोर्तुगेसा, लिस्बन, १९३५ : जे. डनवाए ग्रैमर अब् द पोर्तुगीज़ लैग्वेज वाशिंगटन, १९२८, मोराएस सील्वा-ग्रान्दे दिसीयोनानिओं दा लिंगुआ पोर्तुगेसा, - संस्करण कोन्फलुएंसा - लिस्बन।

साहित्य - महानतम पुर्तगाली कवि कामू के व्यक्तित्व में पुर्तगाली साहित्य की दोनों प्रमुख विशेषताएँ सहित मिलनी हैं। ये हैं - प्रगीति प्रेरणा और स्वच्छंद अभिरुचि। ये विशेषताएँ किसी विशेष ऐतिहासिक युग की नहीं, किंतु सभी युगों की सामान्य मानव मनोवृत्ति है। प्रेमात्मक और व्यक्तिगत समस्याओं पर आग्रह, अपनी व्यक्तिगत पीड़ा में एक मृदु आनंद (सउदादे), यह पुर्तगाली चित्तवृत्ति की विशेषताएँ हैं - घर के प्रति ममता की भावना, अस्पष्ट आकांक्षाएँ और आशा - नवीन भूभाग और नवीन समुद्री भागों की खोज में रत रहनेवाले एक छोटे राष्ट्र के काल्पनिक भाग्य की महान् भावना से युक्त।

बुद्धि की अपेक्षा संवेदना और कल्पना के प्राधान्य के कारण दार्शनिक पद्धतियों का निर्माण, गंभीर अध्ययन और शोध की गहराई में जाना, विस्तृत ऐतिहासिक आधार तैयार करना कठिन होता है। महदुद्दश्य को सम्मुख रखनेवाला राष्ट्र होने का बोध कभी भविष्यदर्शी का आनंद, कभी स्पष्ट रहस्यवाद, आत्मसमर्पण या तो उल्लासपूर्ण आनंद या निराश भाग्यवाद की सृष्टि करता है।

प्रगीति रचनाओं द्वारा पुर्तगाली साहित्य का प्रारंभ १२वीं शती से होता है। ये गीत गलीशीय पुर्तगाली बोली में थे। गलीशिया स्पेन का एक प्रांत है जो पुर्तगाल तक चला गया है। यह गलीशीय बोली आइबोरिया प्रायद्वीप के त्रूवादोरों (सामंतों का यश गानेवाले) की रचनाओं की भाषा हो गई। इस गीतिकाव्य के दो पक्ष हैं - एक लोकप्रिय रूप जो स्थानीय बोली में लिखा गया, दूसरा शिष्ट रूप जो प्रोवेंसाल शैली में लिखा गया। लोकगीत शैली में विशेष स्थान कान्तोगास दे अमीगो (प्रेमिका के गीत) का है जिनमें प्रेमिका अपने प्रेमी को संबोधित करके गीत गाती है। बदले में नायक भी कांतीगास वे अमोर (प्रेमगीत) गाता है। नायक संभ्रांत कुलोत्पन्ना नायिका को संबोधित करके गीत गाता है। प्रेमगीतों के इस विशाल साहित्य के इस समय केवल तीन संग्रह उपलब्ध हैं जिनमें ११८९ से लेकर १४वीं शती के मध्यकाल तक की रचनाएँ संकलित हैं। इस काल में कुछ राजाओं ने कतिपाय कवियों और गीतगायकों को दरबार में आश्रय प्रदान किया। ऐसे राजाओं में दीनीस (१२६१-१३२५) बहुत प्रसिद्ध है। इन कवियों ने भी उल्लेखनीय काव्यसृष्टि की।

पुर्तगाली गद्य ने अनुवादकों के द्वारा साहित्यिक प्रतिष्ठा प्राप्त की। आल्कोबसा एबे अनुवादकों का मध्ययुग में प्रधान केंद्र था। यहाँ संतों की जीवनियाँ, उपदेशपूर्ण, कथाएँ, पुरानी गाथाएँ, राजवंश गाथाएँ, वंशावलियाँ अनूदित की गई और उन्हें नवीन रूप में प्रस्तुत किया गया। इनमें से अनेक वीरगाथापूर्ण साहसी कथाएँ हैं। इनको तीन मुख्य वर्गों में रखा जा सकता है - ग्रीक-लातीनी, कारोलिंजन (चार्ल्स महान् से संबंधित) और ब्रेटन।

उस काल की अत्यंत महत्वपूर्ण कृतियों में से एक है लेयाल कोसेल्हिएरो (विश्वासी परामर्शदाता)। इसमें अपने समय के सर्वश्रेष्ठ गद्यलेखक राजा एडवर्ड (१३९१-१४३८) की नैतिक उपदेशात्मक रचनाओं का संग्रह है।

१५वीं शती में इतिहास-सामग्री-संकलन का विकास हुआ। पुर्तगाल के राजा ने कई विवरणलेखकों की नियुक्ति की, जिनको पुराने राज्यकालों का इतिहास लिखने का कार्य सौंपा गया। इसमें अपनी ऐतिहासिक शोधों के गांभीर्य और साहित्यिक श्रेष्ठता के कारण फेरनाँओं लोपेस (१३८०-१४६०) सबसे प्रसिद्ध है।

जॉन द्वितीय के दरबार में कुछ कवि थे। उसके मंत्री गार्सिया दे रेसेन्दे (१४७०-१५३६) ने काँसोनेहरो जेराल (सामान्य गीत संग्रह) में पोइसिया पालासियान (दरबारी काव्य) कही जानेवाली कविताओं का विशाल संग्रह किया है। कुछ अपवादों को छोड़कर प्राय: ये कविताएँ परंपराभुक्त और बाह्य-रूप-प्रधान हैं। इनका महत्व तत्कालीन प्रथाओं और इस समय की नई साहित्यिक प्रवृत्तियों का परिचय देनेवाली कृतियों के रूप में विशेष है। अंतिम गीतसंग्रह के लगभग सौ वर्ष बाद प्रोवेंसाल का प्रभाव समाप्त हो गया। इतालीय शैली के प्रथम चिह्न उसमें दिखाई पड़ते हैं, पेत्रार्क और दांते को आदर्श मानकर रचनाएँ हुई। अगली शती में यह प्रवृत्ति परिपक्व रूप में दिखती है। इतालीय प्रभाव स्पेनी के माध्यम से आया, जो अधिक स्पष्ट है। लगभग सभी ने उपेक्षापूर्वक स्पेनी और पुर्तगाली में लिखा है और यह दो भाषाओं में लिखने की प्रवृत्ति १७वीं शती तक चालू रही।

१६वीं शती पुर्तगाली साहित्य का स्वर्णकाल है। क्विन्हेंतिस्मो (१६वीं शती की शैली) प्राचीन साहित्य के प्रभाव, समुद्र की पुकार और समुद्र पार के देशों के मनोरम आकर्षण का समन्वित रूप है। स्थापीय कला में भी यह प्रभाव दिखाई पड़ता हैं, विशेषकर मानुएलीनो शैली में, जो उस समय के अत्यंत प्रसिद्ध सम्राट् मानुएल प्रथम (१४९५-१५२१) के नाम पर मानुएलीनो कहलाई। इस शैली की विशेषता है भारतीय मंदिरों से प्रभावित लतावृक्षों के अभिप्रायों से युक्त प्रभूत अलंकरण।

जिल वीचेंते (१४६५-१५३७) के प्रयासों के फलस्वरूप इस शती में आधुनिक रंगमंच का विकास हुआ। उसने आइबेरिया में प्रसिद्ध आउतो नामक विशेष प्रकार की नाट्य रचनाओं की सृष्टि की। मध्ययुगीन धार्मिक नाटक के स्थान पर जिल वीचेंते ने ऊँची प्रगीति कल्पना के साथ यथार्थवादी अभिव्यंजना शक्ति समन्वित करके अत्यंत स्वाभाविक पात्रों से युक्त नाटकों की रचना की। यद्यपि उसके अनुयायियों ने उसकी कला का अनुसरण किया और रंगमंच को उच्चतम शिखर पर पहुँचने का श्रेय स्पेन को मिला, तथापि जिल बीचेंत को नाटक प्रारंभ करने का श्रेय है।

लुई दे कामोस (१५२४-१५८०) की प्रतिभा १६वीं शती में सबसे अधिक प्रभावशाली रही। ओस लूसिआदास के रूप में उसने अपने देश को क्लासिकल साँचे में ढला अत्यंत सफल आख्यान काव्य और श्रेष्ठ राष्ट्रीय काव्य प्रदान किया। इस कृति में पुर्तगाली मल्लाहों और वीरों के साहसपूर्ण कार्यों का पौराणिक ढंग से यशोगान किया गया है। किंतु कामोस की ख्याति गीति कवि के रूप में इससे भी अधिक है। उसकी गीति कविताओं में उदात्त संगीत द्वारा मन की सूक्ष्मतम भावनाएँ हुई हैं।

मध्ययुगीन परंपराओं का स्वर साहसपूर्ण कथाओं में मिलता है। बेनार्दिम रिवेइरो (१४८२-१५५२) ने मेनीना एमोसा (छोटा और युवक) के रूप में भावुक या सउदादे भावधारा से प्रधान विशेष प्रकार के पुर्तगाली उपन्यास की सृष्टि की। रिवेइरी अंतिम महान् कवि है जिसने मेदिदा वेल्हा (प्राचीन छंद) का मेदिदा नोवा (नया छंद) के स्थान पर प्रयोग किया।

इतालीय प्रभाव खास तौर पर सा दे मीरांदा (१४८१-१५५८) के माध्यम से आया जो कई वर्ष इटली में रहने के बाद १५२६ में पुर्तगाल लौटा। उसने इतालीय कविता के छंदों, गीत, सॉनेट तथा ओत्तावा रीमा (आठवीं लय) का पुर्तगाली कविता में प्रयोग किया। जिल बीचेंते की स्थानीय विशेषता से युक्त लोकप्रिय नाटकों का उसने विरोध किया और प्राचीन शैली का समर्थन किया जिसका अनुकरण प्लाउतुस, तेरेंस और अरिओस्तो ने किया था। सा दे मीरांदा ने बूकोलिक कविता शैली में भी रचना की। प्राचीन काव्यशैली का अनुकरण करते हुए उसने अपने समय के व्यक्तियों का उल्लेख किया है।

पुर्तगाली साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण और विचित्र अंग है उपनिवेशों के इतिहासों, साहसपूर्ण यात्राओं, युद्धों, विजयों और खोजों से संबंधित कृतियों की प्रचुर मात्रा में रचना। फेरनॉओं मेदेस पिन्तो (१५१०-१५८३) की कृति पेरेग्रीनासाँओ (यात्रा) इस प्रकार की श्रेष्ठ कृति है। कृति का विषय पुर्तगाल के पूर्वीय देशों के आधिपत्य से संबंधित है। अनेक विद्वानों के मत से यह कृति साहसी उपन्यासों के क्षेत्र में अत्यंत श्रेष्ठ समझी जाती है।

इतिहास लेखकों में जोआँओ दे वार्रोस (१४९६-१५७०) उल्लेखनीय है। लिवी को आदर्श मानकर अपनी कृति देकादास में चारों महाद्वीपों में पुर्तगालियों के कार्यों की गाथा गाने की योजना बनाकर विशाल ऐतिहासिक कृति लिखने की रूपरेखा बनाई थी। किंतु उसने केवल एशिया तक ही अपने को सीमित रखा। बार्रोस को प्राचीन (क्लासिक) आदर्श का निर्वाह करने में सफलता मिली है। उसका अनुकरण करनेवालों को वैसी सफलता नहीं मिली, किंतु अपनी प्रत्यक्ष अनुभूतियों के आधार पर कई लेखकों ने साहसपूर्ण घटनाओं के विवरण लिखे हें जिनमें भले ही कला उत्कृष्टता न मिले किंतु सजीवता अवश्य है।

१७वीं शती का वातावरण बिल्कुल भिन्न है। स्वाधीनता नष्ट हो गई थी और नैतिक निराशा के कारण पुर्तगाल में काव्यरचना का उत्साह मंद पड़ गया था; काव्य के विभिन्न अंगों में ्ह्रास होने लगा जो स्पेनीय शासन के समाप्त होने पर (१६४०) भी नहीं रुका। ऐसी स्थिति में भी गद्य ने प्रशंसनीय साहित्यिक गरिमा प्राप्त की। अनेक लेखकों ने अनेक प्रकार की गद्य कृतियाँ लिखीं जिनमें भाषा की सजावट पर विशेष ध्यान दिया गया है। इन लेखकों में अंतोनियो दिएरा (१६०८-१६९७) प्रधान है। धार्मिक विषयों से संबंधित उसकी अनेक कृतियाँ हैं।

१८वीं शती में दो साहित्यिक आंदोलन दिखते हैं। पहला अस्वाभाविक सजावट के विरुद्ध जिसके फलस्वरूप अर्कादिया लूसीताना (१७५६) की स्थापना हुई, जिसका खास उद्देश्य था अस्वाभाविकता को संयमित करना तथा स्पेनी के प्रभाव के प्रतिकूल संघर्ष। दूसरा आंदोलन उस शती की विशेष प्रवृत्ति का सूचक है जिसका उद्देश्य इतिहास-लेखन-प्रणाली को नया रूप प्रदान करना तथा दार्शनिक, गंभीर और आलोचनात्मक कृतियों के सृजन को उत्साहित करना था।

परिवर्तन के इस युग में बोकाजे (१७६५-१८०५) का अशांत और जटिल व्यक्तित्व महत्वपूर्ण है। वह विविध नवीन विषयों पर सहज भाव से विचार प्रकट करने की प्रतिभा से युक्त था। किंतु साथ ही प्रचुर संवेदना भी उसमें थी और इस दृष्टि से वह स्वच्छंदवाद का अगुआ है।

स्वच्छंदवाद का आगमन अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं से जुड़ा हुआ है। उग्र और उदार दलों में जो संघर्ष हुआ उसके कारण बहुत से लेखक बाध्य होकर फ्रांस और इंग्लैंड चले गए जहाँ वे स्वच्छंदवादी आंदोलन के संपर्क में आए। उदारवादी विचारधारा की सेना की विजय के साथ ही आल्मेइदा गारेंत्त (१७९९-१८५३) और अलेक्सांद्रे हेरकूलानो (१८१०-१८७७) स्वदेश लौट अए। वे दोनों स्वच्छंदवाद के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने पुर्तगाली साहित्य की कलात्मक शक्ति से युक्त एक महान् युग का प्रारंभ किया जो पूरी शती में चालू रहा।

गारेंत्ती इस धारा का नेता था। उसने स्वच्छंदवादी प्रवृत्तियों प्राप्त कर राष्ट्रीय नाटक का निर्माण किया, गीतिकाष्य को फिर से पल्लवित, पुष्पित किया और गद्य का नवनिर्माण किया। हेरकूलानो ऐतिहासिक उपन्यास लिखने तथा पत्रकारिता में निपुण था। अपने लेखों में अपने युग की समस्याओं की उसने सूक्ष्म परीक्षा की है और इस प्रकार इतिहास में उसने नवीन आलोचनात्मक दृष्टिकोण का संचार किया।

पुर्तगाली स्वच्छंदवादी साहित्य सभी रूपों में प्रस्फुटित हुआ और जब अन्य देशों में उसका ्ह्रास हो रहा था या हो चुका था उस समय फेलीच्यानो दे कास्तील्हो (१८००-१८७५) ने एक प्रकार की साहित्यिक तानाशाही स्थापित कर रखी थी। जो कोई भी नवीन विचारधारा प्रारंभ करने का यत्न करता उसका वह घोर विरोध करता।

१८६५ में 'कोइंब्रा के असंतुष्टवादी आंदोलन' ने कास्तील्हो के विरुद्ध खुला युद्ध आरंभ कर दिया। साहित्यिक जगत् संघर्ष जैसे वादविवादों से क्षुब्ध हो गया, सभी प्रकार की विचारधाराओं ने पुर्तगालियों में स्वतंत्र रूप से प्रवेश किया।

इस उत्साही पीढ़ी के नवयुवक प्रतिनिधियों में, जिन्होंने विवाद के आरंभिक दिनों में प्रसिद्धि प्राप्त की, कवि, दार्शनिक आंतेरो द क्वेताल (१८४२-१८९१), इतिहास लेखन को नई दिशा और विस्तृत उद्देश्य प्रदान करनेवाले ओलीवेइरा मार्तिन्स (१८४५-१८९४) तथा तेओफीलो ब्रागा (१८४३-१९२४) जिसने पुर्तगाली सभ्यता का पूर्ण सर्वेक्षण नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया, प्रमुख हैं।

स्वच्छंदवाद और यथार्थवाद के बीच के संक्रांतिकाल में कामीलं कास्तेलो ब्रांक्रो ने अच्छी ख्याति प्राप्त की। वह उन महान् पुर्तगाल उपन्यासकारों में से है जिन्होंने अपनी कृतियों में स्वच्छंदवाद के अभिलषितता के साथ यथार्थ और पैनी पर्यवेक्षण दृष्टि को समन्वित किया।

१९वीं शती के महान् कथाकारों में एसा दे क्वेइरी (१८४५-१९००) का स्थान बहुत ऊँचा है। वह प्रतिभासंपन्न उपन्यास लेखक था, जिसने अद्वितीय और सजीव पात्रों की सृजना की तथा मानव दुर्बलताओं पर, सुरुचि की रक्षा करते हुए, व्यंग्यपूर्ण ढंग से प्रहार किया। पुर्तगाली गद्य का उसने नवनिर्माण कि उसे सजीवता और विलक्षण व्यंजना प्रदान की।

इस संधर्षशील पीढ़ी के पश्चात् एक दूसरी पीढ़ी आती है जो अपने विचारों को प्रचारित करने में और भी कट्टर थी। संक्षेप में कह सकते हैं कि १९वीं शती के सातवें दशक में पुर्तगाल यूरोपीय चिंतन की प्रमुख प्रवृत्तियों में प्रविष्ट हो चुकने के बाद विरोधी प्रवृत्तियाँ दिखती हैं- एक समन्वयवादी प्रवृत्ति जो बाहरी अनुभवों को ग्रहण करने के पक्ष में है, दूसरी राष्ट्रवादी है जो स्थानीय स्रोतों तक ही सीमित रहना चाहती है।

इस आंदोलन का विशिष्ट प्रतिनिधि तेक्सेहरा पास्कोइस (१८७८-१९५२) था। उसने साउदादे के नाम पर साउदोसिस्मो की स्थापना की। महान् गीतिकवि आंतोनियो नोबरे नितांत व्यक्तिगत शैली में परस्पर बिल्कुल भिन्न अनुभवों को साथ मिलाकर व्यक्त करने में सफल हुआ। वह आधुनिकता का अगुआ है। इस धारा के प्रतिनिधियों में फेरनांदो पेसोआ (१८८८-१९३५) सबसे अधिक सिद्ध है। उसने अनेक उपनाम रखकर लिखते हुए अपने बहुमुखी पैर शक्तिशाली व्यक्तित्व के विभिन्न रूपों को अलग-अलग व्यक्त करने का यत्न किया है। उसे आगे की साहित्यिक पीढ़ियों का नेता माना जाता है। वर्तमान साहित्य में कविता का स्थान महत्वपूर्ण माना हुआ है। प्रेसेंन्जा (एक सप्ताहिक पत्र) का आंदोलन, नवयार्थवादी और अतियथार्थवादी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। कई ऐसे भी कवि हैं जो विशेष 'वाद' या प्रवृत्ति से अलग और स्वतंत्र हैं।

गद्य लेखकों में आक्वीलीनो रिबेइरो (१८८५) का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। वह अपने यथार्थवादी, व्यंजक और नाटकीय तत्व युक्त उपन्यासों के लिए प्रसिद्ध है।

अनेक निबंध और प्रबंध आलोचनात्मक और दार्शनिक दृष्टिकोण की परिपक्वता का परिचय देते हैं। इस दिशा में आंतोनियो सेरज्यो (१८८३) की देन सर्वाधिक है।

सं.ग्रं.- हिस्तोरिआ दा लितेरातूरा पोर्तुगुएसा इलुसतादा तेर दिकेंरेंतेस- एस्पेसियालिस्तस- पेरिस-लिस्बन ऐलौद ए वेत्रांद, १९२९-१९३२। औब्रे बेल-पोर्तुगीज़ लिटरेचर, ऑक्सफोर्ड, १९२२। कीदेलीन्ते दे फी गेरेदो हिस्तोरिया दे ला लितेरातूरा पोर्तुगेसादीतोरियाल लावोर-बारचेलोना, १९२७। जी. ले जेंतील-ला लत्तेरान्तूर पोतुगेस-पेरिस-अरमांद कोलिन, १९५०।