पीतज्वर या यलो फीवर (Yellow fever) कर्क तथा मकर रेखाओं के बीच स्वित अफ्रीका तथा अमरीका के भूभागों में पाया जानेवाला संक्रामक तथा तीव्र रोग हैं, जो सहसा आरंभ होता है। इसमें ज्वर, वमन, मंद नाड़ी, मूत्र में ऐल्वुमेन की उपस्थिति, रक्तस्राव तथा पीलिया के लक्षण होते हैं। इस रोग का कारक एक सूक्ष्म विषाणु होता है, जिसका संवहन ईडीस ईजिप्टिआई (स्टीगोमिया फेसियाटा) जाति के मच्छरों द्वारा होता है।
इस ज्वर के कारण की खोज की कहानी रोमांचकारी है। सन् १९०० में क्यूबा में उपद्रव हो रहे थे और अमरीकी सेना वहाँ भेजी गई थी। तभी पीतज्वर महामारी बनकर आया और शत्रु की गोली से अधिक सैनिक पीतज्वर से मरने लगे। मेजर वाल्टर रीड को पीतज्वर के कारण का पता लगाने का आदेश मिला। शोध के कोई सूत्र नहीं थे; प्रयोग में कोई भी जानवर इस ज्वर से पीड़ित नहीं होता था। हवाना के पुराने डाक्टर कार्लास फिनले का विचार था कि इसका कारण मच्छर थे। रोड ने यही सूत्र पकड़ा। अनुसंधान में रीड के वीर साथी थे जेम्स कैरोल, अग्रामांटी और जैसी लेजियर। इन्होंने अभूतपूर्व प्रयोग किए और प्रथम बार मानव का प्रयोगपशु बनना पड़ा। जेम्स कैरोल ने पहला प्रयोग अपने ही ऊपर किया। पीतज्वर से पीड़ित रोगी का रक्तपान करनेवाले मच्छरों से अपने को कटवाया। उसे पीतज्वर हो गया, जिससे वह मुश्किल से बचा। रोग का संक्रमण कैसे होता है, इसका सही पता लगाने में अनेक सैनिक और नागरिक 'गिनिपिग' बने। कई ने खुशी खुशी प्राणों की बलि दी, जिनमें सर्वप्रथम शहीद हुआ जेसी लेजियर। अंत में सन् १९०१ में यह सिद्ध हो पाया कि पीतज्वर किसी अदृष्ट जीवाणु के कारण होता है और उसके संवाहक मच्छर होते हैं। मच्छर जब ज्वरपीड़ित मनुष्य का प्रथम तीन दिन के भीतर रक्तपान करते हैं, तो १२ दिन बाद तक उनके दंश से स्वस्थ व्यक्ति को पीतज्वर हो सकता है। इंजेक्शन द्वारा भी रोग एक व्यक्ति से दूसरे में पहुँचाया जा सकता है। इस अनुसंधान के फलस्वरूप मच्छर विनाशक अभियान हुए और महामारियों का जोर घट गया। अफ्रीका में इस रोग को शोध में स्टोक्स, नागुची और यंग भी जहीद हुए। सन् १९२७ में पश्चिमी अफ्रीकी पीतज्वर आयोग ने बताया कि रीसस बंदर (मकाका मुलाटा) को यह रोग हो सकता है। फिर पीतज्वर का विषाणु भी पहचाना गया। यह १७ से २८ मिलीमाइक्रान के आकार का होता है। इसका संवर्धन मुर्गी के अंडे या मूषक भ्रूण में हो सकता है। इन विषाणुओं के दो गुण होते हैं आशयप्रियता, और तंत्रिकाप्रियता या सर्वप्रियता।
पीतज्वर तीन प्रकार का हो सकता है : हलका, तीव्र तथा बुदंम्य। हलके प्रकार में तीन चार दिन ज्वर, सिर दर्द, वमन, पीलिया, सेवपीड़ा आदि होते हैं। तीव्र ज्वर की तीन अवस्थाएँ होती हैं : (१) क्रियाशील - जाड़ा देकर बुखार, अंगपीड़ा, अवसन्नता, वमन, अनिद्रा आदि लक्षण, (२) परिहार - ज्वर कम होना, अन्य लक्षणों में भी कमी तथा (३) सदौर्बल्य - ताप का पुन: बढ़ना, पीलिया प्रकट होना, कॉफी के रंग का वमन, काले दस्त, रक्तस्त्राव, पित्तयुक्त मूत्र, रक्तचाप की कमी और शिथिल नाड़ी। घातक अवस्था में मूत्र बंद हो जाता है। दुर्दम्य प्रकार के ज्वर में १०६� फा. से ऊपर ताप तथा प्रचुर रक्तस्त्राव और भीषण विषमयता के लक्षण होते हैं। रोग से उत्पन्न विकृति के प्रभाव लीवर, गुर्दों और रक्तवाहिनियों में देखे जा सकते हैं।
यह रोग दस दिन रहता है और घातक न हुआ तो रोगी धीरे-धीरे स्वस्थ्यलाभ करता है। आक्रमण दुबारा नहीं होता और अगर हुआ तो घातक होता है। विभिन्न महामारियों में घातकता १० से लेकर ७० प्रतिशत तक देखी गई है।
इस रोग से बचाव का उपाय है मच्छरों का विनाश। पीतज्वर के टीके से भी करीब चार वर्ष तक संरक्षण मिलता है। रोग हो जाने पर केवल लाक्षणिक चिकित्सा संभव है। अभी तक इसका कोई विशिष्ट उपचार ज्ञात नहीं है।(भानुशंकर मेहता)