पुरुषोत्तमदास टंडन का जन्म १८८२ में प्रयाग में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर एम. ए. और एल-एल. बी. की शिक्षा भी उ न्होंने प्रयाग में ही प्राप्त की।
टंडन जी ने इलाहाबाद में ही वकालत प्रारंभ की। मेधावी और परिश्रमशील तो थे ही; थोड़े ही दिनों में उनकी वकालत चल पड़ी और नगर के गण्यमान्य वकीलों में उनकी गणना की जाने लगी। इसी बीच जब लाला लाजपतराय ने लोकसेवक मंडल के स्वयंसेवकों की भर्ती शुरू की तो टंडन जी अपना सब कुछ छोड़कर उसमें भर्ती हो गए। वह एक अच्छे वकील से देशभक्त स्वयंसेवक बन गए।
सार्वजनिक जीवन के प्रति रूचि और सेवावृत्ति के परिणामस्वरूप सन् १९१९ में वे प्रयाग नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए। फिर सन् १९२१ में गांधी जी के आह्वान पर वे सक्रिय राजनीति के क्षेत्र में आ गए। असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें डेढ़ वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। जेल से छूटने पर उन्हें भीषण आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा, जिसके निवारण के लिए लाला लाजपतराय के आग्रह पर उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक की जनरल मैनेजरी का काम सँभाला। वे इस पद अगस्त, १९२९ तक काम करते रहे।
लाला लाजपतराय की मृत्यु के पश्चात् लोकसेवक मंडल के अध्यक्ष का पद रिक्त हुआ। गांधी जी ने इस पद के लिए टंडन जी का नाम सुझाया। बापू के संकेत पर वे बैंक की मैनेजरी छोड़ लोकसेवक मंड़ल के अध्यक्ष बन गए। इस पद पर वे अपने अंतिम समय तक रहे।
किसानों की दुर्दशा से टंडन जी दु:खी थे और इस दुर्दशा का मूल कारण वह जमींदारी प्रथा को मानते थे। उनका मत था कि जितनी जल्दी जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो जाए राष्ट्रहित में उतना ही अच्छा है। किसानों की आर्थिक हालत सुधारने और उन्हें उनके अधिकार सुलभ करने के उद्देश्य से उन्होंने सन् १९३० में 'केंद्रीय किसान संघ' की स्थापना की थी।
सन् १९३१ में उत्तर प्रदेश में लगान के संबंध में किसानों को छूट दी गई थीं, किंतु फिर भी उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी न थी कि वे लगान चुकता कर सकें। अत: उत्तर प्रदेशीय (तब संयुक्त प्रांतीय) कांग्रेस कमेटी ने निश्चय किया कि किसानों के लगान देने के प्रश्न पर कांग्रेस वर्किग कमेटी को भी समझाया जाए और इस कार्य के लिए श्री तसद्दुक अहमद खाँ शेरवानी एवं राजर्षि टंडन को नियुक्त किया गया। राजर्षि टंडन ने कांग्रेस वर्किग कमेटी के सामने किसानों के पक्ष पर जोरदार समर्थन किया। इसके कुछ दिन बाद ही टंडन जी गिरफ्तार कर लिए गए।
१९३२ के सत्याग्रह में टंडन जी ने पुन: भाग लिया। जेल से मुक्त होने पर उन्होंने अस्पृश्यता निवारण और हरिजनोत्थान के कार्यों में अपने को लगा दिया।
सन् १९३६-३७ में जब स्वायत्तशासन की प्राप्ति के पश्चात् प्रदेशों में जनप्रिय सरकारें बनीं, टंडन जी उत्तरप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष निर्वाचित किए गए। सन् १९३९ में जब कांग्रेस मंत्रिमंडल ने त्यागपत्र दे दिया, तब टंडन जी भी विधानसभा की अध्यक्षता से अलग हो गए। १९४० में उन्हें फिर एक वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। सन् १९४१ में वे जेल से छूटे ही थे कि गांधी जी ने 'भारत छोड़ो' आंदोलन की घोषणा कर दी। टंडन जी यद्यपि इन दिनों कुछ अस्वस्थ थे, फिर भी वह इस स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े। ८ अगस्त, १९४२ को उन्हें नजरबंद कर लिया गया और दो वर्ष बाद १९४४ में रिहा किया गया।
सन् १९४६ में टंडन जी फिर उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष बनाए गए। सन् १९४८ में उन्होंने उत्तर प्रदेशीय कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार सँभाला और १९५० में वह अखिल भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए। इसी समय कांग्रेस में नीतिनिर्धारण के प्रश्न पर पं. जवाहरलाल नेहरू से उनका मतभेद हो गया। अंततोगत्वा श्री टंडन जी ने देशहित की दृष्टि से कांग्रेस अध्यक्षपद का परित्याग कर दिया।
टंडन जी विचारस्वातंत्रय के बड़े हिमायती थे। दूसरे के विचारों से मतसाम्य न होने पर किसी कटुता और दुर्भाव के बिना अपने विचारों पर अडिग बने रहना उनका स्वभाव था। पं. नेहरू और उनके बीच हुए इस मतभेद के पूर्व भी अनेक ऐसे अवसर पाए जहाँ टंडन जो अकेले रहने पर भी अपने विचारों से तिलमात्र भी नही डिगे। भाषा के विषय में गांधी जी से उनका मतभेद हुआ और हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए जब राजेंद्र बाबू खड़े हुए तो उन्होंने श्री अमरनाथ झा को खड़ा कर राजेंद्र बाबू को हराया दिया। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने १४ जून, १९४७ को जब देश के विभाजन का निर्माण लिया तो मात्र टंउन जी ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने किसी के मतामत की जरा भी परवाह किए बिना भारतविभाजन का विरोध किया था।
सन् १९५२ में वे लोकसभा के सदस्य चुने गए और सन् १९५७ में राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। वे प्राय: अस्वस्थ्य रहने लगे और स्वास्थ्य की अनुकूलता न होने के कारण दिल्ली से प्रयाग वापस आ गए। कुछ समय बाद उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।
श्री पुरुषोत्तमदास टंडन के व्यक्तित्व में लोकमान्य तिलक के आदर्श, गांधी जी का नेतृत्व और महामना मदनमोहन मालवीय के सिद्धांत मूर्तिमान हुए थे। उनके सार्वजनिक जीवन के सूत्र भी ये ही थे।
अपने सार्वजनिक जीवन के ३४-३५ वर्षों में जहाँ एक ओर भारतीय स्वाधीनता के नवजागरण काल में महात्मा गांधी के अन्यतम अनुयायी के रूप में उन्होंने अपनी सेवाएँ दीं वहाँ राष्ट्र के नवनिर्माण-काल में देश की पुरातन संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए अपना शेष जीवन अर्पित कर दिया।
टंडन जी देश की स्वाधीनता, स्वावलंबल और उसके स्वत्वों को सुलभ कराने के लिए, राष्ट्र की भावनात्मक, सांस्कृतिक और राजनैतिक एकता बनाए रखने के लिए एक भाषा और एक लिपि राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि के रूप में स्वीकार कराने के पक्षपाती थे। उनके मत से हिंदी ही यह भाषा थी और देवनागरी लिपि राष्ट्रलिपि।
राजर्षि टंडन का समग्र जीवन त्याग और तपश्चर्या का जीवन रहा है, देश की स्वाधीनता के लिए उन्होंने त्याग किए और राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए कठोर तपश्चर्या। राजर्षि टंडन के लिए देश की स्वाधीनता एक साधन थी और उसकी समृद्धि का सूत्र और साध्य तो था हिंदी ही। यही वजह हुई कि उन्होंने राजनैतिक उपलब्ध्योिं की अपेक्षा सदा ऊँचे आदर्शों के लिए काम किया। उनके द्वारा संस्थापित हिंदी साहित्य सम्मेलन उनके इसी आदर्श का एक प्राणवंत प्रमाण है। सम्मेलन की स्थापना और उसके बाद संसद् में उनके हिंदी संबंधी विचार और कार्य देख अनायास यह भान हो जाता है कि संसद् में वे हिंदी के हित के लिए ही गए थे।
टंडन जी देश के अग्रगण्य नेताओं में एक थे। उन्होंने तपश्चर्या द्वारा अपने व्यक्तित्व और विचारों में किस उदात्त चरित्र का सृजन किया था उसके कारण उनकी यह ख्याति थी। वे भारतीय संतपरंपरा के प्रतिनिधि थे और इन्हीं अर्थों में राजर्षि के संबोधन से जाने जाते थे। महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा, साध्य और साधन की पवित्रतावाले आदर्श को गांधी जी के निकटतम जिन अनुयायियों ने अपने आचरण में उतारा था उनमें सर्वप्रधान आचार्य विनोबा भावे, देशरत्न डा. राजेंद्रप्रसाद और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, ये तीन ही व्यक्ति थे।
राजर्षि टंडन को भारतरत्न की उपाधि से विभूषित करने तथा उनका अभिनंदन करने भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्रप्रसाद जी स्वयं प्रयाग गए थे। १ जुलाई, सन् १९६२ को टंडन जी का निधन हो गया।
(गोविंददास )