पाल, संत फिलिस्तीन के बाहर के देशों में ईसाई धर्म का सफलतापूर्वक प्रचार करनेवालों में सर्वप्रथम थे। वह यहूदी थे। उनका ईब्रानी नाम सॉल था। एशिया माइनर के तरसुस नामक नगर में लगभग १० ई.पू. में उनका जन्म हुआ था। येरुसलेम में परंपरागत यहूदी शास्त्रों का अध्ययन पूरा कर वह रब्बी (पंडित) बने। ईसा के उपदेशों के समय (२८-३० ई.) के पूर्व वह येरुसलेम छोड़कर चले गए थे जिससे उनका ईसा से साक्षात्कार नहीं हो सका था। बाइबिल के 'ऐक्ट्स ऑव दि अपोसल्स' नामक ग्रथं (अध्याय ९, आदि) में संत पाल के विषय में प्रचुर सामग्री मिलती है। सन् ३६ ई. में वह येरुसलेम लौटकर ईसा मसीह के शिष्यों के मुख्य विरोधियों में से हो गए और ईसाइयों को गिरफ्तार करने के लिए स्वयं दमस्क गए। दमस्क के निकट ईसा यह कहते हुए सॉल को दिखाई पड़े- 'सॉल, सॉल, मुझे क्यों सताते हो।' इससे संत पाल विश्वास करने लगे कि ईसा सचमुच पुनर्जीवित हो गए हैं और अपने अनुयायियों से घनिष्ट संबंध रखते हैं। अत: वह बपतिस्मा ग्रहण कर ईसा के शिष्य बन गए। उस समय से वह यहूदियों तथा गैरयहूदियों को समझाने लगे कि मसीह तथा ईश्वर होकर ईसा रहस्यात्मक ढंग से अपने अनुयायियों में जीते हैं और क्रियाशील होते हैं। ईसाई बनने के बाद संत पाल ने अपना शेष जीवन धर्मप्रचार के कार्य में बिता दिया और इस उद्देश्य से तत्कालीन रोमन साम्राज्य में चार लंबी यात्राओं को पूरा किया। अंत में रोमन सम्राट् नीरो के समय उनको ईसाई होने के अपराध में प्राणदंड दिया गया (सन् ६६-६७ ई.) संत पाल ईसाई धर्म के सबसे महान् प्रचारक माने जाते हैं।(आस्कर वेरक्रूसे)