पुरुष पुरुषसूक्त के अनुसार पुरुष के अतिरिक्त किसी अन्य सत्ता का अभाव है। यही पुरुष सांख्यदर्शन में आस्था का समानार्थक बना। प्रकृति (दे.) भोग्य है, जड़ प्रकृति को अधिष्ठान की आवश्यकता है, जड़ संघात दूसरों के लिए होता है, गुणों के विपर्यय से एक पृथक् सत्ता की आवश्यकता है और प्राणी में दु:ख से मुक्त होने की प्रवृत्ति देखी जाती है, इन कारणों से भिन्न भोक्ता अधिष्ठाता तथा ज्ञाता पुरुष की आवश्यकता है। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है अत: पुरुष 'निस्त्रैगुण्य' और निष्क्रिय है। चेतना इसका स्वरूप है, धर्म नहीं। जड़ प्रकृति के साथ इसका संबंध नहीं हो सकता। केवल पुरुष की संनिधि से प्रकृति में क्रिया होती है और इस क्रिया को पुरुष भ्रम से अपनी क्रिया मानकर संसार के त्रिविध दु:ख में फँस जाता है। वास्तव में पुरुष के बंध और मोक्ष नहीं होते। यही उसकी कैवल्य अवस्था है जो अपने शुद्ध के बारे में भ्रम का नाश होने से प्राप्त जन्म, मृत्य, इद्रियव्यापार, पृथक् प्रवृत्ति, गुणविपर्यय के भेद से नाना पुरुष माने गए है। सेश्वर सांया के अनुसार इन महपुरुषों से परे एक 'पुरुषोत्तम' तत्व की कल्पना है जो ईश्वर का समानार्थी है। योग में क्लेश, कर्मविपाक तथा आशय से अछूता पुरुषविशेष ईश्वर माना गया है।
व्याकरण में क्रिया के कर्ता के अनुसार प्रथम, मध्यम और उत्तम पुरुष माने गए हैं। नर प्राणी तथा पीढ़ी को भी पुरुष कहते हैं।
(रामचंद्र पांडेय)