पिस्तौल छोटे आकार का अग्न्यस्त्र है। इसका आविष्कार इटली के पिस्टोया (Pistoia) नामक नगर में १५४० ई. के लगभग हुआ था। १६वीं शताब्दी के मध्यकाल में अंग्रेजों ने अपने रिसाले में इसका प्रयोग पहली बार किया, किंतु जर्मनों ने इससे भी पहले इसका प्रयोग किया था। प्रारंभिक पिस्तोल आघात टोपी (percussion cap) से युक्त एव तोड़ेदार (अर्थात् wheel-lock वाली) होती थी। १७वीं शताब्दी में चकमक से चिनगारी पैदा करके चलाई जानेवाली फ्लिंट लॉक (flint lock), १८३० ई. में झिरी कटी (rifled), एक नली की आघात-टोपीवाली और १८३६ ई. में कोल्ट (Colt) की एक नलीवाली परिक्रामी आदि स्वरूप, इसके विकास की अवस्थाएँ थीं। पिस्तौल पहला सफल आवर्ती अस्त्र था। १९वीं शताब्दी के अंत में कोल्ट (Colt) या माउज़र (Mauser) किस्म की स्वयं भरनेवाली, स्वचालित पिस्तौले बनी। रिवॉल्वर के आविष्कार के बाद पिस्तौल का प्रयोग द्वंद्वयुद्धों तक सीमित हो गया था, किंतु इस शताब्दी में स्वत: भरनेवाली स्वचालित पिस्तौलों का महत्व रिवाल्वर से अधिक हो गया है।
इस अग्न्यस्त्र का एक हाथ से पकड़ते और फायर करते हैं। सेना की टुकड़ी के सेनापतियों का यह निजी अस्त्र होता है। प्रशिक्षित व्यक्ति इसका सदुपयोग कर सकता है। प्रशिक्षण के अभाव में यह लगभग बेकार है। निकटस्थ शत्रु पर प्रयोग करने के लिए यह अत्यंत उपयुक्त अस्त्र है। इसके प्रयोग में कुशल होने से आत्मविश्वास और मनोबल बढ़ता है। इसे छिपाना और प्रयोग करना दोनों ही सरल है। इसे फायर करने के अनेक ढंग हैं, जिनमें खड़ी स्थिति और रणपैतरा-स्थिति (battle crouch position) महत्वपूर्ण हैं।
पिस्तौल अनेक प्रकार की होती हैं, जिनमें .३८ पिस्तौल सबसे अधिक प्रचलित है। यह नाम पिस्तौल के व्यास (calibre) के कारण है। बहुत प्रकार की पिस्तौलें लगभग एक से ढाँचे और अभिकल्प की हाती हैं। .३८ पिस्तौल की नली पाँच इंच लंबी होती है। पिस्तौल की कुल लंबाई साढ़े नौ इंच और भार लगभग एक पाउंड या आउंस होता है। इसका प्रभावी परास १५ गज माना जाता है, लेकिन २५ तक इसे फायर किया जा सकता है। इसके बेलन में एक साथ छह कारतूस भरे जा सकते हैं। यह धातु या सीसे की गोलियाँ फायर कर सकती है। धातुआवृत्त गोलियों की अपेक्षा सीसे की गोलियाँ मनुष्य के लिए अधिक घातक होती हैं। अब इधर डमडम (Dumdum) गोलियों का प्रचलन बढ़ रहा है। गोलियों के भार में भिन्नता हाने के कारण आघात (impact) भी भिन्न भिन्न होता है।
घोड़ा (hammer), प्रधान कमानी और घूर्णमान ग्राह (pawl) की सम्मिलित क्रिया से पिस्तौल काम करती है। घोड़ा और प्रधान कमानी गोली फायर करती है और घूर्णमान ग्राह वेलन को चलाता है। पहली क्रिया में घोड़े को पीछे खींचने पर वह अपनी घुरी पर घूर्णन करता है और प्रधान कमानी को दबाता है। जब घोड़ा पूरी तरह पीछे चला जाता है तब प्रधान कमानी का लीवर लिबलिबी (trigger) के अग्र भाग को घोड़े के मुड़े हुए स्थान के अंदर पहुँचा देता है और घोड़ा पूरी तौर से चढ़ जाता है। यदि घोड़े को लिबलिबी से मुक्त न किया जाए, तो वह हिल भी नहीं सकता। दोहरी क्रिया में भी यही क्रिया हेती है। अंतर केवल यह रहता है कि इसमें लिबलिबी को दबाकर घोड़े का घूर्णन और प्रधान कमारी का दबाव उत्पन्न किया जाता है। लिबलिबी पर कीलित घूर्णक ग्राह के द्वारा बेलन गतिशील होता है। बेलन की दाँतेदार पंक्ति (ratchet) के दाँते को ग्राह जकड़ लेता है। अत: जब ग्राह ऊपर की ओर चलता है तब बेलन घूर्णन करता है। लिबलिबी को छोड़ने पर वह ऊर्ध्व प्रधात नहीं करता।
पिस्तौल को किसी भी दिशा में सरलता से घुमाया जा सकता है और इसे सरलता से चलाया जा सकता है। अत: यह केवल शत्रु को ही नहीं अपितु कभी-कभी मित्र को भी संकट में डाल सकती है। इसलिए पिस्तौल के व्यवहार के समय सुरक्षात्मक सावधानियों का पालन अवश्य करना चाहिए। सुरक्षा की निम्नलिखित सावधानियों का पालन आवश्यक होता है :
जब तक कोई कार्य न हो, पिस्तौल की नली का मुँह धरती की ओर रखा जाता है।
(शरदचंद्र नारायण)