पाप की कल्पना सभी देशों और जातियों के धर्मों में सदा से विद्यमान रही है। इसके स्वरूपों और व्याख्याओं में निरंतर विकास होता रहा है। आदिम समाजों में 'निषेध' का सिद्धांत संभवत: पाप के ही प्रारंभिक अर्थ में लागू था किंतु समाजव्यवस्था और धर्म के किस विकासस्तर पर पाप की वर्तमान कल्पना चरितार्थ हुई, इसे बताना कठिन है। मानव मन में पाप का उदय किन परिस्थितियों में किस प्रकार हुआ, यह समस्या समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, धर्मशास्त्रियों, विधिनिर्माताओं आदि के सम्मुख सदा बनी रही। इनके पास पाप के स्त्रोतों का निश्चित सिद्धांत भी नहीं है। पुरावृत्तों और पौराणिक कथाओं में इसकी उत्पत्ति के जो विवरण प्राप्त होते हैं, वे वस्तुत: विश्वासों पर आधारित हैं और अपनी प्रतीकात्मक व्यंजना द्वारा चिंतन के लिये सामग्री प्रस्तुत करने के अतिरिक्त इस प्रश्न का वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण और ठोस उत्तर देने में असमर्थ हैं।
पाप समाज के आचारों, धर्मसंहिताओं, ईश्वरीय नियमों और देवता तथा धर्म के प्रति स्वीकृत कर्तव्यों का अतिक्रमण अथवा असदाचरण है जिसे अपराध पदविशेष द्वारा समझा जा सकता है क्योंकि पाप की अवस्थिति मूलत: अपराध भावना में ही है। यह क्रिया और आशय दोनों रूपों में व्यक्त हो सकती है, किंतु यह आवश्यक नहीं है कि सभी अपराध पाप हें। ऐसे आचरण जो कानून की दृष्टि से अपराध की कोटि में नहीं आते, और ऐसे कर्म जो सामाजिक नैतिकता और आचार की दृष्टि से असदाचरण नहीं हैं, वे धार्मिक दृष्टि से जघन्य पाप हो सकते हैं। वस्तुत: पाप शब्द विधिशास्त्र और आचारशास्त्र की अपेक्षा धर्मशास्त्र से अधिक संबंधित है। इस प्रकार यह विधिक 'अपराध' और आचारगत 'दुराचार' से भिन्न वह प्रवृत्ति और क्रिया है जिसके चलते ईश्वर का अस्तित्व तथा अनुशासन तिरस्कृत होता है। अस्तु, पाप केवल धर्म के वृत्त में ही अर्थपूर्ण है। धर्म के इतिहास से यह विदित है कि दैवी महत्ता के प्रति अपराध ही प्राय: पाप होते हैं।
सं.ग्रं. - काणे : हिस्ट्री ऑव धर्मशास्त्र; फर्म : एनसाइक्लोपीडिया ऑव रेलिजन; एनसाइक्लोपीडिया ऑव रेलिजन ऐंड एथिक्स; हिंदी विश्वकोश, खंड १, पृ. १३५, ना. प्र. सभा, काशी। (श्या.ति.)
(हिंदू) धर्म में हम कह चुके हैं कि पाप आचारशास्त्र से अधिक धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण है जो सामाजिक नैतिकता के मानदंडों की अवहेलना का परिणाम होते हुए मुख्यतया ईश्वरीय नियमों अथवा धर्मशास्त्रीय आदेशों के विपरीत आचरण है। गौतम के अनुसार विहित कर्म न करना तथा निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त होना पाप है (अकुर्वन् विहितं कर्म प्रतिषिद्धानि चाचरन्)। श्रुति, स्मृति आदि ने जिन कार्यों का निषेध किया है, उन्हें करना पापाचरण है (वेदादिशास्त्र निषिद्ध कर्मत्वम् पापत्वम्) इसी को याज्ञवल्क्य ने पातनीय कर्म कहा है। मनुस्मृति (११।४४) तथा महाभारत (शांति, ३४।२) में ऐसे कर्म को नरक ले जानेवाले पातनीय कर्म तथा अधर्म की संज्ञा दी गई है। वेद, स्मृति द्वारा निषिद्ध कर्म को करने से अपूर्व या अदृष्ट (दोनों पर्यायवाची हैं) उत्पन्न होता है जो दु:ख का जनक है और नरक अथवा अधोगति की ओर ले जाता है। जैसे ब्रह्महत्या करना पाप है, इस शास्त्र निषिद्ध कार्य से उत्पन्न अदृष्ट संस्कार अथवा वासना रूप से आत्मा में स्थिर हो जाता है जो कालांतर में अनेक जन्मों तक दु:ख का कारण बनता है। इसलिये 'शास्त्रनिषिद्धकर्मजन्यत्वं पापत्वम्' पाप की यह भी परिभाषा की जाती है। वेदांत, न्याय और मीमांसा से इसकी पुष्टि होती है। इस प्रकार धर्म के विपरीत (न कि धर्मभिन्न) शास्त्रनिषिद्ध कर्मजन्य अधर्म, आत्मा के साथ लिप्त रहकर जन्मांतरों में दु:खदायी पाप रूप में प्रकट होता है (शास्त्र निषिद्ध कर्म जन्यत्वे सत्यात्मवृत्यवृदृत्वम् पापत्वम्)।
अतीत काल से लेकर स्मृति-पुराण-काल तक पाप के रूपों और परिभाषाओं में क्रमश: परिवर्तन होता रहा है। वैदिक साहित्य, विशेषकर ऋग्वेद की वरुण संबंधी ऋचाओं में पाप की गंभीर चेतना ध्वनित हुई है। ऋग्वेद में पाप की व्यंजना 'कृत' से संबंधित है। वैदिक देवताओं में अनेक 'कृत' के संचालक और स्वामी हैं। उनमें विशेषकर आदित्य और वरुण से पाप के दुष्परिणामों से बचने के लिये क्षमायाचना की गई है। इस क्रम में आगस्, एनस्, अध, दुरित, दुष्कृत, द्रुग्ध आदि शब्दों का व्यवहार पाप के अर्थ में हुआ है। इनमें बार-बार आनेवाले शब्द आगस् और एनस् हैं जिनसे पाप के जघन्य एवं परम अनैतिक रूप की व्यंजना होती है।
ऋग्वेद में पाप को भाग्य, सुरा, क्रोध, अन्यमनस्कता और स्वप्न के कारण उत्पन्न बताया गया है (७-८६-६)। सांख्य इस का दार्शनिक आधार प्रस्तुत करते हुए मनुष्य में रजोगुण की वृद्धि को पाप का मूल मानता है। इसी प्रकार भगवद्गीता में रजोगुणोत्पन्न काम और क्रोध को मनुष्य का शत्रु कहा गया है। (३-३७) और इन वृत्तियों को पतनकारी बताया है। मानसिक कुवृत्तियों के कारण और परिणाम को दार्शनिक भूमिका में रखकर पाप भावना और उसके स्वरूप की खोज वस्तुत: तत्संबंधी चिंतन के विकास का द्योतक है।
ऋग्वेद में सुरापान और द्यूतक्रीड़ा को पाप कर्म माना गया है (७-८६-६)। उसके 'सप्तमर्यादा' : (१०।५।६) का विश्लेषण करते हुए निरुक्त में (६।२७) स्तेय, गुरुपत्नी से संभोग, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापान आदि को दुष्कर्म कहा है। इसी प्रकार ब्राह्मणों में ब्रह्महत्या को और काठक संहिता (३१।७) में भ्रूणहत्या को जघन्य पाप बताया है। तैत्ति. ब्रा. (३।२।८।११) के अनुसार सूर्योदय तथा सूर्यास्तकाल में सोना, मैले दाँत और मैले नाखून रखना, जेठी बहन और जेठे भाई के अविवाहित रहते लहुरी बहन तथा लहुरे भाई का विवाह करना, यज्ञाग्नि को बुझाना, ब्रह्महत्या करना आदि पापकर्म हैं। छांदोग्य उपनिषद् (५।१०।९) में पाँच गंभीर पापकर्म हैं- सोने की चोरी, सुरापान, गुरुपत्नी से संभोग, ब्रह्महत्या और इन कार्यों में सहायता करना। यही पंच महापातक नाम से वशिष्ठ धर्मसूत्र (१।१९।२१) में निर्दिष्ट हैं। मनुस्मृति (११।५४), याज्ञवल्क्य स्मृति (३।२२७), विष्णुधर्म सूत्र (३५।१) वशिष्ठ धर्मसूत्र (१।२२) में थोड़े हेर फेर से इन्हें पंचमहापातक कहा गया है।
आपस्तंब धर्मसूत्र (१-७।२१) में पातक को पातनीय तथा अशुचिकर दो प्रधान वर्गों में विभाजित किया गया है। बौ. ध. सू. (२।१।५०-५६) के अनुसार पातनीय कर्म हैं समुद्रयात्रा, ब्राह्मण के धन की चोरी या लूट, अमानत में खयानत (धरोहर को हड़पना), भूमि के अपहरण के लिये जालसाजी, निषिद्ध वस्तुओं का व्यापार, शूद्रसेवा और शूद्र स्त्री से पुत्र उत्पन्न करना। इसी प्रकार अशुचिकर कर्मों की सूची में शूद्र स्त्री से संसर्ग करना, शूद्र द्वारा छोड़े हुए भोजन का भक्षण, अपपात्र स्त्री के साथ आर्य का सहवास करना आदि कर्म आते हैं (आ.ध.सू., १-७-२१, १-१२-१८)।
पापों के वर्गीकरण से विदित है कि प्रांरभिक सूत्रग्रंथों में महापातकों की प्रकृति तथा संख्या के संबंध में बहुत अंशों तक वैमत्य है। इसी प्रकार छांदोग्य उपनिषद् में वर्णित पाँचों उपपातकों से पाप का एकांगी परिचय मिलता है जिसे बोधायन और गौतम पूरी तरह मानते। कात्यायन (३।२४२) पाप कर्मों को पाँच वर्गों- महापाप, अतिपाप, पातक, प्रासंगिक और उपपातक में विभाजित करते हैं। भविष्य पुराण तो मनुस्मृति आदि द्वारा महापातक श्रेणी में गिने गए कर्मों को उपपातक मानता है। वृद्धहारीत (९।२१५) भी उनकी पाँच श्रेणियाँ- महापाप, पातक, अनुपातक, उपपाप और प्रकीर्णक करते हैं और महापातक को पातक में गिनते हैं। विष्णु धर्मसूत्र (३३।३) के अनुसार अतिपातक, महापातक, अनुपातक, उपपातक, जातिभ्रंशकर, संकरीकरण, अपात्रीकरण, मलावह, प्रकीर्णक आदि पातक के नौ भेद हैं।
हिंदू धर्मशास्त्रों आदि में वर्णित पाप के स्वरूप और वर्गीकरण से पता चलता है कि शास्त्रकारों ने भिन्न भिन्न समयों में पूर्वोक्त मत के आधार पर पापों का वर्गीकरण किया है और अपने समय की सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों के अनुसार पापों की सूची में नए पापों की गणना कर ली है। (रा.कु.मा.)
(मुस्लिम धर्म) इस्लाम के अनुसार मनुष्य मूलत: न तो पापी है और न पाप उसकी जन्मजात प्रवृत्ति ही है बल्कि इसमें पाप की ओर आकर्षित होने की स्वाभाविक निर्बलता होती है। पाप तो एक प्रकार की मानसिक व्याधि है जिसका निवारण उपदेशों और साधनाओं द्वारा किया जा सकता है। मुस्लिम पुराकथा के अनुसार विश्व का आदिपापी वह शैतान था जिसने अल्लाह की आज्ञाओं का उल्लंघन कर आदिपाप किया था। वह आत्मवंचना और अंहकार जैसे महापापों से युक्त था।
मुस्लिम धर्मशास्त्र के अनुसार दो प्रकार के पाप हैं- लघुपाप और महापाप जिन्हें क्रमश: सगीर और कबीर कहते है। पहला पाप साधारण अपराध है जो शुभ कर्म और अच्छा आचरण करने से छूट जाता है। सगीर वस्तुत: मनुष्य की स्वाभाविक मानसिक निर्बलता का परिणाम है अत: क्षम्य है। महापाप या कबीर की संख्याएँ भिन्न भिन्न हैं लेकिन निम्नांकित पाप सभी सूचियों में प्राप्त होते हैं।
युद्धभूमि में कायरता दिखाना उस स्थिति में पाप नहीं रह जाता जब शत्रुओं की संख्या दूनी हो। यदि विद्वान् पंडित के किसी छोटे अपराध से अन्य लोग कुपथगामी हो जायें तो वह लघु पाप महापाप हो जाता है। इसी प्रकार लघुपाप बार बार जान बूझकर किए जायें तो वे महापाप में परिवर्तित हो जाते हैं। यद्यपि लघु या महपापों को करने के बाद हार्दिक प्रायश्चित (तोबा) करने से पापी को अल्लाह की दया और निजात मिल जाती है तथापि किसी व्यक्ति को अल्लाह के समकक्ष मानना ऐसा गंभीर पाप है जो प्रत्येक दशा में अक्षम्य है। यदि गैरमुस्लिम व्यक्ति इस्लाम धर्म अंगीकार कर ले तो उसके पूर्वपाप स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार मुसलमान यदि बड़े से बड़ा पाप कर डाले तो वह गुनाहगार होते हुए भी मूर्तिपूजकों से श्रेष्ठ कहा गया है। शिया लोगों के अनुसार पैगंबर तथा फतिमा सहित बारहो इमाम पापरहित हैं।
सं.ग्रं.- ए. एम. ए. शुस्तरी : आउटलाइन ऑव इस्लामिक कल्चर, द बंगलोर प्रेस, १९५५; एनसाइक्लोपीडिया ऑव रैलिजन ऐंड एथिक्स, खंड ११। (श्या.ति.)
(ईसाई धर्म) बाइबिल में पाप को सृष्टि कर्ता ईश्वर के प्रति विद्रोह के रूप में देखा गया है। (दे. 'आदम', 'शैतान')। ईसाई धर्म में दो प्रकार के पापों की चर्चा है- आदिपाप तथा व्यक्तिगत पाप। मानवजाति के इतिहास में आदम और हौवा ने सर्वप्रथम पाप किया है, सभी मनुष्य रहस्यात्मक ढंग से उस पाप के भागी होकर आदिपाप की दशा में जन्म लेते हैं और बपतिस्मा द्वारा उस आदिपाप से छुटकारा पाते हैं (दे. आदिपा)। स्वीकृत अथवा व्यक्तिगत पाप तब होता है जब मनुष्य अपनी स्वतंत्र इच्छा के दुरुपयोग द्वारा जान बूझकर ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध आचारण करता है। ईश्वर प्रत्येक मनुष्य को भले और बुरे का विवेक प्रदान करता है और उसके अंत:करण में भला करने तथा बुरे से बचने की प्रेरणा देता है। इसके अतिरिक्त ईश्वर ने मूसा को 'दस नियम' देकर सदाचरण के विषय में सुस्ष्ट रूप से अपनी इच्छा प्रकट की है। उन दस नियमों को मानव धर्म कहा जा सकता है। इन नियमों में सच्चे ईश्वर की आराधना तथा माता पिता के आदर करने के अतिरिक्त निम्नलिखित पापों से बचने का आदेश दिया जाता है- हत्या, व्यभिचार, चोरी, झूठ। ईसाई धर्म में भी मूसा के उन नियमों का तथा इसके अतिरिक्त चर्च के आदेशों का उल्लंघन पाप जाता है।
व्यक्तिगत पाप दो प्रकार के हैं- महापाप और लघु पाप। महत्वपूर्ण बातों में उन नियमों का उल्लंघन घातक पाप (मोरटल सिन) या महापाप के द्वारा मनुष्य ईश्वर के प्रति घोर अपराध करता है, आध्यात्मिक दृष्टि से मर जाता है और नरक जाने योग्य हो जाता है। अन्य पापों को लघु पाप (बीनियल सिन) कहते हैं। बाइबिल में तथा ईसाई धर्मशिक्षा के ग्रंथों में इसपर बल दिया जाता है कि पाप करने का संकल्प अथवा इच्छा भी पाप है। पाप से छुटकारा पाने के लिये पश्चात्ताप करना अनिवार्य ही है, इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म में बपतिस्मा तथा पापस्वीकरण, (कनफेशन) पापमुक्ति के दो उपाय बताए गए हैं (दे. बपतिस्मा, पापस्वीकरण)।
(रेवरेंड कामिल बुल्के)