पुराण (जैन) चौथे अंग समवायोगसूत्र (समवाय ५४) में ५४ महापुरुष बताए गए हैं- २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव तथा ९ बलदेव। इनमें ९ प्रतिवासुदेव मिलाकर ६३ शलाकापुरुष होते हैं (अभिधानचिंतामणि, श्लोक ७००)। जैनशास्त्रों की मान्यता है कि ये ६३ शलाकापुरुष प्रत्येक चक्र में होते ही रहते हैं। जैनशास्त्रों में अतीत की चौबीसी, वर्तमान चौबीसी और भावी चौबीसी के नाम मिलते हैं। उनकी मान्यता है कि अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के जीवन के समान ही, अगली चौबीसी के प्रथम तीर्थकर पद्मनाभ का जीवन होगा अर्थात् दोनों के घटनाक्रम समान होंगे (देखिए ठाणांग सूत्र, ठाणा ९)। इसी क्रम से भावी अंतिम २४वें तीर्थंकर का जीवनक्रम वर्तमान चौबसी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समान होगा।
जैन-पुराण कथा इन्हीं ६३ शलाकापुरुषों अथवा ५४ महापुरुषों का जीवनचरित् है।
वर्तमान चौबीसी के नाम
तीर्थंकर- १. ऋषभ, २. अजित, ३. संभव, ४. अभिनंदन, ५. सुमति, ६. पद्मप्रभ, ७. सुपार्श्व, ८. चंद्रप्रभ, ९. सुविधि, १०. शीतल, ११. श्रेयांस, १२. वासुपूज्य, १३. विमल, १४. अनंत, १५. धर्म, १६. शाति, १७. कुंथु, १८. अर, १९. मल्लि (श्वेतांबर इन्हें स्त्री बताते हैं तथा दिगंबर स्त्रीमोक्ष नहीं मानते और पुरुष कहते हैं), २०. स्व्रुात, २१. नमि, २२. नेमि (कृष्ण के चचेरे भाई), २३. पार्श्व, २४. महावीर।
चक्रवर्ती- १. भरत, २. सगर, ३. मधवा, ४. सनत्कुमार, ५. शांति, ६. कुंथु, ७. अर, ८. सुभूम, ९. पद्म, १०. हरिषेण, ११. जय, १२. ब्रह्मदत्त (अभिघानचिंतामणि, श्लोक ६९२-६९४)।
वासुदेव- १. त्रिपृष्ठ, २. द्विपृष्ठ, ३. स्वयंभू, ४. पुरुषोत्तम, ५. पुरुषसिंह, ६. पुंडरीक, ७. दत्त, ८. लक्ष्मण ९. कृष्ण (अभि. चिं. ६९५-६९७)।
बलदेव- १. अचल, २. विजय, ३. भद्र, ४. सुप्रभ, ५. सुदर्शन, ६. आनंद, ६. नंदन, ८. पद्म (दशरथपुत्र राम), ९. राम (बलराम) (अभि. चिं. ६९८)
प्रतिवासुदेव- १. अश्वग्रीव, २. तारक, ३. मेरक, ४. मधु, ५. निशुंभ, ६. बलि, ७. प्रह्लाद, ८. लंकेश- रावण, ९. मगधेश्वर जरासंध (अभि. चिं. ६९९)
इनका क्रम इस प्रकार है :
१३. १८वें तीर्थंकर अरनाथ और १९वें मल्लिनाथ के बीच में पहले छठे वासुदेव पुरुष पुंडरीक, छठे बलदेव आनंद और छठे प्रतिवासुदेव बलि हुए। इसी बच के काल में इनके बाद ८वें चक्रवर्ती सुभूम हुए उनके बाद ७वें वासुदेव दत्त, ७वें बलदेव नंदन और ७वें प्रतिवासुदेव प्रह्लाद हुए
१४. २०वें तीर्थंकर मुनि सुब्रत और २१वें तीर्थंकर नमिनाथ के बीच में पहले ९वें चक्रवर्ती महापद्म हुए, फिर उनके बाद ८वें वासुदेव लक्ष्मण, ८वें बलदेव राम तथा ८वें प्रतिवासुदेव रावण हुए।
१५. २१वें तीर्थंकर नमिनाथ और २२वें तीर्थकर नेमिनाथ के बीच के काल में पहले १०वें चक्रवर्ती हरिषेण और उनके बाद ११वें चक्रवर्ती जय हुए।
१६. २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के समय में ९वें वासुदेव कृष्ण, ९वें बलदेव बलभद्र और ९वें प्रतिवासुदेव जरासंध हुए।
१७. २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ और २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के बीच के काल में १२वें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त हुए।
(देखिए काललोकप्रकाश, भावनगर, पृष्ठ ५४२-५४३)
इसी तरह भावी चौबीसी में २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव, ९ बलदेव तथा ९ प्रतिवासुदेव हैं जिनके नाम अभि. चिंता., लोकप्रकाश आदि में देखे जा सकते हैं।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव
वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे। जैनपुराणों की मान्यता है कि पहले युगलिये होते थे और स्त्रीपुरुष साथ जन्म लेते थे। वे ही कालांतर में स्वभावतया पतिपत्नी सदृश रहते थे। वे कोई काम नहीं करते थे। सभी आवश्यक वस्तुएँ उन्हें कल्पवृक्ष दे देते थे। जैनसाहित्य में कल्पवृक्ष १० बताए गए हैं। (देखिए जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति)।
जब सुषमा दुषमा आरे का शेष रहता है (जैनशास्त्र काल को ६ आरों में विभाजित करते हैं) तब कुल की स्थापना करनेवाले कुलकर जन्म लेते हैं। वे विशिष्ट बुद्धिवाले तथा लोकव्यवस्था करनेवाले होते हैं। उनकी संख्या कहीं ७, कहीं १४ और कहीं १५ बताई गई है (७ की गणना के लिए दे. ठाणंना सूत्र सटीक, सूत्र ५५९, आवश्यक चूर्णिपत्र १२९)। (१५ की गणना के लिए दे. जंबद्वीप प्रज्ञप्ति, पत्र १३२-२)। पउमचरिय उद्देशा ३, श्लोक ५०-५५ में १४ कुलकर गिनाए गए हैं। उसमें ऋषभदेव की गणना कुलकरों में नहीं है। दिगंबर ग्रंथों में भी २४ कुलकर बताए गए हैं। इन्हें दिगंबरशास्त्र १४ मनु भी कहते हैं (जिनसेनाचार्य रचित महापुराण, खंड १, पृष्ठ ५१-५९)।
समाज की व्यवस्था ठीक करने के लिए कुलकर उत्तरोत्तर कठोर नीति का पालन करते हैं। विमलवाहन तथा चक्षुष्मान की हकारनीति ('ह' इत्याधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हकार:, ठाणांग सूत्र सटीक, पत्र ३९९-अ); यशस्वी तथा अभिचंद्र की मकार नीति ('मा' इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं अभिधानं माकार :- वही) और प्रसेनजित् मरुदेव तथा नाभि की धिक्कार नीति (धिगाधिक्षेपार्थएतवस्य करणं उच्चारणं धिक्कार :- वही) थी।
तीसरे आरे में जब ८४ लाख पूर्व तथा ८९ पक्ष शेष था तब शृषभदेव गर्भ में आए। चैत्र कृष्ण अष्टमी को आपका जन्म हुआ। जब ऋषभदेव की उम्र एक वर्ष से कुछ कम थी, तब सौधमेंद्र उनके सम्मुख इक्षुदंड लेकर आया। अपने पिता की गोद में बैठे ऋषभदेव ने इक्षुदंड ग्रहण करने के लिए हाथ बढ़ाया। ऋषभदेव ने इक्षु ग्रहण किया, इसलिए उनके कुल का नाम इंद्र ने 'इक्षवाकु वंश' रखा (आवश्यक चूर्णि, भाग १, पत्र १५२) और उनके पूर्वज गन्ने का रस पीते थे, इसलिए उनके गोत्र का नाम 'कश्यप' रखा (आवश्यक हारिभद्रीय टीका, पत्र १२५ ब)।
ऋषभदेव के बचपन में एक युगलिया अपने युगल बच्चों को छोड़कर क्रीड़ा कर रहा था कि ताड़ गिरने से युगल बच्चों में पुरुष बच्चों में पुरुष का देहांत हो गया। कालांतर में मातापिता का देहांत हो जाने पर वह कन्या वनदेवी सी अकेले भ्रमण करती रही। अन्य युगलिए उसे नाभि के पात ले आए। नाभि ने उसे अपने घर रख लिया और कहा कि यह ऋषभ की पत्नी होगी। इस कन्या का नाम उन्होंने सुनंदा रखा (आवश्यक चूर्णि, पत्र १५२-५३)। बाद में ऋषभ के साथ जन्मी सुमंगला और सुनंदा का ऋषभदेव से विवाह हुआ। यही विवाहव्यवस्था का प्रारंभ था (त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्, पर्व १, सर्ग २, श्लोक ८८१)।
फिर ऋषभदेव का राज्याभिषेक हुआ। इंद्र ने उन्हें सुंदर वस्त्राभूषणों से सज्जा दिया। उनके सुंदर वस्त्रों को देखकर युगालियों ने उनके चरण पर जल डालकर उनका अभिषेक किया। युगालियों का विसच देखकर इंद्र ने उसकी राजधानी का नाम विनीता रखा। (जैन लोग विनीता की पहचान वर्तमान अयोध्या से करते हैं) तथा देश का नाम इक्खागभूमि (आवश्यक हारिभद्रय वृत्ति पत्र १२० व; मलयगिरीय वृत्ति, पत्र १६३-अ) और विनीतभूमि (आवश्यक मलयगिरीय वृत्ति, पत्र १५७ ब) रखा।
इन ऋषभदेव ने ही पकाकर भोजन करना बताया तथा कुंभकार की, लुहार की, नापित की कलाएँ सिखाई और १०० शिल्प बताए (कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सूत्र)। इन्हें ब्राह्मी तथा सुंदरी नामक दो पुत्रियाँ और १०० पुत्र हुए, जिनमें ज्येष्ठतम भरत थे, जिन्हें जैन लोग प्रथम चक्रवर्ती मानते हैं। द्वितीय पुत्र बाहुबलि थे (पुत्रों के नाम के लिए देखिए कल्पसूत्र की टीकाएँ। कहा जाता है, कालांतर में इन्हीं के नाम पर विभिन्न जलपदों के नाम पड़े)। ऋषभदेव ने ब्राह्मी को १८ लिपियाँ (लिपियों के नाम के लिए देखिए समवायोग सूत्र समवाय १८, प्रज्ञापना सूत्र आदि) तथा सुंदरी को गणित सिखाया। उन्होंने की ७२ कलाएँ (कलाओं की सूची के लिए देखिए समवयोग सूत्र, समवाय ७२; नायावम्मकह, वैद्य संपादित पृष्ठ २१; रायपसेणी सटीक पत्र ३४०; ओवाहय सूत्र सटीक सूत्र ४०; कल्पसूत्र संदेह विषोषधि टीका, पत्र १२२; सुबोधिका टीक, पत्र ४४५; जंबूद्वीप, प्रज्ञप्ति दक्षस्करसूत्र ३० आदि) तथा स्त्रियोचित ६४ गुण (सूची के लिए देखिए जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सटीक, पत्र १३९-ब कल्पना; सूत्र की टीकाएँ- विशेषकर संदेह विषोषधि) सिखाए। उन्होंने की असि, मसि और कृषि सिखाई।
कालांतर में शासन भरत को सौंपकर तथा अन्य पुत्रों को भी राज्य का भाग देकर ऋषभदेव ने दीक्षा ले ली। उस समय लोग भिक्षा जानते नहीं थे। साल भर बार उन्हें हस्तिनापुर में श्रेयांसकुमार ने ईख का रस दिया। यही उनकी प्रथम भिक्षा थी। यही भिक्षा प्रथा का प्रारंभ था। तब से ही अक्षय तृतीया पर्व प्रारंभ हुआ। अयोध्या के उपनगर पुरिमताल में उन्हें केवलज्ञान हुआ। भरत चक्री मरुदेवा (ऋषभदेव की माता) के साथ हाथी पर दर्शन करने आ रहे थे। रास्ते में मरुदेवा का निर्वाण हो गया। इस अवसर्पिणी में प्रथम मोक्ष पद प्राप्त करनेवाला उनका जीव प्रथम था (लोकप्रकाश, सर्ग ३२, श्लोक १७६)। ऋषभदेव ने अष्टापद पर्वत पर (कैलास पर) मोक्ष प्राप्त किया।
जैन-पुराण-साहित्य में तीर्थकर के ५ कल्याणक माने जाते हैं। (१) च्यवन, (२) जन्म, (३) दीक्षा, (४) केवलज्ञान (५) निर्वाण (श्वेतांबर लोग अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का गर्भपरिवर्तन मानते हैं अत: श्वेतांबरों में कुछ लोग महावीर स्वामी के ६ कल्याणक मानते हैं। पर दिगंबरों में गर्भपरिवर्तन की कथा नहीं आती। हेमचंद्राचार्य ने त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित् में तो गर्भपरिवर्तन की बात ली पर योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति में उन्हें च्यवन करके सीधे त्रिशला के गर्भ में आने की बात कही हैं)।
इन कल्याणकों के संबंध में जैन शास्त्रों की निश्चित मान्यताएँ हैं। जिस समय तीर्थंकर का जीव च्यवन कर माता के गर्भ में आता है, तीर्थकरमाता १४ स्वप्न देखती है - सिंह, हाथी आदि। स्वप्नों के क्रम के संबंध में कहीं कहीं मतभेद मिलता है। दिगंबरों की मान्यता १६ स्वप्नों की है। (महापुराण, भाग १, वर्च १२, श्लोक १०४-११९)।
स्वप्नों के प्रकरण में यह भी ज्ञातव्य है कि चक्रवर्ती की माता भी १४ स्वप्न देखती है; पर वह तीर्थंकर के च्यवन सा स्पष्ट नहीं होता (लोकप्रकाश, सर्ग ३०, श्लोक ५६); वासुदेव की माता सात स्वप्न देखती हैं त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्, पर्व ४, सर्ग १, श्लोक २१७ लोकप्रकाश, सर्ग ३०, श्लोक ५९); बलदेव की माता ४ स्वप्न देखती हैं (लोकप्रकाश, सर्ग ३०, श्लोक ५९); तथा प्रतिवासुदेव की माता तीन स्वप्न देखती हैं (लोकप्रकाश, सर्ग ३०)। स्वप्नों के विवरण के लिए देखिए भगवती सूत्र संबर शतक १६, उद्देशा ६, पत्र १३०४-१३०५।
तीर्थकर के जन्म के समय ५६ दिक्कुमारियाँ (नाम के लिए देखिए कल्पसूत्र सुबोधिका टीका) उनका सूतिकाकर्म करती हैं और इंद्र माता को अवस्वापिनी निद्रा देकर तथा तीर्थकर की एक प्रतिकृति उनकी माता की बगल में रखकर मेरु पर्वत पर ले जाते हैं तथा वहाँ समस्त इंद्र (जैन ग्रंथों में ७४ इंद्र बताए गए हैं) उनका अभिषेक करते हैं।
दीक्षा लेने का समय जब एक वर्ष रह जाता है तो तीर्थंकर वार्षिक दान देते हैं (देखिए 'उपदेशप्रासाद')।
दीक्षा के लिए तीर्थंकर शिविका पर बैठकर बड़े धूमधाम से जाते हैं। दीक्षा के समय तीर्थंकर को गुरु नहीं होता। वह स्वयं पंचमुष्टि लोचकर के व्रत लेते हैं। जन्म के समय से तीर्थंकर को तीन ज्ञान होते हैं। दीक्षा लेते ही उन्हें चौथा ज्ञान मन:पर्यव उत्पन्न हो जाता है। शक्र उनके लोच किए बाल को क्षीरसागर में बहा देते हैं (यहाँ ज्ञातव्य है कि सब तीर्थकर पाँच मुष्टि लोच करते हैं; पर ऋषभदेव ने चार ही मुष्टि लोच किया। इंद्र की प्रार्थना पर उन्होंने पंचम मुष्टि लोच नहीं किया)।
केवलज्ञान चौथा कल्याणक है। जिस वृक्ष के नीचे तीर्थकर को केवलज्ञान होता है, उसे तीर्थंकर का चैत्यवृक्ष कहते हैं (विभिन्न तीर्थंकरों के चैत्यवृक्ष के लिए देखिए लोकप्रकाश, सर्ग ३० श्लोक ६०७-९०७)। फिर देवता लोग समवसरण की रचना करते हैं (लोकप्रकाश, सर्ग ३०, श्लोक ५३०-६२६)। तीर्थंकर वहाँ देशना देते हैं। प्रथम समवसरण में ही तीर्थंकर वहाँ गणधरों को दीक्षा देते हैं (महावीर स्वामी अपने प्रथम समवसरण योग्य जीवों के अभाव में गणधरों को दीक्षा न दे सके। इसे एक आश्चर्य माना गया है- दस आश्चर्यों के लिए देखिए ठाणांगसूत्र, सूत्र ७७७) तथा तीर्थ की स्थापना करते हैं। उसी समय तीर्थंकर त्रिपदी (उप्पन्नेइ वा, विगएइ वा धुवेइ वा) का उपदेश करते हैं और गणधरनामकर्म के उदय से पणधर लाग द्वादशांगी की रचना करते हैं। जितनी द्वादशांगियाँ समान होती हैं उतने गण माने जाते हैं (महावीर स्वामी के ११ गणधर थे पर गण ९ थे क्योंकि २ द्वादशांगियाँ परस्पर मिलती थीं)। फिर इंद्र की थाल से वासक्षेप लेकर तीर्थंकर अनुक्रम से गणधरों पर वासक्षेप डालते हैं। प्रथम पौरुषी समाप्त होने पर तीर्थंकर देशना बंद करते हैं। उसी समय राजा का सेवक पुरुष बलि (तंदुलाणं सिद्धंआवश्यक चूर्णि, भाग १, पत्र ३३३) लेकर आता है। वह आकाश में फेंकी जाती है। आधा भाग देवता ले लेते हैं। शेष का आधा राजा लेता है और शेष चौथाई को लोग बाँट लेते हैं। तीर्थंकर के बाद उनका ज्येष्ठ गणधर पादपीठ पर बैठकर देशना देता है।
तीर्थंकर का अंतिम कल्याणक निर्वाण है। इंद्र लोग उनकी शिविका उठाते हैं। अग्निकुमारेंद्र चिता में आग लगाते हैं तथा वायुमुमारेंद्र उसे प्रज्वलित करते हैं। शक्र तथा ईशानेंद्र ऊपर की दाहिनी तथा बाईं दाढ़ लेते हैं और चमरेंद्र तथा बलींद्र नीचे की दाहिनी तथा बाई दाढ़ लेते हैं। बाद में वहाँ स्तूप बनाया जाता है।
सभी तीर्थंकरों के भिन्न लांछन होते हैं (अभिधानचिंतामणि, श्लोक ४७-४८) तथा हर एक के पृथक्-पृथक् यक्षयक्षिणी होते हैं। तीर्थंकर ३४ अतिशय होते हैं (वही, श्लोक ५७-६४) तथा वह १८ दोषों से मुक्त होते हैं (वही, श्लोक ६५-७१, लोकप्रकाश सर्ग ३०, श्लोक ६८२-६८८)।
जीव तीर्थकर-नामकर्म २० स्थानकों की उपासना से उपार्जित करता है (लोकप्रकाश, सर्ग ३०, श्लोक १-१८); तथा वह तीसरे भव में भोग में आ जाता है। तीर्थकर के पूर्वभव की गणना सम्यक्त्यप्राप्ति से होती है। २४ तीर्थंकरों में केवल २ हरिवंश के थे, शेष २२ इक्ष्वाकु वंश के (कल्पसूत्र)।
चक्रवर्ती
चक्रवर्ती के ३६ गुण कहे गए हैं (लोकप्रकाश, सर्ग ३१, श्लोक २३-२८)। चक्रवर्ती १४ रत्नों का धारण करनेवाला होता है- ७ एकेंद्रिय तथा ७ पंचेंद्रिय : चक्रवर्ती के दिग्विजय का भी बड़ा विस्तृत वर्णन जैन शास्त्रों में मिलता है। (लोकप्रकाश सर्ग ३१, श्लोक ४०-२६७)। दिग्विजय के पश्चात् १६ सहस्र देव तथा १६ सहस्र राजा उसका अभिषेक करते हैं (वही, सर्ग ५१, श्लोक २६८-२७८)। चक्रवर्तियों को ९ निधियाँ होती हैं। (लोकप्रकाश सर्ग ३१, श्लोक ५०३-५३३)।
वासुदेव
जैनों की मान्यता है कि वासुदेव वैमानिकों में से आते हैं और गृद्धता के कारण तथा प्रतिवासुदेव का वध करने से नरक जाते हैं (हिंदू ग्रंथों में राम को वासुदेव और लक्ष्मण को बलदेव माना गया है, पर जैनग्रंथों में लक्ष्मण को वासुदेव माना गया है और वे ही रावण का वध करते हैं)। वासुदेव को जैन ग्रंथों में अर्धचक्री कहा गया है। यह तीन खंड जीतता है। इसका रंग श्याम होता है। वासुदेव को ७ रत्न होते हैं : १. पांचजन्य शंख, २. सुदर्शन चक्र ३. कौमोदिकी गदा, ४. शाङ्र्ग धनुष ५. नंदक खंग, ६. कौस्तुभ मणि और ७ वनमाला। (लोकप्रकाश, सर्ग ३१, श्लोक ५५९-५८४)। वासुदेव को १६००० स्त्रियाँ होती हैं (वही, सर्ग ३१, श्लोक ५९१)।
बलदेव
जैन शास्त्रों के अनुसार बलदेव तथा वासुदेव दो माता के पुत्र होते हैं पर उनमें स्नेह बहुत होता है। बलदेव उम्र में बड़ा होता है और वासुदेव छोटा। बलदेव गौर वर्ण का होता है। उसे ३ रत्न होते हैं - १. धनुष जिसे दूसरा चढ़ा न से, २. हल, ३. मूसल। बलदेव के बल के संबंध में कहा गया है कि १६००० राजा यदि अपनी सेना सहित बलदेव को सीकड़ में बाँधकर खींचना चाहें तो भी उसे हिला नहीं सकते (लोकप्रकाश, सर्ग ३१, श्लोक ५८४-६०४)।
प्रतिवासुदेव
इसका पराक्रम भी वासुदेव के समान समझना चाहिए। पर उसके जीवन के अंतिम दिनों में वासुदेव उसे पराजित करते हैं (लोकप्रकाश, सर्ग ३१, श्लोक ६१०-६१२)।
यह है संक्षेप में जैन पुराण (जैन भाइथालाजी) का सार जो प्रत्येक कथा में संबद्ध मिलेगा।
श्वेतांबरों में ५४ महापुरुषों का चित्रण 'चउपन महापुरिस चरिय' नाम से और ६३ शलापुरुषों का चरित्र कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य लिखित 'त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्' नाम से है। इनके अतिरिक्त फुटकर तीर्थंकरों के चरित्र, पद्मचरित्र (रामकथा) पांडव चरित्र, वसुदेव हिंडी आदि ग्रंथ हैं, जिनमें किसी विशिष्ट महापुरुष का चरित्र वर्णित है (विशेष जानकारी के लिए देखिए 'जैन ग्रंथावली', श्वेतांबर कांफरेस, बंबई तथा मोहनलाल दुलीचंद लिखित जैन साहित्य नो इतिहास)।
पुराण नाम से दिगंबरों के कतिपय ग्रंथ हैं। हम उनकी तालिका यहाँ दे रहे हैं :
ग्रंथ लेखक काल
|
ग्रंथ |
लेखक |
काल |
१. |
पद्मपुराण |
रविषेण |
७०५ |
२. |
महापुराण |
जिनसेन |
९ वीं शताब्दी |
३. |
उत्तरपुराण |
गुणभद्र |
१०'' '' |
४. |
अजितपुराण |
अरुणमणि |
१७१६ वि. |
५. |
आदिपुराण (कन्नड़) |
कवि पंप |
|
६. |
'' '' |
भट्टारक चंद्रकीर्ति |
१७वीं शताब्दी |
७. |
'' '' |
सकलकीर्ति |
१५वींश् '' |
८. |
उत्तरपुराण |
श्श् '' |
|
९. |
कर्णामत पुराण |
केशवसेन |
१६८८ वि. |
१०. |
जयकुमारपुराण |
ब्र. कामराज |
१५५५ |
११. |
चंद्रप्रभपुराण |
कवि अगासदेव |
|
१२. |
चामुंडपुराण |
चासुंडराय |
शक सं. ६८० |
१३. |
धर्मनाथ पुराण |
कवि बाहुबली |
|
१४. |
नेमिनाथपुराण |
ब्र. नेमिदत्त |
१५७५ वि. |
१५. |
पद्मनाभ पुराण |
भ. शुभचंद्र |
१७वीं शताब्दी |
१६. |
पउमचरिय (अपभ्रंश) |
चतुर्मुखदेव |
� |
१७. |
'' '' |
स्वयंभूदेव |
� |
१८. |
पद्मपुराण |
सोमसेन |
� |
१९. |
'' |
धर्मनीति |
१६५६ वि. |
२०. |
'' (अपभ्रंश) |
रइधू |
१५-१६ शताब्दी |
२१. |
''श्श् '' |
चंद्रकीर्ति |
१७ वींश्श् '' |
२२. |
'' |
्ब्राह्मजिनदास |
१५-१६श्श् '' |
२३. |
पांडवपुराण |
शुभचंद्र |
१६०८ '' |
२४. |
''श् (अपभ्रंश) |
यशकीर्ति |
१४९७ '' |
२५. |
'' '' |
भ. श्रीभूषण |
१६५७ '' |
२६. |
'' '' |
यादिचंद |
१६५८ '' |
२७. |
पार्श्वपुराण (अपभ्रंश) |
पद्मकीर्ति |
९९९ |
२८. |
'' '' |
रइधू |
१५वीं-१६ वीं |
२९. |
'' '' |
चंद्रकीर्ति |
१६५४ वि. |
३०. |
'' '' |
वादिचंद्र |
१६५८ वि. |
३१. |
महापुराण |
पाठ मल्लिपेण |
११०४ वि. |
३२. |
'' |
पुष्पदंत |
� |
३३. |
मल्लिनाथपुराण (कन्नड़) |
कविचंद |
� |
३४. |
पुराणसार |
श्रीचंद्र |
� |
३५. |
महावीरपुराण |
कवि असग |
९१० |
३६. |
'' '' |
सकलकीर्ति |
१५ वी श. |
३७. |
मल्लिपुराण |
'' |
� |
३८. |
मुनिसुब्रत पुराण |
ब्र. कृष्णदास |
� |
३९. |
'' |
भ. सुरेंद्रकीर्ति |
� |
४०. |
वागर्थ-संग्रह-पुराण |
कवि परिमेष्ठि |
� |
४१. |
शांतिनाथ |
असग |
१० वीं शताब्दी |
४२. |
'' |
भ. श्रीभूषण |
१६५९ |
४३. |
श्रीपुराण |
भ. गुण भद्र |
|
४४. |
हरिवंशपुराण |
पुन्नाट संघीय जिनसेन ७०५ शक सं. |
|
४५. |
'' (अपभ्रंश) |
स्वयंभूदेव |
� |
४६. |
''श् '' |
चतुर्मुख देव |
� |
४७. |
'' |
ब्र. जिनदास |
१५-१६वीं शताब्दी |
४८. |
''श् (अपभ्रंश) |
यश:कीर्ति |
१५०७ '' |
४९. |
''श्श् '' |
श्रुतकीर्ति |
१५५२ |
५०. |
''श्श् '' |
कवि रइधू |
१५-१६ शताब्दि |
५१. |
''श्श् '' |
भं. धर्मकीर्ति |
१६७१ |
५२. |
''श्श् '' |
कवि रामचंद्र |
२५६० से पूर्व |
�
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