पुराण 'पुराण' शब्द का अर्थ है प्राचीन अथवा पुरानी कथाओं तथा आख्यायिकाओं का संग्रह। ये कथाएँ परम प्राचीन काल से पवित्र धरोहर एवं परंपरागत संपदा के रूप में सुरक्षित है। सनातनधर्मावलंबी हिंदुओं के अतिरिक्त जैन तथा बौद्धधर्म के अनुयायियों में भी पुराणों के नाम से प्रसिद्ध अनेक बृहत्काल ग्रंथ उपलब्ध हैं। यहाँ सनातनधर्मावलंबी पुराणों की विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है।
कतिपय पुराणों में 'पुराण' शब्द की परिभाषा इस प्रकार दी गई है :
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशी मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम्।।
अर्थात् जिस ग्रंथ में सर्ग अर्थात् सृष्टि का आरंभ, प्रतिसर्ग अर्थात् पुन: सृष्टि का विकास एवं विलय, वंश अर्थात् सृष्टि के आदिम काल की वंशावली, मन्वंतर अर्थात् सभी अनुओं के आधिपत्यकाल एवं उस समय की उल्लेखनीय घटनाओं का वर्णन तथा वंशानुचरित् अर्थात् इतिहास के प्रमुख भारतीय राजवंशों में उत्पन्न होनेवाले राजाओं का वर्णन - ये संपूर्ण सामग्रियाँ उपलब्ध हों उसे पुराण कहा जाता है। पुराण शब्द की ये परिभाषा अधिकांशतया सभी पुराणों पर घटित होती है किंतु अपवादस्वरूप कुछ ऐसे भी महापुराण है, जिनमें उपर्युक्त लक्षण की सभी बातें नहीं पाई जातीं।
पुराणों की प्राचीनता के संबंध में अनेक मत हैं। कुछ पुराण बहुत पुराने हैं तो कुछ की प्राचीनता में, बहुत पीछे की सामग्रियों का समावेश होने के कारण, संदेह भी उपस्थित होता है, किंतु इतना प्राय: निर्विवाद प्रतीत होता है कि वेदों की रचना अथवा आविर्भाव के समय भी पुराण शब्द से प्रख्यात कोई न कोई सामग्री अवश्य थी जैसा कि मत्स्यपुराण के निम्नलिखित श्लोक से भी ज्ञात होता है -
पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथम ब्रह्मणा स्मृतम्।
अनन्तंर च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिमृता:।।
यही नहीं पुराण शब्द का प्रयोग अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण, छांदोग्य, बृहदारण्यक्, तैत्तिरीयान्रण्यक, आश्वलायन, गृह्यसूत्र, आपस्तंबधर्मसूत्र, मनुसंहिता, रामायण, महाभारत, प्रभृति हिंदू जाति के अनेकानेक प्राचीनतम एवं सम्मान्य ग्रंथों में पाया जाता है। इससे इतना तो स्पष्ट ही हो जाता है कि प्राचीन काल में भी पुराण नाम से प्रसिद्ध कोई सामग्री आर्य जाति के पास अवश्य थी। वह सामग्री कितनी थी, किन किन रूपों और प्रकारों में थी, इसका कोई स्पष्ट विवरण पुराणों के सिवा अन्यत्र नहीं मिलता। अत: निश्चित रूप से यह बताना बड़ा कठिन है। कि उस अति प्राचीन सामग्री में कालांतर में कितना परिवर्तन और परिवर्द्धन हुआ है और कितना अंश मौलिक है। फिर भी पुराणों के कालनिर्णय से संबंधित कुछ तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं :
कुछ विद्वानों का मत है कि श्रीमद्भागवत, वाराह तथा विष्णुपुराण १२वीं, ब्रह्मपुराण १४वीं, पद्मपुराण १५वीं तथा १६वीं एवं नारदीयपुराण १६वीं, १७वीं शताब्दी की रचनाएँ हैं। किंतु १०३१ ई. में रचित अलबेरुनी की भारत संबंधी पुस्तक में १८ महापुराणों तथा १८ उपपुराणों के जो नाम गिनाए गए हैं, उससे इस मत का खंडन अपने आप ही हो जाता है। इसके अतिरिक्त महाभारत में अठारहों महापुराणों के पढ़ने एवं सुनने की फलश्रुति से भी यह सिद्ध होता है कि महाभारत की रचना से पूर्व अठारहों महापुराणों का किसी न किसी रूप में अस्तित्व अवश्य था। श्री चिंतामणि वैद्य के मतानुसार एक लाख श्लोकों में विस्तृत महाभारत की रचना ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्व ही हो चुकी थी। अत: इतना तो कहा ही जा सकता है कि पुराणों को अत्याधुनिक मानना उचित नहीं है। देवीभागवत के निम्नलिखित उद्धरण से यह सिद्ध होता है कि समय-समय पर स्वयं व्यासों ने ही पुराणों का संपादन किया था :
अतीतास्तु तथा व्यासा: सप्तविंश्तिवे च।
पुराणसंहितास्तेस्तु कथितास्तु युगे युगे।। (देवीभा. १/३/२४)
अर्थात् कृष्णद्वैपायन व्यास ने पांडवों के राज्यकाल में पुराणों का २८वीं बार संपादन किया था। इसके पूर्व २७ बार व्यासदेव इनका संपादन कर चुके थे। इस कथन का फलितार्थ यह मानना चाहिए कि अति प्राचीन काल से ही पुराणों में पाठांतर परिवर्तन, परिवर्द्धन की परंपरा चली आ रही थी और अति आधुनिक काल तक वह निर्बाध रूप में चलती रही है। फलत: कोई विशेष नियत्रण न होने के कारण कुछ पुराणों में यत्र-तत्र प्रक्षिप्त सामग्रियों का होना असंभव नहीं है। व्यासों एवं सूतों की कृपा से ही नहीं, लिपिकारों की कृपा से भी यत्र-तत्र कुछ परिवर्तन परिवर्द्धन अवश्य किए गए होंगे। किंतु ये परिवर्तन-परिवर्द्धन भी सभी पुराणों में नहीं किए गए हैं। श्रीमद्भागवत की भाँति जो पुराण किसी विशेष संप्रदाय से संबंधित हैं उनमें इस प्रकार के प्रक्षेप या परिवर्तन की गुंजाइश बहुत कम थी।
किंतु सामंती युगों में पंडितों तथा व्यासों ने अपने-अपने आश्रयदाता राजाओं के वंशों के वर्णन में अवश्य ही नियंत्रण नहीं रखा है जिसका परिणाम स्वरूप यह हुआ है कि पुराणों की वंशावलियों में पारस्परिक मतभेद पैदा हो गए हैं और उनसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचना बड़ा कठिन हो गया है। वेंकटेश्वर प्रेस में मुद्रित भविष्य पुराण को देखकर तो यही मानना पड़ता है कि हमारे व्यासों, पंडितों तथा लिपिकारों ने इन धार्मिक ग्रंथों में कितना बड़ा गोलमाल किया है। उन्हें हुमायूँ और अकबर के वर्णन से ही संतोष नहीं हुआ, विक्टोरिया की चर्च भी उन्हें आवश्यक प्रतीत हुई। किंतु उनके इस प्रक्षेप से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि भविष्य पुराण अत्याधुनिक रचना है। उसका नाम आपस्तंब धर्मसूत्र में भी आता है, जिसका रचनाकाल डा. बुहलर के मतानुसार ३०० वर्ष ईसा पूर्व है। यही स्थिति अन्य पुराणों की भी है।
महापुराणों की संख्या १८ है। इनके क्रम के संबंध में यद्यपि मतैक्य नहीं है तथापि जो क्रम यहाँ दिया जा रहा है उसे बहुसम्मत मानना चाहिए। (१) ब्रह्म, (२) पद्म, (३) विष्णु, (४) शिव, (५) श्रीमद्भागवत (६) नारद, (७) मार्कंडेय (८) आग्नेय, (९) भविष्य, (१०) ब्रह्मवैवर्त, (११) लिंग, (१२) वाराह, (१३) स्कंद, (१४) वामन, (१५) कूर्म, (१६) मत्स्य, (१७) गरुड़ तथा (१८) ब्रह्मांड पुराण।
इनके अतिरिक्त १८ उपपुराण भी हैं। ऐसी प्रसिद्धि है कि कृष्णद्वैपायन द्वारा २८वीं बार पुराण संहिता के संपादन के अनंतर जो पुराण बने उन्हें उपपुराण की संज्ञा दी गई। (दे. 'उपपुराण')। इन अठारहों उपपुराणों में संप्रति अनेक अप्राप्य तथा खंडित हैं। इनके अतिरिक्त १८ औपपुराण या अतिपुराण भी कहे जाते हैं - (१) कार्तव, (२) ऋजु, (३) आदि, (४) मृद्गल (५) पशुपति, (६) गणेश, (७) सूर्य, (८) परमानंद, (९) बृहद्धर्म, (१०) महाभागवत, (११) देवी, (१२) कल्कि, (१३) भार्गव, (१४) वाशिष्ठ, (१५) गर्ग आदि। संप्रति इनमें से भी कुछ दुष्प्राप्य तथा खंडित हैं। ये सभी उपपुराण तथा औपपुराण यद्यपि परवर्ती काल की रचनाएँ है, तथापि इनमें से कुछ तो अतीव मार्मिक तथा मनोहारिणी शैली में रचित हैं और कितनों में ही पुरानी आख्यायिकाओं के साथ इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र तथा दर्शन की पठनीय सामग्री भी है।
जैसा बताया जा चुका है, हिंदुओं के इन पुराणों की भाँति जैनों तथा बौद्धों में भी हिंदुओं के इन्हीं पुराणों की शैली पर रचित पुराण पाए जाते हैं। इन पुराणों के संबंध में इतिहासकारों का कथन है कि ये ईसा की ६ठी तथा ७वीं शताब्दी में रचे गए हैं। जैनों के २४ तीर्थकरों के नाम पर २४ पुराणों का प्रचलन है वे 'नवधर्म' के नाम से भी ख्यात है। इनमें भी हिंदुओं के पुराणों की भाँति पुरानी आल्याविकाएँ, इतिहास, जीवनचरित् तथा व्रत आदि नियमों का वर्णन है।
पुराणों की रचना सरल संस्कृत के गेय छंदों में हुई है। यद्यपि कुछ पुराणों में कहीं कहीं गद्य की रचना भी मिलती है, किंतु वह अत्यल्प मात्रा में है। सर्वसाधारण जनता में ये अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर सकें - इसी उद्देश्य से इनमें पुनरुक्तियों की कोई चिंता न कर प्रत्येक विषय को बड़े सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इनकी कथाओं और आख्यायिकाओं का आरंभ बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से होता है और कहीं बहुत थोड़े में तथा कहीं बहुत विस्तार के साथ किसी उच्च आदर्श अथवा उद्देश्य की प्रतिष्ठा में उनकी समाप्ति करने दी जाती है। यद्यपि कथाओं में असंभव कल्पनाएँ भी हैं, तथापि कथाओं की रोचकता एवं प्रवाह का निर्वाह बड़े कौशल से किया गया है। मानव जीवन के साधारण धर्मों की प्रतिष्ठा में इन कथाओं का अपना महत्व है, क्योंकि इनमें गृहस्थ धर्म के सभी प्रकार के आदर्शों और व्यवहारों का अधिकाधिक लोकोपकारी बनाया गया है। दान, दया, परोपकार, सहानुभूति, करुणा, परदु:खकातरता, श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, ईश्वरनिष्ठा, परलोकचिंता, स्वार्थत्याग, कष्टसहिष्णुता, आत्मबलिदान, शिष्टता, अनुशासन, नीति, प्रेम आदि मानवीय सद्गुणों की प्रतिष्ठा करने में पुराणों जैसा साहित्य शायद ही अन्यत्र उपलब्ध हो। इनमें राजनीति, कूटनीति, धर्मनीति, सामान्य धर्म, तथा आपद्धर्म की गूढ़ातिगूढ़ बातों को बड़े सरल ढंग से इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि साधारण जनता के हृदय पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। साथ ही हिंदू धर्म के सामान्य आदर्शों एवं संस्कारों को सुदृढ़ करने में भी इनका अनुपम योगदान है। शिखा, सूत्र, यज्ञोपवीत, पूजापाठ, जपतप, संध्योपासन, व्रतोपवास, उत्सव, नृत्य, वाद्य, संगीत, मूर्तिपूजा, मूर्तिकला एवं धर्म के प्रति अविचल निष्ठा, तीर्थयात्रा, श्राद्ध, गोसेवा आदि के संदर्भों पर भी पुराणों में सांगोपांग वर्णन किए गए हैं।
संक्षेप में हिंदू जाति के संगठन एवं आर्य मान्यताओं के प्रतिष्ठापन में पुराणों को अनुपम सफलता मिली है। काम, क्रोध, मोह, लोभादि दुर्गुणों से दूर रहने की मार्मिक शिक्षाएँ बड़े मोहक ढंग से पुराणों की कथाओं में दी गई है। साथ ही सदाचरण, नीति एवं अध्यात्म की शिक्षाएँ भी उन कथाओं में यथाप्रसंग वर्णित हैं। पुराण पापों एवं दुष्कर्मों से बचकर सात्विक एवं पारमार्थिक जीवनयापन की प्रेरणा देनेवाली कथाओं के भी आगार हैं और उनके नायकों के रूप में सैकड़ों सहस्रों ऐसे राजर्षियों एवं ऋषियों मुनियों स उच्च जीवन का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है जो किन्हीं अन्य माध्यमों से संभव ही नहीं था। इक्ष्वाकु, निमि, ययाति, पुरुरवा, इल, पुरु, दशरथ, रामचंद्र, अंबरीष, दधीचि, अत्रि, विश्वामित्र, वशिष्ठ, भृगु, दुर्वासा, परशुराम, जमदग्नि, मैत्रेयी, कात्यायिनी, शिवि, हरिश्चंद्र आदि के पावन कथाप्रसंगों की स्रोतस्विनी पुराणों के माध्यम से आज तक हिंदू समाज को प्रेरणा देती रही है।
पुराणों के सुविस्तृत वाङ्मय से भारतीय साहित्य का बड़ा उपकार हुआ है। महाभारत एवं पुराणों की अधिकांश कथाओं पर ही महाकवि भास, कविकुलगुरु कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट, दंडी, श्रीहर्ष आदि की रचनाएँ अवलंबित हैं तथा आज के कवियों को भी उनसे प्रेरणाएँ मिलती हैं। भारतीय जनता में पुराणों की कथाओं का आज भी अधिक प्रभाव है और आज भी लाखों लोग इन कथाओं का बड़ी श्रद्धा और भक्ति से पाठ तथा श्रवण करते देखे जाते हैं।
धर्मशास्त्र एवं आचार-विचार के प्रसंगों का भी पुराणों में अत्यधिक वर्णन है। खाने-पीने की वस्तुओं के विधिनिषेध के साथ ही सामान्य ज्योतिष एवं कर्मकांड के प्रसंगों पर भी पुराणों में अध्याय के अध्याय लिखे गए हैं। दार्शनिक मतमतांतरों की प्राय: सभी शाखाओं एवं उपशाखाओं के साथ भक्ति एवं दीक्षाप्रसंगों का भी उनमें यथावसर विपुल वर्णन किया गया है। राजनयिक एवं प्रशासनिक प्रसंगों पर भी पुराणों में अच्छा साहित्य है। साथ ही रणनीति, युद्धकला, व्यूहरचना, दुर्ग एवं सैन्यसंचालन के तौर-तरीकों तथा विविध प्रकार के शस्त्रास्त्रों का प्रयोग तो प्राय: प्रत्येक पुराण में वर्णित है। पुराणों में वीर एवं रौद्र रस के तथा करुणा एवं भक्ति के तथा शृंगार के अनूठे प्रसंग मिलते हैं।
इस प्रकार पुराणों में हिंदू जाति की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, शिक्षा, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान, त्याग, वीरता, ऐश्वर्य, धर्म, शिल्प, साहित्य आदि की मूल्यवान् निधियाँ निहित हैं। उन्हें हम हिंदू जाति का आकर ग्रंथ मानने के लिए विवश हैं। किंतु इसके साथ ही पुराणों में परवर्ती काल में परिस्थितियों के कारण जो प्रक्षेप हुए हैं, उनके कारण कुछ अपेक्षित सामग्रियाँ भी समाविष्ट हो गई हैं। अतिशयोक्ति एवं असंभव कल्पनाओं की उड़ान में कहीं-कहीं वर्ण्य विषय की बड़ी उपेक्षा हुई है। किसी पुराण में किसी विशेष देवता का गुणगान है तो किसी में किसी का। कहीं-कहीं एक दूसरे पर आक्षेप प्रत्याक्षेप भी किए गए हैं। निश्चय ही ये प्रसंग बाद में जोड़ दिए गए हैं जो उस युग के व्यासों अथवा सूतों के पक्षपात का प्रमाण उपस्थित करते हैं।
किंतु समष्टि रूप में विचार करने पर यह सुस्पष्ट हो जाता है कि पुराणों का दृष्टिकोण उदार है। उनमें हिंदू धर्म के प्रधान तीनों मतों - वैष्णव, शैव एवं शाक्तों - के समन्वय का सुंदर प्रयत्न किया गया है। कहीं-कहीं तो यह स्पष्ट रूप से कह दिया गया है कि शिव का विरोध करनेवाला वैष्णव एवं विष्णु का विरोधी शैव अथवा शाक्त घोर नरक में जाते हैं। यही नहीं, पुराणों में वेदों तथा ईश्वर की सत्ता के प्रति अविश्वासी बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक भगवान् बुद्ध को अपने दसों अवतारों में माना गया है तथा जैनियों के तीर्थंकर ऋषभदेव को भी चौबीस अवतारों में स्वीकार किया गया है।
पुराणों के साहित्य को समझने के लिए उसकी रचनाप्रक्रिया से भली-भाँति परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। आज की मनोवैज्ञानिक अथवा समीक्षात्मक दृष्टि से उसके साहित्य का पर्यालोचन करना अन्याय है। किसी भी जाति के प्राचीन साहित्य पर, विशेषतया धार्मिक साहित्य पर, उक्त दोनों दृष्टियों से तो विचार किया ही नहीं जा सकता। (रा.प्र.त्रि.)
पुराणों का स्वरूप एवं कार्य
पुराणों का लक्षण - प्राचीन स्मृतियों का, जो परंपरा से सुरक्षित हैं, वर्णन करना पुराण का प्रधान लक्षण है - पुरा परंपरां वक्ति पुराणं तेन वै स्मृतम्। (वायु १, २, ५२) प्राचीन परंपरा से प्राप्त स्मृतियों में सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर उसके अंत तक उनमें जितनी घटनाएँ हुई हैं और होंगी उन सभी में से विशेष घटनाओं का संग्रह पुराण में होना उचित ही है। अत: विशेष विषयों को लेकर पुराण का एक लक्षण प्राय: सर्वत्र प्रसिद्ध है।
सनातन वैदिक धर्मावलंबी हिंदुओं की संस्कृति, सदाचार, धर्म, नीति, विचार करने की पद्धति आदि मुख्यतया वेदों, स्मृतियों और पुराणों के द्वारा निरूपित होती हैं, अत: उनके प्रत्येक धार्मिक कार्य के प्रारंभ में 'श्रुति, स्मृति, पुराणोक्त' ऐसा ही संकल्प रहता है और उनकी विचारप्रवृत्ति, नाम, वेशभूषा, पारस्परिक तथा शत्रु के प्रति बर्ताव आदि में वेद-स्मृति-पुराणों की गहरी छाप विद्यमान है।
पुराणों की प्राचीनता - पुराण ग्रंथ वेदों के समान ही अति प्राचीन काल से, प्रत्युत वेदों से भी पूर्व, आविर्भूत हुआ है। उसका उल्लेख अथर्ववेद, गोपथ एवं शतपथ ब्राह्मणों, छांदोग्य आदि उपनिषदों, मनुस्मृति और महाभारत आदि अनेक ग्रंथों में मिलता है।
पुराणों का विस्तार - पुराण ग्रंथ कृष्ण द्वैपायन व्यास जी के पूर्व एक ही था, अतएव अथर्ववेद आदि ग्रंथों में पुराण शब्द एकवचनांत ही मिलता है। मत्स्य आदि में लिखा है :
पुराणमेकमेचासीत्तादा कल्पांतरेऽनघ। ५३/४
वह एक पुराण अति विस्तृत था, उसका संक्षेप करके कृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने विषयों के अनुसार बारह हजार श्लोकों में अठारह भेद किए। अतएव कृष्ण द्वैपायन व्यास के समय के और उसके बाद के ग्रंथों में 'पुराण' शब्द बहुवचनांत मिलता है। कृष्ण द्वैपायन व्यास के अनंतर के व्यास और उनके शिष्य सूतों ने उन पुराणों का आख्यान, उपाख्यान, गाथा आदि के द्वारा अति विस्तार किया।
पुराणों का विस्तार विक्रम (प्रथम) राजा के मरने के बाद के समय में प्राय: हुआ। बाद में द्वितीय विक्रम के समय में पुन: पुराण सुनाए गए और वे उपपुराण नाम से प्रसिद्ध हुए :
पुनरुक्तानि तान्येव पुराणाष्टादशानि वे।
तानि चोपपुराणानि भविष्यन्ति कलौ युगे (भविष्य प्रति. ७, ३-४)
इस प्रकार कृष्ण द्वैपायन व्यास के पूर्व एक विस्तृत पुराण, व्यास के द्वारा बारह हजार श्लोकों में उसके अठारह भेद, उनके आश्रय से बाद के व्यास आदि के द्वारा प्राय: चार लाख श्लोकों में पुराणों का विस्तृतीकरण हुआ। फिर विस्तृत पुराणों के आधार से जो सुनाए गए वे उपपुराण हुए। इस प्रकार पुराणों के तीन या चार संस्कार हुए और वे इस समय करीब पाँच लाख श्लोक के हो गए हैं।
सभी पुराणों में कुछ प्राचीन अंश विद्यमान होने पर भी कहीं-कहीं नवीन विषय भी उपलब्ध होते हैं, यथा भविष्यत् राजवंश का वर्णन। भविष्य पुराण में वर्तमान शताब्दी के पूर्व शताब्दी तक के कुछ पुरुषों के चरित्र मिलने पर भी सूर्य और ब्रह्मा के पूजनादि का वर्ण्न करनवाले अंश अति प्राचीन हैं, इसमें संदेह नहीं है। एक दो पुराणों की संस्कृत भाषा कहीं-कहीं ललित, क्लिष्ट, कहीं अनेक छंदों से युक्त एवं काव्यमय और कहीं-कहीं गद्यमिश्रित भी है, जैसे श्रीमद्भागवत की भाषा।
पुराणों के विषय - सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर अंत तक उसमें स्थित सभी पदार्थों से संबद्ध वर्णनों के साथ ही अनेक तीर्थ, व्रत, दान, श्राद्ध, सदाचार, वर्ण, आश्रम, अनेक विद्याएँ तथा कलाएँ, विद्याप्रवर्तक देवता और ऋषियों का चरित्र एवं माहात्म्य, अनेक संप्रदाय, अनेक देवताआं के पूजन आदि के प्रकार, सद्गुण, त्याज्य दुर्गुण, तपश्चर्या, योग, अनेक दर्शन, पतिव्रतामाहात्म्य, सत्पुरुषों के चरित्र, एकदेवतावाद, विज्ञानवादादि अनेकवाद, एव खगोल वर्णन, द्वीप, सागर, खंडों का धर्म, नित्यक्रिया, वेदशाखा, पूर्वपंरपरा, देशाचार, लोकव्यवहार, संकट काल में धर्माचरण के प्रकार, ईश्वरभक्ति आदि अनेक विषयों का विस्तृत संग्रह पुराणों में उपलब्ध होता है।
पुराणों का प्रयोजन - लोकसंग्राहक कृष्णद्वैपायन व्यास ने भारतीय युद्ध के बाद की देश की एवं लोगों की, विशेषकर स्त्रियों, शूद्रों तथा नाममात्र से द्विजों की, स्थिति का आलोचन किया, और चारों वेदों का अर्थ, जो अत्यंत गूढ़ हैं, सभी लोग सरलता से समझें जिससे उनका कल्याण हो, इस हेतु इतिहास और पुराणरूपी सीधा मार्ग निर्माण किया (श्रीमद्भागवत १, ४, २४-२५, भविष्य १, ४६ ५७; ९४, ५८) यह मार्ग सर्वथा नया नहीं है किंतु वेदों में जो पुराणभाग उपलब्ध था, उसी का (उपवृंहण) विस्तार मात्र है, अतएव इतिहास पुराणों के बिना वेदों का अर्थ करनेवालों से वेद डरता है, यह व्यास का कथन उचित ही है - विभेत्यल्प श्रुताद् वेदो मागयं प्रहरिष्यति (भारत, आदि प. १;३६७)।
पुराणों द्वारा राष्ट्रीय कार्य - काल के प्रभाव से वेदों और वैदिक सोमयाग आदि बड़े बड़े कर्मों से लोगों की श्रद्धा हटती जा रही थी, वेदोक्त कर्म का अधिकार स्त्रियों और शूद्र आदि को नहीं था, वैदिक धर्म पर जैन, बौद्ध आदि अन्य मतावलंबियों का प्रबल आक्रमण हो रहा था, उसके सामने हिंदुओं के आचार-विचार टिक नहीं सकते थे। वैदिक धर्म, आचार, संस्कृति और उसको माननेवाले लोगों की निष्ठा, श्रद्धा, और विचारप्रवृत्ति का रक्षण करने का दुस्तर कार्य सभी व्यास और सूतों ने किया। स्त्री, शूद्र आदि में उनका एक घटक होकर जो कार्य कर सके ऐसे ही एक चतुर विद्वान् और लगनशील मनुष्य की जरूरत थी और कृष्णद्वैपायन व्यास ने इस कार्य के लिए लोमहर्षण सूत को चुना, उसको पढ़ाकर तैयार किया और उसने भी तन्मयता से व्यास जी का कार्य संपन्न किया। उसका कार्य यही था कि साल भर संपूर्ण भारत में घूमकर, दक्षिण पश्चिम दिशाओं में स्थित तीर्थ, देवता, नदी, अरण्य, गुहा आदि जो उस देश में अति पवित्र एवं आदरणीय माने जाते थे, उनका वर्णन नैमिषारण्य में स्थित शौनकादि हजारों ऋषियों के सामने उपस्थित करना तथा उत्तर पूर्व दिशाओं मे स्थित अति महत्वशील पर्वत, नदी, नद, तीर्थ अरण्य आदि का वर्णन दक्षिण और पश्चिम दिशाओं में स्थित देशों में करना, इससे सभी दिशाओं में स्थित लोगों को संपूर्ण भारत देश का ज्ञान घर बैठे हो जाता था।
भारत ऐसे महान् एवं विस्तीर्ण देश में जहाँ भयानक अरण्य, पर्वत, झीलें, नदी, हिंसक जानवर और कहीं-कहीं तो उनसे भी भयानक मनुष्यभक्षी राक्षस जाति रहती थी; यातायात के साधन नहीं के बराबर थे - ऐसे देश और स्थिति में सर्वथा सांस्कृतिक एवं धार्मिक एकता लाना, लोगों को वेदादि के प्रति श्रद्धावान् बनाना, दक्षिण पश्चिम में स्थित लोगों के हृदय में पशुपति, केदार, काशी, वैद्यनाथ, जगन्नाथ, काली आदि के प्रति श्रद्धा भक्ति तथा उत्तर और पूर्व में स्थित लोगों के हृदय में कांची, रामेश्वर, सोमनाथ, प्रभास आदि के प्रति श्रद्धा, आदर आदि निर्माण करना, यह दुस्तर एवं असाधारण कार्य व्यास और सूतों ने किया। उनके ही प्रबल प्रयत्न से संपूर्ण भारत में आसेतु हिमालय एक धर्म का, एक भावना का एकच्छत्र राज्य अब तक चला आता है।
भारत की अखंडता स्थिर करने के लिए उत्तर में स्थित हिमालय, कैलास, मानसरोवर, पूर्व में स्थित गंगासागर, पश्चिम में स्थित रेवतक पर्वत और समुद्र एवं दक्षिण में स्थित समुद्र, पर्वत, नदी आदि स्थिर चिह्नों का देवता रूप दिया और उनका माहात्म्य, जो पहले से तत्तद्देशों में विद्यमान था, उनका संपूर्ण भारत में प्रचार किया, और हर एक भारतीय के हृदय में संपूर्ण भारत के प्रति दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न कर दी, जिससे जीवनकाल में कम से कम एक बार तो संपूर्ण देश की यात्रा करने का विचार उसके मन में दृढ़ हो गया।
'एक सद् विप्रा बहुधा वदंति' ऋग्वेद १,१६४,४६ सिद्धांत का आश्रय लेकर सभी देवताओं का समान भाव से आदर करने की भावना विचारवान् भारतीयों के हृदय में पुराणों ने उत्पन्न की, यद्यपि इतस्तत: सांप्रदायिकता, तथा खंडन मंडन की प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ती है।
अनेक शास्त्रों, कलाओं आदि का संकलन पुराणों में कर कुछ अंशों में उनका रक्षण किया। सनत्कुमार-नारद-संवाद में 'पित््रयं, राशिं, दैवं, निधिं, वकोवाक्यं, एकायनं, देवविद्यां, ब्रह्मविद्यां, भूतविद्यां क्षत्रविद्यां, नक्षत्र विद्यां, सपदेवजन विद्याम् (छांदोग्य. ७,१) आदि अनेक विद्याओं का उल्लेख आता है; उनमें से कुछ इस समय स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं होती हैं, परंतु व्यास के द्वारा पुराणों में उनके महत्व के अंशों का संकलन होने से इस समय भी उनका कुछ आभास तो हमें हो ही जाता है, अन्यथा हमारे पास कुछ भी न रह जाता।
पुराणों में धर्म - प्राय: सभी पुराणों में जैन और बौद्ध धर्म का अति हेयतया वर्णन मिलता है। पुराणो में तत्काल की परिस्थिति के अनुरूप कुछ संस्कार हुए, जिससे वे कुछ घट बढ़ गए हैं।
जैनों और बौद्धों के प्रचार एवं विस्तार के इतिहास की समीक्षा करने से स्पष्ट होता है कि उस समय वैदिक कर्मकांड के अति विस्तार और जटिलता के कारण सामान्य जनता तथा विचारशील लोग उससे दूर हट रहे थे। उनके लिए उचित समाधान करनेवाले तथा सभी का जिसमें समान अधिकार हो ऐसे धर्म की आवश्यकता थी। उस समय महावीर और गौतम बुद्ध द्वारा प्रवर्तित धर्म का दयाप्रधान उपदेश तथा उनका अति शुद्ध आचार देखकर अत्यधिक संख्या में वैदिक धर्मावलंबी ब्राह्मण आदि, विशेषत: स्त्रियाँ और शूद्र, जैनधर्म में ये बौद्धधर्म में प्रविष्ट हुए थे। व्यास प्रभृति विचारकों ने इस परिस्थिति का पूर्णतया विचार कर जैन और बौद्धधर्म में जो अच्छी बातें थी, जैसे दया, समान अधिकार आदि, उनका अपने धर्म में संग्रह किया, यहाँ तक कि गौतम बुद्ध की भी गणना विष्णु के अवतारों में कर ली। साथ ही यह भी स्पष्टतया दिखलाया कि बौद्धधर्म की जो कतिपय विशेषताएँ हैं वे नवीन नहीं है किंतु वेद और उपनिषदों द्वारा बहुत पहले से ही प्राप्त हैं। जैसे कनिष्क के समय में प्रवृत्त बुद्ध के विशाल मदिर, बड़े उत्सव और विशेष पर्व में तीर्थ आदि की यात्राएँ प्रचलित थीं, उसी प्रकार वैदिक धर्म में भी ये सभी प्रकार शुरू किए गए। उपनिषत्तत्वज्ञान बौद्ध और जैनियों के तत्वज्ञान से कम नहीं है, यह बात व्यापक प्रचार द्वारा प्रमाणित कर दी गई। इन सभी कार्यों का परिणाम यह हुआ कि बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जो बौद्ध और जैनधर्म में प्रविष्ट हो गए थे वे और उनकी संतान, जो वेदाव्ययन आदि से रहित थी, फिर से व्यास आदि द्वारा प्रवृत्त पौराणिक धर्म में प्रविष्ट होने लगी। उनके लिए 'द्विजबंधु' शब्द का प्रयोग लोगों में रूढ़ हुआ। अतएव कुछ पुराणों के आरंभ में स्त्रियों, शूद्रों और द्विजबंधुओं को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है परंतु उनका वैदिक कर्म और ज्ञान के द्वारा उद्धार हो, इस विचार और दयाबुद्धि से भगवान् व्यास जी ने उनके लिए पुराण, भारत आदि ग्रंथों का निर्माण किया (भाग.१/४, २५, भविष्य १/४७)। उन लोगों से मिलने जुलनेवाले समान अधिकारी सूत द्वारा संपूर्ण भारत में पुराणधर्म का प्रचार किया, और धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से राष्ट्रीय एकता स्थापित की।
विधि निषेध - पौराणिक धर्म के मुख्यत: दो प्रकार सामने आते हैं- एक विधि और दूसरा निपेय। विधि में बौद्धधर्म की तरह बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण, उनके लिए भूमि, गाँव आदि का दान, एवं अनेक तिथियों, मास, नक्षत्र, बार, योग तथा संक्रांतियों के निमित्त पदार्थों के भोजन तथा स्नानादिकों का विचार किया है (मत्स्य पुराण, अ. ५४ से ८० तक हुआ ९५ से १००; भविष्य पुराण उत्त. प. १ से २०७) एवं अनेक प्रकार के दानों का भी विधान (म.अ. ८१ से ९१) किया है, तथा अनेक तीर्थों, क्षेत्रों, नदियों, कूपों, तालाबों, वनों, आदि की यात्राएँ भी लिखी हैं। चंद्र-सूर्य-ग्रहणों में काशी, कुरुक्षेत्र में वास आदि की बात लिखी है और कहा है कि इन सभी क्रियाओं से अश्वमेध, पौंडरीक, सोमयाग आदि करने का फल मिलता है।
जो अंधे, लँगड़े, या द्रव्यहीन हैं उनके लिए कहा है कि राम, कृष्ण के नामों का जाप करने पर भी अनेक यज्ञों का फल मिलता है। जो धनी हैं, उनके लिए अनेक पर्वों पर या काशी आदि तीर्थों में अन्न दान, धर्मशालाओं का निर्माण, औषधिवितरण, विद्यालयों की स्थापना आदि कराने से अनेक यज्ञों का फल तथा स्वर्ग-शिव-विष्णु-गो-लोक आदि में अनंत काल तक निवास की बात कही गई है।
इस प्रकार बौद्ध आदि धर्म का कनिष्क आदि के समय में जो रूप था उससे अधिक ही पुराणों द्वारा वैदिक धर्म में वेदों को आधार मानकर समाविष्ट हुआ।
पुराणधर्म का आचरण ठीक ढंग से नहीं हुआ या कुछ अकर्म हुआ तो इसके लिए बड़े बड़े प्रायश्चित्तों के स्थान पर नाम, जप, गंगास्थान आदि माने जाने लगे।
अनेक देवताओं के बड़े-बड़े रथोत्सव, जैसे जगन्नाथ आदि के होने लगे। इन उत्सवों के फल भी तत्तद्देवता के लोक में अनंत काल तक निवासरूप लिखें हैं। व्रतों में भी ब्राह्मणों के, क्षत्रियों के, शूद्रों के तथा स्त्रियों के कुछ अलग-अलग व्रत लिखे हैं और उनके आचरण से विशिष्ट फल एवं न करने से अनिष्ट फल तथा उसके लिए एक कथारूप इतिहास, जो अति रोचक एवं अतिरंजित है, लिखा गया है। इस प्रकार इन पुराणधर्मों का प्रचार, जिनको यज्ञों का और वेदों के पढ़ने का अधिकार नहीं था ऐसे लोगों में- स्त्रियों, शूद्रों और द्विजबंधुओं में- अनेक गाँवों में घूम-घूमकर सूतों ने किया। इन सबकी देखादेखी विद्वान्, समर्थ एवं यज्ञ करने की योग्यता रखनेवाले द्विज भी इस पुराणधर्म का पालन करने लगे।
निषेधरूप जो धर्म का दूसरा प्रकार है उसमें बौद्ध, जैन आदि मतों का थोड़ा वर्णन कर अंत में खंडन मिलता है (विष्णु ३ १८)। जैन या बौद्ध मंदिरों में जाने से या उनसे संबंध रखने से भी पाप होता है, यह विचार भी सूतों द्वारा पुराण के माध्यम से प्रचलित हुआ (बृहन्नारद १४,९६-७१)। अत: धर्म के दोनों अंग, कर्तव्यरूप तथा अकर्तव्यरूप, पुराणकथित धर्म में आ गए हैं। जैन आदि धर्म में जिस प्रकार भक्ष्याभक्ष्य का अति सूक्ष्म विचार है, उसी प्रकार फलों, धान्यों, शाक आदि एवं पशुपक्षियों का मांस, लहसुन, प्याज आदि के भक्ष्याभक्ष्य का भी विचार पुराणधर्म का अंग हैं। इस प्रकार वैदिक यज्ञों का स्थान पुराणोक्त तीर्थयात्रा, दान, व्रत, वादिकों ने ले लिया। इस समय प्राय: पुराणधर्म का ही प्राधान्य हैं। कुछ थोड़ा स्मार्त धर्म और अत्यल्प श्रौत धर्म कहीं-कहीं दीखता है। परंतु पुराणधर्म बौद्ध जैन आदि के समान एक अलग स्वतंत्र धर्म नहीं हैं वरन् वैदिकधर्म का ही विस्तृत स्वरूप हैं। (अ.शा.फ.)
पुराणों का परिचय
विष्णुपुराण में पुराणों की जो नामानुक्रमणी दी गई हैं, उसके अनुसार ब्रह्मपुराण सर्वप्रथम पुराण है। केवल देवी भागवत को छोड़कर सभी पुराणों में ब्रह्मपुराण को प्रथम पुराण के रूप में स्वीकार किया गया है। देवी भागवत में ब्रह्मपुराण को पाँचवाँ तथा मत्स्यपुराण को प्रथम स्थान दिया गया है। रचनाप्रक्रिया तथा भाषा संबंधी तथ्यों से ब्रह्मपुराण को प्रथम स्थान देने में कोई कठिनाई नहीं है। आर्य मान्यताओं के अनुसार त्रिदेवों में ज्येष्ठ ब्रह्मा की कीर्तिकथा से मंडित इस पुराण को सर्वप्रथम स्थान तो मिलना ही चाहिए था। अठारहों महापुराणों में पंच देवों की उपासना का माहात्म्य वर्णित है। स्कंदपुराण के कथानुसार इन अठारहों में से दस में शिव का, चार में विष्णु का, दो में ब्रह्म का, एक में देवी का तथा एक में सूर्य की महिमा का गायन हुआ है। इस प्रकार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के माहात्म्य से युक्त दोनों पुराणों में ब्रह्मपुराण का प्रथम तथा पद्मपुराण का द्वितीय स्थान है।
ब्रह्मपुराण में यद्यपि त्रिदेवों की कथा का विस्तार है और अनेक स्थलों पर इन तीनों की परस्पर समानता बताई गई है तथापि कहीं-कहीं ब्रह्मा को ही श्रेष्ठ तथा सूर्य को ब्रह्मा, विष्णु शिवात्मक बताया गया है। ब्रह्मपुराण की जो प्रतियाँ इस समय उपलब्ध हैं उनमें पुराणों के सुप्रसिद्ध पंच लक्षणों (सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर, तथा वंश्यानुचरित) का अन्य पुराणों की भाँति साधारणत: निर्वाह नहीं हुआ है तथा मत्स्यपुराण में वर्णित ब्रह्मपुराण की कथासूची से भी यत्र-तत्र कुछ अंतर मिलता है। इस कारण अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने उपलब्ध ब्रह्मपुराण की प्रामाणिकता में संदेह प्रकट किया है। किंतु ध्यान से देखने पर उक्त पाँचों लक्षणों का ब्रह्मपुराण की कथा में भी निर्वाह हुआ है और मत्स्यपुराण की अनुक्रमणी से भी प्राय: मेल मिलता है। हाँ, ब्रह्मपुराण की श्लोकसंख्या के संबंध में अवश्य मतभेद है। जहाँ अनेक पुराणों में ब्रह्मपुराण के श्लोकों की संख्या दस सहस्र बताई गई है वहीं मत्स्यपुराण में तेरह सहस्र। संप्रति उपलब्ध ब्रह्मपुराण के श्लोकों की संख्या १३७८७ है। ये ३७८७ अथवा ७८७ श्लोक बाद में बढ़ाए मालूम पड़ते हैं जो तीर्थों तथा देवी-देवताओं के माहात्म्य-वर्णन-प्रसंग में परवर्ती व्यासों अथवा सूतों की कृपा से हुए मालूम पड़ते हैं।
ब्रह्मपुरण के तीर्थ-वर्णन-प्रसंग बड़े ही सजीव हैं और इसी प्रकार देवी-देवताओं का माहात्म्य भी अनुपम है। इन माहात्म्य प्रसंगों में अनेक वैदिक उपाख्यानों को भी बाँध दिया गया है तथा ऋक् संहिता, ऐतरेय ब्राह्मण, शांखायन ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण तथा बृहद्देवता के अनेक संदर्भों को व्यवस्थित एंव मनोरंजक रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार महाभारत की अनेक कथाएँ भी ब्रह्मपुराण में ज्यों की त्यों उद्धृत कर दी गई हैं। ब्रह्मपुराण के २२३ से २२५ अध्यायों को महाभारत के अनुशासन पर्व में १४३ से १४५ तक अविकल अध्याय के रूप में देखा जा सकता है। इसी प्रकार ब्रह्मपुराण का २२६ अध्याय भी अनुशासन पर्व के १४६ अध्याय से अविकल रूप में मिलता जुलता है। इन दोनों ही ग्रंथों के सैंकड़ों श्लोकों को देखकर यह अनुमान लगाना सरल है कि महाभारत से ही इन्हें ब्रह्मपुराण में उद्धृत किया गया होगा किंतु महाभारत के अनुशासन पर्व के १४३वें अध्याय में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ये तथा अन्य कुछ कथाएँ भी ब्रह्मपुराण से महाभारत में ली गई हैं -
इंद चैवापरं देवि ब्रह्मण्य समुदाहलम्।
एवं
पितामहमुखोत्सृष्टं प्रमाणमिति से मति:।।
इससे स्पष्ट है कि महाभारत की रचना से पूर्व ही ब्रह्मपुराण की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि ब्रह्मपुराण की रचना १३वीं शताब्दी में हुई होगी, किंतु १२वीं शताब्दी में रचित 'दानासागर' नामक ग्रंथ में, हलायुध के 'ब्राह्मण सर्वस्व' में एवं 'हेमादि' के परिशेष खंड में ब्रह्मपुराण के अनेक श्लोकों के उद्धरणों को देखकर यह मानना पड़ता है कि इसकी रचना १३वीं शताब्दी से पहले ही हो चुकी थी। यही कारण है कि ब्रह्मपुराण की अनेक कथाएँ तथा माहात्म्य प्रसंग अन्यान्य पुराणों में भी ज्यों-के-त्यों के लिए गए हैं।
संप्रति उपलब्ध ब्रह्मपुराण में कुल २४५ अध्याय है, जिनमें सैकड़ों रोचक, प्रेरणाप्रद तथा माहात्म्यपरक कथाएँ हैं। ब्रह्मा तथा अन्य देवी देवताओं के माहात्म्य के साथ जगन्नाथ का माहात्म्य ब्रह्मपुराण में अतीव विस्तृत विवरण है। विष्णुपुराण के सुप्रसिद्ध पाश्चात्य अनुवादक विलसन साहब के मतानुसार तो उत्कल के जगन्नाथ माहात्म्य का कीर्तन करना ही ब्रह्मपुराण का प्रमुख उद्देश्य है। यही नहीं, वे तो यहाँ तक कहते हैं कि चूँकि पुराणों के सर्वप्रसिद्ध पंचलक्षण इस पुराण में नहीं मिलते और इसमें उत्कल के मंदिरों का सविस्तार विवरण दिया गया है अत: यह १३वीं तथा १४वीं शताब्दी के पहले की रचना नहीं है। किंतु उनका यह मत सर्वमान्य नहीं है। वास्तव में ब्रह्मपुराण की अनेक कथाएँ बहुत पुरानी हैं। हाँ, यह ठीक है कि इसमें परवर्ती कथाप्रेमी व्यासों, सूतों और लिपिकारों की कृपा से बहुत सी कथाएँ एवं माहत्म्यादि बाद में जोड़ दिए गए हैं (रा.प्र.त्रि.)
२. पद्मपुराण
श्लोकसंख्या की दृष्टि से इस पुराण का स्थान द्वितीय है। इस पुराण के खंडों के नाम-और क्रम में मतभेद है, यद्यपि श्लोकसंख्या ५५००० की कही गई है। आनंदाश्रम संस्करण में इसके छह खंड क्रमश: ये हैं - आदि, भूमि, ब्रह्म, पाताल, सृष्टि (क्रिया) और उत्तर। इसमें गिनती के अनुसार लगभग ४८४०० श्लोक हैं। वेंकटेश्वर संस्कण में सात खंड है - सृष्टि भूमि, स्वर्ग, ब्रह्म, पाताल, उत्तर और क्रिया योगसार। बँगला अक्षरों में केदारनाथ भक्तिविनोद के द्वारा संपादित एक संस्करण है, जिसमें सृष्टि, भूमि स्वर्ग पाताल और उत्तर - ये पाँच खंड है। पर इस ग्रंथ में इन खंडों के मुद्रण में यथास्थान ये खंडनाम व्यवहृत हुए हैं - सृष्टि, क्रियायोगसार, भूमि, स्वर्ग (आदि), स्वर्ग (ब्रह्म), पाताल और उत्तर। अंत में 'पद्मपुराण परिशिष्ट' भी छपा हुआ है, जिसमें शकुंतला का उपाख्यान है।
ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न संप्रदायों के द्वारा एकाधिक बार इस पुराण का उपबृंहण हुआ है। इस पुराण के अनेक अध्याय प्रायेण उसी रूप में मत्स्यपुराण में प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार सृष्टि संबंधी कई अध्याय विष्णुपुराण सदृश हैं। वैष्णवों के सामान्य आचार और दर्शन इस पुराण में बहुलतया वर्णित है।
मूलत: इस पुराण का विषय जगदुत्पत्ति संबंधी हिरण्यमयपद्म था (मत्स्यपुराण ५३।१४)। ब्रह्मा का माहात्म्य इसका विशिष्ट विषय था, पर बाद में यह अधिकांशत: नूतन रूप से निर्मित हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। इसके खंडों में परस्पर कोई सामंजस्य नहीं है, यहाँ तक कि एक खंड के अंतर्गत विषयों में भी एकसूत्रता नहीं देख पड़ती जिससे अनुमित होता है कि सांप्रदायिक दृष्टि से रचित माहात्म्य आदि इस पुराण के साथ जोड़ दिए गए हैं। ब्रह्मा ने मरीचि से जो कहा था, वही पद्मपुराण हैं, यह इस पुराण में ही कहा गया है (५।१।५२-५३ आनदाश्रम)। यह वाक्य इस पुराण के प्राचीनतम स्वरूप का ज्ञापक है। किंतु यह ज्ञातव्य है कि प्राचीन ग्रंथों में इस पुराण का वचन उद्धृत नहीं किया गया है। इस स्थल में पद्मपुराण के पाँच पर्व और उनके जो विषय कहे गए हैं, उनसे भी प्रचलित पद्मपुराण बहुत कुछ भिन्न है। पंचखंडात्मक (सृष्टि, भूमि, स्वर्ग, पाताल, उत्तर) पद्मपुराण की एक विस्तृत विषयसूची नारदपुराण में है (पूर्वार्ध ९३ अध्याय) जो बहुत अंशों में प्रचलित पद्मपुराण में है। इस संबंध में विशद वर्णन के लिए 'अष्टादशपुराणदर्पण' का पद्मपुराण प्रकरण द्रष्टव्य है।
पूर्वोक्त संस्करणों के अतिरिक्त बंगवासी संस्करण आदि कई संस्करण भी हैं। हाल में कलकत्ता की गुरुमंडल ग्रंथमाला से इसका एक संस्करण निकला है। (रा.शं.भ.)
३. विष्णुपुराण
इस पुराण को वैष्णवपुराण भी कहा जाता है। प्राचीन काल से ही इस पुराण की श्लोकसंख्या के संबंध में मतभेद है। मत्स्यपुराण (५३१७) में इसका परिमाण २३००० श्लोक कहा गया है, पर प्रचलित विष्णुपुराण के किसी भी संस्करण में ६००० से अधिक श्लोक नहीं मिलते। कुछ विद्वानों का कहना है कि विष्णुधर्मोत्तर की श्लोकसंख्या को जोड़कर २३००० परिमाण निर्धारित किया गया है, यद्यपि प्रचलित विष्णुधर्मोत्तर की श्लोकसंख्या को जोड़ने पर भी २३००० परिमाण पूर्णत: नहीं होता। विष्णुधर्मोत्तर पुराण अंशत: खंडित हैं (अष्टादशपुराणदर्पण का विष्णुपुराण प्रकरण) अत: हो सकता है, पूर्ण विष्णुधर्मोत्तर के श्लोकपरिमाण मिलने पर २३००० संख्या की पूर्ति हो जाए।
एक दूसरी सृष्टि यह भी है कि प्राचीन काल से ही विष्णुपुराण की विभिन्न शाखाएँ थीं, जिनमें विभिन्न श्लोमपरिमाण थे। विष्णुपुराण ३।६।२६ की टीका में श्रीधर स्वामी ने कहा है कि दश सहस्र या अष्टसहस्र श्लोक-परिमाण-युक्त विभिन्न विष्णुपुराण हैं और प्रचलित विष्णुपुराण षट्सहस्र श्लोक युक्त है।
मत्स्यपुराण (५३।१६) में इस पुराण का परिचय दिया गया है कि इसमें वराह कल्प का वृत्तांत है एवं पराशर ने सब धर्मों को कहा है। प्रचलित विष्णु में ये तथ्य हैं तथैव नारद पुराण में इस पुराण की जो विशद विषयसूची दी गई है, वह भी मुद्रित पुराण में घट जाती है; पर इस सूची में एक महत्वपूर्ण सूचना यह भी दी गई है कि विष्णुपुराण के उत्तर भाग में सूत ने (शौनाकादि के द्वारा पृष्ट होकर) विष्णुधर्मोत्तर को कहा है और इस अंश में नानाधर्म, व्रत, यम, नियम, अर्थशास्त्र, वेदांत इत्यादि हैं। इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि कभी ये दो पुराण सम्मिश्रित थे, जैसा पहले कहा गया है। अलबेरुनी ने भी विष्णुधर्मपुराण को विष्णुपुराण के साथ संयुक्त माना है (अष्टादशपुराणदर्पण का विष्णुपुराण प्रक.)।
प्रसंगत: यह भी ज्ञातव्य है कि कुछ छोटे बड़े महात्म्य, स्तोत्र आदि विष्णुपुराण के अंतर्गत माने जाते हैं (कान्यकुब्ज माहात्म्य, कृष्णजन्माष्टीव्रत कथा आदि) जो विष्णुपुराण के प्रचलित संस्करणों में नहीं मिलते (अष्टादशपुराणदर्पण, पृ. ११९-१२०)।
इस पुराण की कई टीकाएँ प्रचलित हैं। श्रीधर स्वामी की आत्मप्रकाश नाम की टीका, बंगवासी, जीवानंद और वेंकटेश्वर संस्करणों में है। श्रीधर स्वामी ने अपनी टीका के प्रारंभ में चित्सुखयोगिरचित एक टीका का भी उल्लेख किया है। विष्णुचित्ती टीका भी प्रकाशित हो चुकी है। रत्नगर्भ, जगन्नाथ आदि की टीकाएँ भी परंपरा में प्रसिद्ध हैं।
इस पुराण के कई संस्करण हैं, यथा- जीवानंद (श्रीधरी टीका सह); गीता प्रेस (हिंदी अनुवाद सह); विलसन का अंग्रेजी अनुवाद, विशद भूमिका सह, बंगवासी संस्करण; एम. एन. दत्त कृत अंग्रेजी अनुवाद, कलकत्ता।
यह पुराण प्राचीन पुराणों में अन्यतम है। कुमारिल के द्वारा इसका वाक्य उद्धृत किया गया है, अत: यह षष्ठ शताब्दी से बहुत पहले का है। इसको हरिवंश का समकालीन माना जा सकता है, और तब इसका काल तीसरी चौथी शती होगा। आर-सी-हाजरा महोदय कहते हैं कि इसका काल चतुर्थ शताब्दी के मध्यभाग के बाद नहीं हो सकता (Puranic Records......... पृ. २३)। फाक्यूहर के अनुसार इसका काल चतुर्थ शताब्दी के बाद का नहीं है (An Outline of the Religious Literature of India, पृ. १४३-१४४)। यह कहना अनावश्यक है कि इसका भी क्रमिक उपबृंहण हुआ है। (रा.शं.भ.)
४. शिवपुराण
व्यक्ति और समाज की पूर्ण-मंगलज्योति के साधनासाक्षात्कार की निरुपमता के कारण शिवपुराण का विशिष्ट स्थान है। रूपकात्मक-चमत्कृति के साथ परिस्थितियों की विविधता के मध्य 'अवाङ् मनसोऽगोचर' की सामंजस्यमयी प्रतीति कराई गई है। जीवन के नैतिक मूल्यों की पूर्णप्रतिष्ठापकता के कारण राजनीति, अर्थनीति, धर्मनीति, दर्शन, कला, खगोल, भूगोल, सृष्टि, प्रलय, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि का ही प्रभविष्णु परिचय इसमें नहीं मिलता; अपितु निरुक्त शास्त्र की दृष्टि से इसमें घ्वन्यार्थ-निर्वचन-निष्ठा का भी अच्छा परिचय प्राप्त हो जाता है। शिव शब्दार्थ का निर्वचन करते हुए कहा गया है कि 'श' सुख और नित्य आनंद का नाम है, 'इ' परमात्मा का बोधक है और 'व' अमृत-शक्ति का वाचक है। ये तीन जिसमें रहते हैं, वह 'शिव' कहा जाता है' (१।१२।७६) तीन अव्यक्तावस्थापन्न वस्तु के नाम को बतलानेवाले चिह्न को लिंग कहते हैं। इस प्रकार के अनेक सूक्ष्म-तत्व-बोधक निर्वचन शिवपुराण में प्राप्त होते हैं।
शिवपुराण की वायवीय संहिता के पूर्वखंड मे वायुदेव द्वारा महेश्वर शिव का स्वरूपवर्णन वेदउपनिषद के ब्रह्मनिरूपण जैसा ही है। शिव प्रकृति और पुरुष दोनों से परे हैं। 'शिव की इच्छा के अनुसार गुणों के क्षोभ से रजोगुण से ब्रह्मा, सत्व से विष्णु और तम से रुद्र हुए (वा. सं.पृ. २८।३६)।
त्रिगुणतीत शिव चार व्यूहों में विभक्त हैं - ब्रह्मा, काल, रुद्र और विष्णु। विराट् रूप में शिव की ये आठ मूर्तियाँ हैं - शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव। ये क्रमश: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चंद्र में अधिष्ठित रहती हैं। परमात्मा शिव की ये आठ मूर्तियाँ समस्त संसार को व्याप्त किए हुए हैं। अत: जैसे मूल में जलसिंचन करने से वृक्ष की सभी शाखाएँ हरी भरी रहती हैं, वैसे ही विश्वात्मा शिव की पूजा करने से उनका जगद्रूप शरीर पुष्टिलाभ करता है। सब प्राणियों को अभयदान, सबके प्रति अनुग्रह, सबका उपकार करना ही शिव की वास्तविक आराधना है।
शिवलिंगपूजन का अधिकार सब लोगों को हैं। 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा विलोम-संकर कोई भी क्यों न हो, वह अपने अधिकार के अनुसार वैदिक अथवा तांत्रिक मंत्र से सदा आदरपूर्वक शिवलिंग की पूजा करे। लिंगपूजा की मोक्षप्रदायकता का विविध दृष्टियों से निरूपण है। शिव का सूक्ष्म लिंग प्रणव है, जो निष्कल है और स्थूल लिंग ब्रह्मांड है, जो पंचाक्षर है। दोनों की पूजा मोक्ष देनेवाली है। शिव के लिंग अनेक हैं, जिनका विस्तार से वर्णन करने की शक्ति शिव में ही है। जिस मनुष्य को सूर्य, चंद्र, विष्णु, लक्ष्मी, इंद्र आदि ईश्वर शक्तियों में एक एक का पूजन करना हो, कर ले और जिसको सबका करना हो, वह शंकर का पूजन करे।
चरित्र की महानीयता की दृष्टि से शिव नाना प्रकार की विद्या, योग, ज्ञान, भक्ति आदि के प्रचारक जगद्गुरु तथा अपने आहार-विहार, संयम, नियम के द्वारा जीवयुक्त के लिए आदर्श हैं। परात्पर निर्गुण स्वरूप को महेश्वर, विश्व का सर्जन करनेवाले स्वरूप को ब्रह्मा, पालन करनेवाले स्वरूप को विष्णु और संहारक स्वरूप को रुद्र कहा गया है। शिवपुराण की सनत्कुमार संहिता के अध्याय ५६ और ५८ तक पाशुपत योग का वर्णन है। धर्मसंहिता में शिव ने कहा है - 'विद्वान् पुरुष अपने को देह से पृथक् आत्मा जानकर विचरण करे। इससे वह भवबंधन से छूट जाएगा।' 'मेरा' ही परमदु:ख है और 'मेरा नहीं' 'परम सुख।' 'मेरा' संसार है और 'मेरा नहीं' मोक्ष। जिसको अपने शरीर में ही अहंता नहीं होती, वह स्त्री, पुरुष, घर आदि को कैसे अपना मान सकता है जब तक घर, द्वार आदि है, तब तक पुरुष बद्ध ही है, मुक्त नहीं। यही पाशुपत योग है। कहा गया है कि सब शास्त्रों में पारंगत, तत्व को जाननेवाले, जप करनेवाले, सद्गुण संपन्न और ध्यानयोग में निपुण ब्राह्मण आचार्य के पास जाकर शिव दीक्षा लेनी चाहिए। जो ब्राह्मण सर्वलक्षण संपन्न होने पर भी तत्वज्ञान से रहित हो, जिसके दर्शन से आनंद न मिले और जिसके स्पर्श से ज्ञान न होता हो, उसे कदापि गुरु न बनाना चाहिए।
शिवपुराण के संबंध में विद्वानों के दो मत हैं, एक समुदाय के मत से शिवपुराण और वायुपुराण एक ही हैं। दूसरे समुदाय के मत से दोनों भिन्न भिन्न हैं। विष्णुपुराण, पद्मपुराण, मार्कडेयपुराण, कूर्मपुराण, वराहपुराण, लिंगपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, भागवतपुराण, और स्कंदपुराण, में शिवपुराण का उल्लेख है। किंतु मत्स्यपुराण, नारदपुराण, और देवीभागवत में शिव के स्थान पर वायु का उल्लेख है। नारदपुराण, में वायुपुराण, का परिचय देते हुए कहा गया है कि शिवपुराण को वायुऋषि ने कहा था, इसलिए इसका नाम वायुपुराण या वायवीय पुराण भी है। इसमें २४००० श्लोक हैं, इससे प्रतीत होता है कि शिवपुराण और वायुपुराण एक ही हैं, दो नहीं। मत्स्यपुराण में लिखा है कि श्वेतकल्प प्रसंग में वायु ने धर्म की कथा और रुद्रमाहात्म्य का जो वर्णन किया है वही वायुपुराण है। इसकी श्लोकसंख्या २४ हजार है। कुछ लोग वायुपुराण और शिवपुराण दोनों को महापुराण मानते हैं।
यह उल्लेखनीय है कि वर्तमान वायुपुराण से शिवपुराण की सूची भिन्न है। इससे स्पष्ट होता है कि दोनों भिन्न भिन्न ग्रंथ हैं। व्यंकटेश्वर प्रेस , बंबई से मुद्रित शिवपुराण की 'संदेहभेदिका' नाम की भूमिका में पंडित रामनाथ शैव ने लिखा है कि शैव महापुराण दो प्रकार के हैं। एक में एक लाख श्लोक हैं और दूसरे में २४ हजार। एक लाख श्लोकवाले महापुराण में बारह संहिताएँ हैं। यह एक लाख श्लोक भगवान् शंकर के रचे हुए हैं। विद्यैश्वर संहिता में दूसरे अध्याय के उपक्रम और उपसंहार में लिखा है कि इस लक्षश्लोकात्मक महापुराण में से व्यास जी ने संक्षेप करके सात संहिताओंवाला ग्रंथ २४,००० श्लोकवाला चौथा शिवपुराण रचा।
शिवपुराण में गया माहात्म्य का भी वर्णन मिलता है। इसको कुछ विद्वान् बौद्धधर्म का प्रभाव मानते हैं। पर गया क्षेत्र का वाल्मीकिरामायण में भी स्पष्ट उल्लेख है। भगवान् शंकर के चरित्र, इतिहास और कथाओं का वर्णन शिवपुराण की मुख्य विशेषताएँ हैं। (गं.ध.मि.)
५. श्रीमद्भागवत (दे. 'भागवत')
६. नारदपुराण
महापुराणों के गणनाक्रम में नारदपुराण छठा है। बृहत्कल्प की कथा आदि विषय और पचीस हजार श्लोकों से युक्त यह पुराण है। 'पञ्चविंशानिसाहस्रं बृहत्कल्पकथाश्रयम्।' मत्स्यपुराण में भी इस प्रकार का वर्णन मिलता है किंतु संप्रति उपलब्ध एवं मुद्रित नारदपुराण में प्राय: २३ हजार श्लोक हैं।
इस पुराण का प्रारंभ विशेष प्रकार का है। यह नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों के उत्तर में, अन्य पुराणों के समान सूत ने नहीं कहा है किंतु नैमिषारणय में स्थित शौनकादि ऋषि धर्म आदि के संबंध में उत्पन्न संदेह की निवृत्ति के लिए सिद्धाश्रम में अग्निष्टोमयज्ञ से विष्णु का यजन करते हुए सूत के पास गए और अपनी शंकाएँ पूछीं तब उनकी शंकाओं की निवृत्ति के लिए सनत्कुमारादिकों ने नारद से जिस पुराण का कथन किया सत ने उस पुराण को कहा (अ १,८-३६) अर्थात् इस पुराण का नाम और पुराणों के समान वक्ता के नाम पर प्रचलित नहीं है किंतु श्रोता के नाम पर प्रचलित है। इस पुराण में गंगा की उत्पत्ति आदि का विस्तृत वर्णन (७-१६) मिलता है, और पुराणों के समान वर्णाश्रमाचार (२४-२५), स्मार्तधर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन (२४-३०) भी मिलता है। भक्ति, ज्ञान (३४-३५), जीवतत्व (४३), यममार्ग (३१), परलोक (४४) और मोक्षधर्म (४५) का निरूपण विस्तृत है। वेदांत, कल्प शास्त्र, आदि का तथा गणेश आदि देवताओं के मंत्रों का वर्णन, और सभी पुराणों के लक्षण तथा विवेचन विशेष रूप से विचारणीय हैं।
उत्तर भाग में विष्णु का भक्ति के अधीन होना, मोहिनीचरित, गया आदि क्षेत्रों का माहात्म्य, अहिंसा धर्म, पतिव्रतोपाख्यान आदि वर्णित हैं।
प्रोफेसर विलसन नारदपुराण के उत्तर भाग में स्थित विष्णु की भक्ति का विस्तृत वर्णन देखकर नारदपुराण को ११वीं शताब्दी में रचित मानते हैं। परंतु ११वीं शताब्दी में विद्यमान यवन यात्री अल्बेरुनी ने अपने ग्रंथ में नारदपुराण का उल्लेख किया है, अत: प्रो. विलसन का कथन ठीक प्रतीत नहीं होता है। इस पुराण का वैष्णव संप्रदाय का उत्तार भाग कुछ नया मालूम होने पर भी पूर्व भाग नि:संदेह प्राचीन है।
ब्ह्रृन्नारदीय पुराण नामक एक वैष्णव संप्रदाय का वर्णन करनेवाला ग्रंथ भी उपलब्ध होता है पर उसका इस नारदपुराण के साथ कोई संबंध नहीं है। वह एक उपपुराण माना जा सकता है। (इ.शा.द.)
७. मार्कंडेयपुराण
्व्रात तीर्थ, दान आदि से संबद्ध सामग्री के न रहने के कारण यह पुराण पर्याप्त प्राचीन माना जाता है। इसमें योगशास्त्रीय और विशुद्ध स्मृतिशास्त्रोक्त विवरण पर्याप्त मात्रा में मिलता है।
नारदपुराण (पूर्वार्ध ९८ अ.) में इस पुराण की जो विषयसूची दी गई है उसके साथ पुराणगत सामग्री का सर्वथा ऐक्य है। पर इस सूची के अंत में जो रामचंद्र कथा, कुशवंश, सोमवंश, नहुष, अयाति, कृष्ण आदि के चरित् कहे गए हैं, वे इस पुराण के मुद्रित संस्करणों में नहीं मिलते।
इस पुराण का श्लोकपरिमाण नव सहस्र कहा गया है (मत्स्य ५३।२६)। प्रचलित संस्करणों का श्लोकपरिमाण न्यूनाधिक सात हजार प्रतीत होता है। यदि नारदपुराणोक्त सब विषयों के विवरणात्मक श्लोक मिल जाएँ, तो संभवत: नव सहस्र संख्या की पूर्ति हो सकती है। इसमें 'सप्तशती' (दुर्गापाठ) संज्ञक जो अंश है (अ. ८१ से ९३ तक) वह परवर्ती काल में मिलाया गया है।
पार्जिटर ने मार्कडेयपुराण के अनुवाद में यथास्थान इसपर विचार किया है। मार्कडेयपुराण की कोई टीका नहीं है, पर इस सप्तशती अंशकी कई टीकाएँ (शांतनवी, नागोजीभट्टीय, तत्वप्रकाशिका आदि) प्रचलित हैं। गीता की तरह इस अंश का पाठ भी पूजादि में किया जाता है, विशेषकर कामनासिद्धि के लिए।
कुमारिल ने इस पुराण का वचन उद्धृत किया है, अत: इसका काल छठी शती से बहुत पहले का होगा। ईसा की प्रारंभिक शती में सामान्यतया इसका काल माना जा सकता है।
इस पुराण के अनेक संस्करण प्रचलित हैं। यथा बिबलिओथिका इंडिका संस्करण; जीवरखन शास्त्री संपादित लखनऊ संस्करण; पूना संस्करण; जीवानंद संस्करण; बंगवासी संस्करण; पार्जिटरकृत अंग्रेजी अनुवाद (टिप्पणी सह); चारुचंद्र बैनर्जी कृत अंग्रेजी अनुवाद केवल हिंदी अनुवाद (आर्यमहिला हितकारिणी परिषद् काशी) (रा.शं.भ.)
८. अग्निपुराण
द्वादश महापुराणों में अग्निपुराण अन्यतम है। अग्नि द्वारा प्रोक्त कारण यह नाम पड़ा। पुराण नामसूचियों में प्राय: इसका स्थान आठवाँ है। इसको तामस पुराण माना गया है।
प्रचलित अग्निपुराण में सर्ग प्रतिसर्ग आदि प्राचीन पंचलक्षणों गौण है; इसकी अधिकतर सामग्री पूजा (विशेषत: तांत्रिक) व्रत आदि से ही संबद्ध है। साथ ही आयुर्वेद, धनुर्वेद, व्याकरण, ज्योतिष (विशेषकर फलित ज्योतिष) आदि श्लोकोपयोगी विद्याओं का विवरण इस पुराण में दिया गया है। इस प्रकार यह पुराण एक विश्वकोश की तरह हो गया है। इस में ही इसको विद्यासार पुराण कहा गया है। इसकी श्लोकसंख्या में मतभेद है। विभिनन संप्रदायों में उपबृहित होने के कारण इस प्रकार का मतभेद होना स्वाभाविक है (दे. रामशंकर भट्टाचार्य अग्निपुराणनुक्रमणी की भूमिका)।
विद्वानों ने यह दिखाया हे कि यद्यपि इस पुराण को कभी-कभी पुराण कहा जाता है, तथापि वह्विपुराण नाम से एक प्राचीनतर था। प्राचीन पुराण के लुप्त होने पर यह नया पुराण नवीन का संग्रह कर निर्मित हुआ। प्राचीन व्ह्रपुराण में रामायण विस्तार के साथ कही गई थी। साथ ही अग्नि का माहात्म्य गया था। (रा.शं.भ.)
९. भविष्यपुराण
पुराण के विषय में बड़ी गड़बड़ी है। इसकी अनेक पाठभेदयुक्तियाँ मिलती हैं१ इस पुराण के चार रूप भविष्यपुराण नाम से होते हैं। मत्स्यपुराण में वर्णित लक्षण एवं नारद पुराणोक्त एवं विषयसूची की समानता कुछ अंशों में चारों में पाई जाती हैं, परंतु चारों में से एक भी प्राचीन भविष्यपुराण कहने योग्य है।
भविष्यपुराण प्राचीन सूत्रकाल से प्रचलित था, क्योंकि उसका आपस्तम्ब धर्मसूत्र होता है (२, २४, ५-६)।
मत्स्यपुराण के मत से इसका स्वरूप इस प्रकार है- अघोर कल्प से ब्रह्मा जी ने सूर्यमाहात्म्य का प्रारंभ कर जगत् की स्थिति, के लक्षण आदि मनु से कहे हैं। इसमें १४५०० श्लोक है। पुराण के अनुसार भविष्यपुराण ब्राह्म वैष्णव, शैव, और प्रतिसर्ग विभक्त है। भविष्यपुराण के ब्राह्मपर्व स्थित वर्णन से भी पाँच की बात स्पष्ट होती है। (अ. १)
इस समय मुद्रित भविष्यपुराण में ब्राह्मपर्व, तीन भागों से युक्त पर्व, चार खंडों से युक्त प्रतिवर्ग पर्व और उत्तर पर्व, इस प्रकार पर्व मिलते हैं। अध्याय ५८५ और श्लोक प्राय: २६००० हजार ब्राह्मपर्व में (अ. १७ - १८) ब्रह्मदेव की पूजा, उसके मंदिर पूजा का महत्व वर्णित है एवं वर्ष का प्रारंभ प्राय: कार्तिक कृष्ण के दिन लिखा है। ब्रह्मा की इतनी विस्तृत पूजा, मंदिर, उत्सव आदि के वर्णन देखकर निश्चित रूप से कह सकते हें कि यह एवं भविष्यपुराण का प्राचीनतम अंश है, क्योंकि ब्रह्मा की पूजा, मंदिरनिर्माण, रथोत्सव आदि भारतवर्ष से सैंकड़ों वर्षों के पूर्व से ही लुप्त हो गए हैं।
इतर पुराणों के समान इस पुराण के श्रवण का प्रारंभ नैमिषारण्य में न होकर शतानीक राजा की नगरी में शतानीक और सुमंतु द्वारा हुआ है। शतानीक नूपति ने शूद्रों की स्थिति अतयत दयनीय देखकर उनके उद्धार के लिए उपाय पूछा है।
ब्राह्मपर्व के द्वितीय अध्याय के ५७ श्लोक से चार अध्याय तक श्लोक प्रचलित मनुस्मृति के श्लोकों से मिलते हैं। इससे अति प्राचीन मनुस्मृति के स्वरूप का पता चलता है। इसी प्रकार ब्राह्मपर्व अ. ७ के आलोचन से प्रचलित मनुस्मृति के पाठों का शोधन करना आवश्यक मालूम हाता है। ब्राह्मपर्व में ब्रह्मा जी का विस्तृत वर्णन होने से उसे ब्राह्मपर्व कहना उचित है परंतु उसमें सूर्य का भी अति विस्तार से वर्णन मिलता है। सूर्य विषयक इतना विस्तृत ज्ञान अन्य किसी पुराण से नहीं मिलता।
इस ब्राह्मपर्व में श्रीकृष्णपुत्र सांब का ऐतिहासिक उपाख्यान आया है। सांब ने सूर्यमूर्ति की प्रतिष्ठा की, किंतु पूजा करने योग्य उपयुक्त ब्राहृमण नहीं पाया। तब नारद के उपदेश से वह शाकद्वीप से १८ प्रकार के सूर्यपूजा आदि जाननेवाले कुलीन ब्राह्मण ले आया। वे 'मग' नाम से प्रसिद्ध थे। श्रीकृष्ण की आज्ञा से मग ब्राह्मणों ने यादव कन्याओं के साथ विवाह किया। उनसे संपूर्ण भोजक उत्पन्न हुए और वे सूर्यपूजा के अधिकारी गिने गए। प्राचीन काल से पारस्य लोगों के सूर्यपूजा के या अग्निपूजा के अधिकारी 'मग' नाम से ही ख्यात थे। भारतीय शाकद्वीपी ब्राह्मणों का यह उपाख्यान ऐतिहासिक तत्व की ओर संकेत करता है।
शैवपुराण के उत्तर खंड में भविष्यपुराण का लक्षण 'भविष्योक्तेर्भविष्यकम्' एवं मत्स्यपुराण में ''भविष्यच्चरित प्रायं भविष्यत्तदिहोच्यते'' इस प्रकार का मिलता है। इनमें 'भविष्यच्चरित प्रायम्' जो लक्षण है उसका लाभ आगे के नए सूतों ने - जिनके समय मूल प्राचीन भविष्यपुराण लुप्त सा हो गया था - अत्यधिक मात्रा में उठाया और विकटावती (विक्टोरिया), आष्टकोशल्य (पार्लिमेंट) आदि तक अपना भविष्य ला रखा (प्रतिवर्ष व २ - २६)। प्रतिसर्गपर्व का चतुर्थ खंड प्राय: पूरा ऐतिहासिक सामग्री से भरा है। इसमें मध्वाचार्य, कृष्ण चैतन्य, आनंदगिरि, रामानुज, नामदेव, कबीर, पीपा, नानक, विष्णुस्वामी, तैमूरलंग, अकबर, औरंगजेब, शिवाजी, मोगल, नादिरशाह, गुरुड (अंग्रेज) आष्टकौशल्य (पार्लियामेंट द्वारा भारत का शासन, २� २) आदि अनेक विषय समाविष्ट हैं।
उत्तर पर्व में (अ. ७ - २०४) करीब दो सौ व्रत, दान आदि उपलब्ध होते हैं। मूल ग्रंथ की तुलना में भविष्यपुराण का विस्तार बढ़ गया है। संप्रति वह करीब २६००० श्लोकों का मिलता है। इस वृद्धि का कारण प्रधानतया इन व्रतों की एवं ऐतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र की वृद्धि ही है। अंग्रेजों का कलकत्ता में व्यापार के निमित्त आगमन भी भविष्यपुराण में वर्णित है! (उज. २२)
श्री शंकराचार्य जी ने भविष्यपुराण के ब्राह्मपर्व के श्लोक अपने भाष्य में लिए हैं। उसी प्रकार याज्ञवल्क्य स्मृति के टीकाकार अपरार्क ने 'तथा च भविष्यपुराण' लिखकर भविष्यपुराण के श्लोक लिखे हैं। अत: भविष्यपुराण का ब्राह्मपर्व मात्र प्राचीन भविष्योपुराण का है और सब भाग समय समय पर बनता गया है। कुछ उसमें प्राचीन भविष्यत्पुराण का भी भाग हो सकता है परंतु इसका निर्णय करना अति कठिन है। (अ.शा.फ.)
१०. ब्रह्मवैवर्तपुराण
अष्टादश पुराणों में राधाकृष्ण की प्रकृष्ट महिमा का प्रतिपादक पुराण। इस पुराण के नामकरण का कारण श्रीकृष्ण की पूर्ण ब्रह्मरूपता को विवृत (प्रकट) करने से माना गया है।
इसके चार खंड है - (१) ब्रह्मखंड (जिसमें सबसे बीजस्वरूप परब्रह्म परमत्मा श्रीकृष्ण के तत्व का निरूपण है); (२) प्रकृतिखंड (जिसमें देवियों के शुभ चरित्रों की चर्चा है); (३) गणपतिखंड (जिसमें गणेश के जन्म तथा चरित् का वर्णन किया गया है); (४) श्रीकृष्णजन्म खंड (जिसमें श्रीकृष्ण के अवतार तथा राधा के संग संपादित रसमयी लीलाओं का विस्तार के साथ वर्णन प्रस्तुत किया गया है)। अंतिम खंड मात्रा में पूरे ग्रंथ के आधे से भी अधिक है। श्रीकृष्ण के संग राधा की नित्यनूतन संपन्न होनेवाली लीलाओं का- विशेषत: दिव्योन्मादमयी रासलीला का- रसमय विवरण ही ब्रह्मवैवर्त का हृदय है।
राधाकृष्ण के आध्यात्मिक स्वरूप की विशिष्ट जानकारी के लिए यह पुराण श्रीमद्भागवत् से कहीं अधिक गौरवशाली ग्रंथ वैष्णव संप्रदायों में माना जाता है। श्रीकृष्ण पुरुषरूप है तथा राधा प्रकृतिरूप हैं। दोनों में पार्थक्य की कल्पना करना असंभव है। जिस प्रकार धवलता तथा दुग्ध में, दाहिकाशक्ति तथा अग्नि में, पृथ्वी और गंध में भिन्नता तथा पृथक् स्थिति मानना नितांत असंभव है, उसी प्रकार राधा तथा कृष्ण की पारस्परिक संयोग की स्थिति है। दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री और राधा - ये पाँचों देवियाँ प्रकृति के नाम से अभिहित की गई हैं। परंतु इनमें सबसे अधिक उत्कर्ष राधा का ही है और राधा के स्तवन में ही उस समग्र पुराण में अपनी चरितार्थता मानता है। श्रीकृष्ण की इतर वृंदावनीय लीलाओं की चर्चा का यहाँ अभाव नहीं है, परंतु रासलीला का ही महनीय उत्कर्ष यहाँ जागरूक है। गोलोक की लीला की महिमा भी यहाँ वर्णित है। ब्रह्मा, शिव, लक्ष्मी, सरस्वती, उद्धव तथा स्वयं श्रीकृष्ण भी राधा के उत्कृष्ट माहात्म्य तथा प्रभूत प्रभाव के सफल स्तावक हैं :
बन्दे राधापदाम्भोजं ब्रह्मादिसुरवंदितम्
यत्कीर्तिकीर्तनेनैव पुनाति भुवनत्रयम्।।
यह श्लोक ब्रह्मवैवर्त के राधामाहात्म्य प्रतिपादन का विशद संकेतक माना जा सकता है।
इस पुराण का भौगोलिक क्षेत्र निस्संदेह उत्तर भारत हैं- वृंदावन तथा मथुरामंडल का समीपस्थ भूमिखंड। प्रकृति खंड के कतिपय (४३-४६) अध्यायों में षष्ठी, मंगलचंडी तथा मनसादेवी के पूजन, अनुष्ठान, माहात्म्य तथ तांत्रिक विधान का विशेष वर्णन उपलब्ध होता है। ये तीनों देवियाँ दुर्गा की कलारूपा मानी गई हैं। ध्यान देने की बात है कि ये तीनों देवियाँ बंगाल में मध्ययुग से लेकर आज भी पूजा तथा सम्मान पाती है। बंगला साहित्य के मध्ययुग में इन देवियों के प्रभावसूचक आख्यान काव्यों की उपलब्धि होती है जिससे इनके उद्भव तथा प्रभाव का क्षेत्र बंगाल माना जाता है। इसलिए आजकल के विद्वान् ब्रह्मवैवर्त की रचना १२-१३वीं शताब्दी में बंगाल में ही मानते हैं। तथ्य यह है कि ये तीनों देवियाँ लोकसंस्कृति से संबद्ध हैं और बंगाल के समान काशी मंडल में (विशेषत: काशी से पूरब भोजपुर में) आज भी इनकी पूजा चर्चा प्रचलित हैं। अत: इन देवियों के विवरणदाता पुराण को बंगाल में ही सीमित मानना समीचीन नहीं प्रतीत होता। (ब.उ.)
११. लिंगपुराण
सृष्टि के आरंभिक विकास एवं शिवमाहात्म्य के साथ लिंगपुराण का आरंभ हुआ है। तदनंतर योग माहात्म्य, द्वापर एवं कलि के व्यासों, योगेश्वरों तथा सिद्धों की परंपरा के बाद अष्टांगयोग की सिद्धियों एवं बाधाओं का निरूपण है। अयोग्य भक्त के ऊपर भी शंकर जी उसके विभिन्न प्रकार के अज्ञान को दूर कर प्रसन्न होते हैं। साधक भक्त की अटूट श्रद्धा ही उसकी सफलता का मूल होती है।
शिवलिंग का तत्वदर्शन नितांत मार्मिक है। प्रत्येक व्यक्ति को जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं की प्रतीतियाँ होती हैं। जाग्रत अवस्थ में स्थूलशरीर, स्वप्न में लिंगशरीर और सुषुप्ति में कारणशरीर का अनुभव होता है। स्थूलशरीरों की समष्टि विराट्, लिंगशरीरों की हिरण्यगर्भ तथा कारणशरीरों की समष्टि ईश्वर है। जिस प्रकार व्यष्टिभाव में स्थूल और लिंगशरीर अंगयुक्त है और कारणशरीर अंगरहित है, उसी प्रकार विराट् एवं हिरण्यगर्भ भी अवयवयुक्त तथा ईश्वरभाव अवयविहीन है। जिस प्रकार व्यष्टि में कारणशरीर रूप अविद्या से शिवरूप चैतन्य आवृत्त प्रतीत होता है उसी प्रकार कारण ब्रह्मरूप ईश्वर अविद्या से आवृत्त है। जीव को निरावृत्त तुरीयावस्था का स्वरूप अनुभत हैख्, इसलिए उसमें परिछिन्नता का भाव आ गया है और वह संसारी है। पर परमात्मा को अविद्या का अतिक्रमण कर स्थित रहनेवाले अपने स्वरूप का ज्ञान है। अत: वह असंसारी है। व्यष्टि में सोपाधिक, चेतन से अभिन्न तुरीयभाव शुद्ध है। उसी प्रकार सोपाधिक ईश्वर भाव से शिवभाव (ब्रह्मभाव) अभिन्न रहता हुआ भी मोक्ष का आश्रय है। इससे स्पष्ट है कि शिवभाव (प्रेमभाव) निरावृत्त है और ईश्वरभाव अविद्या रूपी उपाधि से आवृत्त है। माया (प्रकृति) अविद्या सूचक जलहरी है। उस जलहरी के मध्य में आवृत्त अंश ईश्वर है। जलहरी से बाहर निकला हुआ निरावृत्त भाव शिव का सूचक है।
जिस वस्तु के अंग प्रतीत न हों उसकी प्रतीति पिंडीभाव में होती है। सुषुप्ति दशा में प्रतीयमान विशिष्ट आत्मभाव तथा ईश्वरभाव में अंग की प्रतीति नहीं होती। इसलिए पिंडी रूप में ईश्वर का प्रतीक सर्वथा उचित है। भगवान विष्णु की भी ईश्वरभाव की प्रतिमा शालिग्राम है।
शिवरूप सत्ता को पाकर प्रकृति स्वयं ही द्रवित हो संसार का प्रसव करती है इस भाव को सूचित करने के लिए पिंडी की आश्रयजलहरी (अर्घा) गोल न होकर एक और दीर्घ रहा करती है। लिंग पुराण में लिखा हैं :
लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में त्रिलोकी प्रभु विष्णु और रुद्र के ऊपरी भाग में प्रणव नामवाले सदाशिव स्थित हैं। लिंगवेदी अर्थात् जलहरी (अर्घा) महादेवी जी हैं। लिंग साक्षात् महेश्वर है। लिंगवेदी और लिंगपूजन से सब देवों और देवियों का पूजन हो जाता है। लिंग के प्रति ऐसी ही अनन्य भक्तिनिष्ठा का परिचय वाल्मीकि रामायण से भी मिलता है। राक्षसराज रावण जहाँ जहाँ जाता था, वहाँ वहाँ स्वर्णलिंग साथ ले जाया करता था। बालुकादेवी के मध्य उसे प्रतिष्ठित कर उत्तम गंधवाले पुष्पादि से पूजन करता था।
जिससे सृष्टि का आरंभ होता है, उसी में उसकी परिसमाप्ति भी होती है। चैतन्य रूप लिंग और जगत्प्रसविनी प्रकृतिसत्ता से ही ब्रह्मांड का विकास होता है। इन्हीं दो सत्ताओं का प्रतीक लिंग और वेदी हैं। जब उपासक इसी व्यापक भाव में दृढ़निष्ठ हो शिवपूजन करता है तब उसका चित्त स्थूल की सहायता से सर्वव्यापक परमात्मा की सत्ता में लीन हो जाता है और वह इस भावप्रधान उपासना की दृढ़ता से अनंत विस्तारमयी माया की लीला से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
लिंग का अर्थ ज्ञापक अर्थात् प्रकट करनेवाला है, क्योंकि इसी के व्यक्त होने से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। दूसरा अर्थ आलय है, अर्थात् वह प्राणियों का परम कारण और निवासस्थान है- सर्वे लिंगमयालोका: सर्वे लिंगे प्रतिष्ठिता:। तीसरा अर्थ-समस्त दृश्यों का जिसमें लय हो, वह परम कारण है - लयनालिंगमित्युक्त तत्रैव निखिलं सुरा: (पू. ३०।१६)।
शिव का विष्णु और ब्रह्मा पर आधिपत्य सूचित करनेवाली अनेक कहानियों की धारा इसमें प्रवाहित है। पार्वती स्वयंवर की कथा अन्य पुराणों से विचित्र है।
नृसिंह रूप विष्णु को परास्त करने के लिए शिव के शरभावतार की कथा अत्यंत ओजस्विनी है। हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात् विष्णुस्वरुप नृसिंह घोर गर्जन करने लगे, जिसके आंतक से ब्रह्मलोक तक सब लोग थर्रा उठे। विवश होकर देवगण मंदराचल पर शिव के समीप गए। शिव ने निजांश भैरव रूप वीरभद्र को स्मरण किया और आने पर उनसे यह कहा - देवता इस समय नितांत भयभीत हैं। अत: नृसिंहरूप अग्नि का शीघ्र शमन करो। मधुर वाणी से समझाने पर यदि वे न मानें, तो भैरव रूप दिखलाओ। वीरभद्र ने नृसिंह के पास जाकर स्तुति की किंतु नृसिंह प्रसन्न नहीं हुए। दोनों में विवाद बढ़ा। पर शिव की कृपा से वीरभद्र का रूप नितांत कठोर, विशाल तथा भयंकर हो गया। इस रूप का आधा अंश मृग का और आधा शरभ पक्षी का था। शरभरूप शिव अपने पुच्छ में नृसिंह को लपेटकर छाती में चोंच का प्रहार करते हुए, इस प्रकार उड़े जैसे सर्प को लेकर गरुड़ उड़ते हैं। विवश होकर नृसिंह ने क्षमाप्रार्थनापूर्वक स्तुति की।
विष्णु के द्वारा सुदर्शन-चक्र-प्राप्ति का उपाख्यान भी शिव की अचिंत्य महिमा का प्रत्यय जगा देता है। शिवतुष्टि के लिए एक बार विष्णु ने कठोर तप किया और शिवसहस्रनाम स्तोत्र के साथ एक सहस्र कमल शंकर जी को अर्पित करने के लिए एकत्र किए। परीक्षार्थ शिव जी ने उनमें से एक कमल कम कर दिया। एक कमल की कमी होने पर विष्णु ने अपना एक नेत्र शिव जी को अर्पित कर दिया। इस साहसपूर्ण भक्ति से तुष्ट होकर शंकर जी ने दर्शन दिया और कमल जैसा नेत्र तथा सुदर्शन चक्र विष्णु को प्रदान किया। तभी से विष्णु का नाम 'पुंडरीकाक्ष' पड़ा।
शिव की महिमा को द्योतित करनेवाले ऐसे अनेक उपाख्यानों की शृंखला के कारण शिव-तत्व-बोध का साधनापथ प्रशस्त किया गया है। इनमें अनेक कथाएँ रूपकात्मक हैं, जिनके रहस्यपरिचय से आत्मशुद्धि की साधना में निर्बाधता आती है। कामदहनं, त्रिपुरवध आदि की कल्पना ऐसी ही है।
विभिन्न पुराणों में लिंगपुराण का जो परिचय दिया गया है, वह इसमें प्राप्त होता है। ईशान-कल्प-वृत्तांत के प्रसंग में ब्रह्मा ने जिस पुराण की कल्पना की है, उसका नाम लिंगपुराण है। अलिंग को लिंग का मूल कहा गया है। इसमें शिव २८ अवतारों, शिव्व्रातों तथा तीर्थों का विशेष वर्णन है। शैव दर्शन के अनुरूप पशु, पाश तथा पशुपति का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। धातुगत अर्थ के साथ अनेक शब्दों का विवेचन भाषाविज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अनेक आभिचारिक सिद्धियों का भी उल्लेख है। मत्स्य, नारद, ब्रह्मवैवर्त, भागवत आदि के अनुसार यह ग्यारहवाँ पुराण है। इसके श्लोकों की संख्या ग्यारह हजार है। इसके दो खंड हैं - पूर्व भाग और उत्तर भाग। पूर्व भाग में १०८ और उत्तम भाग में ५५ अध्याय हैं। ब्राह्मणसर्वस्व में हलायुध ने बृहिंल्लगपुराण से प्रमाण वाक्य उपस्थित किया है। पर यह इस समय नहीं मिलता। 'वशिष्ठलिंग-पुराण' नामक ग्रंथ भी मिलता है।
मत्स्य और नारदपुराण के अनुसार लिंगपुराण में अग्निकल्ष की कथाएँ होनी चाहिए, किंतु उपलब्ध लिंगपुराण में उसी के अनुसार ईशानकल्प की कथाएँ हैं। यह अवश्य है कि प्रतिपाद्य विषय के साथ अग्निमय लिंग का विवरण प्राप्त होता है। सांप्रदायिक मनोवृति का प्रभाव भी इसमें दिखाई देता है। कुछ विद्वेषसूचक पंक्तियाँ भी मिलती हैं। यदि इन्हें छोड़ दिया जाए तो इस पुराण की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है।
अरुणांचल माहात्म्य, पंचाक्षर माहात्म्य, रुद्राक्ष माहात्म्य, राम सहस्रनाम, सरस्वती स्तोत्र आदि कई रचनाएँ लिंगपुराण के आधार पर ही प्रणीत हुई हैं। (गं.ध.मि.)
१२. वराहपुराण
अनेक पुराणों में दी गई सूची के अनुसार वराहपुराण का अठारहों महापुराणों में १२वाँ स्थान है। केवल देवीभागवत तथा कूर्मपुराण में इसे ११वाँ स्थान दिया गया है। संप्रति वराहपुराण का जो संस्करण उपलब्ध है उसमें १०५०० श्लोक मिलते हैं जब कि शिवपुराण के अनुसार इसमें २४००० तथा देवीभागवत के मत से १६००० श्लोक होने चाहिए। दक्षिण भारत में वराहपुराण की जो हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हैं, उनमें तथा उत्तर भारत की गौड़ सम्मत वराहपुराण की प्रति में बड़ा अंतर पाया जाता है। अनेक श्लोकों तथा अध्यायों के भिन्न होने पर भी वणर्य विषयों की समानता दोनों में दिखाई पड़ती है। किंतु संप्रति उपलब्ध वराहपुराण को अनेक पुराणों की सूची में वर्णित वराहमहापुराण मानना उचित होगा या नहीं, यह कठिन प्रश्न है, क्योंकि वर्तमान में सुलभ वराहपुराण में साढ़े तेरह हजार अथवा साढ़े पाँच हजार श्लोकों की कमी कुछ कम नहीं होती। वराहपुराण की उपलब्ध प्रतियों के पर्यालोचन से स्पष्ट हो जाता है कि इसमें विविध पुराणों की सामग्रियाँ भी संकलित कर दी गई हैं तथा पुराणों की सूचियों में वर्णित आख्यानों में से अनेक इसमें नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन वराहमहापुराण की मूल प्रति के विलुप्त हो जाने पर उसके यत्रतत्र प्राप्त अंशों को लेकर ही परवर्ती पंडितों अथवा सूतों ने वराहपुराण के वर्तमान रूप को अनेक स्थलों की फुटटकर सामग्रियों से सँजोया है।
नारदीय पुराण तथा मत्स्यपुराण में वराहपुराण के संबंध की जो सूचनाएँ मिलती हैं उनके अनुसार इसे दो भागों में विभक्त होना चाहिए और दोनों में भगवान् विष्णु के विविध प्रकार के महात्म्यों का वर्णन होना चाहिए। किंतु वर्तमान में सुलभ वराहपुराण में दो भाग नहीं हैं और न तो सूची के अनुसार मानवकल्प प्रसंग में विष्णुरचित पृथ्वी के सामने महावराह का विस्तृत माहात्म्य ही है। यही नहीं, जहाँ उक्त सूची के अनुसार विविध आख्यानों, उपाख्यानों तथा क्रियाकलापों का इसमें सविधि वर्णन होना चाहिए, वहाँ उपलब्ध वराहपुराण में बहुसंख्यक व्रतों, तीर्थों तथा दीक्षादि संस्कारों की विधियाँ इतने विस्तार के साथ वर्णित हैं कि जिन्हें देखते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी सामग्रियाँ अनेक पुराणों से लेकर ज्यों की त्यों अथवा कुछ परिवर्तन परिवर्द्धन करके रख दी गई हैं। तीर्थों के प्रसंग में मथुरा का माहात्म्य भी नवीन मालूम पड़ता है, जब कि सूची के अनुसार उत्तरार्द्ध के पुलस्त्य-कुरुराज-संवाद में धरती के सुप्रसिद्ध तीर्थों का सुविस्तृत माहात्म्य प्रस्तुत प्रतियों में दुर्लभ है। इसी प्रकार विविध धर्मानुष्ठानों एवं पुण्य पर्वां से संबंधित कथाएँ भी प्राप्त संस्करण में नहीं हैं।
यही नहीं, वराहपुराण की प्राप्त प्रतियों में कोई भी ऐसी बृहत्कथा नहीं मिलती जो अन्य महापुराणों की लंबी कथाओं की भाँति हो। प्रत्युत इसमें अनेक छोटे मोटे स्तोत्रों एवं माहात्म्य के ग्रंथों का भी संनिवेश हो गया है, जैसे चातुर्मास्य माहात्म्य, त््रयंबक माहात्मय, श्रीमद्भगवद्गीता माहात्म्य, विमान माहात्म्य, वेंकटगिरि माहात्म्य, आदि।
इस प्रकार वराहपुराण के उपलब्ध संस्करण में परवर्ती पंडितों, कथाव्यासों, सूतों तथा लिपिकर्ताओं के कारण इतने अधिक विषयों का समावेश हो गया है कि उसे स्मार्त धर्म का एक छोटा आकर ग्रंथ मानने के लिए विवश होना पड़ता है। माहात्म्य तथा स्तोत्रसाहित्य की इतनी भरमार तो शायद ही किसी अन्य महापुराण में मिल सके।
संप्रति उपलब्ध वराहपुराण की बात तो नहीं कही जा सकती किंतु अन्यान्य पुराणों में जिस प्रकार महापुराण की चर्चा एवं कथासूची दी गई हैं उसकी रचना अवश्य ही ईसा की १२वीं शताब्दी के पूर्व मानना पड़ेगा, क्योंकि १२वीं तथा १३वीं शताब्दी में रचित गौड़ाधिप बल्लाल सेन के दानसागर एवं हेमाद्रि नामक ग्रंथों में वराहपुराण के कतिपय उद्धरण मिलते है। (रा.प्र.त्रि.)
१३. स्कंदपुराण
पुराणों में इसको तामस (तमोगुणी शिव से संबद्ध) माना गया है। शैव, लिंग, वराह, स्कंद, मत्स्य, कूर्म आदि कुछ पुराण शिवमाहात्म्य प्रकाशक हैं, यह शिवरहस्य के संभवकांड में कहा गया है।
यह पुराण एक ग्रंथ की तरह नहीं है, बल्कि अनेक परस्पर असंलग्न खंडों का समाहार मात्र है। इन खंडों के भी अवांतर खंड हैं और साथ ही अनेक पृथक् पृथक् संहिताएँ भी इसके अंतर्गत कही जाती हैं। खंडों के नाम और अध्याय-श्लोक-संख्या में भी कुछ न कुछ मतभेद हैं।
वेंकटेश्वर संस्करण के अनुसार इसमें सात खंड हैं : १- महेश्वरखंड, जिसमें केदार, कुमारिका, अरुणाचल नामक तीन अंतर्गत खंड हैं। २- वैष्णव खंड, जिसमें भूमिवाराह (बंगवासी संस्करण में वेंकटाचल), उत्कल (बंगवासी संस्क. में पुरुषोत्तम), बदरिका, कार्त्तिक, मार्गशीर्ष, भागवत, वैशाख और अयोध्या- ये आठ अंतर्गत खंड हैं। ३- ब्रह्मखंड, जिसमें सेतु, धर्मारण्य, चातुर्मास्य और ब्रह्मोत्तर ये चार अंतर्गत खंड हैं (बंगवासी संस्करण में चातुर्मास्य खंड नहीं है)। ४- काशीखंड। ५- आवंत्य खंड, जिसमें अर्वतीक्षेत्र, चतुरशीतिलिंगमाहात्म्य और रेवाखंड- ये तीन अंतर्गत खंड हैं। ६- नागखंड। ७- प्रभासखंड, जिसमें प्रभासमाहात्म्य, अर्बुदखंड और द्वारकामाहात्म्य नामक तीन अंतर्गत खंड हैं। बंगवासी संस्करण में एक वस्त्रापथ माहात्म्य भी हैं, जो वेंकटेश्वर संस्करण में प्रभास क्षेत्र माहत्म्य में ही अंतर्भुक्त है।
इन दो संस्करणों की अध्यायसंख्या में भी पर्याय अंतर है, पर श्लोकसंख्या ८१,००० ही कही जाती है। रेबाखंडातर्गत सत्यनारायण व्रतकथा बंगवासी संस्करण में ही है, वेंकटेश्वर में नहीं। बंगवासी संस्करण के संपादक का कहना है कि उत्कल खंडादि में भी अनेक नूतन संयोजक किए गए हैं क्योंकि उनको वैसे ही हस्तलेख मिले थे।
उपर्युक्त खंडों के अतिरिक्त कुछ अन्य संहिताएँ भी स्कंदपुराण से संबंद्ध मानी जाती हैं, यथा- सनतकुमारसंहिता, सूतसंहिता, शांकरीसंहिता, वैष्णवीसंहिता, ब्राह्मीसंहिता और सौरीसंहिता। साथ साथ यह भी कहा गया है कि यह पुराण 'पंचाशतखंडमंडित' है। इन संहिताओं का विवरण 'अष्टादशपुराण दर्पण' के स्कंदपुराण प्रकरण में दष्टव्य है। इन छह संहिताओं का श्लोकपरिमाण भी ८१,००० होता है। एक तापी माहात्म्य भी है (पूर्वोक्त नागरखंड के स्थान में) पर वह मुद्रित दोनों संस्करणों में नहीं मिलता। नारदपुराण (पूर्वार्ध १०४ अ.) में स्कंदपुराण के विषयों की एक विशद सूची है, वहाँ भी 'तापी' नामक खंड नहीं है, बल्कि नागरखंड ही हैं। इन संहिताओं और खंडों में शिवार्चना, शिवमहिमा आदि शिवपरक विषयों का विस्तार से वर्णन हुआ है। (रा.शं.भ.)
१४. वामनपुराण
इसमें विष्णु के वामनावतार संबंधी प्रसंगों के अतिरिक्त शिवकल्प का भी वर्णन मिलता हैं। नारदपुराण के मतानुसार इसमें दो भाग हैं तथा श्लोकसंख्या १० हजार हैं। आधुनिक संस्करण में उत्तर भाग नहीं मिलता। प्रथम भाग की सूची बहुत कुछ नारदपुराण की सूची से मिलती है जो इस प्रकार है- दक्षयज्ञध्वंस, मदनदहन, प्रह्लाद-नारायण-युद्ध, श्रीदुर्गाचरित, पार्वतीजन्मकीर्तन, गौरीउपाख्यान, कुमारचरित, बलिचरित, त्रिविक्रमचरित, प्रेतोपाख्यान, ब्रह्मा द्वारा की गई स्तुति, आदि।
मत्स्यपुराण ने भी इसकी श्लोकसंख्या १० हजार मानी है। पर उसमें जो यह कहा गया है कि चतुर्मुख ब्रह्मा ने इस पुराण का वर्णन किया था, वह बात वर्तमान उपलब्ध संस्करणों के संबंध में घटित नहीं होती। इसके सिवा इसमें और भी इधर उधर के प्रसंग आ गए हैं जिससे विलसन साहब गरुड़ पुराण की तरह इसकी भी गणना पुराणों में नहीं करते और इसे बहुत बाद की रचना मानते हैं।
१५. कूर्मपुराण
महापुराणों के क्रम में कूर्मपुराण प्राय: १५ वाँ गिना जाता है। मत्स्यपुराण के मत से इसकी श्लोकसंख्या १८,००० तथा नारद पुराण के मत से १७,००० है, परंतु इस समय में जो कूर्म पुराण उपलब्ध है उसकी श्लोकसंख्या ६,००० मात्र है। अत: इसका अधिकांश लुप्तप्राय है और जो भाग मिलता है वह केवल ब्राह्मीसंहिता मात्र है। नारदपुराण के अनुसार इस पुराण की चार संहिताएँ थीं ब्राह्मी- पूर्व और उत्तर भाग में विभक्त श्लोकसंख्या ६,०००; भागवती पाँच पादों में विभक्त, श्लोकसंख्या ४,०००; सौरी संहिता २००० श्लोक; वैष्णवी संहिता- चार पादों में विभक्त, श्लोकसंख्या ५,०००।
यह पुराण नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों को सत्र के में रोमहर्षण सूत ने सुनाया है। इस का प्रारंभ इस प्रकार है :- लक्ष्मी कल्प में देव और दानव अमृतप्राप्ति के निमित्त के समुद्र का मंथन करते थे। मंदर पर्वत को धारण किए हुए कूर्म रूपी विष्णु की देवता और ऋषि स्तुति करते थे। इतने में श्री (लक्ष्मी) प्रकट हुई। कूर्मरूपधर विष्णु द्वारा यह उनकी परम शक्ति या माया जगत् को धारण करनेवाली है, ऐसा मालूम होने पर ऋषियों का प्रार्थना से कूर्मरूप भगवान् विष्णु ने इस पुराण का उपक्रम किया। इंद्रद्युम्न नामक ब्राह्मण पूर्व जन्म में राजा था और उसने कूर्मरूप धारण किए हुए विष्णु से इस पुराण को ऋषि मुनियों के सहित सुना (१, २७ - ४४)। इंद्रद्युम्न के अनेक प्रश्नों के उत्तर में वर्णाश्रम धर्म (अ. २ - ३), प्राकृत सर्ग, सृष्टि, वेदों का प्रादुर्भाव (४ - ९), रुद्रसृष्टि, ईशानी - सती - पार्वती रूप देवी का प्रादुर्भाव, उसका माहात्म्य (११ - १२), दक्ष (१३), पृथु के वंश का वर्णन (१३, १४) कश्यपवंश, ऋषिवंश, राजवंश, सोम, यदु आदि के वंशों का वर्णन (१८ - २९), वामनचरित (१७), रामचरित (२१), कृष्णचरित (१४ - २६), वाराणसी एवं उसमें स्थिर कपर्दीश्वर आदि लिंगों का वर्णन (३१।३५), प्रयाग माहात्म्य (३६ - ३९), भुवनविन्यास, भुवनकोश, जंबू आदि द्वीपों का वर्णन (अ. ४० - ५०) आदि विषय ब्राह्मीसंहिता के पूर्वार्ध में वर्णित हैं। पूर्वार्धं के ५३ अध्याय हैं। उत्तरार्ध में ४६ अध्याय हैं। उसमें ईश्वरगीता और व्यासगीता, ये दो गीताएँ आई हैं। ईश्वरगीता में शिव और विष्णु के संवाद में शैव दर्शन के अनेक विषय आए है। शैव संप्रदाय के बोध के लिए यह गीता अतीव उपयुक्त है (अ १-११)। व्यासगीता में कर्मयोग, सदाचार, नित्यकर्म, भक्ष्याभक्ष्यविचार, संध्या, श्राद्ध, अशोच, अग्निहोत्र, दान, वानप्रस्थ, यति के धर्म, प्रायश्चित्त आदि विषयों का वर्णन देखने योग्य हैं। गया, कुब्जाश्रम, देवदारुवन आदि का वर्णन (३५-३९), नर्मदा नदी का माहात्म्य (४०-४२), प्रलय आदि का वर्णन भी (४४-४६) रोचक है। ईश्वरगीता के ऊपर विज्ञानभिक्षु का भाष्य भी उपलब्ध होता है।
इसमें कुछ तांत्रिक विषय आने से कुछ लोग तंत्रों के प्रचार के बाद इसका प्रणयन मानते हैं। परंतु यह मानना गलत है, क्योंकि ईसा के द्वितीय शतक में प्रादुर्भूत नागार्जुन ने अपने कक्षपुटी नामक ग्रंथ में - शांभवे यामले शाक्ते मौले कौलेय डामरे। (६-७) आदि अनेक तंत्रों का वर्णन किया है, अत: अन्य प्राचीन महापुराणों के समान इस कूर्मपुराण को (ब्राह्मीसंहिता को) प्राचीनतम कहना ही उचित है। (अ.श.फ.)
१६. मत्स्यपुराण
मूल रूप में 'मात्स्य' पुराण पर्याप्त प्राचीन है। महाभारत के वनपर्व (१८७।५७) में 'मात्स्यकं नाम पुराणम्' कहा गया है, जो मनु-मत्स्य-संवाद को लक्ष्य करता है। यह प्राचीन पुराण ही क्रमश: नाना संप्रदायों के द्वारा उपबृंहित होकर वर्तमान रूप में विकसित हुआ है।
इसकी श्लोसंख्या के विषय में भी मतभेद है। मत्स्यपुराण (५३।५०) में ही इसकी श्लोकसंख्या १४,००० कही गई है, जो नारदपुराण में भी स्वीकृत हुई है। नारदपुराण में (पूर्वार्ध १०७ अ.) मत्स्यपुराण की जो विषयसूची दी गई है, वह प्रचलित मत्स्यपुराण में पूर्णत: घटती है। अन्य पुराणों में इसकी श्लोकसंख्या १३,००० कही गई हैं जो निबंधकारों के द्वारा भी समर्थित है। उपबृंहण के विभिन्न स्तरों के कारण ही श्लोकसंख्या में मतभेद होते हैं।
उपलब्ध हस्तलेखों के आधार पर मत्स्यपुराण के शाखाभेदों का भी ज्ञान होता है। प्रचलित मत्स्यपुराण में कोई खंडभेद नहीं है। पर कुछ प्राचीन हस्तलेखों से पूर्व और उत्तर खंड में विभक्त मत्स्यपुराण की सत्ता ज्ञात होती है।
इस पुराण में मुख्यत: ये विषय हैं - मत्स्यावतार, सृष्टि, सूर्य सोमवंश, पितृवंश, श्राद्ध, ययाति-कच-देवयानी-कथा, अग्निवंश, व्रतप्रतिष्ठा, प्रयाग-वाराणसी-नर्मदा-माहात्म्य, भुवनकोश, त्रिपुरदहन, मन्वंतरयुग, तारक-कार्तिक कथा, सावित्रीकथा, राजधर्म, दान, उत्पातशांति, समुद्रमंथन, वास्तुप्रासाद, कल्प।
इसमें कुछ विशिष्ट तथ्य भी मिलते हैं, यथा भरत का लक्ष्मीस्वयंवर नाटक, नाट्यवेदपारण्य वररुचि, कामशास्त्रप्रणीता बाभ्रण्य पांचाल, हस्तिशास्त्रप्रणेता सोमपुत्र बुध इत्यादि। धर्मशास्त्रीय सामग्री यहाँ प्रचुर मात्रा में है।
दीक्षितार ने इस पुराण का काल तृतीय शताब्दी का अतिमांश निश्चित किया है। इसके कुछ अंश निश्चित ही प्राचीन काल के हैं और तदनुसार ईसा पूर्व तृतीय-चतुर्थ शताब्दी से तृतीय शताब्दी तक इसका काल माना जा सकता है।
इस पुराण की रचना मुख्यत: कहाँ हुई थीं, इसमें विद्वानों में मतभेद हैं। श्री दीक्षितार के अनुसार दक्षिण भारत इस पुराण का रचनास्थल है। पार्जिटर का अनुमान था कि आंध्र प्रदेश ही रचनास्थल हो सकता है। हाजरा नर्मदा को रचनास्थल मानते हैं।
एक 'स्वल्प मत्स्य पुराण' भी मिलता है (Journal of Ganganath Jha R. I. Vol IX, P2 - 4)। यह अपेक्षाकृत अर्वाचीन है, यह लेखक ने प्रतिपादित किया है। रघुवंश के 'वृषोत्सर्गतत्व' में यह पुराण स्मृत हुआ है (दे. अष्टादश पुराण का मत्स्य पुराण प्रकरण)।
इस पुराण का एक अंग्रेजी अनुवाद भी पाणिनि आफिस, इलाहाबाद, से निकला था। हिंदी अनुवाद हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से प्रकाशित हुआ है। पंचानन तर्करत्नकृत बँगला अनुवाद भी है।
सं.ग्रं. - वी. आर. रामचंद्र दीक्षितार कृत 'दि' मत्स्यपुराण ए स्टडी'। (रा.शं.भ.)
१७. गरुड़पुराण
मत्स्यपुराण में दिए गए विवरण के अनुसार विष्णु ने गरुड़ की उत्पत्ति के प्रसंग में जिस पुराण का वर्णन किया है वही गरुड़ पुराण है। इसकी श्लोकसंख्या १८,००० बताई गई है।
नारदपुराण के मत से इसमें दो खंड तथा १९,००० श्लोक हैं। पूर्वखंड में सूर्यादि की पूजाविधि, विष्णु सहस्रनाम कीर्तन, शिवार्चन, दुर्गार्चन, समस्त वर्णधर्म, आश्रमधर्म, सूर्यवंश, सोमवंश, रामायण, भारताख्यान, आयुर्वेद में निदानचिकित्सा, व्याकरण, छंद:शास्त्र, नित्यश्राद्ध, सपिंडाख्य श्राद्ध, योगशास्त्र, नारसिंह स्तव, वेदांत-सांख्यसिद्धांत तथा गीतासारफल आदि का वर्णन है। उत्तरखंड में प्रेतकल्प का वर्णन है, जिसमें यमलोक के पथ का विवरण, षोडश श्राद्धों का फल, धर्मराज का वैभव, प्रेतकत्व विचार, प्रेतत्व-मोक्ष-कथन, यमलोक वर्णन, वृषोत्सर्ग माहात्म्य, स्वर्ग-सुख-निरूपण, सप्तलोक वर्णन, ब्रह्मजीव निरूपण, आदि का समावेश है।
इस समय जो गरुड़पुराण उपलब्ध है, उसे यद्यपि प्राध्यापक विलसन साहब मूल गरुड़पुराण नहीं मानते, फिर भी नारदपुराण में दी हुई सूची के अधिकतर विषय वर्तमान संस्करण में मिलते हैं और इधर उधर कुछ हेरफेर के बावजूद उसे मूल पुराण मानने में विशेष कठिनाई नहीं जान पड़ती। इतना अवश्य हैं कि नारदपुराण में दी हुई श्लोकसंख्या की तुलना में प्रचलित पुराण में प्राय: ७,००० श्लोक कम पाए जाते हैं। यत्रतत्र जो थोड़े से प्रक्षिप्त अंश इसमें समाविष्ट हो गए हैं, केवल इसी कारण उसे आधुनिक मान लेना उचित नहीं जान पड़ता। अनेक आंतरिक तथा बाह्म प्रमाणों के आधार पर इसकी मूल रचना प्रथम या द्वितीय शती ईसवी की मानी जा सकती है।
१८. ब्रह्मांडपुराण
पुराणों की शृंखला में ब्रह्मांडपुराण का अंतिम या १८वाँ स्थान है। केवल देवीभागवत के मत से इसे छठा स्थान दिया गया है। मत्स्यमहापुराण तथा शिवपुराण के मत से इसके श्लोकों की संख्या १२,२०० होनी चाहिए जबकि अन्य पुराणों ने इसके श्लोकों की संख्या १२,००० बतलाई है। ब्रह्मांडपुराण शैवों और शाक्तों से प्रभावित वाङ् मय है। इसके पूर्वभाग के इतिहास, वंशानुचरित तथा भूगोलवर्णनों में शैव कृतित्व की प्रधानता है और उत्तरभाग का ललितोपाख्यान स्पष्टतया शक्ति की आराधनापद्धति तथा ललितादेवी के गुणानुवर्णन से युक्त है। किंतु इसका खंड या भाग आकर या रचनापद्धति में स्कंद आदि अन्यान्य पुराणों के खंडों की भाँति नहीं है। अनेकानेक स्तोत्र तथा माहात्म्य आदि इस पुराण के अंतर्गत आ गए हैं। अत: अनुमान होता है कि हमारे देश के शाक्तों तथा शैवों में किसी समय इसका यथेष्ट प्रचलन रहा होगा। वायुपुराण के शेषांश का नाम ब्रह्मांड खंड होने के कारण कुछ लोग इसे वायुपुराण का एक अंश मानते हैं। किंतु यह भ्रम नाम की समानता के कारण उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि दोनों के वस्तुतत्व में कही भी कोई समानता नहीं पाई जाती। पुराणों के पाश्चात्य गवेषक अध्यापक विलसन, राजा राजेंद्रलाल मित्र, भांडारकर प्रभृति पुरातत्विदों ने ब्रह्मांडपुराण की प्राचीनता के संबंध में संदेह किया है। उनका यह संदेह ब्रह्मांडपुराण की किन्हीं किन्हीं प्रतियों की पुष्पिका में 'वायुप्रोक्ते संहिताया' के लेख के कारण है। किंतु नारदीय पुराण में ब्रह्मांडपुराण के 'वायुप्रोक्त' होने के स्पष्ट उल्लेख के कारण यह भ्रम निराधार हो जाता है।
संप्रति उपलब्ध ब्रह्मांडपुराण के पूर्वभाग में चार खंड या पाद हैं : (१) प्रक्रिया पाद (५ अध्यायों में), अनुषंग पाद (३३ अध्यायों में), उपोद्धात पाद (७४ अध्यायों में), तथा उपसंहार पाद (४ अध्यायों में) - कुल ११६ अध्याय हैं। इसी प्रकार उत्तर भाग में तीन खंड या पाद हैं : (१) उपोद्घात खंड (६ अध्यायों में) युद्धखंड (१९ अध्यायों में), तथा उपसंहार खंड (१५ अध्यायों में) - कुल ४० अध्याय हैं। इस प्रकार इसके समस्त अध्यायों की संख्या १५६ तथा श्लोकों की संख्या १२,००० है।
ब्रह्मांडपुराण का प्रचलन भारत के बाहर भी रहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि ५वीं शताब्दी में यह भारतवर्ष से यवद्वीप में पहुँचा था। बालिद्वीप समूहों में आज भी वहाँ की भाषा में इसका अनुवाद मिलता है। हमारे देश में प्रचलित ब्रह्मांडपुराण के भविष्यराजवंश वर्णन के प्रसंग को छोड़कर और सभी अंशों में बालिद्वीप का ब्रह्मांडपुराण प्राय: मिलता जुलता है।
ब्रह्मांडपुराण में पुराण के सुप्रसिद्ध पाँचों लक्षणों का सुंदर समन्वय है। इसका समारंभ वायु और नैमिष ऋषि के संवाद के रूप में हुआ है और इसके पूर्वभाग के मुख्य कथाप्रसंग इस प्रकार हैं : ब्रह्मा और रुद्र क प्रजासृष्टि, रुद्र को नीललोहित नामक पुत्र की प्राप्ति, प्रिय्व्रात का वंशानुवर्णन, युग्भेद और युगधर्म, मन्वंतर वर्णन, हिरण्यकशिपुचरित्, परशुरामचरित्, समगरचरित्, बुध और यदु आदि के वंशों का वर्णन आदि। उत्तरभाग के विस्तृत अंश में ललितादेवी का सुविस्तृत माहात्म्य है। इसमें भंडारसुर के साथ लतितादेवी के त्रिदिवसव्यापी युद्ध का रोमांचकारी वर्णन पढ़ने योग्य है। देवी द्वारा विजयप्राप्ति के अनंतर उनके विविध महिमाप्रसंग भी वर्णित हैं। देवी की पूजाविधि, मुद्रा, उनके विधि पीठ एवं तांत्रिक नियमों की भी इसमें यथाप्रसंग चर्चा की गई है।
इस प्रकार ब्रह्मांडपुराण शैव एवं शाक्त संप्रदायों की पारंपरिक सद्भावना एवं समन्वय का एक उज्ज्वल प्रतीक मालूम पड़ता है। इसके द्वारा शिव एवं शक्ति के सम्मिलित रूप का वर्णन तथा उनकी सत्ता, महत्ता एवं विभूति का गायन ही पुराणकर्ता का इष्ट मालूम पड़ता है। इन दोनों मुख्य प्रतिपाद्य विषयों के संदर्भ में जो अन्यान्य छोटे छोटे प्रसंग आए हैं वे या तो बाद में सम्मिलित किए गए हैं अथवा अन्यान्य पुराणों की परिभाषा को चरितार्थ करने का प्रयत्न किया गया है। (रा.प्र.त्रि.)
१. गणेश पुराण - गणेश पुराण महापुराणों, उपपुराणों, औपपुराणों या खिलपुराणों की सूची में नहीं हैं, परंतु गणेशपुराण ने स्वयं अपने को अन्य उपपुराणों के साथ गिना है (पू. १,७)। अत: इसको उपपुराण कहना उचित होगा।
भारत में प्राचीन काल से जो अनेक संप्रदाय प्रचलित हैं उनमें गाणपत्य संप्रदाय के महत्व के ग्रंथों में यह पुराण गिना जाता है। इसके पूर्वार्ध या पूर्वखंड और उत्तरार्ध या उत्तरखंड, ये दो भाग हैं। पूर्वार्ध को उपसनाखंड और उत्तरार्ध को क्रीडाखंड भी कहते हैं। पूर्वार्ध में ९३ अध्याय और श्लोकसंख्या प्राय: ५,८५४ है, और उत्तरार्ध में १५५ अध्याय तथा श्लोकसंख्या ७,८३० है। सब मिलाकर १३,६८४ श्लोक होते हैं।
इस पुराण की अधिक प्रसिद्ध एवं इस पुराण में कथित पद्धति के अनुसार उपासना करनेवाले लोग दक्षिण में, विशेषत: महाराष्ट्र में, मिलते हैं। इसकी लिखित प्रतियाँ भी अधिकतर दक्षिण में मिलती हैं। इस पुराण के प्रादुर्भाव का क्रम - ब्रह्मा से व्यास, उनसे भृगु, भृगु से सौराष्ट्र के देवनगर के राजा सोमकांत को मिला। वह पूर्वजन्म के पाप से कुष्ठरोग से ग्रस्त हुआ। बाद में वह वन में जाने के लिए उद्यत हुआ। तब उसके पुत्र हेमकंठ से पूछने पर उसे यह पुराण उसने सुनाया। पुराणकथन के बाद उसका कुष्ठ निवृत्त हुआ।
इसके पूर्वार्ध में अनेक व्रतों के माहात्म्य और विधियाँ वर्णित हैं, जैसे संकष्टी व्रत, चतुर्थी व्रत आदि। गणेशसहस्रनाम, गणेशपार्थिवपूजन निरूपण, गजाननस्वरूपकथन आदि विषय दार्शनिक और धर्मशास्त्रवेत्ताओं के लिए माननीय हैं। सिद्धक्षेत्रोत्पत्ति, चिंतामणितीर्थ, आदि स्थानों का वर्णन एवं भ्रुशुंडारख्यान, गृत्समदोपाख्यान, वरदाख्यान, कार्तवीर्योपाख्यान आदि आख्यान समाजशास्त्र और इतिहास की दृष्टि से विचारणीय हैं।
उत्तरार्द्ध में गणेश के विनायक, मयूरेश, गजानन इन प्रमुख अवतारों का विशद वर्णन है। इन अवतारों की बाल्यक्रीड़ा का वर्णन देखकर श्रीमद्भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण की लीलाओं की याद आती है। विनायक चरित्र में काशीराज दिवोदास का चरित्र (४५-४८) एवं उसके साथ (७१) विनायक का व्यवहार मनन करने योग्य है। १३८ अध्याय से १४८ अध्याय तक गणेशवरेण्य संवाद द्वारा गणेश गीता आई है। उसके अध्यायों के नाम और विषयों को देखकर श्रीमद्भगवद्गीता के साथ तुलना करने की इच्छा होती है। कूर्म, देवीभागवत आदि में इस पुराण की गिनती महापुराणों में नहीं की गई है। अत: संपूर्ण पुराण वाङ् मय के प्रादुर्भाव के बाद इस पुराण की रचना हुई है, ऐसा कह सकते हैं। मुद्गलपुराण अपने को संपूर्ण पुराण वाङ् मय के प्रादुर्भाव के बाद मानता है, अतएव अपने लिए उसने आन्ये मुद्गल पुराणे' इत्यादि लिखा है। इस पुराण के उत्तरार्ध के ५०वें अध्याय में मुद्गलोक्त गणेशवर्णन आया है, अत: मुद्गलपुराण के बाद अर्थात् सबसे आखिर में इसका प्रणयन हुआ प्रतीत होता है। हेमाद्रि ने दानखंड में इस पुराण और मुद्गलपुराण के विषय में चर्चा नहीं की है। अत: हेमाद्रि के बाद (१४०० सन्) इसका प्रणयन मानना उचित होगा। (अ.शा.फ.)
२. मुद्ग्ल पुराण - गाणपत्य संप्रदाय का यह अति महत्व का पुराण है। इसका नाम औपपुराणों की सूची में आता है। इसमें नौ खंड, ४२८ अध्याय और २३,७५० श्लोक हैं। इसका प्रारंभ नैमिषारण्य में सूत शौनक द्वारा हुआ है। शौनक ने पूछा है - अनेक पुराण सुनने से एवं तत्तद्देवताओं को मुख्य और ब्रह्मरूप मानने से बुद्धि भ्रांत हुई है। अत: आप परम सत्य और वास्तविक बात बताइए (७,४३-४७)। उन्होंने यज्ञध्वंस के अनंतर दु:खी दक्ष की मुद्गल ऋषि से उस प्रसंग में जो बातें हुई थीं उनको कहना शुरू किया।
इस पुराण के आठ खंडों में क्रमश: वक्रतुंड, एकदंत, महोदर, गजानन, लंबोदर, विकट, विघ्नराज और धूम्रवर्ण गणपति के इन आठ अवतारों का वर्णन है। इन अवतारों के साथ मत्सरासुर, मदासुर, ज्ञानारि और दुर्वाथ, मोहासुर, लोभासुर, क्रोधासुर, कामासुर, और अंहकारसुरों का संघर्ष, वध आदि वर्णित है। इससे ज्ञात होता है कि इसमें मनुष्यों के चित्त की अनेक वृत्तियों का रूपकपद्धति से निरूपण किया गया है और बताया गया है कि उनका दमन करने से मनुष्य सर्वदु:खों से मुक्त होकर परमेश्वर बन जाता है। इस पुराण में गाणपत्य संप्रदाय का आचार, उपासना, तत्त्वज्ञान, योग आदि का विस्तृत वर्णन है।
इस पुराण के नवमखंड के पाँचवें अध्याय से योगगीता शुरू होकर १६वें अध्याय तक चलती है। इसमें १२ अध्याय और ९८९ श्लोक हैं। भगवाद्गीता के श्लोकों से शब्द की समानता इसके श्लोकों में नहीं हैं परंतु अर्थ की समानता है। नवम खंड में तत्वज्ञान का एक रोचक विषय इस प्रकार वर्णित है - अष्टविनायकों के योगस्वरूप के ज्ञान के निमित्त दक्ष ने प्रश्न पूछा है। उसके उत्तर में मुद्गल ने कहा है - स्वानंद, योग, अयोग और पूर्ण योग यह तीन प्रकार हैं। स्वानंद योग की अपनी इच्छा से असत्, सत्, सम और नेती इस प्रकार माया से चार ब्रह्म प्रकट हुए। चारों ने मिलकर सांख्य रूप प्रकट किया। उससे बोध, सोहं, फिर विंदु अनंतर चतुर्विध जगत् उत्पन्न हुआ। वह स्थूल, सूक्ष्म, और सम तथा नाद रूप है। इन सब ब्रह्मों ने मिलकर हजार वर्ष तक तप किया। बाद में नर और हाथी के मिले हुए रूप वाला परम तत्व प्रगट हुआ। इसके द्वारा प्राप्त एकाक्षरमंत्र के जाप से वे माया एवं अज्ञान से रहित हुए।
इस पुराण का प्रचार महाराष्ट्र में विशेष है। वहीं यह मुद्रित भी हुआ हैं। अन्यत्र भारत के प्रदेशों में इसका नाम बहुत कम विद्वान् जानते हैं। यह पुराण आखिरी होने से एवं उपपुराणों के वर्णन करनेवाले ग्रंथों में क्वचित ही वर्णन मिलने से तथा हेमाद्रि आदि के द्वारा दानखंडादि में वर्णित न होने से सन् १३०० के बाद का रचित प्रतीत होता है।
(अनंत शास्त्री फड़के)