पांचाल (पंचाल) भारत का एक प्राच् ाीन जनपद और उसके निवासी। यह प्रदेश प्राचीन युग में वर्तमान उत्तर प्रदेश के बरेली, बदायूँ, फर्रुखाबाद तथा रुहेलखंड के निकटवर्ती जिलों के अतिरिक्त सारे निचले दोआब तक फैला हुआ था; इसकी- सीमाओं में कुरु, शूरसन, यकृल्लोमस तथा कोसल के राज्य और वनाच्छादित हिमालय की उपत्यकाएँ थीं।

पांचाल प्रदेश की स्थापना में वैदिक जनसमुदायों ने योग दिया था; और इनमें संभवत: क्रिवि प्रमुख थे। ऋग्वेद में क्रिवि जन का तो उल्लेख है पर पांचाल का नहीं। इससे यह स्पष्ट है कि पांचाल का पृचक् जनपद के रूप में अस्तित्व ऋग्वेदिक काल में नहीं था। पौराणिक परंपराओं के अनुसार इस क्षेत्र के राजा भृम्यश्य या हर्यश्व के पाँच कुमारों में राज्य के बँट जाने के कारण इसकी संज्ञा पांचाल हुई परंतु विभिन्न पुराणों में इस पाँच राजपुत्रों के नामों में पूर्णरूपेण सम्य नहीं है। इस संबंध में विष्णु पुराण में लिखा हैं : 'पंचानामेव तेषा विषयाणां रक्षणायालमेते यत्पुत्रा इति पित्राभिहिता: पांचाल:' (वि.पु. अंश ४.१९.५९), अर्थात् पाँचों राज्यों की रक्षा करने में समर्थ होने के कारण वे राजकुमार पांचाल या पंचाल कहलाए।

उत्तर वैदिक काल तक पांचाल एक प्रमुख जनपदीय राज्य बन चुका था, और यजुर्वेद में 'कांपीलवासिनी' शब्द का प्रयोग पंचाल की राजधानी कांपील या कांपिल्य (कंपिला, जि.फर्रुखाबाद) का स्पष्ट परिचय देता है (वैदि इंडेक्स १, पृ. १४९)। शतपथ ब्राह्मण (१३- ५.४.७) परिचक्रा (परिवक्रा) नाम से दूसरे पांचाल नगर का भी उल्लेख है। वैदिक वाङ्मय (वै.इं. १, पृ. १८७) में प्रयुक्त 'त्रयनीक' शब्द पांचाल के तीन खंडों का बोध कराता है; और संहितोपनिषद् ब्राह्मण (वै.इं. १, पृ. ४६९) में पूर्वी (प्राच्य) का वर्णन है।

अधिकांशत: पांचाल का उल्लेख कुरु पांचाल के सम्मिलित रूप में प्राप्त होता है। किंतु ऐतरेय ब्राह्मण (८.१४) पांचालों को पुरुओं के साथ माध्यमा दिक् (मध्यदेश) के निवासियों में रखता है। महाभारत (८.११.३१.७५९) में इन्हें भरतवंश की एक शाखा माना गया है।

उत्तर वैदिक काल में पांचाल राज्य शक्तिशाली और समृद्ध था, और यहाँ के राजा ऐंद्रमहाभिषेक, राजसूय एवं अश्वमेघ आदि अनुष्ठानों के लिए प्रसिद्ध थे। उपनिषदों में वर्णित ब्रह्मजान का महान् उन्नायक, तत्वविद् सजा प्रवाहण जैवलि पांचाल का ही स्वामी था। इसके साथ उद्दालक आरुणि और श्वेतकेतु आरुणीय जिज्ञासात्मक प्रश्न-प्रतिप्रश्न बृहदारण्यक (६.१.१) तथा छांदाग्य (५.३.१) उपनिषदों में पाए जाते हैं। उस युग के प्रमुख उद्गीथाचार्य थे : पांचाल के शीलक शालावत्य, चैकितायन वालभ्य तथा स्वयं प्रवाहण जैवलि। ऐतरेय ब्राह्मण (८.२३) एक दूसरे धर्मात्मा तथा बली पांचाल शासक दुर्मुख का उल्लेख करता है। कुंभंकार जातक के अनुसार इसने ज्ञानप्राप्ति के निमित्त अपना राजपद त्याग दिया था।

ईसा पूर्व छठीं शताब्दी तक पांचाल की गणना तत्कालीन भारत के प्रमुख १६ राज्यों (षोडश महाजनपदों) में होने लगी थी और गंगा नदी से विभाजित इसके दो खंड उत्तर एवं दक्षिण पांचाल कहलाते थे। उत्तरी भाग का शासनकेंद्र अहिच्छात्रा (रामनगर, जिला बरेली) तथा दक्षिणी भाग का कांपील या कांपिल्य नगर था। डॉ. विमलचरण लाहा मेम्वॉयर्स ऑव दि आर्क्योलॉजिकल सर्वे, नं. ६७- पचालज़ ऐंड देअर कैपिटल अहिच्छत्र, (पृ. ३) अहिच्छत्रा को ही वैदिक युग का परिचक्रा मानते हैं (देखिए, अहिच्छत्र, हिं. वि.को., खंड १)। इस जनपद के विभाजित होने का कारण महाभारत की कथा के अनुसार कुरू राजपुत्रों द्वारा पांचाल नरेश द्रुपद की पराजय थी, जिसके फलस्वरूप उन्होंने अपने गुरु द्रोण को इसका उत्तरी क्षेत्र अर्पित कर दिया था। किंतु दक्षिणी भाग द्रुपद के ही अधिकार में रहा।

जैन ग्रंथ विविध कल्पतीर्थ में हरिषेण तथा ब्रह्मदत्त नामक पांचाल सम्राटों की चर्च मिलती है। राजा ब्रह्मदत्त का उल्लेख रामायण ओर महाउम्मग जातक में भी है।

पालि साहित्य से अनुमान होता है कि बुद्ध के जीवनकाल में यह संपन्न और सुसंस्कृत जनपद था। भगवान बुद्ध स्वयं एक से अधिक बार यहाँ आए थे। उस युग में अहिच्छत्र तथा कांपिल्य के अतिरिक्त पांचाल स्थित महत्वपूर्ण नगर थे : आलवी, सोरेय्य (सोरों, जिला एटा), वेरंजा (संभवत: वर्तमान अतरंजी खेड़ा, जिला एटा), संकाश्य (संकिसा, जिला फर्रुखाबाद) तथा कान्यकुब्ज (कन्नौज)। इनमें से अधिकांश की प्राचीनता पुरातात्विक शोधों से सिद्ध हो गई है। अहिच्छत्र और अतरंजी खेड़ा के हाल के उत्खनन से मालूम हुआ कि प्राचीन कुरु और पांचाल क्षेत्र में विचारणीय सांस्कृतिक साम्य था। हस्तिनापुर (जिला मेरठ) की तरह इन दोनों स्थानों के सबसे निचले स्तरों से गेरुए रंग के कुभंखंड (ओकर कलई वेयर) मिले हैं। हस्तिनापुर में ब्रजवासीलाल ने इनकी तिथि ई.पू. १२०० से पहले मानी है (एंशेंट इंडिया, १०-११, पृ. १२) यह कुंभकला शायद ताँबे का प्रयोग करनेवाले लोगों से संबधित थी। किंतु अहिच्छत्रा और अतरंजी खेड़ा की महत्वपूर्ण कुंभकला लौह युग की हैं इसे पुराविदों ने चित्रित स्लेटी कुंभकला लोह युग की हैं। इसे पुराविदों ने चित्रित स्लेटी कुंभकला या पेंटेड ग्रे वेयर की संज्ञा दी है। लाल इस प्रकार के बर्तनों का संभावित संबंध आर्यों से मानते हैं (एंशेंट इंडिया, १०-११, पृ. १५१)। और यह असंभव नहीं कि वेरंजा, कान्यकुब्ज, कांपिल्य तथा अहिच्छत्रा से प्राप्त चित्रित स्लेटी कुंभखंडों का कोई नाता वैदिक पांचालों से रहा हो।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार पांचाल का शासन एक संघ द्वारा किया जाता था और संभवत: इसका उच्छेद ई.पू. चौथी शती में महापद्मनंद ने किया। मौर्य साम्राज्य के शिथिल होने तक पांचाल मगध राज्य के अंतर्गत रहा। किंतु ई.पू. तीसरी शती के अंत में पांचाल का स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व फिर स्थापित हो गया था, यह प्रमाणित है यहाँ के जानपदीय सिक्कों तथा पभोसा (कौशांबी) से प्राप्त दो अभिलेखों से। इन लेखों में अधिछत्रा (अहिच्छत्रा) के चार राजा शौनकायन, वंगपाल, भागवत तथा आषाढ़सेन के नाम हैं। पांचाल सिक्कों की विशेषता यह है कि राजा के नाम के साथ उनके पुरोभाग में तीन जानपदीय (पांचाल) चिन्ह मिलते हैं, और पृष्ठभाग में शासक के व्यक्तिगत नाम से संबद्ध देवता या दूसरे प्रकार के लांछन पाए जाते हैं। इन पांचाल नरेशों के नामांत पाल, गुप्त, घोष, सेन, मित्र और नंदि शब्दों में हैं, किंतु इनकी वंशबोधकता पर अभी निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। प्रथम शती ईसवी के अंतिम चरण में पांचाल कुषाण साम्राज्य का कुछ काल तक अंग बना। परवर्ती पांचाल नृपों में अंतिम शायद अच्यु या अच्युत था, जिसे समुद्रगुप्त (३२०-७५ ई.) ने पराजित किया।

धार्मिक दृष्टि से प्राचीन पांचाल की महत्ता यहाँ के ब्राह्मण (शूकर क्षेत्र), बौद्ध (संकाश्य) तीर्थ और जैन (अहिच्छत्रा और कांपिल्य) स्थलों के कारण थी। मध्ययुगीन महाकवि राजशेखर ने मधुर काव्यरचना और नाटकों में नेपथ्य विधि के प्रयोग के लिए पांचाल का उल्लेख किया है।

(मुनीशचंद्र जोशी)