पिपरमिंट (Mentha piperita) का पौधा यूरोप का देशज है, पर अब संसार के अनेक भागों में उगाया जाता है। इसका प्रयोग अनेक औषधियों में होता है। आयुर्विज्ञान में पिपरमिंट को बड़ा ऊँचा स्थान दिया गया है और इसके पौधे तथा सत का विशेष महत्व है। पेट तथा आँतों के रोग तथा विभिन्न प्रकार के शूल में पिपरमिंट बहुत लाभप्रद है।

पिपरमिंट का पौधा पोदीने की तरह का होता है और भूमितल पर रेंगकर बढ़ता है। यह एक से तीन फुट ऊँचा होता है। इसके पत्तों में तेल ग्रंथियाँ होती हैं और फूल गुच्छेदार होते हैं। इसके लिए दुमट मिट्टी, जिसमें जल का निकास अच्छा हो, उपयुक्त है। फसल बरसात को छोड़कर अन्य मौसम में अच्छी तरह बढ़ती है तथा पत्तियों की कटाई भी की जा सकती है।

पिपरमिंट का पौधा डंठल के टुकड़ों को गाड़कर लगाया जाता है। तने के जोड़ पर आंखें होती हैं, जिनमें से कल्ले फूटते तथा जड़ें भी निकलती हैं। १०फुट १०फुट की क्यारी के लिए आधा सेर डंठल के टुकड़े पर्याप्त होते हैं। बरसात समाप्त होने के बाद खेत की ३-४ उथली जुताई करके, १००-१५० मन गोबर की खाद प्रति एकड़ डालनी चाहिए। पिपरमिंट में अधसड़ी खाद तथा खली एवं पत्तियों की खाद खूब लगती हैं। यह मिट्टी को पोली करती है, जिससे तना खूब फैलता है। जाड़े के महीने में २-३ एवं गर्मी में ४-५ सिंचाई आवश्यक हैं। पिपरमिंट के बढ़ने के लिए नमी काफी चाहिए। एक बार की बोई फसल यदि निचान में न हो तो दो तीन वर्ष चलती है। बरसात के बाद दो बार निकाई करना आवश्यक है। एक एकड़ से साल में ४०-५० मन हरी पत्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। आजकल यह पौधा संयुक्त राज्य, अमरीका के मिशिगैन और इंडियाना राज्यों में बहुत बड़ी मात्रा में उगाया जाता है। पत्तियों के वाष्प आसवन से तेल निकाला जाता है।

पिपरमिंट में भुनगे तथा जड़ गलन रोग लगता है। इनकी रोकथाम करने के लिए क्रमश: पाइरोकोलाइड तथा पेरानाकस का विलयन छिड़कना लाभप्रद सिद्ध हुआ है।

(दुर्गाशंकर नागर)