पालि भाषा और साहित्य पालि शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों के नाना मत पाए जाते हैं। किसी ने इसे पाठ शब्द से तथा किसी ने पायड (प्राकृत) से उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है। एक जर्मन विद्वान् मैक्स वैलेसर ने पालि को पाटलि का संक्षिप्त रूप बताकर यह मत व्यक्त किया है कि उसका अर्थ पाटलिपुत्र की प्राचीन भाषा से है। इन व्युत्पत्तियों की अपेक्षा जिन दो मतों की ओर विद्वानों का अधिक झुकाव है, उनमें से एक तो है पं. विधुशेखर भट्टाचार्य का मत, जिसके अनुसार पालि पंक्ति शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। इस मत का प्रबल समर्थन एक प्राचीन पालि कोश अभिधानप्पदीपिका (१२वीं शती ई.) से होता है, क्योंकि उसमें तंति (तंत्र), बुद्धवचन, पंति (पंक्ति) और पालि इन शब्दों मे भी स्पष्ट ही पालि का अर्थ पंक्ति ही है। पूर्वोक्त दो अर्थों में पालि के जो प्रयोग मिलते हैं, उनकी भी इस अर्थ से सार्थकता सिद्ध हो जाती है। बुद्धवचनों की पंक्ति या पाठ की पंक्ति का अर्थ बुद्धघोष के प्रयोगों में बैठ जाता है। तथापि ध्वनिविज्ञान के अनुसार पंक्ति शब्द से पालि की व्युत्पत्ति नहीं बैठाई जा सकती। उसकी अपेक्षा पंक्ति के अर्थ में प्रचलित देशी शब्द पालि, पाठ्ठ, पाडू से ही इस शब्द का सबंध जोड़ना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। पालि शब्द पीछे संस्कृत में भी प्रचलित हुआ पाया जाता है। अभिधानप्पदीपिका में जो पालि की व्युत्पत्ति 'पालेति रक्खतीति पालि', इस प्रकार बतलाई गई है उससे भी इस मत का समर्थन होता है। किंतु 'पालि महाव्याकरण के कर्ता भिक्षु जगदीश कश्यप ने पालि को पंक्ति के अर्थ में लेने के विषय में कुछ आपत्तियाँ उठाई हैं और उसे मूल त्रिपिटक ग्रंथों में अनेक स्थानों पर प्रयुक्त परीयाय (पर्याय) शब्द से व्युत्पन्न बतलाने का प्रयत्न किया है। सम्राट् अशोक के भाब्रू शिलालेख में त्रिपिटक के धम्मपरियाय शब्द स्थान पर मागधी प्रवृत्ति के अनुसार धम्म पलियाय शब्द का प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ बही बुद्ध न उपदेश या वचन होता है। कश्यप जी के अनुसार इसी पलियाय शरण से पालि की व्युत्पत्ति हुई।
मूल त्रिपिटक में भाषा का कहीं कोई नाम नहीं मिलता। किंतु युद्धघोष आदि आचार्यों ने बुद्ध के उपदेशों की भाषा को मागधी कहा है। 'विसुद्धिमग्ग' एवं 'महावंस' में इस मागधी को सब प्राणियों की मूलभाषा कहा गया है। उसके स्थान पर पालि शब्द का प्रयोग प्राय: १४वीं शती ई. के पूर्व नहीं पाया जाता। हाँ, बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथाओं में पालि शब्द का प्रयोग किया है, किंतु यह भाषा के अर्थ में नहीं, बुद्धवचन अथवा मूलत्रिपिटक के पाठ के अर्थ में किया है और वह भी प्राय: उस पाठ को अट्ठकथा से भिन्न दिखलाने के लिए। इस प्रकार कहीं उन्होंने कहा है कि इसकी पालि इस प्रकार है, किंतु अट्ठकथा में ऐसा है, अथवा यह बात न पालि में है और न अट्ठकथा में आई है। बुद्धघोष के समय से कुछ पूर्व लिखे गए दोषवंश में तथा उनके पश्चात्कालीन महावंस आदि रचनाओं में भी पालि शब्द का इन्हीं दो अर्थों में प्रयोग किया गया पाया जाता है। इसी अर्थप्रयोग से क्रमश: पालि शब्द उस साहित्य तथा उसकी भाषा के लिए भी किया जाने लगा।
भाषा की दृष्टि से पालि उस मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा का एक रूप है जिसका विकास लगभग ई.पू. छठी शती से माना जाता है। उससे पूर्व की आदियुगीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप वेदों तथा ब्राह्मणों, उपनिषदों एवं रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में प्राप्त होता है, जिन्हें वैदिक एवं संस्कृत भाषा कहते हैं। इन प्राचीन भाषाओं की अपेक्षा मध्यकालीन भाषाओं का भेद प्रमुखता से निम्न बातों में पाया जाता है : ध्वनियों में ऋ, ल्, ऐ, और इन स्वरों का अभाव, ए और ओ की ्ह्रस्व ध्वनियों का विकास तथा श्, ष्, स् इन तीनों ऊष्मों के स्थान पर किसी एकमात्र का तथा सामान्यत: स का प्रयोग, विसर्ग का सर्वथा अभाव तथा असवर्णसंयुक्त व्यंजनों को असंयुक्त बनाने अथवा सवर्ण संयोग में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति। (२) व्याकरण की अपेक्षा संज्ञा एवं क्रिया के रूपों में द्विवचन का अभाव तथा पुल्लिंग और नपुंसक लिंग में अभेद और व्यत्यय; कारकों एवं क्रियारूपों में संकोच, हलंत रूपों का अभाव; कियाओं में परस्मैपद, आत्मनेपद तथा भवादि, अदादि गणों के भेद का लोप।
ये विशेषताएँ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के सामान्य लक्षण हैं और देश की उन लोकभाषाओं में पाए जाते हैं जिनका सुप्रचार उक्त अवधि से कोई दो हजार वर्ष तक रहा और जिनका बहुत-सा साहित्य भी उपलब्ध है। उक्त सामान्य लक्षणों के अतिरिक्त इन भाषाओं में अपने अपने देश और काल की अपेक्षा नाना भेद पाए जाते हैं। काल की दृष्टि से उनके तीन स्तर माने गए हैं - प्राक्मध्यकालीन (ई.पू. ६०० से ई. सन् १०० तक), अंतर मध्यकालीन (ई. सन् १०० से ६०० तक) तथा उत्तर मध्यकालीन (ई.सन् ६०० से १००० तक)। इन सब युगों की भाषाओं को एक सामान्य नाम प्राकृत दिया गया है। इसके प्रथम स्तर को भाषाओं का स्वरूप अशोक की प्रशस्तियों तथा पालि साहित्य में प्राप्त होता है। द्वितीय स्तर की भाषाओं में मागधी, अर्द्धमागधी, शीरसेनी एवं महाराष्ट्री प्राकृत भाषाएँ है जिनका विपुल साहित्य उपलब्ध है। तृतीय स्तर की भाषाओं को अपभ्रंश एव अवहट्ठा नाम दिए गए हैं। (इनके सुविस्तृत परिचय के लिए देखिए 'प्राकृत भाषा और साहित्य' तथा 'पैशाची', 'महाराष्ट्री', 'मागधी' और 'शोरसैनी')।
देशभेद की अपेक्षा मध्यकालीन भाषाओं के भेद का सर्वप्राचीन परिचय मौर्य सम्राट् अशोक (ई.पू. तृतीय शती) की धर्मलिपियों में प्राप्त होता है। इनमें तीन प्रदेशभेद स्पष्ट हैं - पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी। पूर्वी भाषा का स्वरूप धौली और जौगढ़ की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें र के स्थान पर ल तथा आकारांत शब्दों के कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति ए सुप्रतिष्ठित है। प्राकृत के वैयाकरणों ने इन प्रवृत्तियों को मागधी प्राकृत के विशेष लक्षणों में गिनाया है। वैयाकरणों के मतानुसार इस मागधी प्राकृत का तीसरा विशेष लक्षण तीनों ऊष्म वर्णों के स्थान पर श् का प्रयोग है। किंतु अशोक के उक्त लेखों में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि यहाँ तीनों ऊष्मों के स्थान पर स् ही प्रयुक्त हुआ है। इसी कारण अशोक की इस पूर्वी प्राकृत को मागधी न कहकर अर्धमागधी का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त है। पश्चिमी भाषा भेद का प्रतिनिधित्व करनेवालों गिरनार की प्रशस्तियाँ हैं। इनमें र और ल का भेद सुरक्षित है। ऊष्मों के स्थान पर स् का प्रयोग है तथा अकारांत कर्ता कारक एकवचन रूप ओ में अंत होता है। इन प्रवृत्तियों से स्पष्ट है कि यह भाषा शौरसेनी का प्राचीन रूप है। पश्चिमोत्तर की भाषा का रूप शहबाजगढ़ी और मानसेरा की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें प्राय: श्, ष्, स् ये तीनों ऊष्म वर्ण अपने स्थान पर सुरक्षित हैं। कहीं-कहीं कुछ व्यत्यय दृष्टिगोचर होता है। रकारयुक्त संयुक्तवर्ण भी दिखाई देते हैं, तथा ज्ञ और न्य के स्थान पर रञ्ञ, का प्रयोग (जैसे रञ्ञो ञ्ञ) पाया जाता है। ये प्रवृत्तियाँ उस भाषा को पैशाची प्राकृत का पूर्व रूप इंगित करती हैं।
पालि त्रिपिटक का कुछ भाग अवश्य ही अशोक के काल में साहित्यिक रूप धारण कर चुका था क्योंकि उसके लाहुलोवाद, मोनेय्यसुत्त आदि सात प्रकरणों का उल्लेख उनकी भाब्रू की प्रशस्ति में हुआ है। किंतु उपलब्ध साहित्य की भाषा में अशोक के पूर्वी शिलालेख की भाषा संबंधी विशेषताओं का प्राय: सर्वथा अभाव है। व्यापक रूप से पालि भाषा का स्वरूप गिरनार प्रशस्ति की भाषा से सर्वाधिक मेल खाता है, और इसी कारण पालि मूलत: पूर्वदेशीय नहीं, किंतु मध्यदेशीय है। जिस विशेषता के कारण पालि मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के प्रथम स्तर की गिनी जाती है, द्वितीय की नहीं, वह है उसमें मध्यवर्ती अघोष व्यंजनों के लोप तथा महाप्राण वर्णों के स्थान पर ह् के आदेश का अभाव। ये प्रवृत्तियाँ द्वितीय स्तर की भाषाओं के सामान्य लक्षण हैं। हाँ, कहीं कहीं क् त् जैसे अघोष वर्णों के स्थान पर ग् द् आदि सघोष वर्णों का आदेश दिखाई देता है। किंतु यह एक तो अल्पमात्रा में ही है और दूसरे वह प्रथम स्तर की उक्त मर्यादा के भीतर अपेक्षाकृत पश्चात्काल की प्रवृत्ति का द्योतक है।
पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है। पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु वेदों की भाषा से बैठता है। उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं। अकारांत संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेर्भि, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:। अतएव उक्त रूप की परंपरा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उद्भूत मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि से यमामसे, मासरे, कातवे आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किंतु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं। पालि के ग्रंथों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई। पालि के कच्चान, मोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानक नहीं किया गया।
पालि साहित्य - में मुख्यत: बौद्धधर्म के संस्थापक भगवान् बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। किंतु इसका कोई भाग बुद्ध के जीवनकाल में व्यवस्थित या लिखित रूप धारण कर चुका था, यह कहना कठिन है। यद्यपि त्रिपिटक में ही कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे बुद्ध के जीवनकाल में ही धर्म के कुछ प्रकरणों के व्यवस्थित पाठ किए जाने का पता चलता है। उदाहरणार्थ, उदान में वर्णन है कि एक बार सीण नामक भिक्षु से स्वयं भगवान् ने पूछा कि तुमने धर्म को कैसे समझा? इसके उत्तर में उस भिक्षु ने १६ अष्टक वर्गों को पूरे स्वर के साथ गाकर सुना दिया। इसकी भगवान् ने प्रशंसा भी की। विनयपिटक आदि ग्रंथों में बहुश्रुत, धर्मधर, विनयधर, मातृकाधर तथा पंचनेकायिक, भाणक, सुत्तंतिक जैसे विशेषणों का प्रयोग मिलता है, जिनसे स्पष्ट है कि बुद्ध के उपदेशों के धारण, पारण की परंपरा उनके जीवनकाल से ही चल पड़ी थी। इस परंपरा के आधार पर बुद्ध के उपदेशों को सुव्यवस्थित साहित्यिक रूप देने के लिए तीन बार संगीतियाँ की जाने के उल्लेख चुल्लवग्ग, दीपवंश, महावंश आदि ग्रंथों में मिलते हैं। प्रथम संगीति बुद्धनिर्वाण के चार मास पश्चात् ही राजगृह में हुई जिनमें ५०० भिक्षुओं ने भाग लिया, जिसके करण वह पंचशतिका नाम से भी प्रसिद्ध है। इसकी अध्यक्षता महाकाश्यप ने की और उन्होंने बुद्ध के साक्षात् शिष्य भिक्षु उपालि से विनय संबंधी तथा स्थविर आनंद से सुत्त संबंधी प्रश्न पूछ-पूछकर अन्य भिक्षुओं के अनुमोदन से उक्त विषयों का संग्रह किया। इसी प्रकार की दूसरी संगीति बुद्ध निर्वाण के १०० वर्ष पश्चात् वैशाली में हुई जिसमें ७०० भिक्षु सम्मिलित हुए और इसीलिए वह सप्तशतिका के नाम से विख्यात हुई। इसमें वैशाली के भिक्षुओं के आचरण में अनेक दोष दिखाकर उन्हें विनय के विरुद्ध ठहराया गया और अनुमानत: विनयपिटक में विशेष व्यवस्था लाई गई। बुद्धघोष के मतानुसार तो इसी संगीति द्वारा बुद्ध वचनों का त्रिपिटक, पाँच निकाय, नौ अंग तथा चौरासी हजार धर्मस्कंधों में वर्गीकरण किया गया। तीसरी संगीति बुद्धनिर्वाण के २२६ वर्ष पश्चात् सम्राट् अशोक के राज्यकाल में पाटलिपुत्र में हुई। इसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की। यह सम्मेलन नौ मास तक चला और उसमें बुद्धवचनों को अंतिम स्वरूप दिया गया। इसी बीच मोग्गलिपुत्त तिस्स ने कथावत्यु की रचना की जिसमें १८ मिथ्यादृष्टि बौद्ध संश्दायों की मान्यताओं का निराकरण किया। इस रचना को भी अभिधम्मपिटक में सम्मिलित कर लिया गया। इस संगीति का उल्लेख चुल्लवग्ग में नहीं है और न तिब्बती या चीनी महायान संप्रदाय के सहित्य में। अशोक के भाब्रू के लेख, जिसमें सात प्रकरणों के नाम भी उद्धृत हैं, उसमें, अथवा अन्य धर्मलिपियों में ऐसी किसी संगीति का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया। इस कारण इसकी ऐतिहासिकता में कीथ, वैलेसर आदि विद्वानों को संदेह है। किंतु रीज़डेविड्स, विंटरनित्ज़ तथा गाइगर आदि विद्वानों ने इसकी ऐतिहासिकता स्वीकार की है। जिस संगीति की ऐतिहासिकता के विषय में प्राचीन उल्लेख एवं आधुनि विद्वान् एकमत है, वह है वैशाली की द्वितीय संगीति। इन संगीतियों तथा अन्य प्रयत्नों के फलस्वरूप पालि त्रिपिटक का जो स्वरूप प्राप्त हुआ एवं जिस रूप में वह हमें आज उपलब्ध है, वह निम्न प्रकार है :
मूल पालि साहित्य तीन भागों में विभक्त है, जिन्हें पिटक कहा गया है 'विनयपिटक', 'सुत्तपिटक' और 'अभिधम्मपिटक'। इनमें से प्रत्येक पिटक के भीतर अपने अपने विषय से संबंध रखनेवाली अनेक छोटी बड़ी रचनाओं का समावेश है। विनयपिटक का विषय अपने नामानुसार भिक्षुओं के पालने योग्य सदाचार के नियम उपस्थित करना है। इसके तीन अवांतर विभाग हैं - सुत्तविभंग, खंधक और परिवार। सुत्तविभंग के पुन: दो उपविभाग हैं - महावग्ग और चुल्लवग्ग। इस प्रकार अपने इन उपविभागों की अपेक्षा विनयपिटक पाँच भागों में विभक्त है।
सुत्तपिटक अपने विषय, विस्तार तथा रचना की दृष्टि से त्रिपिटक का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। इसमें ऐसे सुत्तों का संग्रह किया गया है जो परंपरानुसार या तो स्वयं भगवान् बुद्ध के कहे हुए हैं या उनके साक्षात् शिष्य द्वारा उपदिष्ट हैं और जिनका अनुमोदन स्वयं भगवान् बुद्ध ने किया है। सुत्त का संस्कृत रूपांतर सूत्र किया जाता है। किंतु प्रस्तुत सुत्तों में सूत्र के वे लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते जो संस्कृत की प्राचीन सूत्ररचनाओं, जैसे वैदिक साहित्य के श्रौत सूत्र, गृह्म एवं धर्मसूत्र आदि में पाए जाते हैं। सूत्र का विशेष लक्षण है अति संक्षेप में कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ व्यक्त करना। उसमें पुनरुक्ति का सर्वथा अभाव अविद्यमान है। यहाँ संक्षिप्त शैली के विपरीत सुविस्तृत व्याख्यान तथा मुख्य बातों की बार बार पुनरावृत्ति की शैली अपनाई गई है। इस कारण सुत्त का सूत्र रूपांतर उचित प्रतीत नहीं होता। विचार करने से अनुमान होता है कि सुत्त का अभिप्राय मूलत: सूक्त से रहा है। वेदों के एक एक प्रकरण को भी सूक्त ही कहा गया है। किसी एक बात के प्रतिपादन को सूक्त कहना सर्वथा उचित प्रतीत होता है।
सुत्तपिटक के पाँच भाग हैं जिन्हें निकाय कहा गया हैं - दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय, और खुद्दकनिकाय। दीर्घनिकाय तीन वर्गों में विभाजित है। प्रथम सीलक्खंधवग्ग में १३ सुत्त हैं, दूसरे महावग्ग में १० तथा तीसरे पाटिकवग्ग में ११। इस प्रकार दीर्घनिकाय में ३४ सुत्त हैं। ये सुत्त अन्य निकायों में संगृहीत सुत्तों की अपेक्षा विस्तार में अधिक लंबे है और यही इस निकाय के नाम की सार्थकता है।
मज्झिमनिकाय में मध्यमविस्तार के १५२ सुत्त है जो १५ वर्गों में विभक्त हैं - (१) मूलपरियाय (२) सीहनाद (३) ओपम्म (४) महायमक (५) चूलयमक (६) गहपति (७) भिक्खू (८) परिव्वाजक (९) राज (१०) ब्राह्मण (११) देवदह (१२) अनुपद (१३) सुञ्ञ्ताा (१४) विभंग और (१५) षडायतन। इनमें से १४वें वर्ग विभंग में १२ सुत्त हैं और शेष सब में १०, १०।
संयुत्तनिकाय में छोटे बड़े सभी प्रकार के सुत्तों का संग्रह है और यही इस निकाय के नाम की सार्थकता है। इसमें कुल ५६ सुत्त या संयुत्त हैं जो इन पाँच वर्गों में विभाजित हैं - (१) सगाथ (२) निदान (३) खंध (४) षडायतन और (५) महावग्ग।
अंगुत्तर निकाय की अपनी एक विशेषता है। इसमें सुत्तों का संग्रह एक व्यवस्था के अनुसार किया गया है। आदि में ऐसे सुत्त हैं जिनमें बुद्ध भगवान् के एक संख्यात्मक पदार्थो विषयक उपदेशों का संग्रह है, तत्पश्चात् दो पदार्थों विषयक सुत्तों का और फिर तीन, चार आदि। इसी क्रम से इस निकाय के भीतर एककनिपात, दुकनिपात एवं तिक, चतुवक, पंचक, छक्क, सत्तक, अट्ठक, नवक, दसक और एकादसक इन नामों के ग्यारह निपातों का संकलन है। ये निपात पुन: वर्गों में विभाजित हैं, जिनकी संख्या निपात क्रम से २१, १६, १६, २६, १२, ९, ९, ९, २२ और ३ है। इस प्रकार ११ निपातों में कुल वर्गों की संख्या १६९ है। प्रत्येक वर्ग के भीतर अनेक सुत्त हैं जिनकी संख्या एक वर्ग में कम से कम ७ और अधिक से अधिक २६२ है। इस प्रकार अंगुत्तर निकाय से सुत्तों की संख्या २३०८ है।
खुद्दक निकाय में विषय तथा रचना की दृष्टि से प्राय: सर्वथा स्वतंत्र १५ रचनाओं का समावेश है, जिनके नाम हैं - (१) खुद्दक पाठ (२) धम्मपद (३) उदान (४) इतिवुत्तक (५) सुत्तनिपात (६) विमानवत्थु (७) पेतवत्थु (८) थेरगाथा (९) थेरीगाथा (१०) जातक (११) निद्देस (१२) पटिसंभिदामग्ग (१३) अपादान (१४) बुद्धवंस और (१५) चरियापिटक।
पालि त्रिपिटक के तीसरे भाग अभिधम्मपिटक में भगवान् बुद्ध के दर्शनात्मक विचारों का विश्लेषण और वर्गीकरण किया गया है तथा तात्विक दृष्टि से उनकी सूचियाँ और परिभाषाएँ उपस्थित की गई हैं। इस पिटक में निम्न सात ग्रंथों का समावेश है- (१) धम्म्संगणि (२) विभंग (३) कथावत्थु (४) पुग्गलपञ्ञत्ति (५) धातुकथा (६) यमक और (७) पठ्ठान। धम्मसंगणि उसकी मातिका (विषयसूची) के अनुसार दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में २२ तिक हैं जिनमें से प्रत्येक में तीन तीन विषयों का विवेचन किया गया हैं। दूसरे विभाग में १०० दुक हैं और प्रत्येक दुक में विधान ओर निषेध रूप से दो दो विषयों का प्ररूपण किया गया है। ये दुक १२ वर्गों में विभाजित हैं जिनके नाम हैं - (१) हेतु (२) प्रत्ययादि (३) आश्रव (४) संयोजन (५) ग्रंथ (६) ओध (७) योग (८) नीवरण (९) परामर्श (१०) विस्तृत मध्यम दुक (११) उपादान और (१२) क्लेश। इस प्रकार धम्मसंगणि के तिकों और दुकों की संख्या १२२ है। इनमें से प्रथम तिक कुशल, अकुशल तथा अव्याकृत धर्मविषयक है, जो सबसे महत्वपूर्ण है और उसके विषय का प्ररूपण (१) चित्तुपपाद (२) रूप (३) निक्क्षेप और (४) अत्थुद्धार इन चार कांडों में किया गया है।
विभंग की विषयवस्तु १८ विभागों में विभाजित है।
कथावत्थु में २३ अध्यायों के भीतर २१६ प्रश्नोत्तर हैं जिनमें विरोधी संप्रदायों के सिद्धांतों का खंडन किया गया है।
पुग्गलपण्णत्ति में १० अध्याय हैं जिनमें क्रमश: एक एक प्रकार के, दो दो प्रकार के आदि बढ़ते क्रम में दसवें अध्याय में १०, १० प्रकार के पुद्गलों अर्थात् व्यक्तियों का निर्देश किया गया है। व्यक्तियों का विभाजन पृथग्जन, सम्यक् संबुद्ध, प्रत्येक बुद्ध, शैक्ष्य, अशैक्ष्य, आर्य, अनार्य आदि रूप से किया गया है।
धातुकथा की रचना का मूलाधार विभंग है, क्योंकि उसी के प्रथम तीन अर्थात् स्कंध, आयतन और धातु विभंगों का ही यहाँ अधिक सूक्ष्म विवेचन किया गया है। इसी कारण इस ग्रंथ का दूसरा नाम खंब-आयतन-धातुकथा भी पाया जाता है। ग्रंथ में इन्हीं तीन का संबंध धर्मों के साथ बैठाकर बताया गया है। मातिकानुसार इन धर्मों की संख्या १२५ है जो इस प्रकार हैं - ५ स्कंध, १२ आयतन, १८ धातुएँ, ४ सत्य, २२ इंद्रियाँ, १२ प्रतीत्यसमुत्पाद, ४ स्मृतिप्रस्थान, ४ सम्यक् प्रधान, ४ ऋद्धिपाद, ४ ध्यान, ४ अपरिमाण, ५ इंद्रियाँ, ५ बल, ७ बोध्यंग, ८ आर्यमार्ग के अंग तथा स्पर्श, वेदना, संज्ञा, चेतना, चित्त और अधिमोक्ष। इनका परस्पर संबध प्रश्नोत्तर की शैली से १४ अध्यायों में किया गया है।
यमक में धर्मों का संबंध विशेष विषयों के साथ परस्पर विपरीत रूप में प्रश्नोत्तर शैली से समझाया गया है और इसी युगल प्रश्नात्मक रीति के कारण इस रचना का यमक नाम सार्थक है। जैसे (१) क्या सभी कुशलधर्म कुशलमूल हैं? क्या सभी कुशलमूल कुशलधर्म हैं? इत्यादि। इसी पद्धति से यमक में अभिधम्मपिटक में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों की सुनिश्चित व्याख्या देने का प्रयत्न किया गया है। यह रचना इन १० यमकों में विभक्त है - (१) मूल (२) खंघ (३) आयतन (४) धातु, (५) सच्च (६) संसार (७) अनुसय (८) चित्त (९) धम्म और (१०) इंद्रिय।
पट्ठाण में बौद्ध तत्वचिंतन के आधारभूत प्रतीत्य-समुत्पाद-सिद्धांत का एक विशेष शैली में बड़े विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। ग्रंथ के मुख्य चार भाग हैं - (१) अनुलोम पट्ठाण (प्रत्यय स्थान), (२) पच्चनिय पट्ठाण (३) अनुलोम-पच्चनिय-पट्ठाण और (४) पच्चनिय-अनुलोम-पट्ठाण। इन चारों भागों में धम्मसंगणि में निर्दिष्ट २२ तिकों और १०० दुकों का २४ प्रत्ययों से संबंध निम्न छह पट्ठाणों द्वारा समझाया गया है - (१) तिक प. (२) दुक प. (३) दुक-तिक प. (४) तिक-दुक प. (५) तिक-दिक प. और (६) दुक-दुक प.। इन छह पट्ठाणों का पूर्ववत् चार विभागों में प्ररूपण होने से संपूर्ण ग्रंथ २४ पट्ठाणों में विभक्त हो जाता है।
यह पालि त्रिपिटक साहित्य के अंतर्गत रचनाओं की संक्षिप्त रूपरेखा है। जो बौद्ध साहित्य की शब्दावली से कुछ परिचित है उसे ग्रंथों के अध्यायों, आदि के शीर्षकों से ही उनके अंतर्गत विषयों का ज्ञान वा अनुमान हो जाएगा। पालि के इन तीन पिटकों में ई. पूर्व छठी शती में हुए भगवान् बुद्ध के चिरों और उपदेशों का एक विशेष शैली में संकलन किया गया है। तीनों पिटकों में परस्पर तारतम्य है। विषय का मूलाधार सुत्तपिटक है जिसमें भगवान् के उपदेशों को श्रोताओं को ह्दयंगम कराने के लिए सरल से सरल, रोचक कथात्मक शैली का आलंबन लिया गया है। यहाँ वस्तु को संक्षेप में कहने का प्रयत्न नहीं किया गया। उद्देश्य है नई नई बातों को सामान्य श्रोताओं के ग्रहण योग्य बनाना और इसीलिए यहाँ उपदेश के मुख्य भाग की बार-बार पुनरावृत्ति की गई है। प्रसंगवश इन सुत्तों में तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण भी आ गया है जो प्राचीन इतिहास की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ, दीघ निकाय के समञ्ञ्फाल सुत्त, ब्रह्मजाल सुत्त एवं महापरिनिब्बान सुत्त में बुद्ध के समसामयिक धर्मप्रवर्तकों जैसे मंखलिगोसाल, पकुधकच्चायन, अजित केस कंबलि, संजय बलट्ठिपुत्त निगंठनातपुत्त, आदि के आचार विचारों तथा उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म संप्रदायों की बौद्ध दृष्टि से आलोचना पाई जाती है और साथ ही उन-उन विषयों पर बौद्ध मान्यता का प्रतिपादन भी पाया जाता है। सामाजिक चित्रण सुत्तपिटक में बिखरा पड़ा है, तथापि खुद्दक निकाय के अंतर्गत जातकों (देखिए 'जातक') में इसकी प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। सुत्तों में स्थान स्थान पर बुद्धकालीन मगध, विदेह, कोशल, काशी आदि १६ जनपदों के राजाओं उनके परस्पर संबंधों एवं लड़ाई-झगड़ों और दाँव पेंचों के उल्लेख भरे पड़े हैं। सुत्तों के उपदेशों में जिस बौद्ध आचार के संकेत पाए जाते हैं, उन्हीं की भिक्षुओं के योग्य सदाचार के नियमों के रूप में विधि-निषेध-प्रणाली से व्यवस्था विनय पिटक में भी की गई है। इसी प्रकार सुत्तों में जिस तत्वचिंतन के बीच सन्निहित हैं, उनका दार्शनिक शब्दावली में सैद्धांतिक रूप से प्रतिपादन और विवेचन अभिधम्म पिटक में किया गया है। इस परस्पर आनुषंगिकता के कारण बौद्धधर्म का पूरा सांगोपांग एवं सुव्यवस्थित परिज्ञान बिना त्रिपिटक के अवलोकन के नहीं हो सकता। यह पालि त्रिपिटक विषय की दृष्टि से स्वयं बुद्ध भगवान् के उपदेशों पर आधारित है। उपलब्ध ग्रंथ रचना की दृष्टि से ई. पूर्व तृतीय शताब्दी से पश्चात् का सिद्ध नहीं होता। बौद्ध परंपरानुसार अशोक सम्राट् के काल में ही उनके पुत्र महेंद्र स्वयं बौद्ध भिक्षु बनकर इस साहित्य को लंका ले गए और वहाँ प्रथम शती ई. में राजा बट्टगामणी के राज्यकाल में उसे वह लिखित रूप प्राप्त हुआ जिसमें वह आज हमें मिलता है। तथापि उसमें ऐसी कोई बात हमें नहीं मिलती जो बीच की दो तीन शताब्दियों के काल में लंका की परिस्थितियों के प्रभाव के कारण उसमें आई कहीं जा सके (दे. 'त्रिपिटक')।
अनुपालि - उपर्युक्त त्रिपिटक साहित्य का संकलन प्राय: ई.पू. तीसरी शती में पूर्ण हो गया था, किंतु पालि साहित्य का सृजन इसके पश्चात् भी चलता रहा। यद्यपि यह अनुपालि साहित्य विषय की दृष्टि से प्राय: पूर्णत: त्रिपिटक के अंतर्गत ज्ञान का ही अनुकरण करता है, तथापि अपन स्वरूप एवं शैली में समय की गति के अनुसार उसमें विकास दिखाई देता है। ई.पू. प्रथम शती के लगभग नेत्त्प्रिकरण नामक ग्रंथ लिखा गया जिसमें अभिधम्मपिटक के विषय का ही कुछ अधिक सूक्ष्मता से विवेचन किया गया है। इसमें १६ हार, ५ नय और १८ मूल पदों के द्वारा बौद्ध दर्शन की परिभाषाओं को समझाने का प्रयत्न किया गया है। इसके कर्ता का नाम कच्चान है। इसी प्रकार की एक दूसरी रचना इसी काल के लगभग की पेटकोपदेश है जिसमें नेत्तिप्रकरण की ही विषयवस्तु को कुछ दूसरी रीति से उपस्थित किया गया है, जिसमें प्रधानता उन चार आर्य सत्यों की है जो बुद्ध के उपदेशों के मूलाधार हैं। प्राय: इसी काल की तीसरी रचना है - मिलिंद-पञ्हों जो पालि साहित्य में अपनी विशेषता रखती है व ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़ी महत्वपूर्ण है। इसमें साकल (सियालकोट, पंजाब) के नरेश मिलिंद और भिक्षु नागसेन से बीच हुआ वार्तालाप वर्णित है। मिलिंद उस यवन नरेश मिनादर के नाम का ही रूपांतर माना गया है जिसने ई. पू. द्वितीय शती के मध्य में भारत पर आक्रमण किया तथा पंजाब प्रदेश में अपना राज्य जमाया था। प्रस्तुत ग्रंथ के अनुसार यह राजा बड़ा विद्वान् और दार्शनिक विषयों में रुचि रखनेवाला था। उसने भिक्षु नागसेन से बड़े पैने दार्शनिक प्रश्न किए, जिसके उत्तर भी नागसेन ने बड़ी चतुराई से सुंदर दृष्टांतों द्वारा उनकी पुष्टि करते हुए दिए हैं। ग्रंथ में सात अध्याय हैं - (१) बाहिर कथा (२) लक्खणपञ्हो (३) विमतिछेदन-पञ्हो (३) मेंडकपञ्हो (५) अनुमानपञ्ह्ाो (६) द्युतंग कथा और (७) ओपम्म-कथा-पञ्ह्ाो। इनमें से प्रथम तीन अध्याय ही ग्रंथ का मूल भाग माना जाता है। शेष चार अध्याय पीछे जोड़े गए प्रतीत होते हैं। इसके अनेक कारण हैं- एक तो तीसरे अध्याय में ग्रंथ के पुन: प्रारंभ की सूचना है; दूसरे, बुद्धघोष के अवतरण प्राय: तीन ही अध्यायों से लिए गए हैं, और तीसरे इस ग्रंथ का जो चीनी अनुवाद ४०० ई. के लगभग किया गया था, उसमें केवल ये तीन ही अध्याय पाए जाते हैं। यह रचना शैली में बड़ी रोचक तथा बौद्ध सिद्धांत के ज्ञान के लिए अपने ढंग की अद्वितीय है।
इन रचनाओं के पश्चात् अट्ठकथाओं का युग प्रारंभ होता है। श्रुत परंपरानुसार जब महेंद्र और संघमित्रा द्वारा पालि त्रिपिटक लंका में पहुँचा और बौद्धधर्म का प्रचर बढ़ा, उन मूल ग्रंथों पर सिंहली भाषा में टीका रूप अट्ठकथाएँ लिखी गई। ये अट्ठकथाएँ अब उपलब्ध नहीं है। अनुमानत: इसका कारण उन अट्ठकथाओं की रचना हो जाने से क्रमश: उन मूल अट्ठकथाओं का अध्ययन अध्यापन छूट जाना ही है। इन नई पालि अट्ठकथाओं के कर्ता आचार्य बुद्धघोष का नाम पालि साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है (दे.- बुद्धघोष)। उन्होंने जिन सिंहली अट्ठकथाओं का उल्लेख किया है तथा जिनके अवतरण अपनी अट्ठकथाओं में लिए हैं, उनमें मुख्य हैं- (१) महाअट्ठकथा (सुत्तपिटक पर), (२) महापच्चरी (अभिधम्म पर), (३) कुरुंदी (विनयपिटक पर), (४) अंधट्ठकथा, (५) संक्षेप-अट्ठकथा और (६) समानट्ठकथा। अंतिम चार अट्ठकथाएँ निकायों अथवा उनके किन्हीं विषयों के विशेष व्याख्यान के रूप में प्रतीत होते हैं। इन मूल अट्ठकथाओं के अभाव में यह कहना तो कठिन है कि कितने अंश में बुद्धघोष ने उनका अनुकरण किया और कितना मौलिक रूप से किया, तथापि उनकी रचनाओं को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्होंने मूल अट्ठकथाओं को अपने त्रिपिटक के विशाल ज्ञान द्वारा बहुत ही पल्लवित किया होगा। उनकी अट्ठकथाएँ विनयपिटक, सुत्तपिटक एवं अभिधम्मपिटक के अधिकांश भागों पर मिलती हैं, जिनकी संख्या १६ है। इन अट्ठकथाओं के अतिरिक्त बुद्धघोष की एक विशिष्ट रचना है विसुद्धिमग्ग, जिसे बौद्ध दर्शन का ज्ञानकोश कहा जा सकता है। अट्ठकथाओं में स्वयं बुद्धघोष के कथनानुसार उन्होंने विसुद्धिमग्ग में दीघ, मज्झिम, संयुत्त और अंगुत्तर इन चारों निकायों का सार भर दिया है। श्रुत परंपरानुसार उन्होंने विसुद्धिमग्ग को अपनी अट्ठकथाओं से पूर्व उनकी रचना को अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए ही लिखा था। इस ग्रंथ में कुल २३ परिच्छेद हैं। प्रथम दो परिच्छेदों का विषय है 'समाधि' और शेष परिच्छेदों में 'प्रज्ञा' का व्याख्यान किया गया है।
बुद्धघोष के पश्चात् अट्ठकथाओं की परंपरा को उनके प्राय: समसामयिक दो आचार्यों बुद्धदत्त और धम्मपाल ने परिपुष्ट किया। बुद्धदत्त ने बुद्धघोष कृत समंतपासादिका नामक विनयपिटक की अट्ठकथा का सार अपनी उत्तरविनिश्चय और विनयविनिश्चय नामक दो पद्यात्मक रचनाओं में उपस्थित किया तथा बुद्धघोष की अभिधम्म की अट्ठकथाओं के आधार पर अभिधम्मावतार नामक गद्य-पद्य-मिश्रित ग्रंथ की रचना की। इसमें मौलिकता यह है कि जहाँ बुद्धघोष ने रूप, वेदनादि पाँच स्कंधों के द्वारा धर्मों का विवेचन किया है, वहाँ बुद्धदत्त ने चित्तर, चेतसिक; रूप और निर्वाण इस चार प्रकार के वर्गीकरण को अपनाया है। इसी वर्गीकरण को उन्होंने अपनी रूपारूप विभाग नामक रचना में रखा है। बुद्धदत्त की एक और रचना है मधुरत्थ विलासिनी, जो बुद्धवंस की अट्ठकथा है। धम्मपाल ने सात अट्ठकथाएँ लिखी है। खुद्दकनिकाय के अंतर्गत जिन उदान, इतिषुत्तक, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा एव चरियापिटक नामक ग्रंथों पर बुद्धघोष ने अट्ठकथाएँ नहीं लिखीं, उनपर धम्मपाल ने परमत्थदीपनी नामक अट्ठकथा लिखी है। इसी प्रकार नेत्तिप्रकरण पर अत्थसंवण्णणा और उसी पर लीनत्थवण्णणा नामक टीका, विसुद्धिमग्ग पर परमत्थमंजूषा, बुद्धघोष की चार निकायों की अट्ठकथाओं पर लीनत्थपकासिनी नामक टीका, जातकट्ठकथा की टीका तथा बुद्धदत्त कृत मधुरत्थविलासिनी की टीका लिखी। इन सब रचनाओं में सबसे अधिक प्रसिद्ध है उनकी विसुद्धिमग्ग की टीका। शेष रचनाओं में कोई वैशिष्ट्य नहीं है। यद्यपि उक्त त्रिपिटक व उनकी अट्ठकथाओं की रचना के पश्चात् नहीं है। यद्यपि उक्त त्रिपिटक व उनकी अट्ठकथाओं की रचना के पश्चात् बुद्धवचन के संबंध में अधिक कुछ कहना शेष नहीं रहा, तथापि इस अट्ठकथा नामक टीका साहित्य की रचना बुद्धघोष युग (ई. ४०० से ११०० तक) में बराबर होती रही। इनमें से कुछ रचनाएँ इस प्रकार हैं :
आनंदकृत अभिधम्म मूल टीका, चुल्लधम्मपाल कृत सच्च संक्षेप (सत्य संक्षेप), उपसेन कृत सद्धम्मप्पजोतिक (निद्देस की टीका) महानाम कृत सद्षम्मप्पकासिनी (पटिसंभिदामग्ग की टीका), कस्सप कृत माहविच्छेदनी और विमतिच्छेदनी, वज्रबुद्धि कृत संमतवपासादिका की टीका, क्षेम कृत खेमप्पकरण, अनिरुद्ध कृत अभिधम्मत्थसंगहो परमत्थविनिश्चय और नामरूपपरिच्छेद, धर्मश्री कृत खुद्दकसिक्खा (विलय संबंधी अट्ठकथा) और महास्वामी कृत मूलसिक्खा।
१२वीं शती से अट्ठकथाओं पर मागधी (पालि) भाषा में ही टीकाओं की रचना प्रारंभ हुई। इस कार्य की सुव्यवस्था के लिए लंका नरेश पराक्रमबाहु प्रथम (ई. ११५३-८६) के काल में सिंहली स्थविर महाकस्सप द्वारा एक संगीति की गई, जिसके फलस्वरूप समंतपासादिका आदि अट्ठकथाओं पर दीपानी, मंजूसा, पकासिनी आदि नामों से आठ टीकाएँ लिखी गईं, जिनमें से अब केवल विनयपिटक की समंतपासादिका अट्ठकथा पर लिखी गई सारत्थदीपनी टीका मात्र मिलती है। इसके कर्ता सारिपुत्त की तीन अन्य टीकाएँ भी मिलती हैं- (१) लीनत्थपकासिनी- मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा पर, (२) विनयसंग्रह और (३) सारत्थमंजूसा- अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा पर। सुमंगल सद्धम्मजोतिपाल, धम्मकीर्ति, बुद्धरविखत और मेघंकर। इन सभी ने भिन्न-भिन्न अट्ठकथाओं पर टीकाएँ लिखी है। इनमें अकेले वाचिस्सर थेर के मूल सिक्खा टीका आदि दस टीका ग्रंथ मिलते हैं। १३वीं शती में स्थविर विदेह, बुद्धप्रिय और धर्मकीर्ति द्वारा समंतकूटवण्णणा आदि अनेक ग्रंथों की रचना हुई। १४वीं शती की रचनाओं में चार काव्य ग्रंथ प्रसिद्ध हैं (१) मेधंकर कृत लाकप्पदीपसार (२) पंचगतिदीपन (३) सद्धम्मोपायन और (४) तेलकटाह गाथा। बाद की तीन रचनाओं के कर्ताओं के नाम अज्ञात हैं।
१४वीं शती के पश्चात् पालि-साहित्य-सृजन का क्षेत्र लंका से उठकर ब्रह्मदेश में पहुँच गया। यहाँ के साहित्यकारों ने अभिधम्म को विशेष रूप से अध्ययन का विषय बनाया। १५वीं शती की कुछ रचनाएँ हैं- अरियवंस कृत मणिसारमंजूसा, मणिदीप और जातक विबोधन, सद्धम्मसिरि कृत नेत्तिभावनी, सीलवंस कृत बुद्धालंकार तथा रट्ठसारकृत जातकों के काव्यात्मक रूपांतर। १६वीं शती में सद्धम्मालंकार ने पट्ठाण प्रकरण पर पट्ठाणदीपनी नामक टीका लिखी तथा महानाम से आनंदकृत अभिधम्म-मूल-टीका पर मधुसारत्य दीपनी नामक अनुटीका लिखी। १७वीं शती में त्रिपिटकालंकार ने अट्ठसालिनी पर की बीस गाथाओं में वीसतिवण्णणा, सारिपुत्तकृत विनयसंग्रह पर विनयालंकार नामक टीका तथा यसवड्ढनवत्थु इन तीन ग्रंथों की रचना की। त्रिलोकगुरु ने चार ग्रंथ रचे- (१) धातुकथा-टीका-वण्णणा (२) धातुकथा-अनंटीका-वण्णणा (३) यमकवण्णणा और (४) पट्ठाणवण्णणा। सारदस्सी कृत धातुकथायोजना और महाकस्सप कृत अभिधम्मत्थगंठिपद (अभिधर्म के कठिन शब्दों की व्याख्या) इस शती की अन्य दो रचनाएँ हैं। १८वीं शती की ज्ञानामिवंशनामक ब्रह्मदेस के संघराज की तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं- (१) पेटकालंकार-नेत्ति-प्रकरण की टीका, (२) साधुविलासिनी दीर्घनिकाय की कुछ व्याख्या, और (३) राज-धिराजविलासिनी नामक काव्य। १९वीं श्ती की ब्रह्मदेश की कुछ रचनाएँ हैं- नलाटधातु वंस, संदेस कथा सीमाविवादविनिश्चय आदि। इस शती के छकेसधातुवंस, गंधवंस और सासनवंस नामक रचनाओं का परिचय वंस साहित्य के अंतर्गत दिया गया है। इस शती की अन्य उल्लेखनीय रचना है भिक्षु लेदिसदाव कृत अभिधम्मसंग्रह की परपत्थदीपनी टीका तथा यमक संबंधी पालि निबंध जो उन्होंने श्रीमती राइस डेविड्ज़ की कुछ शंकाओं के समाधान के लिए लिखा था। पालि-साहित्य-रचना की अविच्छिन्न धारा के प्रमाणस्वरूप २०वीं शती की दो रचनाओं का उल्लेख करना अनुचित न होगा। ये हैं भारतवर्ष में भंदत धर्मानंद कोसाबी द्वारा रचित विसुद्धिमग्गदीपिका और अभिधम्मत्थसंग्रह की नवनीत टीका। इस परिचय के आधार से कहा जा सकता है कि पालिसाहित्य-निर्माण की धारा ढाई हजार वर्ष के पश्चात् भी अभी तक विच्छिन्न नहीं हुई।
वंस साहित्य- लंका में जिस समय त्रिपिटक पर अट्ठकथाओं की रचना की जा रही थी, उसी समय दूसरी ओर कुछ ग्रंथकारों में ऐतिहासिक रुचि जाग्रत हुई जिसके परिणामस्वरूप दीपवंश की रचना की गई। इन ग्रंथों में लंका का इतिहास, प्राचीनतम काल से लेकर राजा महासेन के राज्यकाल (ई. ३२५-३५२) तक, वर्णन किया गया है। इस रचना का उपयोग बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथाओं में प्रचुरता से किया है और कहीं कहीं उसके अवतरण भी दिए हैं। इस प्रकार दीपवंस का रचनाकाल ई. चौथी पाँचवीं शती के बीच सिद्ध होता है। सिंहल के राजाओं के साथ-साथ यहाँ बुद्ध के जीवन, उनके शिष्यों की परंपरा एवं तीनों संगीतियों आदि का विवरण कुछ बढ़ा चढ़ाकर किया गया है। अनुमानत: इसके विषय का आधार उपर्युक्त सिंहली अट्ठकथाएँ रही हैं। यह रचना पालि-गद्य-मिश्रित है, शैली बहुत कुछ शिथिल है, पुनरुक्तियाँ भी बहुत है और रचना भाषा, छंद आदि के दोषों से मुक्त नहीं है। ये लक्षण उसकी प्राचीनता के द्योतक हैं और इस बात के प्रमाण हैं कि उसमें विषयवस्तु अनेक स्रोतों से संकलित की गई है तथा उसमें संपादकीय व्यवस्था लाने का कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया गया। किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से लंका में आदि से ही इसका बड़ा आदर रहा है। कहा जाता है कि ई. ५वीं शती में ही सिंहल राजा धातुसेन ने एक वार्षिकोत्सव के अवसर पर राष्ट्रीय गौरव के साथ इसका पाठ कराया। भारतीय ऐतिहासिक रचनाओ में दीपवंस नि:सदेह एक प्रचीनतम रचना है।
दीपवंश की रचना से कुछ काल पश्चात् महानाम के द्वारा महावंश की रचना हुई। इसका मूलाधार भी वे ही सिंहल की अट्ठकथाएँ तथा दीपवंश है। यहाँ विषय का प्रतिपादन दीपवंश की अपेक्षा अधिक विशद और व्यवस्थित है। भाषा भी अपेक्षाकृत अधिक परिमार्जित और शैली तो कहीं कहीं महाकाव्यों की पद्धति का स्मरण कराती है। महावंश का मूल भाग ३७ परिच्छेदों का है और वह दीपवंश के समान महासेन के शासनकाल पर समाप्त होता है। प्रारंभ के परिच्छेदों में जो लंका में बौद्धधर्म के आगमन से पूर्व देश की धार्मिक परिस्थितियों के उल्लेख आए हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्वपूर्ण हैं। उदाहरणार्थ, पांड्डकामय नरेश का राज्यकाल महेंद्र द्वारा लंका में बौद्धधर्म के प्रवेश से ६० वर्ष पूर्व तक रहा कहा गया है। इस राजा ने ७० वर्ष राज्य किया तथा राज्य के १०वें वर्ष में ही अनुराधपुर नगर की स्थापना की। इससे आगे इस रचना में समय-समय पर परिवर्धन किया गया है। ३७वें परिच्छेद की ५०वीं गाथा से आगे ७९वें परिच्छेद तक की रचना स्थविर धर्मकीर्ति कृत है और उसमें महासेन के काल से लेकर पराक्रमबाहु प्रथम (ई. १२४०-७५) तक ७८ राजाओं की वंशपरंपरा दी गई है। महावंश का यह तथा इससे आगे के परिच्छेद चूलवंश कहलाता है। चूलवंश ८० से ९० तक के ११ परिच्छेदों के रचयिता बुद्धरक्षित भिक्षु ने आगामी २३ राजाओं का वर्णन किया जो पराक्रमबाहु चतुर्थ तक आया। ९१ से १०० तक के १० परिच्छेद सुमंगल थेर द्वारा रचे गए और उनमें भुवनेकबाहु तृतीय से लेकर कीर्तिश्री राजसिंह के काल (लग. ई. १७८५) तक के २४ राजाओं का वर्णन किया। यहाँ लंका में ईसाई धर्म के प्रचार की भी सूचना मिलती है। अगला १०१वाँ परिच्छेद सुमंगलाचार्य तथा देवरक्षित द्वारा रचा गया। तत्पश्चात् वहाँ का राज्य अंग्रेजों के हाथ में चले जाने की भी सूचना है। महावंश का अंतिम परिवधर्न भिक्षु प्रज्ञानंद नायक द्वारा १९३६ में प्रकाशित हुआ और इसमें १८१५ से १९३५ ई. तक का लंका का इतिहास समाविष्ट किया गया है। इस प्रकार महावंश की रचना में छह ग्रंथकारों का हाथ है जिनके द्वारा इसमें भगवान् बुद्ध से लेकर लगभग ढाई हजार वर्षों का लंका का इतिहास अविच्छिन्न रूप से अंकित किया गया है। यह ग्रंथ इस बात का भी प्रतीक है कि उक्त दीर्घ काल तक लंका में पालि भाषा को किस प्रकार जीवित रखा गया और उसमें साहित्यिक रचना की धारा को कभी सूखने नहीं दिया गया।
दीपवंश और महावंश रचनाओं ने तीव्र ऐतिहासिक वृत्ति जाग्रत की। परिणामत: अनेक अन्य वंश नामक ग्रंथ रचे गए। इसमें ऐतिहासिक तथ्य तो प्राय: उकत दोनों ग्रंथों से ही लिए गए हैं, किंतु उनमें जो नाना विषयों की श्रुतिपरंपरा को एकत्र कर दिया गया है, वह महत्वपूर्ण है। इनमें विषय को महत्व देने के लिए बहुत कुछ अतिशयोक्तियों और कल्पनाओं का भी आश्रय लिया गया है, जिसके कारण कहीं कहीं इतिहासज्ञ को उद्वेग या अश्रद्धा उत्पन्न होने लगती है। इस प्रकार की मुख्य रचनाएँ ये हैं - (१) महाबोधिवंस भिक्षु उपतिस्स द्वारा गद्य में ११वीं शती में लिखा गया; इसमें बोधिवृक्ष का इतिहास दिया गया है और उसके साथ बुद्धधर्म एवं उसकी संगीतियों, महेंद्र के लंकागमन और वहाँ चैत्यनिर्माण आदि का भी विवरण है। (२) १३वीं शती में भिक्षु सारिपुत्त के शिष्य वाचिस्सर ने गद्य में थूपवंस की रचना की, जिसमें बुद्ध की धातुओं पर निर्मित स्तूपों का इतिहास दिया गया है। ग्रंथकार के मतानुसार तथागत, प्रत्येक बुद्ध, तथागत के शिष्य एवं चक्रवर्ती राजाओं के अवशेष जिन चैत्यों में रखे जाते हैं, वे स्तूप कहलाते हैं। बुद्ध के अवशेष आदि राजगृह, वैशाली आदि आठ स्थानों में रखे गए। किंतु मगधराज अजातशत्रु ने उन सबको एकत्र कर राजगृह के महास्तूप में ही रखा। अशोक ने इनका पुन: विभाजन कर भिन्न-भिन्न स्थानों पर ८४ हजार स्तूप बनवाए। लंका में देवानापिय तिस्स के बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने तथा उनकी भतीजी अनुलादेवी की प्र्व्राज्या संघमित्रा के हाथों संपन्न हो जाने पर संपूर्ण लंका द्वीप में एक एक योजन के अंतर पर स्तूप बनवाए गए, इत्यादि। (३) - दाठावंस १३वीं शती में सारिपुत्त के शिष्य महास्थविर धर्मकीर्ति द्वारा पद्य में रचा गया। यह रचना पांडित्यपूर्ण है। इसमें विषय का विस्तार प्राय: थूपवंश के ही समान है, केवल यहाँ बौद्ध धर्म का इतिहास भगवान् बुद्ध के दाँत के साथ गूँथा गया है। (४) हत्थवनगल्ल विहारवंस भी १३वीं शती की गद्यपद्यात्मक रचना है, जिसके ११ अध्यायों में से प्रथम आठ में लंका नरेश श्री संबोधि का वर्णन है एवं अंतिम तीन अध्यायों में उनके द्वारा निर्मापित विहारों का जिनमें से एक अति सुप्रसिद्ध अत्तनगलु विहार या हत्थवनगलु विहार भी था। (५) १४वीं शती में महामंगल भिक्षु द्वारा बुद्धधोसुप्पत्ति के नाम से बुद्धघोष का जीवनचरित् लिखा गया। इसका तथ्यात्मक अंश उतना ही है जितना महावंश आदि में पाया जाता है। बुद्धघोष के जन्म, बाल्यकाल, शिक्षा, दीक्षा आदि विषयक वर्णन प्राय: कल्पित हैं। (६) १४वीं शती की एक अन्य रचना सद्धम्मसंगह है, जिसके कर्ता महास्वामी धर्मकीर्ति हैं। इसमें आदि से लेकर १३वीं शती तक के बौद्धधर्म एवं भिक्षुसंघ का इतिहास देने का प्रयत्न किया गया है। कर्ता ने त्रिपिटक के ग्रंथों के उल्लेख भी दिए हैं। कब, किन देश प्रदेश में धर्मप्रचार के लिए भिक्षु भेजे गए इसका यहाँ विस्तृत वर्णन पाया जाता है। ग्रंथ में कुल ४० गद्यपद्यात्मक अध्याय हैं। नौवें अध्याय में बहुत से ग्रंथों और ग्रंथकारों के भी उल्लेख आए हैं। १४वीं शती के पश्चात् लंका में इस प्रकार की कोई विशेष ग्रंथरचना नहीं पाई जाती। किंतु इस प्रणाली के तीन ग्रंथ १९वीं शती में ब्रह्मदेश में लिखे गए मिलते हैं। किसी एक भिक्षु ने गद्य-पद्य-मिश्रित सरल शैली में भगवान् बुद्ध के छह केशों के ऊपर निर्माण कराए गए स्तूपों का वर्णन छकेस धातुवंस नामक ग्रंथ में किया है। इस शती की विशेष महत्वपूर्ण रचना है (८) गंधवंस। (ग्रंथवंश), जिसमें महाकच्चान से लेकर नागिताचार्य तक के ५६ ग्रंथकारों तथा उनकी रचनाओं का परिचय दिया गया है। इनके अतिरिक्त कोई ३० ग्रंथ ऐसे भी उल्लखित हैं जिनके कर्ताओं के नाम नहीं दिए गए। यह ग्रंथ बड़ी सावधानी से लिखा गया प्रतीत होता है। १९वीं शती की एक और रचना है (९) शासनवंश, जिसे कर्ता भिक्षु प्रज्ञास्वामी हैं। यहाँ बुद्धकाल से लेकर १९वीं शती तक के स्थविरवादी बौद्धधर्म का इतिहास १० अध्यायों में दिया गया है, जो विशेष महत्वपूर्ण है।
उक्त ग्रंथों में अधिकांश भाग प्राचीन त्रिपिटक, उनकी अट्ठकथाओं तथा महावंश के अंतर्गत वार्ता की सक्षेप या विस्तार से पुनरावृत्ति मात्र है। किंतु फिर भी उनमें अपने अपने विषय की कुछ मौलिकता भी है जिसके आधार से हमें उक्त विषयों का कुछ इतिहास बुद्धकाल से लगाकर अब तक का अविच्छिन्न रूप में प्राप्त होता है। यह पालि साहित्य की अपनी विशेषता है जो संस्कृत प्राकृत में नहीं पाई जाती।
पालि में समय-समय पर शास्त्रीय ग्रंथ भी रचे गए हैं। व्याकरण के क्षेत्र में कच्चान और मोग्गल्लान कृत, व्याकरण एवं उनकी टीकाएँ प्रसिद्ध हैं (देखिए 'कच्चान' और 'मोग्गल्लान')। सन् ११५४ ई. में ब्रह्मदेश के भिक्षु अग्गवंस कृत सद्दनीति, कच्चान के व्याकरण पर आधारित पालि भाषा का व्याकरण है। इसके तीन भाग हैं- पदमाला, धातुमाला और सुत्तमाला। इसी पर आधारित जिनरत्न भिक्षु कृत धात्वर्थदीपनी नामक पद्यबद्ध धातुसूची है। पालि व्याकरण विषयक अन्य कुछ रचनाएँ हैं- सद्धम्मगुरु कृत सद्दबुत्ति, मंगलकृत गंधट्ठी और सामनेर धम्मदस्सी कृत वच्चवाचक (१४वीं शती), अरियवंश कृत गंधाभरण (१५वीं शती), ब्रह्मदेश के नरश क्यच्चा की पुत्री कृत विभक्त्यर्थप्रकरण (१५वीं शती), जंबूध्वज कृत संवण्णणानय-दीपना और निरुत्तिसंगह (१७वीं शती), राजगुरु कृत कारकपुप्फमंजरी (१८वीं शती)।
पालि के 'अभिधानप्पदीपिका' और 'एकक्खर कोश' ये कोश ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं (दे. 'अभिधानप्पदीपिका')।
पालि छंद:शास्त्र पर भी अनेक रचनाएँ हैं, जैसे वृत्तोदय, छंदोविचिति और कविभारप्रकरण आदि। इनमें थर संघरविखत कृत (१२वीं शती) वृत्तोदय ही सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसपर वचनत्वजोतिका नामक टीका भी लिखी गई। इन्हीं संघरविखत कृत पालि काव्यशास्त्र पर भी एकमात्र रचना है- सुबोधालंकार।
सं.ग्रं.- विंटरनित्स : हिस्ट्री आँव इंडियन लिटरेचर, खंड २; बी.सी.लॉ. : हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, दो खंड; भिक्षु जगदीश कश्यप : पालि महाव्याकरण; भरत सिंह उपाध्याय : पालि साहित्य का इतिहास।
(हीरालाल जैन)