पाल राजवंश पुंड्रवर्धनपुर (वर्तमान पूर्वी पाकिस्तान के बोगरा जिले का महास्थानगढ़) को राजधानी बनाकर बंगाल के बहुत बड़े भाग पर ८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से १२वीं शताब्दी के पूर्वार्धं तक राज्य किया।
८वीं शताब्दी के मध्यकाल में बंग (वर्तमान पूर्वी पाकिस्तान) के ढाका क्षेत्र में अराजकता व्याप्त थी, जो बहुत दिनों तक बनी रही। देश के पार्षदों और भद्रपुरुषों ने, जनता के कष्टनिवारणार्थ और शांति तथा व्यवस्था की पुनरस्थापना के लिए दायितविष्णु के पुत्र और वाप्यात के पुत्र गोपाल को राजा चुना। गोपाल के पुत्र धर्मपाल ने गौड़ और मगध पर अपनी प्रभुता स्थापित कर ली। अपनी राजधानी कारातोया पर पुंड्रवर्धनपुर को बनाया। धर्मपाल ने एक ओर दक्षिण के राष्ट्रकूट ध्रुव तृतीय और उसके पुत्र गोविंद तृतीय और दूसरी ओर प्रतिहार वत्सराज और उसके पुत्र नागभठ द्वितीय के विरुद्ध बहुत काल तक युद्ध किया। उसने कन्नौज पर विजय प्राप्त की, और वहाँ के सिंहासन पर चक्रायुद्ध को बैठाया। अपनी विजय के दौरान वह पश्चिम में सिंध और दक्षिण में नर्मदा तक पहुँच गया। अपने शासन के अंतिम भाग में, उसे कन्नौज पर अपना अधिकार प्रतिहार नागभट्ट द्वितीय के संमुख समर्पित करना पड़ा। धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारी, सभी बुद्ध के भक्त थे, यद्यपि उनके उच्च क्षत्रिय वंशों से वैवाहिक संबध थे। धर्मपाल ने मगध में पर्वतशिखर पर गंगा के किनारे विक्रमशिला बिहार की स्थापना की जहाँ चीन तथा अन्य देशों के छात्र बौद्ध दर्शन तथा अन्य विषयों का अध्ययन करने के लिए रहते थे। उसने एक महान सोनपुर मठ की भी स्थापना की, जिसके भग्नावशेष पूर्वी पाकिस्तान के पहाड़पुर नामक स्थान में पाए गए हैं।
धर्मपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी देवपाल भी प्रतिष्ठाप्राप्त सम्राट् था। उसने असम, उड़ीसा, दक्षिण भारत, गुर्जर और हूण देशों पर सफल आक्रमण किया, और अपनी विजय के दौरान अफगानिस्तान के कंबीज प्रदेश तक पहुँच गया, बताया जाता है। वह बौद्ध धर्म का प्रश्रयदाता था। उसने जलालाबाद के एक बौद्ध दार्शनिक इंद्रगुप्त को नालंदा मठ का अध्यक्ष नियुक्त किया था। नवीं शताब्दी के अंतिम भाग में, सम्राट नारायण पाल के शासन काल में कन्नौज के प्रतिहारों ने पालों से गौड़ और मगध का अधिकार छीन लिया। अपने राज्य के अंतिम काल में, नारायण पाल शत्रुओं को हराकर गौड़ और मगध पर पुन: अधिकार स्थापित करने में सफल हुआ। १०वीं शताब्दी के तृतीय चतुर्थांश में गौड़ और राढ कंबोज परिवार के एक सरदार के अधिकार में आ गए, जो शायद पालों की सैन्य सेवा में था। १०वीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में सम्राट् महिपाल ने शत्रुओं को हराकर अपना पैतृक राज्य पुन: जीत लिया। ११वीं शताब्दी के तीसरे दशक के अंतिम भाग में महिपाल को दक्षिण भारत के राजेंद्र चोल के हाथों हार खानी पड़ी। उसने बनारस, नालंदा और बोधगया में धार्मिक इमारतें बनवाईं। महिपाल के पुत्र और उत्तराधिकारी नयपाल के शासनकाल (११वीं शताब्दी से मध्य में) पालों ने दहल (जबलपुर) में सम्राट् कलचुरिय कर्ण के साथ युद्ध किए, किंतु एक महान् बौद्ध धर्मोपदेशक दीपंकर श्रीज्ञान के प्रयत्नों से दोनों राजाओं के बीच शांति स्थापित हो गई, दीपंकर इस घटना के तुरंत बाद बौद्ध धर्म का उपदेश देने तिब्बत चले गए।
११वीं शाब्दी कें अंतिम चतुर्थांश में पालों को कैवर्त नेता दिव्यांक ने उत्तरी बंगाल से हटा दिया, जिसने उस भूमि पर कुछ काल तक अधिकार रखा। पाल सम्राट् रामपाल ने अपने सामंतों की सहायता से उत्तरी बंगाल पर आक्रमण किया, दिव्यांक के भतीजे भीम को पराजित करके मार डाला, और प्रदेश को पुन: जीत लिया। रामपाल के पश्चात् पालों की शक्ति शनै शनै: पतित होती गई और १२वीं शताब्दी के मध्य में सेनवंश द्वारा उसका शासन समाप्त कर दिया गया। पालों के शासनकाल में बंगाल धनसंपन्न और संस्कृतिसंपन्न देश हो गया था।
(धीरेंद्रचंद्र गांगुली)