पाश्चात्य सामुद्रिक भारतीय धर्मग्रंथों में मान्य विश्वास के अनुसार अंगलक्षणों के आधार पर मानवीय जीवन की त्रिकालिक संभावनाओं को व्यक्त करनेवाले विज्ञान के आदि सैद्धांतिक महर्षि समुद्र थे, अत: इस विज्ञान को सामुद्रिकशास्त्र कहा जाता है।
पश्चिम में इस विज्ञान का विकास मूलत: यूनान में हुआ। यूनानी भाषा में हाथ को 'कीरो' (cheiro या xero) कहते हैं। 'कीरोमेंसी' (cheiromancy) शब्द इस 'कीरो' से बना है जिसका अर्थ है 'हाथ संबंधी सिद्धांत प्रणाली'। पामिस्ट्री (Palmistry) शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी शब्द 'पाम' (Palm) से हुई है, सामुद्रिक के लिए पश्चिम में यही पर्याय प्रचलित और ग्राह्य है।
ऐतिहासिक विकासक्रम - आर्यकालीन भारत को सभ्यता और संस्कृति की केंद्रस्थली होने का गौरव प्राप्त है। मानवीय ज्ञान और चेतना के प्रथम चरण में अनेक वैज्ञानिक शोध तथा अन्वेषणप्रणालियाँ भारत ही में जन्मीं; सामुद्रिक उनमें से एक है।
मिस्र, यूनान और चीन तत्कालीन विश्व के अन्य सभ्यता तथा सांस्कृतिक विकास के केंद्र थे। सांस्कृतिक आदान-प्रदान के द्वारा इन देशों तक भारत से सामुद्रिक विद्या पहुँची। कालांतर में इन देशों के साथ जब भारत के संबंध शिथिल हुए, स्वतंत्र रूप से इन विभिन्न देशों में यह विद्या अलग अलग ढंग से विकसित हुई। आज के पाश्चात्य सामुद्रिक शास्त्री प्रधानत: यूनानी सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं। यूरोप में सामुद्रिक का प्राचीनतम केंद्र यूनान ही है। एनाक्सागोरस, अरस्तू आदि प्राचीन यूनानी दार्शनिकों की कृत्तियों में सामुद्रिक का उल्लेख व्यापक रूप से हुआ है। हिब्रू पुस्तकों और ईसाई धर्मग्रंथों में भी कहीं-कहीं इसका विवरण तथा वर्णन प्राप्य है।
१७वीं सदी के बाद यूरोपीय विचारकों ने सामुद्रिक को व्यवस्थित विज्ञान (Systematic science) के रूप में ग्रहण किया है। वर्तमान समय तक आते-आते पाश्चात्य सामुद्रिकों ने अनेक शोधों और अन्वेषणों द्वारा इसे लगभग पूर्णता प्रदान कर दी है।
सैद्धांतिक आधार - सामुद्रिक (Palmistry) के अध्येता हाथ का अध्ययन दो विभागों में संपूर्ण करते हैं। पहले विभाग के अंतर्गत हाथ, हाथ की संरचना, त्वचा, अंगुली, अंगूठे और हथेली पर उभरे हुए पर्वतों का अध्ययन किया जाता है। हथेली पर बिखरी हुई, प्रमुख गौण और सूक्ष्म रेखाओं का अध्ययन दूसरे विभाग के अंतर्गत होता है।
सामुद्रिक के मूलभूत सिद्धांत के अनुसार सृष्टि में सात वर्गों के मनुष्य पाए जाते हैं। मनुष्य के ये सात वर्ग एक दूरे से आकृति, गुण, प्रकृति, स्वास्थ्य आदि सभी दृष्टियों से भिन्न होते हैं। यह अनुमानित सिद्धांत इस विश्वास पर आधारित है कि सृष्टि का विकास एक सुनियोजित क्रम में हुआ। हाथ की संरचना आदि का अध्ययन करके विषय को इन सात वर्गों में से किसी एक में वर्गीकृत किया जाता है, तदनुसार विषय की विकासवादी प्रवृत्ति समझी जाती है।
रेखाओं के लिए सामुद्रिक शास्त्र में जीवनी शक्ति दूसरा मूलभूत सिद्धांत है। जीवनीशक्ति जिसे अलग अलग दार्शनिकों ने जिन्मय तत्व, ईथर, विद्युत् या चेतनप्रवाह की संज्ञाओं से अभिहित किया है, वस्तुत: पार्थिव शरीर में जीवन संसरण के लिए उत्तरदायी है। इस चेतनप्रवाह का संचालनकेंद्र मस्तिष्क है, जहाँ से वितरित होकर यह शरीर के विभिन्न अंगों उपांगों को स्पंदन और क्रिया प्रदान करता है। हथेली की रेखाएँ इस चेतनप्रवाह की दिशा दर्शानेवाली आकृतियाँ भर हैं।
वैज्ञानिक तुष्टीकरण - डार्बिन महोदय के विकासवाद की पृष्ठभूमि में मनुष्य अपने पूर्ववर्ती प्राणियों (एप मैन आदि) से, उन्नत मस्तिष्क के कारण, श्रेष्ठ है। वस्तुत: विकासवादी परंपरा का आधार प्राणियों के मानसिक विकास की विभिन्न स्थितियाँ ही हैं, आकृति संबंधी परिवर्तन मानसिक विकास से ही प्रभावित हुए हैं। सामुद्रिक में हाथों की सरंचना, त्वचा आदि के आधार पर वर्गीकरण का सिद्धांत विकासवाद पर ही आधारित है। प्रकृति और अवयवों की गठन का सीधा संबंध मस्तिष्कीय विकास की स्थितियों से है।
गर्भावस्था में शिशु का मस्तिष्क और अन्य शारीरिक अवयव प्राय: निष्क्रिय दशा में रहते हैं। जब बालक जन्म लेता है, तब माँ से उसका संबंधविच्छेद होता है, और वह स्वतंत्र जीवन इकाई बन जाता है। इस क्षण में दो शारीरिक क्रियाएँ एक साथ प्रारंभ होती है अर्थात् शिशु का मस्तिष्क चेतनप्रवाह को संपूर्ण शरीर में प्रवाहित कर कार्य आरंभ कर देता है, उधर हृदय के गतिशील होने से शरीर में रक्त संचालित हो उठता है। यही जीवन का प्रारंभ है। इन प्राथमिक प्रक्रियाओं का प्रभाव शारीरिक अवयवों पर होता है। वे भी गतिवान् होते हैं, सर्वप्रथम शिशु की बंद मुट्ठियाँ खुल जाती हैं। एक स्वतंत्र जीवन इकाई के रूप में शिशु का यह पहला क्षण मस्तिष्क से प्राप्त चेतनप्रवाह की दिशाओं को हथेली पर रेखाओं के रूप में अंकित कर देता है। शिशु की आयु के प्रारंभिक महीने अविकसित मानस द्वारा संचालित होते हैं। वह अशक्त होता है, केवल नींद और भूख महसूस कर पाता है। क्रमश: उसका विकास होता है, उसे अपने पराए की पहचान होती है, भले बुरे का आभास होता है। मानसिक विकास की दिशाओं के अनुरूप उसकी रेखाएँ भी स्थायित्व, दिशा और प्रभाव प्राप्त करती हैं।
रेखाओं की दिशा, गुणदोष और प्रभावों का संचालन व्यक्ति के मनोविज्ञान के अनुरूप होता है। मस्तिष्क से संचालित चेतनप्रवाह व्यक्ति की चिंतन प्रणाली के अनुरूप ही हथेली पर विभिन्न रेखाओं के माध्यम से व्यक्त होता है। भाग्य और भविष्य इच्छा पर आधारित रहता है, इच्छा ही कार्य की प्रेरणा बनती है और कर्म की निष्पत्ति फल में होती है। पाश्चात्य हस्तरेखाविद् सामुद्रिक के अध्ययन में व्यक्तिमनोविज्ञान को प्रधानता देते हैं।
सात प्रकार के मनुष्य - हाथ की बनावट के आधार पर संपूर्ण मानवजगत् को सात वर्गों में हस्तरेखाविदों द्वारा विभाजित किए जाने की बात का उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। यह वर्गीकरण विकासवादी सिद्धांत पर आधारित है। संक्षेप में यह निम्नांकित प्रकार का है :
हथेली का सामान्य वर्गीकरण - कलाई से ऊपर हथेली और अँगुलियों का अध्ययन हस्तरेखा अध्ययन की सीमा में आता है। आंतरिक संरचना (Physiology) की दृष्टि से यह अवयव कई छोटी-छोटी हड्डियों से मिलकर बनता है। हथेली की आंतरिक संरचना पाँच लंबी हड्डियों की होती हैं जिन्हें मेटाटारसस (metatarsus) कहते हैं, इनका फैलाव अँगुलियों के आधार तक होता है, इसके बाद अँगूठे में दो और अंगुलियों में तीन-तीन छोटी अस्थियाँ और होती हैं जिन्हें फेलैजेज़ (Phalanges) कहते हैं।
प्रत्येक अँगुली के आधार पर एक उभरी हुई मांस थैली होती है, सामुद्रिक में इन थैलियों को पर्वत (Mount) कहा जाता है। मोटे तौर पर संपूर्ण हथेली तीन विश्वों में बाँट ली गई है, मानसिक विश्व (Mental world) अर्थात् वे अँगुलियाँ, जो मनुष्य की मानसिक शक्तियों का परिचय देती है।
व्यावहारिक विश्व (Practical world) - अंगुलियों के आधार से अँगूठे के आधार तक कलाई के समानांतर खींची गई रेखा तक, हथेली का यह भाग व्यक्ति की व्यावहारिक प्रवृत्तियों का द्योतक है। आधारभूत विश्व (Basic or Animal world) कलाई से ऊपर द्वितीय विश्व की सीमारेखा तक का भाग व्यक्ति की भौतिक इच्छाओं का परिचायक है। इसी तरह अँगुलियों के अस्थिखंड भी क्रमश: इन्हीं प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। व्यक्ति में जिस विश्व की प्रधानता होगी, उसके कार्यकलाप तदनुरूप संचालित होंगे।
अँगूठा, दो अस्थिखंडों (Phalanges) से मिलकर बनता है, ये क्रमश: इच्छा और तर्क के परिचायक हैं।
इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य और प्रकृतिसंबंधी संभावनाएँ अँगूठे की आकृति, त्वचा का रंग, रोम, रुखाई तथा नाखूनों की बनावट से समझी जाती हैं।
पर्वत - सामुद्रिक अध्ययन में पर्वत (Mount) कहे जानेवाले, हथेली पर उभरे हुए भाग वस्तुत: कोशिकाओं (Blood capillaries) और स्नायु कोशिकाओं (Nerve capillaries) के समूह होते हैं। मस्तिष्क के विभिन्न भागों से आनेवाली स्नायु कोशिकाएँ इन पर्वतों के रूप में उन मस्तिष्कीय भागों की विकसित अथवा अविकसित दशाएँ बताती हैं। सुविधा की दृष्टि से पर्वतों का नामकरण ग्रहों के आधार पर कर लिया गया है। पाश्चात्य विचारकों में मतभेद है कि वस्तुत: ये पर्वत संबंधित ग्रहों द्वारा प्रभावित होते हैं या नहीं। ज्योतिष (Astrology) के अनुसार ग्रहों के जिन गुणों का प्रभाव व्यक्ति पर होता है, हथेली के पर्वत उनका प्रतिनिधित्व तो करते ही हैं।
पर्वतों की स्थितियाँ और उनका संक्षिप्त विवरण तथा प्रभाव निम्नांकित हैं :
शुक्र (Venus) - अँगूठे के आधार पर स्थित मांस की एक बड़ी थैली शुक्र का पर्वत कही जाती है। यूनानी विश्वासों के अनुसार वीनस कला, प्रेम और भावना की देवी है, मानवीय चरित्र के ये गुण हथली पर इस पर्वत द्वारा प्रकट होते हैं। चूँकि शुक्र हथेली पर सबसे बड़ा मांसपिंड है, इसका विकास स्वस्थ, सशक्त हृदय और निर्दोष रक्तसंस्थान की दशा में ही संभव है। अत: शुक्र का विकास चरित्र में स्फूर्ति, उत्साह, स्वच्छंदता तो लाता ही है, साथ ही विकसित शुक्रवाले व्यक्ति वासनात्मक प्रेम, आकर्षण और आस्था के प्रति झुके रहते हैं।
चंद्र (Luna) - हथेली के आधार पर शुक्र के सामने चंद्र का स्थान है, यह पर्वत हथेली के पार्श्व की रचना करता है। सौंदर्य, शृंगार और कोमलता चंद्र के गुण हैं, विकसित चंद्रवाले व्यक्ति स्वभाव से शीतल, कल्पनाशील और आकर्षक होते हैं। निराश कलाकार, कवि और प्रणयी इसी वर्ग में पाए गए हैं। उनमें आत्मविश्वास का अभाव होता है और वे अति संवेदनशील होते हैं।
गुरु (Jupiter) - तर्जनी के आधार पर गुरु के पर्वत की स्थिति है। यूनानी धर्मग्रंथों में जुपिटर संचालन, नेतृत्व और अधिकार का देवता है। हथेली पर गुरु की प्रधानता व्यक्ति को महत्वाकांक्षी और नेतृत्वप्रिय बनाती है। ऐसे लोग सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं, फौज में बड़े ओहदों पर पहुँचते हैं, विचार हो या व्यवसाय, वे आगे पाए जाते हैं। वे दृढ़ इच्छा, विवेकशील चिंतन और व्यावहारिक आदर्शों के व्यक्ति होते हैं।
शनि (Saturn) - शनि एक कुटिल ग्रह माना गया है। मध्यमा के आधार पर स्थित शनि का विकास मानवीय चरित्र में गांभीर्य, चिंतन और अन्वेषण की सत्प्रवृत्तियाँ तो देता है किंतु व्यक्ति को अंधविश्वास, घृणा, नैराश्य, घुटन और संदेह से भी भर देता है। ऐसे लोग स्वभाव से ही एकांत और रहस्यप्रिय होते हैं, वे अन्वेषक भी हो सकते हैं और अपराधी भी।
सूर्य (Apollo) - तेज, यश, श्री और वैभव के स्वामी सूर्य का स्थान अनामिका के आधार पर हथेली में माना गया है। सूर्यप्रधान व्यक्ति समाज के निर्बाध सम्मान के अधिकारी होते हैं। वे सहज प्रतिभावान्, मौलिक, कार्यप्रणाली में स्पष्ट, बहुमुखी, उत्तरदायी और आश्वस्त होते हैं। ऐसे लोग सामाजिक जीवन में नेतृत्व और लोकप्रियता दोनों हो प्राप्त करते हैं। तर्क और प्रमाण, अपनत्व और श्रेष्ठता की भावना तथा खुले मस्तिष्क से निकली उनकी कार्यप्रणाली उन्हें यश, धन और सफलता निश्चित रूप से देती है।
बुध (Mercury) - कनिष्ठा के आधार पर बुध का पर्वत स्थित है। बुधप्रधान व्यक्ति स्वभाव से सजग, पारखी और चतुर होते हैं। वे निसर्गत: मनोविज्ञान के पंडित होते हैं, अवसर उनके पास से अछूता नहीं गुजरता। अपने आप को वे आदर्श रूप में प्रस्तुत करने के आदी होते हैं। ऐसे लोग सफल वकील, अभिनेता, कूटनीतिज्ञ, वैज्ञानिक या लेखक भी हो सकते है और अपराधी भी। विकसित बुध सदा सफलता दिलाता है, सफलता के क्षेत्र का निर्णय हथेली के दूसरे प्रभावशील तत्वों पर आधारित रहता है।
मंगल (Mars) - मंगल युद्ध का देवता है, शक्ति, वीरता और क्रोध को अभिव्यक्त करनेवाला मंगल का पर्वत हथेली पर दो विभिन्न स्थानों में पाया जाता है। निम्न मंगल का स्थान शुक्र और गुरु के पर्वतों के बीच में होता है, यहाँ इसका विकास व्यक्ति को हिंसा, मद्य, और संघर्षप्रिय बनाता है। ऊर्ध्व मंगल बुध और चंद्र के पर्वतों के बीच में होता है, यहाँ इसका विकास व्यक्ति को हिंसा, मद्य, और संघर्षप्रिय बनाता है। ऊर्ध्व मंगल बुध और चंद्र के पर्वतों के बीच में हथेली का दूसरा पार्श्व निर्मित करता है। शेष पर्वतों से घिरी हुई हथेली मंगल क्षेत्र कहलाती है। मंगल का साधारण विकास व्यक्ति को वीर, निडर, शक्तिशाली बनाता है लेकिन अतिविकसित मंगल निश्चित रूप से दुराचारी, व्यसनी और अपराधी व्यक्तियों की सृष्टि करता है।
पर्वतों के गुण-दोष-विवेचन में अँगुलियाँ विशेष रूप में देखी जानी चाहिए, हाथ और अंगुलियों के प्रधान विश्व देखकर पर्वतीय गुणों की दिशा समझी जाती हैं। दो समान विकसित पर्वतों के आधार पर व्यक्ति की चारित्रिक, नैसर्गिक और वैचारिक, पृष्ठभूमि समझी जा सकती है। अविकसित पर्वत प्रभावहीन होते हैं।
रेखाएँ - कहा जा चुका है कि हथेली की रेखाएँ मस्तिष्क द्वारा संचालित चेतनप्रवाह की दिशा दर्शाती हैं। गुरु की अँगुली और गुरु का पर्वत इस चेतनप्रवाह के वितरण का केंद्र माना गया है, जहाँ से यह प्रवाह तीन प्रमुख रेखाओं द्वारा हथेली के विभिन्न भागों में पहुँचता है। ये रेखाएँ प्रमुख रेखाएँ कहीं जाती हैं, इनका उद्गम, विकास और नामकरण इस प्रकार है :
इन तीन प्रमुख रेखाओं की उपस्थिति ९९ प्रतिशत हाथों में अनिवार्य है, चाहे वे अविकसित या अस्तव्यस्त ही क्यों न हों। इन प्रमुख रेखाओं के अतिरिक्त कुछ सहायक रेखाएँ भी होती हैं, जिनकी उपस्थिति सदा अनिवार्य नहीं, वे निम्न हैं :
इन सहायक रेखाओं के अतिरिक्त कुछ गौण रेखाएँ भी किन्हीं-किन्हीं हथेलियों में पाई जाती हैं। उनके नाम, स्थान और प्रभाव इस प्रकार हैं :
सरल, स्पष्ट और गहरी रेखाएँ निर्दोष होती हैं। वे पूरी तरह प्रभावशालिनी होती हैं। इसके विपरीत शृंखलित, अस्तव्यस्त, शाखायुक्त रेखाएँ या उनपर द्वीप, यव आदि की उपस्थिति उन्हें दुर्बल और प्रभावहीन बनाती हैं।
(प्रकाश र्दीक्षित)