पुरंदरदास (१४८४-१५६४ ई.) कर्णाटक संगीत और कर्णाटक भक्तों में पुरंदरदास का बहुत ऊँचा स्थान है। इनके पिता का नाम वरदप्प नायक था और माता का कमलांबा। दक्षिण में बेलारी जिले में स्थित हंपी के पास पुरंदरगढ़ गाँव में इनका जन्म ईस्वी सन् १४८४ में हुआ था। इनका नाम श्रीनिवास था और मुँहबोला नाम सिनप्पा था।

इन्होंने संस्कृत, कन्नड़ और संगीत में विशेष योग्यता प्राप्त की थी। इनका विवाह १६वें वर्ष में हो गया। इनकी पत्नी का नाम सरस्वती वाई था। जब यह २० वर्ष के हुए तो इनके माता-पिता दोनों जाते रहे। इनके पिता बहुत बड़े जौहरी थे। यह भी अपने पिता के समान बहुमूल्य रत्नों का व्यापार करते थे। इन्होंने इतना धन कमाया कि यह 'नवकोटि नारायण' कहे जाने लगे। यह कितने बड़े धनी थे उतने ही बड़े कृपण भी थे।

थोड़े ही समय में एक विशेष घटना के कारण उनके जीवन में भारी परिवर्तन हुआ। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दान में दे डाली और भगवान् के भजन में लग गए। वह भारत के सभी तीर्थस्थानों में गए और प्रत्येक दिन कोई न कोई कृति बनाकर भगवान् को सुनाते रहे।

ईसवी सन् १५२५ में उन्होंने श्री व्यासराय से दीक्षा ली। जीवन के अंतकाल तक भिन्न भिन्न रागों में मधुर कृतियों की रचनाएँ करते रहे। उनकी एक कृति 'वासुदेव नाम नामावलिय' मुखारी राग, झपताल में है जिससे पता चलता है कि उन्होंने ४ लाख ७५ हजार कृतियों की रचना की थी। उनकी सब कृतियाँ नहीं मिलती किंतु सहस्रों रचनाएँ अब भी लोगों को याद है। व्यासराय मठ के श्री सत्यधर्म तीर्थ ने इनका नाम 'पुरंदरदास' रखा और यह इसी नाम से प्रसिद्ध हैं।

उनके गानों में उपनिषदों और पुराणों का सार भरा पड़ा हुआ है। उनके पदों को 'देवरनाम' अथवा 'दासरपद्गलु' कहते हैं। ये सारे दक्षिण भारत में बड़ी श्रद्धा के साथ गाए जाते हैं।

संगीत की शिक्षा के लिए इन्होंने बहुत सी स्वरावली, अलंकार पिल्लारिगीत, घनराग गीत और प्रबंधों की रचना की। यह 'कर्णाटक संगीत-पितामह' कहे जाते हैं। 'कृति' की रचना इन्हीं ने आरंभ की थी जिसका आगे चलकर कर्णाटक संगीत में बहुत विकास हुआ। इनकी रचनाएँ कन्नड़ भाषा में हैं। इनके कुछ पदों का अनुवाद हिंदी में भी हो गया है। ईसवी सन् १५६४ में इनका निधन हो गया।

(जयदेव सिंह)