पीर रोशन (शेख बायजीद अंसारी) कानीगुराम (मसहूद, वज़ीरिस्तान) निवासी काजी अब्दुल्लाह का पुत्र था। उसका जन्म १५२० अथवा १५२४ ई. में हुआ। उसकी माता जलंधर के एक धनी हाजी अवाकक्र की पुत्री थी। बावर के हिंदुस्तान पर आक्रमण के उपरांत वायज़ीद की माता का परिवार उजड़कर बिहार चला गया, किंतु अफगानों की बिहार की पराजय के पश्चात् बड़ी कठिनाई से कानीगुराम पहुँचा। वायज़ीव के पिता ने अपनी अन्य पत्नी के कारण वायज़ीद तथा उसकी माता की ओर अधिक ध्यान न दिया। वायज़ीद की माता तो पंजाब वापस चली गई, किंतु बायज़ीद अपने पिता के पास चला आया। कुरान तथा साधारण धर्मिक पुस्तकें पढ़ लेने के उपरांत उसे जीविका के लिए अन्य कार्यों में लग जाना पड़ा, किंतु उसे लोकसेवा तथा ईश्वर के मनन में बड़ी रुचि थी। धीरे-धीरे उसे ऐसा आभास हेने लगा कि वह 'पीररोशन' अथवा संसार को अंधकार से प्रकाश में लानेवाला पीर है। उसके बहुत से शिष्य हो गए। वायज़ीद की पत्नी अपने पति की सेवा हेतु मुँह ढाँककर उसके शिष्यों के सामने भी जाती। इससे बायज़ीद का विरोध और भी बढ़ गया। उसने भी खुल्लमखुल्ला समकालीन आलियों तथा सूफियों को मार्गभ्रष्ट कहना प्रांरभ कर दिया। उसने फारसी में सिरातुत्तौहीद नामक ग्रंथ की रचना की और खैरुल बयान में अपनी शिक्षा का सविस्तार उल्लेख किया। इसकी रचना उसने फारसी, अरबी, पश्तो तथा हिंदी चारों भाषाओं में की। हालनामे (फारसी) तथा सिरातुत्तौहीद में अपनी शिक्षा के साथ साथ अपनी जीवनी भी लिखी। मकसूदुल मोमनीन (अरबी) में भी उसने अपनी शिक्षाओं का विस्तृत उल्लेख किया। आखुंद दरयोज़ा नामक एक आलिम ने उसका विरोध करते हुए इस्लाम के शुद्ध रूप को चलाने पर कमर बाँधी। बायज़ीद का नाम पीरे तारीकी (अंधेरे का गुरु) रखा तथा खैरुल बयान का नाम शर्सल बयान (उपद्रववादी) ग्रंथ रखा। उसपर आरोप लगाया कि वह इस्माईली धर्म का प्रचार करना चाहता है तथा स्त्रियों एवं पुरुषों को एक स्थान पर बैठने की अनुमति देकर व्यभिचार फैलाना चाहता है। वास्तव में वेदांती सूफियों की भाँति बायज़ीद ईश्वर और जगत् को भिन्न नहीं मानता था और अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य सत्ता को व्यर्थ समझता था। उरकज़ई, तीराही तथा आफरीदी उसके बड़े भक्त हो गए। मिर्जा हकीम ने अफगानों को इस प्रकार संगठित होते देखकर उसके विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। डेढ़ वर्ष तक विभिन्न स्थानों पर लड़ते हुए १५७२-७३ ई. में हश्तनगर के पश्चिमी भाग शेरपायी में उसकी मृत्यु हो गई।
उसके पुत्र शेख उमर ने अपने पिता का स्थान लिया किंतु यूसफज़ई उसके विरोधी हो गए और १५८१ ई. में उसकी हत्या कर दी। उसके भाई जलालुद्दीन ने, जिसकी अवस्था १५ या १६ वर्ष की थी, अपने पिता का स्थान संभाला। अगस्त, १५८१ ई. में उसने अकबर से पेशावर में भेंट की। अकबर को सभी धर्मों से रुचि थी। इसके अतिरिक्त उसकी सहायता से अफगानों में फूट डाली जा सकती थी। अकबर ने उसका बड़ा आदर सम्मान किया किंतु उसके साथी उसे अकबर के पास से भगा ले गए और कुछ दिन बाद मुगलों से युद्ध छेड़ दिया। अगस्त, १६०१ में बड़ी कठिनाई झेलकर मुगलों से युद्ध छेड़ दिया। अगस्त, १६०१ में बड़ी कठिनाई झेलकर मुगलों ने उसकी हत्या कर दी। मुगल इतिहासकारों ने उसके नाम को बिगाड़कर जलाला रख दिया। उसके उत्तराधिकारी शेख उमर के पुत्र अहदाद में मुगलों से लड़ने की शक्ति न थी। कुछ समय के युद्ध के बाद १६२४-२५ ई. में वह मार डाला गया। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी अब्दुल कादिर ने अफगानों की पारस्परिक फूट के कारण शाहजहाँ की अधीनता स्वीकार कर ली और इस आंदोलन का अंत हो गया।
सं.ग्रं.- वायज़ीद की रचनाओं के अतिरिक्त (फारसी) आखुंद दरयोजा ३, इरशादुत्तालेथीन, तजकिरतुल अथरार वल अशरार; दबिस्ताने मज़ाहीन; (अंग्रेजी) लाइडेन : दि रोशनिया सेक्ट (एशियाटिक रिसर्चेज़, १८१२); रिजवी सैय्यद अतहर अब्बास : अवेलेबुल वर्क्स ऑव वायज़ीद रोशनई (प्रोसीडिंग्ज ऑव इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, १९६२)।(सैयद अतहर अब्बास रिज़वी)