पुरश्चरण पुरश्चरण का तंत्रप्रसिद्ध कर्म है। जीवहीन देही जिस प्रकार किसी कर्म को करने में अक्षम है, पुरश्चरणहीन मंत्र भी उसी प्रकार सिद्धिप्रदान में अक्षम है - ऐसी मान्यता है। पुरश्चरण पुरस्क्रिया भी कहलाता है। पुरश्चरण इष्टदेवता के मंत्र की सिद्धि के लिए पहले (पुर: अग्रत: चरणम्) किया जाता है- पुरस्क्रियाँ कुर्यन्मंत्रसंसिद्धिकामया (योगिनोहृदय)।
यह कर्म पंचाग (पाँच अवांतर कर्म से युक्त) है। ये पाँच हैं - मंत्रजप, हेम, तर्पण, अभिषेक और ब्राह्मणभोजन (जपहोमौ मुच्यते।।)। पुरश्चरण जपप्रधान है। मुण्डमालातन्त्र में कहा गया है कि यदि द्रव्याभाव के कारण पूजा आदि न हो से तो केवल जपमात्र से पुरश्चरण किया जा सकता है। काल आदि के भेद से इस क्रिया के कुछ भेद तंत्रशास्त्रों के मिलते हैं।
पुरश्चरण के लिए विशिष्ट स्थान आदि की आवश्यकता शास्त्र में कही गई है। पूण्यक्षेत्र, नदीतीर, गुहा आदि स्थान इस कार्य के लिए प्रशस्त माने गए हैं। यह भी माना गया है कि गुरु, चंद्र, प्रदीप, जल, ब्राह्मण आदि के पास बैठकर जप करने से प्रशस्त फल होता है। पुरश्चरण में कूर्मचक्र (तंत्रप्रसिद्ध यंत्रविशेष) की आवश्यकता होती है। पुश्चरणकारी के लिए भक्ष्याभक्ष्य आदि के कुछ पालनीय नियम है। पुरश्चरण काल में परान्नभोजन, गात्रमर्दन आदि निषिद्ध है। पुश्चरणीय जप का यह भी एक नियम है कि प्रति दिन समान संख्यक जप होना चाहिए। वैष्णव संप्रदाय का विशिष्ट पुरश्चरणकर्म है जिसके लिए हरिभक्तिविलास (१७वाँ विलास) देखना चाहिए।
पुरश्चरण के विषय में कृष्णानंद आगमवागीशकृत तंत्रसार, गौतमीयतंत्र, मुंडमालातंत्र, पुरश्चरणार्णव, पुरश्चरण चंद्रिका आदि ग्रंथ द्रष्टव्य हैं।
(राम शंकर भट्टाचार्य)