पीतांबरदत्त बड़थ्वाल का जन्म १७ मार्गशीर्ष, १९५८ वि. (१९०१ ई.) का उत्तराखंड के जिला गढ़वाल के लैंसडाउन के समीप पाली ग्राम में हुआ। पिता पं. गौरीदत्त संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। अत: हिंदी एवं संस्कृत की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। फिर कुछ समय तक एक निकटवर्ती पाठशाला में अध्ययन करने के पश्चात्, श्रीनगर (गढ़वाल) के राजकीय हाई स्कूल में प्रविष्ट हुए। परंतु कुछ ही वर्षो के बाद उन्हें लखनऊ जाना पड़ा और वहीं कालीचरण हाई स्कूल में पढ़ने लगे। स्कूल में प्रधानाध्यापक, बाबू श्यामसुंदर दास से उन्हीं दिनों उनका प्रथम परिचय हुआ। १९२० ई. में हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और १९२२ ई. में कानपुर के डी.ए.बी. कालेज से इंटरमीडियेट की परीक्षा पास की। कानपुर में रहते हुए उन्होंने पर्वतीय छात्रों की ओर से निकलनेवाली 'हिलमैन' नामक एक मासिक पत्रिका का संपादन भी किया। इसके पश्चात् काशी हिंदू विश्वविद्यालय में जाकर वे बी.ए. में प्रविष्ट हो गए। किंतु कुछ ही काल के उपरांत वे अस्वस्थ होकर अपने ग्राम में चले गए और दो तीन वर्ष तक वहाँ रहकर स्वास्थ्यसुधार किया। पुन: काशी में आकर १९२६ ई. में बी.ए. किया और १९२८ ई. में हिंदी में एम.ए. प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए किया। एम.ए. परीक्षा के लिए छायाबाद पर बड़थ्वाल जी ने एक विद्वत्तापूर्ण निबंध लिखा। हिंदी विभाग के अध्यक्ष बाबू श्यामसुंदरदास उससे अत्यधिक प्रभावित हुए। उनकी प्रेरणा से वहीं वे हिंदी में शोधकार्य करने लगे।

दो वर्ष के उपरांत १९३० में वे काशी विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में अध्यापक नियुक्त हो गए। वे बड़े परिश्रमी एवं प्रतिभावान् थे। उनकी अध्यापनशैली भी बड़ी प्रभावपूर्ण थी। अत: थोड़े ही समय के पश्चात् उन्होंने सफल अध्यापक के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली। अध्यापनकाल में उनका शोधकार्य भी चलता रहा। शीघ्र ही बड़थ्वाल जी ने अपना शोधनिबंध डॉक्टरेट की परीक्षा के लिए 'दि निर्गुण स्कूल ऑव हिंदी पोयट्री' अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत किया। उनके इस निबंध पर उन्हें ससम्मान 'डी.लिट्.' की उपाधि मिली और देश-विदेश के विद्वत्समाज में उनकी प्रतिष्ठा में भी पर्याप्त वृद्धि हुई।

इसके पश्चात् अल्प समय में ही डॉ. बड़थ्वाल की गणना हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों में की जाने लगी। १९३७ ई. में शिमला में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन पर उन्हें निबंध पढ़ने के लिए विशेष रूप से आमंत्रित किया गया। तिरुपति (आंध्र) में मार्च १९४० ई. में प्राच्यविद्या सम्मेलन (ओरिएंटल कॉन्फ्रसें) का जो अधिवेशन हुआ था, उसमें हिंदी शाखा का सभापतित्व बड़थ्वाल जी ने ही किया था। १९३७ ई. में वे व्यक्तिगत कारणों से चले गए। वहाँ जाकर कुछ ही वर्षों के अनंतर उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। उपचार चलता रहा, परंतु वे पूर्ण स्वास्थ्यलाभ न कर सके। फरवरी, १९४४ ई. में अंतिम बार अवकाश लेकर वे अपने ग्राम पाली चले गए और वहीं २४ जुलाई, १९४४ को उनका देहावसान हुआ।

रचनाएँ - डॉ. बड़थ्वाल हिंदी के बड़े कर्मठ साहित्यिक एवं उद्भट समालोचक थे। हिंदी काव्य में निर्गुणधारा' (The Nirguna school of the Hindi poetry) संत साहित्य का अति महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें प्रथम बार ठोस आधार पर दार्शनिक विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ ने डॉ. बड़थ्वाल को अमर कर दिया। उनकी दूसरी महत्वपूर्ण रचना 'गोरखबानी' है। इसमें गोरखनाथ की जीवनी एवं रचनाओं का विवेचन है। गोस्वामी तुलसीदास और रूपक रहस्य ये दो ग्रंथ उन्होंने बाबू श्यामसुंदर दास के सहयोग से लिखे। 'प्राणायाम विज्ञान और कला' तथा 'ध्यान से आत्मचिकित्सा' ये दोनों ग्रंथ उन्होंने १९२२ और १९२४ के बीच अपने विद्यार्थी जीवन में लिखे। कबीर ग्रंथावली एवं रामचंद्रिका का संपादन किया। इनके अतिरिक्त उन्होंने बहुत से साहित्यिक निबंध लिखे जो समय-समय पर साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। इनकी संख्या लगभग तीस है। इनमें कुछ महत्वपूर्ण ये हैं - 'हिंदी कविता में योगप्रवाह', 'भूषण की शृंगारी कविता', 'आचार्य' कवि 'केशवदास', 'सुरतिनिरति', 'पद्मावत और जाएसी', 'गांधी और कबीर', 'नाथपंथ' में 'योग' आदि।(धर्मेंद्रनाथ शास्त्री)