पुरोहित (ईसाई दृष्टि से) अन्य धर्मों की भाँति ईसाई धर्म भी पुरोहित को मुख्यतया ईश्वर तथा जनसाधारण का मध्यस्थ समझता है। ईसाइयों का विश्वास है कि ईश्वर के पास पहुँचने के लिए मनुष्य के सामने जो बाधा है वह पाप है और ईसा ने क्रूस पर अपने बलिदान द्वारा उस बाधा को दूर किया है। अत: ईसा मानव जाति का महापुरोहित है। अधिकांश ईसाइयों का यह भी विश्वास है कि ईसा ने मुक्ति का अपना संदेश फैलाने के लिए तथा सभी मनुष्यों को मुक्ति का भागी बनाने के लिए एक दृश्य तथा सामाजिक संस्था के रूप में अपने चर्च का संगठन किया है। उस चर्च के अधिकारियों को विश्वासियों का नेतृत्व करने, पाप क्षमा करने (दे. पापस्वीकरण) तथा चढ़ावा चढ़ाने (दे. 'यज्ञ') का अधिकार देकर उनको एक विशिष्ट अर्थ में अपने पौरोहित्य का भागी बना दिया है। ईसा के पट्ट शिष्यों ने अपना यह अधिकार एक विशेष अभिषेक द्वारा अपने उत्तराधिकारियों को प्रदान किया। उस समय से यह अधिकार अटूट क्रम से दिया जाता रहा है और आजकल के पुरोहितों का अधिकार ईसा द्वारा ही प्रदत्त माना जाता है। पौरोहित्य संस्कार के तीन सोपान हैं - उपयाजक (डीकन), याजक अथवा पुरोहित, बिशप। बिशप ही दूसरों की पौरोहित्य का संस्कार प्रदान कर सकते हैं।

प्रोटेस्टैंट प्राय: पौरोहित्य को ईसा द्वारा ठहराया हुआ संस्कार नहीं मानते। इस धर्म में पादरी को सुसमाचार के उपदेशक तथा प्रजा के आध्यात्मिक नेता एवं शिक्षक के रूप में देखा जाता है। वह अन्य ईसाइयों की भाँति ही अपने बपतिस्मा के द्वारा ईसा के पौरोहित्य का भागी है।

ईसाई धर्म में उसी को पुरोहित का अभिषेक अथवा पादरी का पद दिया जाता है जो सेवाभाव तथा अन्य आवश्यक गुणों से संपन्न होकर स्वेच्छा से उसके लिए अपने को प्रस्तुत करता है तथा आवश्यक अध्ययनशिक्षण पूरा कर चुकता है। प्रोटेस्टैंड संप्रदायों में पादरी प्राय: विवाह करते हैं। प्राच्य चर्च में बिशप तथा धर्मसंघी पुरोहित अविवाहित रहते हैं। अन्य पुरोहित अपने अभिषेक के पहले ही विवाह करते हैं। रोमन काथलिक धर्म में सभी पुरोहितों को आजीवन अविवाहित रहना पड़ता है

(रेवरेंड कामिल बुल्के):