पिरिडीन (C5 H5 N) एक विषमचक्रीय कार्बनिक यौगिक है, जिसके चक्र में कार्बन के पाँच और नाइट्रोजन का एक परमाणु रहता है। इसके संरचनासूत्र का प्रतिपादन कोरनर (Korner) ने १८६९ ई. में किया था। इस सूत्र से पिरिडीन के रासायनिक व्यवहार की व्याख्या संतोषजनक ढंग से हो जाती है।
पिरिडीन का
संरचनासूत्र
कोयला, पीट-कोयला, काठ और अन्य बिटॅमिनी पदार्थों को तपाने से पिरिडीन बनता है और उनके भंजक आसवन से जो अलकतरा प्राप्त होता है, उसी में यह रहता है। अस्थि के भंजक आसवन से जो अस्थि तेल प्राप्त होता है, उसमें भी पिरिडीन रहता है। कोयले के अलकतरे के प्रभाजित आसवन से जो उत्पाद ८०� C और १७०� C के बीच प्राप्त होता है, उसी हलके तेल में बेंज़ीन के साथ-साथ पिरिडीन रहता है। इस हलके तेल पर तनु सल्फ्यूरिक अम्ल को क्रिया से तथा फिर चूना द्वारा पृथक् कराकर यह प्राप्त होता है। इसके पुन: आसवन से परिष्कृत पिरिडीन प्राप्त होता है।
पिरिडीन रंगरहित द्रव है, जिसका घनत्व ०� सें. पर १.००३३ है। इसका क्वथनांक १४४.५� सें. है। इसकी गंध बड़ी तीखी और अरुचिकर होती है। यह जल, ऐल्कोहल और ईथर में सब अनुपात में विलेय है और अम्लों से लवण बनाता है। यह तृतीयक क्षारक है और स्थायी यौगिक बनाता है। ऑक्सीकारकों का इसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हैलाजन की क्रियाएँ इसपर कठिनता से होती हैं। अपचयन से यह अपचित होकर पिपेरिडीन बन जाता है। प्रयोगशालाओं में भी इसका संश्लेषण हुआ है।
पिरिडीन महत्वपूर्ण यौगिक है। मेथिलेटेड स्पिरिट के निर्माण में इसका उपयोग एक समय व्यापक रूप में होता था। विलायक के रूप में इसका उपयोग अब भी होता है। अनेक रासायनिक अभिक्रियाओं में अल्प मात्रा में उपस्थित रहकर भी यह उच्च कोटि का उत्प्रेरक सिद्ध हुआ है।
(रामदास तिवारी)