पुनर्जन्मवाद प्रत्येक कार्य का कोई कारण अवश्य होता है। भार में यह माना गया है कि प्राणी की उत्पत्ति किसी कारणविशेष से होती है। यदि प्राकृतिक कारणों - जैसे माता पिता के संयोग को ही कारण मान लें तब भी एक विशेष योनि में, विशेष देश, काल, वातावरण, सामाजिक परिस्थिति आदि में ही क्यों कोई व्यक्तिविशेष उत्पन्न होता है, क्यों कोई पशु, पक्षी या मनुष्य बनता है; क्यों कोई धनी, सुखी, संपन्न, बुद्धिमान, होता है और दूसरा दरिद्र, दुखी और मूर्ख? इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता। इनका प्राकृतिक कारण नहीं हो सकता। यदि किसी अतिप्राकृतिक शक्ति या ईश्वर को इसका कारण मानें तो कहना पड़ेगा कि वह ईश्वर ही क्यों व्यक्ति में भेद करता है? यदि ईश्वर मनुष्य की ही तरह पक्षपाती है तो ऐसा ईश्वर निरर्थक है।
विधि विधान का एक सिद्धांत है कि जो नियम का उल्लंघन करता है उसी को दंड मिलता है। यदि व्यक्ति कष्ट में है तो यह कष्ट उसी के कर्मों का फल है। सुख, दु:ख आदि व्यक्ति के कर्म से उत्पन्न होते हैं और उसके वर्तमान या भविष्य के निर्माता भूतकाल में अथवा वर्तमान में किए गए उसके अपने कर्म ही हैं। यदि कोई ईश्वर भी होगा तो वह कर्म के अनुसार व्यक्ति का फल देगा, स्वेच्छा से नहीं। परंतु सद्य: उत्पन्न बालक को क्यों कष्ट होता है? उसने तो अभी अभी इस संसार में आँखें खोली हैं, उसको कर्म करने का अवसर ही कहाँ मिला जिसके परिणामस्वरूप वह दु:ख भोगेगा। इस बात की व्याख्या करने के लिए तथा कर्म के सिद्धात को निरपवाद सिद्ध करने के लिए भारत में आत्मा की नित्यता भी मानी गई। शरीर और आत्मा दो परस्पर भिन्न पदार्थ हैं - भौतिक शरीर उत्पन्न और नष्ट होता है पर आत्मा चेतन है जिसका जन्ममरण नहीं होता। एक ही आत्मा नाना योनियों में भटकती रहती है और उन उन शरीरों में किए गए कर्मों का फल भोगने के लिए समय-समय पर नए शरीर धारण करती है। इसी को 'पुनर्जन्म' का सिद्धांत कहते हैं। गीता में कहा है कि मरना और पैदा होना पुराने कपड़ों को त्याग कर नए कपड़े धारण करने के समान है।
कर्म में लिप्त रहनेवाली आत्मा निरंतर अपने लिए जाल बुनती रहती है और उसी में फँसती भी जाती है। जन्ममरण का चक्र अनादि है और संपूर्ण कष्टों का आगार है। यही नहीं, अत्यंत पुण्य तथा घोर पाप के फल भी उत्कट होते हैं; उनके अनुरूप फल प्राय: इस दृश्य जगत् में नहीं मिलते, अतएव स्वर्ग और नर की कल्पनाएँ तथा उनसे संबंधित पौराणिक कथाओं का भी सबंध पुनर्जन्म से ही है। कर्मातीत होकर व्यक्ति अपने भविष्य के जन्म को रोक सकता है। ऐसी स्थिति में पुनर्जन्म की संभावना से परे आत्मा को मुक्त कहते हैं। भारत के सभी धर्मों और दर्शनों ने पुनर्जन्म को माना है। (यद्यपि बौद्ध दर्शन आत्मा के नित्यत्व का खंडन करता है तथापि वह एक ऐसे पुद्गल (दे.) को स्वीकार करता है जो निर्वाण (दे.) की प्राप्ति तक जन्म ग्रहण करता रहता है।)
पाश्चात्य मत में सामान्यतया पुनर्जन्म स्वीकृत नहीं है क्योंकि वहाँ ईश्वरेच्छा और यदृच्छा को ही सब कुछ मानते हैं। कहा जाता है, यदि व्यक्ति का पुनजन्म होता है तो उसे अपने पहले जन्म की याद क्यों नहीं होती? भारतीय मत इसका उत्तर देता है कि अज्ञान से आवृत होने के कारण आत्मा अपना वर्तमान देखती है और भविष्य बनाने की प्रयत्न करती है, पर भूत का एमदम भूल जाती है। यदि अज्ञान का नाश हो जाए तो पुर्वजन्म का ज्ञान असंभव नहीं है। भारत की पौराणिक कथाओं में इस तरह के अनेक उदाहरण हैं और योगशास्त्र में पुर्वजन्म का ज्ञान प्राप्त करने के उपाय वर्णित हैं। आज भी यदाकदा हमें पूर्वजन्म की स्मृति के समाचार संवादपत्रों में मिल जाया करते हैं। अमरीका के ड्यूक विश्वविद्यालय में परा-मनोविज्ञान के आचार्य डा. राइन इस संबंध में वैज्ञानिक दृष्टि से गवेषणा कर रहे हैं। यद्यपि उन्हें पुनर्जन्म के कई विश्वसनीय प्रमाण मिले हैं तथापि अभी वैज्ञानिक पद्धति से इसकी खोज होनी बाकी है। (रा.चं.पां.)
इतिहास और विकास - आत्मा के अमरत्व तथा शरीर और आत्मा के द्वैत की स्थापना से यह शंका होती है कि मरण के बाद आत्मा की गति क्या है। अमर होने से वह शरीर के साथ ही नष्ट हो तो नहीं सकती। तब निश्चय ही अशरीर होकर वह कहीं रहती होगी। पर आत्माएँ एक ही अवस्था में रहती होंगी, यह नहीं स्थापित किया जा सकता, क्योंकि सबके कर्म एक से नहीं होते। अतएव ऋग्वेदकालीन भारतीय चिंतन में आत्मा के अमरत्व, शरीरात्मक द्वैत तया कर्मसिद्धांत की उपर्युक्त प्रेरणा से यह निर्णय हुआ कि मनुष्य के मरण के बाद, कर्मों के शुभाशुभ के अनुसार, स्वर्ग या नरक प्राप्त होता है।
किंतु स्वर्ग और नरक की स्थिति अनंत नहीं हो सकती, नहीं तो कुछ ही काल में सभी आत्माओं के स्वर्ग और नरक में पहुँच जाने से पृथ्वी पर नैरात्म्यवाद छा जाएगा। सजीव पृथ्वी का दीर्घकालीन इतिहास इस अवस्था का समर्थन नहीं करता। अतएव उपनिषद् काल में एक ओर, हम कठ के नचिकेता को सदेह यमलोक की यात्रा से वापस आते देखते हैं; दूसरी ओर छांदोग्य (५/१०/७) की घोषणा सुनते हैं कि मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार, ब्राह्मण, क्षत्रिय, एवं चांडाल का जीवन प्राप्त कर सकता है; कर्मों के अनुसार ही श्वान, शूकर आदि भी हो सकता है। उसी प्रकरण में, पितृलोक, देवलोक, तथा ब्रह्मलोक की प्राप्ति की बात भी आई है।
धीरे-धीरे, मरणोत्तर आत्मा की चार अवस्थाओं का विचार विकसित हुआ- (१) वह सुखद अथवा दु:खद मानवीय जीवन प्राप्त कर सकती हैं, (२) पशु योनियों में भ्रमण कर सकती है, (३) श्रेयस् शेष रहते हुए पितृलोक, देवलोक के सुख भोगकर, मानवीय जीवन की आवृत्ति कर सकती है तथा (४) अनेक जन्मों के संचित कर्मफल बल पर मोक्ष प्राप्त कर, आवागमन से छुटकारा पा सकती है। भारतीय पुराणों में नृसिंह, वाराह, कूर्म आदि अवतारों तथा गरुड़, काकभुशुंडि आदि सत्यन्वेषियों की कल्पनाओं के माध्यम से योनिभेद की निकृष्टता मिटाने के प्रयत्न किए गए। फलत: मोक्ष के लिए कर्म की प्रधानता का विचार विकसित हुआ; शरीर का महत्व एकदम घट गया।
बौद्ध जातक कथाओं में भी स्वभाव, अथवा मानसिक तत्वों पर ही बल दिया गया है। यह तो सर्वसंमत है कि बौद्ध नैरात्म्यवादी थे। उनके लिए पुनर्जन्म के विश्वास करने का कोई अवसर न था। पर जीवन की अनुभाविक एकता की व्याख्या के निमित्त आत्मा के स्थान पर मानसिक स्थितियों की निरंतरता की स्थापना कर लेने पर, स्वाभाविक पुनर्जन्म के प्रतिपादन का मार्ग प्रशस्त हो गया। ध्यान देने की बात यह है कि आत्मा में विश्वास न करनेवाले बोद्धों को पुनर्जन्म के प्रतिपाद्य की युक्तियाँ खोजने की क्या अवश्यकता थी? लगता है, बौद्धकाल तक पुनर्जन्म की कल्पना इतनी सांस्कृतिक हो चुकी थी कि जनरुचि का परितोष करने के लिए उसे कायम रखना सभी संप्रदायों के लिए आवश्यक था। आत्मा और उसके मोक्ष में विश्वास करनेवालों के लिए तो पुनर्जन्म का विचार साधनक्षेत्र के विस्तार के लिए एक अच्छा माध्यम था।
इसीलिए, अद्वैत की प्रतिष्ठा कनेवाले जगद्गुरु शंकराचार्य कह उठे- 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं।' 'सर्वे उपनिषदा गावा:' के दोग्धा गोपालंनंदन ने कहा- 'वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।' किंतु इस पुनर्जन्मवाद संबंधी चिंतन में कुछ आधारभूत कठिनाइयाँ थीं। जैसे आत्मा तो शरीर से निर्लिप्त है और शरीर मृत्युद्वार में प्रवेश नहीं करता। तो फिर, कर्मसंस्कारों को उस पार ले कौन जाता है? और दूसरे जन्म में कर्मफल का भोक्ता कौन होता है?
सांख्य योग ने इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न किया है। सांख्यकारिका में, ईश्वरकृष्ण का कथन है - 'संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति: (का. ६२, पं. २)।' किंतु, 'नानाश्रया प्रकृति' में पंचमहाभत भी हैं। स्थूल होने के कारण वे तो इधर ही रह लाएँगे। इसका भी कारिका में स्पष्टीकरण हुआ है- 'संसरति निरुपभोगं भावैरधिवासितं लिंगम् (का. ४०, पं. २)।' गौढ़पाद भाष्य से 'भावै: अधिवासितं' का अर्थ 'पूर्वजन्म के धर्मों से रंजित' तथा 'लिंगम' का अर्थ 'बुद्धि, अहंकार, मन तथा पंचतन्मात्र (शब्द स्पर्श-रूप-रस-गंध) ज्ञात होता है। योग का लिंगशरीर इन्हीं आठ सूक्ष्म अवयवों में पाँच ज्ञानेंद्रियाँ जोड़ देने से निर्मित होता है। इसी आवरण के साथ आत्मा का पुनर्जन्म होता है।
बौद्धों के 'द्वादश निदान' में सम्मिलित तीन, जन्मों को शृंखलित करनेवाले अवयव लगभग इसी प्रकार के सूक्ष्म, आंतरिक एव आनुभविक हैं। अविद्या और संस्कार पिछले जन्म से इस जन्म तक आने का मार्ग बनाते हैं। विज्ञान, नाम-रूप, षडायतन (पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और मन) स्पर्श, वेदना (संवेद), तृष्णा, उपादान (जीवन के प्रति मोह), और भाव, इन आठ सूक्ष्म अवयवों के संस्थान पर वर्तमान जीवन आश्रित रहता है। जरामरण और जाति इस जीवन को अगले जन्म के जीवन से संबद्ध कर देते हैं। जीवन मरण की यह शृंखला संसार की असारता का बोध न होने तक आगे बढ़ती जाती है। बोध होने पर स्थगित हो जाती है। बात आस्तिक मतों जैसी ही है। वे मौत के मुँह में सूक्ष्म अवयवों से बना हुआ एक खोल दाखिल करते हैं, जिसके भीतर आत्मा को बैठा देते हैं। संस्कार उसी खोल में रहते हैं; आत्मा तो असंग है। इसलिए, बौद्ध केवल खोल ही भेजते हैं; उसके भीतर व्यर्थ कोई चीज नहीं रखते। इस प्रकार, भारतीय आस्तिक दशर्न तथा बौद्ध दर्शन परंपराओं से पुनर्जन्म संबंधी दो मत प्राप्त होते हैं। एक के अनुसार सूक्ष्म शरीर से आवृत आत्मा का पुनर्जन्म होता है। दूसरे के अनुसार केवल अनुभव संस्थान का ही पुनर्जन्म होता रहता है।
भारतीय परंपराओं में इस क्रम के पूर्ण होने की कोई कालावधि निश्चित नहीं है। जन्म-मरण-शृंखला कर्मसिद्धांत या ज्ञानसिद्धांत, अथवा दोनों पर आधारित है। यह गणितीय सिद्धांत है, जो प्रत्येक शृंखला की अवधि-निश्चित करता रहता है। मिस्र तथा यूनान में यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस (द हिस्ट्रीज़, पेंगुइन सिरीज, पृ. १५०-१) बताता है कि प्राचीन मिस्रवासियों ने तीन हजार वर्ष में मनुष्य की आत्मा का अन्य योनियों में घूमकर वापस आ जाना संभव माना है। उसी के अनुसार पुनर्जन्म का सिद्धांत यूनानियों ने मिस्रवालों से प्राप्त किया था। उसने किसी यूनानी विचारक का नाम नहीं लिया है, जो पुनर्जन्म का समर्थन करता रहा हो। अन्य प्राचीन तथा आधुनिक लेखकों ने पाइथागोरस का इसका समर्थक बताया है। किंतु पाइथागोरस का इतिहास अधिकतर किंवदंतियों पर आधारित् है। यूनानियों ने उसे देवपुरुष मान लिया था। इसलिए, उसका उपदेश ही पर्याप्त समझकर उसके समकालीन लेखकों तक ने यह जानने का प्रयत्न न किया कि पुनर्जन्म के समर्थन में उसके आधार क्या थे। जेनोफेनीज़ का कथन है कि एक कुत्ते का भौंकना सुनकर, पाइथागोरस ने अपने एक मृत मित्र की आवाज पहचानी और उसके मालिक से कहने गया कि वह उस कुत्ते का मारा न करे। यूनानी दर्शन के आधुनिक इतिहासकारों के विचार से, सभी जीवों की एकता में विश्वास करने के कारण, वह पुनर्जन्म में विश्वास करता था।
यह तो निर्विवाद है कि यूनानी संस्कृति पर पूर्वी प्रभाव पड़ा था। मिस्त्रवासियों के प्रभाव को स्वीकार कर, हेरोडोटस ने भी इस विचार के पक्ष में साक्ष्य प्रस्तुत किया है। प्रभाव न मानकर, वैचारिक समानांतरता ही मानें, तब भी प्राचीन यूनानी साहित्य में पुनर्जन्मवाद के पोषक विचारों, आत्मा के अमरत्व तथा शरीरात्म द्वैत का अभाव नहीं है। होमर के 'इलियड' में देवता पृथ्वी पर चले आते हैं और मनुष्य स्वर्ग चले जाते हैं। मृत मनुष्यों की आत्माएँ मृत्युलोक चली जाती हैं। एकिलीज़ रणक्षेत्र में मरे हुए अपने मित्र पेट्रोक्लस के लिए बहुत व्याकुल होता है। उसे लगता है कि वह उसके पास खड़ा है, किंतु उसे पकड़ नहीं पाता, क्योंकि वह उसके मित्र की छाया मात्र है।
आर्फिक उपासना परंपरा में प्रचलित कथा में ज़ियस और पर्सीफीनी के पुत्र डायोनीसस को टाइटनों ने खा डाला था। किंतु ज़ियस ने वज्रप्रहार से टाइटनों को भस्म कर, उस भस्म से अपना पुत्र निकाल लिया। वही पुनर्जीवित ज़ियस-पुत्र आर्फिक उपासकों का इष्टदेव बना।
यूनानी नाटककार यूरीपिडीज़, (४८४-४०७ ई.पू.) के 'अल्केस्टिस' में हेराकलीज, मृत्युलोक के स्वामी को दबोचकर उसे अपने मित्र एडमेटस की पत्नी अल्केस्टिस को वापस लाने के लिए विवश कर देता है।
इस प्रकार के अनेक प्रसंगों से पता चलता है कि भारत की भाँति प्राचीन यूनान में भी पुनर्जन्म का विचार सांस्कृतिक हो गया था। सर्वश्रेष्ठ यूनानी दार्शनिक अफलातून के 'फ़ीडो' में, प्रसंगत:, शरीर से लगाव संवाद में इस जन्म के किए हुए अत्याचारों का बदला चुकाने के लिए पुन: जन्म लेने के बात कही गई है। केवल पुनर्जन्म की समस्या पर किस यौक्तिक व्याख्या का प्रयत्न यूनानी दर्शन में नहीं दिखाई देता। यह विश्वास मात्र रह जाता है।
भारतीय जनजीवन में अब भी पुनर्जन्मवाद की मान्यता है, क्योंकि यहाँ दार्शनिक चिंतन के स्तर पर इसकी व्याख्याएँ की गई हैं। इस मत का व्यावहारिक मूल्य भी इसके प्रति रुचि उत्पन्न करता है। यह अखंडनीय आशावादिता को प्रश्रय देकर, वर्तमान जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के निमित्त मनोबल देता है, नैतिक आचरण को निरर्थक होने से बचाता है। संभवत:, इन व्यावहारिक गुणों ने ही इसे अब तक यथार्थवादी प्रमाणों के अभाव में भी जीवित रखा है।
(शिवानंद शर्मा )�