पादप प्रवर्धन (Plant Propagation) पौधों में अन्य जीवों की भांति अपने जैसे पौधे पैदा करने की क्षमता होती है। यह कार्य पौधों में अनेक प्रकार से होता है। इसे मुख्यत: तीन मौलिक भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक वह, जिसमें प्रवर्धन उन फलों तथा बीजों द्वारा होता है जो लैंगिक प्रजनन द्वारा बनते हैं, दूसरे वह, जिसमें लैंगिक प्रजनन की आवश्यकता नहीं पड़ती और प्रवर्धन पौधों के वर्धन भागों से, जैसे तना, पत्ती, जड़ द्वारा होता है। तीसरा वह, जिसमें प्रवर्धन कृत्रिम विधि से होता है।
फल और बीजों द्वारा पादप प्रवर्धन - संसार में जितने फूलवाले पौधे हैं उनमें लगभग ७० प्रतिशत पौधों में बीजों द्वारा प्रवर्धन होता है। ये बीज पौधों में लैंगिक प्रजनन के फलस्वरूप बनते हैं। उपयुक्त वातावरण में इन्ही बीजों द्वारा नए पौधों का जन्म होता है। कुछ बीजों को मनुष्य स्वयं बोता है और कुछ पौधों के बीज अपने आप पौधों से अलग होकर जमीन पर पड़े रहते हैं और जब उपयुक्त वातावरण प्राप्त होता है तब इन्हीं बीजों से उस जाति के नए पौधों का जन्म होता है।
पौधों के वर्धन भागों द्वारा प्रवर्धन - इस कार्य में पौधे का कोई भाग पौधे से अलग होकर जब जमीन पर गिरता है तब वह उपयुक्त वातावरण पाकर नए पौधे को जन्म देता है।
प्रवर्धन निम्नलिखित रीतियों द्वारा होता है :
कुछ तने ऐसे होते हैं जो मिट्टी के अंदर रहते हैं। इस प्रकार के तनों को प्रकंद (Rhizome) कहते हैं। इस प्रकार के तने मुख्यत: ग्रामिनी (Grainere) कुल के पौधों में पाए जाते हैं। इनमें मूल तना मिट्टी के अंदर बढ़ता रहता है। इस तने पर गाँठें होती हैं। कभी कभी ये तने जमीन के ऊपर रेंगते हुए बढ़ते हैं। ऐसे तने मुख्यत: दूब, घास तथा अन्य घासों में पाए जाते हैं। इन तनों की गाँठों से जड़े तथा कलियाँ निकलती हैं, जो नए पौधों को जन्म देती हैं।
घासों के अतिरिक्त इस प्रकार के तने लेग्युमिनोसी (Leguminosae) कुल के कुछ पौधों में पाए जाते हैं, जैसे 'ऊँट काँटा' (Camel thorn) या जवास (Alhagi camelorum)। इस पौधे में प्रंकद (भूमिगत तना) मिट्टी में ५ से १० फुट नीचे तक पाया जाता है। भूमिगत तने पर गाँठें होती हैं। अनुकूल समय में इन्हीं गाँठों से नई जड़ें तथा वर्धन कलियाँ निकलती हैं, जो बाद में मिट्टी की सतह से ऊपर निकल आती हैं और नये पौधों का रूप धारण कर लेती हैं।
(५) पत्रप्रकलिका (bulbils) द्वारा - यह एक प्रकार की विशिष्ट कली हैं, जो भिन्न भिन्न पौधों के भिन्न भिन्न भागों पर उगती है, उदाहरण के लिपे ग्लोबा बल्बिफेरा (Globba bulbifera) तथा ऐलियम सेटाइवम (Allium sativum)। पुष्पगुच्छ के, या पुष्पक्रम (inflorescence) में नीचे के फूल एक बहुकोशिकीय रचना के रूप में परिणत हो जाते हैं, जिनको पत्रप्रकलिका कहते हैं। ये जमीन पर गिरकर पुन: पौधे को जन्म देते हैं। इस प्रकार की रचनाएँ अन्य अनेक पौधों में पाई जाती हैं।
कृत्रिम विधियों द्वारा - आज का मानव वैज्ञानिक युग में रह रहा है। वह वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करके अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहता है। अत: आजकल कृत्रिम विधियों द्वारा कम समय में अधिक गुणों से युक्त पौधे उगाए जाने के प्रयत्न हो रहे हैं। पादप प्रवर्धन कृत्रिम विधियों द्वारा निम्न प्रकार से होता है :
आजकल इस विधि का उपयोग किसान गन्ने की फसल उगाने में भी कर रहे हैं। गन्ने के तने पर गाँठें होती हैं, जिनपर आँखें होती हैं। गन्ने के टुकड़े १ से फुट के काटकर, जमीन में ९ इंच मिट्टी के नीचे दबा देते हैं। गाँठों से जड़ें तथा कलियाँ निकलती हैं, जो बाद में नए पौधे में बदल जाती है।
रोपण (Grafting) - यह विधि आम, कटहल तथा आंवला इत्यादि के पौधों के लिये उपयुक्त है। इस विधि में पहले बीज के गमले में बोकर पौधा तैयार करते हैं जब यह से २ वर्ष तक का हो जाता है, तब इसके तने की छाल का डेढ़ इंच तक छीलकर और इसी भाँति इसी जाति के दूसरे बड़े वृक्ष की इतनी ही पतली शाखा को छीलकर, दोनों को सटाकर भले प्रकार बाँध देते हैं। कुछ माह बाद दोनों शाखाएँ आपस में मिलकर एक शाखा का रूप धारण कर लेती है। इसके बाद जोड़ के ऊपर, गमले में लगे पौधे की शाखा को काट देते हैं तथा जोड़ के नीचे मूल वृक्ष की शाखा के मूल वृक्ष से अलग कर देते हैं। इसके बाद गमले से निकालकर पौधे को पौधक्षेत्र में लगा देते हैं। इस विधि में दोनों पौधों के गुणों का आदान प्रदान होता है, जिसके फलस्वरूप नए गुणों से युक्त नया पौधा पैदा होता है, जो अधिक उत्तम फल देता है। भारत में यह विधि बहुत प्रचलित है और अधिक से अधिक मात्रा में प्रयोग में आती है।
(राधेश्याम अंबष्ट)