पुरुगुप्त गुप्त सम्राट् कुमारगुप्त प्रथम तथा अनंतदेवी का पुत्र था। भितरी की राजमुद्रा में उसे 'महाराजाधिराज कुमारगुप्तस्य पुत्र: तत्पादानुध्यात् महादेव्यां अनन्तदेव्यां उत्पन्नो महाराजाधिराज श्री पुरुगुप्तस्य.....कहा गया है। इस प्रकार यह स्कंदगुप्त का सौतेला भाई था। स्कंदगुप्त के बाद ही संभवत: गद्दी पर बैठा होगा। स्कंदगुप्त की मृत्यु ल. ४६७ ई. में हुई। भतरी की राजमुद्रा की तिथि गुप्त संवत् १५४ = ४७३ ई. है। इसी के बीच अल्पकाल में उसने संभवत: राज्य किया होगा। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वह पिता की मृत्यु के पश्चात् किसी प्रांत का शासक था। किंतु स्कंदगुप्त की मुद्राओं के प्राप्तिस्थान से यह नहीं प्रतीत होता। भितरी की राजमुद्रा में स्कंदगुप्त के नाम की अनुपस्थिति से यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता। प्राचीन भारतीय इतिहास में ऐसे अभिलेखों की कमी नहीं है जिसमें पूर्ववर्ती शासक भाई क नाम नहीं प्राप्त होता। बादामी के चालुक्य पुलकेशी द्वितीय का नाम उसके भाई विष्णुवर्धन के नाम में नहीं मिलता। बंगाल के पालवंशीय मनहली के अभिलेख में पाल नरेश मदनपाल के श्रीरामपालदेव पादानुध्यातो का उल्लेख मिलता है किंतु इसके पूर्व मदनपाल के जेठे भाई कुमारपाल ने शासन किया। अत: भितरी की राजमुद्रा में पुरुगुप्त के लिए 'तत्पादानुध्यात' शब्द से यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि उसने कुमारगुप्त के बाद शासन किया। परमार्थ द्वारा रचित वसुबंधु के जीवनवृत्त से पता चलता है कि पुरुगुप्त बौद्धधर्म का अनुयायी था। उसे वसुबंधु ने बौद्धधर्म में दीक्षित किया था। भितरी की राजमुद्रा में भी गुप्तों की सामान्य उपाधि 'परमभागवत्' से विभूषित नहीं किया गया है।
सं.ग्रं. - फ्लीट : 'इस्क्रिप्शन्स, इंडिकेरस, खंड ३; राखालदास बनर्जी : दि एज ऑव दि 'इंपीरियल गुप्ताज़'; अल्तेकर और मजूमदार : दि गुप्त वाकाटक एज; बो. सालातुर : 'लाइफ इन दि गुप्त एज; घोष : भारत का प्राचीन इतिहास' (इंडियन प्रेस लि., प्रयाग; हिंदी संस्करण)।(चंद्रभान पांडेय)