पार्श्वनाथ जैनधर्म के २३वें तीर्थकर थे। उन्हें पुरुषों में श्रेष्ठ (पुरिसादाणीय) कहा गया है। यद्यपि पार्श्वनाथ का चरित जैनों की धार्मिक कथाओं में ही मिलता है, फिर भी उन्हें ऐतिहासिक पुरुष माना जाता है। भगवान् महावीर के लगभग २५० वर्ष पूर्व क्षत्रियकुल के इक्ष्वाकु वंश में काशी में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का वामा था। पार्श्वनाथ ने ३० वर्ष तक गृहस्थावास किया, ७० वर्ष साधुजीवन व्यतीत किया और १०० वर्ष की अवस्था में संमेदशिखर (पारसनाथ हिल, जिला हजारीबाग) पर निर्वाण पाया।

जैनधर्म को सुदृढ़ बनाने के लिए पार्श्वनाथ ने आर्य, आर्यिका, श्रावक और श्राविका नाम के चतुर्विध संघ की स्थापना की थी। शुभदत्त, आर्यघोष आदि उनके मुख्य गणधर थे। उनके शिष्य पार्श्वापत्य नाम से कहे जाते थे। प्राचीन जैन आगमों में उत्पन्न, मुनिचंद्र, गांगेय, पेढालपुत्र आदि अनेक पार्श्वापत्य निर्ग्रथ श्रमणों का उल्लेख मिलता है जो महावीर के जीवनकाल में विद्यमान थे। ये श्रमण वस्त्र धारण करते थे, लेकिन अंत समय में जिनकल्पी हो जाते थे, तप, सत्व, सूत्र, एकत्व और बल नामक पाँच भावनाओं का ये चिंतन करते तथा उपाश्रय, चौराहा, शून्यगृह और श्मशान में तप करते थे। स्त्रियाँ भी पार्श्वनाथ के धर्म में दीक्षित होती थीं।

पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म - अहिंसा, सत्य अचौर्य, और अपरिग्रह का उपदेश दिया था। बौद्ध त्रिपिटकों में इसे चातुर्याम संवर कहा है। इन चार यामों में ब्रह्मचर्य व्रत जोड़कर महावीर ने पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया। पार्श्वनाथ ने सचेल (वस्त्र सहित) और महावीर ने अचेल (वस्त्र रहित) धर्म का उपदेश दिया। जैन आगमों के अंतर्गत उत्तराध्ययनसूत्र में पार्श्वनाथ के शिष्य चतुर्दशपूर्वधारी कुमारश्रवण केशी और महावीर के प्रथम गणधर गौतम इंद्रभूति का बड़ा मनोरंजक संवाद आता है जिसमें केशीकुमार द्वारा चातुर्याम धर्म का परित्याग कर महावीर के पाँच महाव्रतों के अंगीकार करने का उल्लेख है। इस अवसर पर गौतम इंद्रभूति ने दोनों तीर्थकरों के उपदेशों का समन्वय करते हुए बताया कि दोनों के मूल उद्देश्य में कोई अंतर नहीं, क्योंकि दोनो ने ही ज्ञान, दर्शन और चरित्र से मोक्ष की सिद्धि बताई है।

महावीर के माता पिता पार्श्वनाथ के धर्म के अनुयायी थे, इससे भी पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता पर प्रकाश पड़ता है। साधु जीवन में पार्श्वनाथ ने साकेत (अयोध्या), श्रावस्ती (सहेत महेत, जिला पोंडा), कोशांबी (कोसम, जिला इलाहाबाद), कांपिल्यपुर (कंपिल, जिला फर्रुखाबाद), और अहिच्छत्रा (रामपुर, जिला मुरादबाद) आदि स्थानों में बिहार किया। राजगृह, वैशाली, तुंगिया आदि नगरों में पार्श्वापत्य निर्ग्रंथ श्रमणों के पाए जाने के उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। पार्श्वनाथ ने पश्चिम बंगाल की आर्येतर जातियें में जैनधर्म का प्रचार किया था। इस प्रदेश के अंतर्गत मानभूम, सिंहभूम और लोहर्दगा आदि जिलों की सराक (श्रावक) जाति अब भी पार्श्वनाथ की उपासक है। वीरभूम और बाँकुडा जिलों की जंगली और अर्ध जंगली जातियों में मनसा नामक सर्प देवता की पूजा प्रचलित है, और ध्यान देने की बात है कि नागराज धरणेंद्र पार्श्वनाथ के मस्तक का चिह्न माना गया है।

सं.ग्रं.- जगदीशचंद्र जैन : महावीर वर्धमान; धर्मानंद कौसांबी : पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म।

(जगदीशचंद्र जैन)